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Monday, December 28, 2015

भारत में मुसलमान होने का दर्द शाहरूख खान, आमिर खान और असहिष्णुता पर बहस -राम पुनियानी




28 दिसंबर 2015

भारत में मुसलमान होने का दर्द

शाहरूख खान, आमिर खान और असहिष्णुता पर बहस

-राम पुनियानी



शाहरूख खान की फिल्म ''दिलवाले'' की रिलीज़ (दिसंबर 2015) के अवसर पर शिवसेना व अन्य हिंदुत्व संगठनों ने देश भर के सिनेमाघरों पर प्रदर्शन किए। उनका कहना था कि वे देश में बढ़ती असहिष्णुता

संबंधी शाहरूख खान की टिप्पणी का विरोध कर रहे थे। कुछ हफ्तों पहले, अपनी 50वीं वर्षगांठ पर एक कार्यक्रम में शाहरूख खान ने कहा था कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है और किसी भी देशभक्त के लिए धर्मनिरपेक्ष न होने से बड़ा अपराध कुछ नहीं हो सकता। उनका यह कहना भर था कि पूरा हिंदुत्व कुनबा उन पर टूट पड़ा। उन्हें राष्ट्रविरोधी और देशद्रोही करार दिया गया और यह भी कहा गया कि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। भाजपा के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि शाहरूख रहते भारत में हैं परंतु उनकी आत्मा पाकिस्तान में बसती है। इस बवाल के बाद, शाहरूख खान ने एक बयान जारी कर कहा कि ''अगर किसी को मेरी टिप्पणी से ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमा चाहता हूं''। उन्होंने यह भी कहा कि वे ऐसा इसलिए नहीं कह रहे हैं क्योंकि उनकी फिल्म रिलीज होने वाली है बल्कि वे सच्चे दिल से क्षमाप्रार्थी हैं। इसके बाद, कैलाश विजयवर्गीय ने ट्वीट किया कि राष्ट्रवादियों ने ''नालायकों'' को सबक सिखा दिया है।

यह पहली बार नहीं है कि शाहरूख खान पर इस तरह के बेहूदा आरोप लगाए गए हों और उन्हें राष्ट्रविरोधी करार दिया गया हो। सन 2010 में जब उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडि़यों को आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट में खेलने के लिए भारत आने की अनुमति देने की वकालत की थी, तब भी शिवसेना ने काफी हल्ला मचाया था और मुंबई में उनकी फिल्म ''माय नेम इज़ खान'' के पोस्टर फाड़े और जलाए थे। शाहरूख, वैश्विक स्तर पर इस्लाम के प्रति व्याप्त घृणा के वातावरण के भी शिकार हुए हैं और अमरीका में दो बार उनकी सघन तलाशी ली गई और हवाईअड्डों पर उनसे लंबी पूछताछ हुई। कुछ इसी तरह के अनुभवों से आमिर खान और दिलीप कुमार को भी गुज़रना पड़ा। कुछ समय पूर्व, आमिर खान ने रामनाथ गोयनका पत्रकारिता पुरस्कार कार्यक्रम में अपनी व्यथा को स्वर देते हुए कहा था कि उनकी पत्नी किरण राव असुरक्षित महसूस करती हैं, विशेषकर उनके पुत्र को लेकर। इसके जवाब में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने कहा कि आमिर खान पाकिस्तान के हाफिज सईद की तरह बात कर रहे हैं और बेहतर यही होगा कि वे पाकिस्तान चले जाएं।

आमिर खान ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि उनके मन में भारत छोड़ने का विचार कभी नहीं आया और वे यहीं रहेंगे। उन्होंने रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ''जहां कि मन निर्भीक हो और सिर ऊँचा रहे...'' को भी उद्धृत किया। आमिर खान को संघ परिवार के विभिन्न प्यादों ने अलग-अलग समय पर देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी बताया और चूंकि ऐसे बेसिरपैर के आरोप लगाने वालों को संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व ने आड़े हाथों नहीं लिया, इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि वे भी इन टिप्पणियों से सहमत थे। विहिप के एक नेता ने टीवी पर परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा कि जब शाहरूख खान जैसा व्यक्ति ऐसी बातें करता है, तो पूरे समुदाय पर संदेह की छाया पड़ जाती है। इससे यह स्पष्ट है कि विहिप की दृष्टि में संपूर्ण मुस्लिम समुदाय की देश के प्रति वफादारी संदेह के घेरे में है।

पेशावर में जन्मे भारतीय फिल्म जगत के दैदिप्यमान सितारे दिलीप कुमार को भी इसी तरह की अपमानजनक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा था। सन 1998 में जब उन्होंने दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' का समर्थन किया तब शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने चड्डियां पहनकर उनके घर के सामने प्रदर्शन किया था। जब उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया तब भी इसका जबरदस्त विरोध हुआ और यह मांग की गई कि उन्हें इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। वे पाकिस्तान गए और उन्होंने इस सम्मान को स्वीकार किया। उस समय भी हिंदू राष्ट्रवादियों ने उन्हें देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी बताया था। इस कटु हमले से दिलीप कुमार इतने आहत हुए कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलकर उन्हें अपनी व्यथा से परिचित करवाया। इसके बाद, वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि दिलीप कुमार की राष्ट्रभक्ति पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इस मामले में वाजपेयी, संघ परिवार के एकमात्र ऐसे नेता हैं जिसने खुलकर इस तरह की टिप्पणियों को अनुचित बताया। अन्य सभी नेता इस मामले में चुप्पी साधे रहते हैं। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भी पाकिस्तान सरकार ने यह सम्मान दिया था।

देश में असहिष्णुता पर जो बहस चल रही है, उसमें इस तरह की बहुत-सी बातें कही जा रही हैं जो आधारहीन और अशिष्ट हैं। साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति, योगी आदित्यनाथ, मनोहरलाल खट्टर, कैलाश विजयवर्गीय व संगीत सोम जैसे हिंदुत्ववादी नेताओं के बयान, हमारे समाज की जड़ों पर प्रहार हैं। प्रधानमंत्री की चुप्पी इस बात की द्योतक है कि भाजपा-आरएसएस को इन बयानों से कोई परहेज़ नहीं है। दाभोलकर, पंसारे व कलबुर्गी की हत्या और अख़लाक को पीट-पीटकर मार डाले जाने की घटनाओं ने हालात की गंभीरता को और बढ़ाया। इसके बाद, पूर्व एडमिरल रामदास व अनेक शिक्षाविदों, इतिहासविदों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी चिंता जाहिर की और उनमें से कई ने उन्हें मिले पुरस्कार लौटा दिए। पुरस्कार लौटाने का निर्णय, संबंधित व्यक्तियों ने स्वयं लिया था और इसके पीछे कोई योजना नहीं थी। यह सिलसिला बिहार के विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा तक जारी रहा। बिहार के चुनाव  नतीजों ने देश में एक नई आशा का संचार किया और पुरस्कार लौटाने का सिलसिला थम गया। बिहार चुनाव नतीजों के बाद केवल जयंत महापात्र ने अपना पुरस्कार लौटाया।

यह महत्वपूर्ण है कि जब पुरस्कार लौटाने का सिलसिला चल रहा था, उसी दौरान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से लेकर उद्योगपति नारायणमूर्ति व किरण मजूमदार शॉ व भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन सहित कई हस्तियों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता व्यक्त की। असहिष्णुता का मुद्दा उठाने पर केवल मुसलमान हस्तियों को निशाना बनाया गया और उनकी देशभक्ति पर संदेह व्यक्त किया गया। क्या कारण है कि किसी ने भी राष्ट्रपति की आलोचना करने की हिम्मत नहीं दिखाई? जिन गैर-मुसलमानों पर इस सिलसिले में हमले किए गए, उनके पीछे राजनीतिक कारण थे। आमिर खान ने बिलकुल ठीक कहा कि उनके वक्तव्य पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हुई, उससे संदेह के परे यह सिद्ध हो गया कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। एक ही तरह के बयान देने वाले मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के साथ अलग-अलग व्यवहार से संघ परिवार की मानसिकता ज़ाहिर होती है।

हम सबको याद है कि मक्का मस्जि़द, मालेगांव, अजमेर व समझौता एक्सप्रेस में बम धमाकों के बाद किस तरह केवल संदेह के आधार पर बड़ी संख्या में मुसलमान युवकों को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया था। बाद में, हेमंत करकरे द्वारा की गई सूक्ष्म जांच से यह सिद्ध हुआ कि इन धमाकों के पीछे हिंदुत्व समूहों का हाथ था और इनमें साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित, मेजर उपाध्याय व स्वामी असीमानंद की भूमिका थी। इसके बाद, मुसलमान युवकों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों पर कुछ रोक लगी। मुझे याद है कि उसी दौर में, सन 2009 में, मैंने 'अनहद' (एक्ट नाउ फॉर हार्मोनी एंड डेमोक्रेसी) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया था। कार्यक्रम का विषय था, ''भारत में मुसलमान होने का क्या अर्थ है?''। कार्यक्रम में जानमाने मुस्लिम लेखकों और कार्यकर्ताओं ने अपने दिल का दर्द जिस तरह उड़ेला और यह कहा कि उन्हें ऐसा लगता है कि उनके साथ अलग व्यवहार किया जा रहा है और केवल मुसलमान होने के कारण उन पर हमले हो रहे हैं, उसे देख-सुनकर मुझे बहुत पीड़ा हुई। मेरे ये सभी मित्र उनके कार्यों और उनकी लेखनी के लिए जाने जाते हैं और उनके धर्म से इसका कोई लेनादेना नहीं है। नसीरूद्दीन शाह ने अभी हाल में ठीक यही कहा। उन्होंने कहा कि पहली बार उन्हें यह एहसास कराया जा रहा है कि वे मुसलमान हैं। जूलियो रिबेरो ने कहा, ''ईसाई बतौर मैं अपने आपको इस देश में अजनबी पा रहा हूं''।

धर्मनिरपेक्ष व बहुवादी मूल्य, भारतीय प्रजातंत्र की नींव हैं। दक्षिण एशिया के अन्य देशों, जहां प्रजातंत्र की जड़ें मज़बूत नहीं हैं, की तुलना में हमारा देश हमेशा से कहीं अधिक धर्मनिरपेक्ष, बहुवादी और प्रजातांत्रिक रहा है। अगर इन देशों से हमारी तुलना की जाने लगी है तो यह हमारे लिए शर्मनाक है। हम प्रगतिशील हैं, प्रतिगामी नहीं। हमारे देश में एकाधिकारवादी शासन नहीं है और ना ही हम धार्मिक कट्टरवाद में विश्वास रखते हैं। यह कहना कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति, पाकिस्तान या सऊदी अरब के मुसलमानों से बेहतर है, स्वयं को अपमानित करना है और उन हज़ारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की विरासत को नकारना है, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता की खातिर अपने जीवन तक को बलिदान कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि हमें इस पर विचार करना चाहिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। अगर हमें हमारे प्रजातांत्रिक-बहुवादी मूल्यों को जिंदा रखना है तो हमें धर्म के नाम पर की जा रही राजनीति से डट कर मुकाबला करना होगा। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

संपादक महोदय,                  

कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।

- एल. एस. हरदेनिया


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Palash Biswas



 Plenum: Pres Release


marxistindia
news from the cpi(m)
December 28, 2015

Press Statement

The second day of the CPI(M)'s Plenum on Organisation  began at the
Promode Dasgupta  Bhawan today morning at 11.00 a.m. with the introduction
of the "Draft Resolution on Organisation" by General Secretary Sitaram
Yechury.

The draft lays down the need "to strengthen and streamline the Party's
organisational capacities to meet the current challenges by unleashing
mightier people's struggles to develop the independent strength" of the
Party in conformity with the political-tactical line adopted at the 21st
Congress of the Party. The Congress held at Vishakapattanam in April this
year, had laid stress on forging the Left and Democratic Front.

The Draft Resolution underlined the imperative to vastly develop the
organisational capacities of the Party to enable it to accomplish these
revolutionary objectives and emerge as the political party of the vast
majority of the exploited classes in the objective situation of the world
capitalist crisis and intensified exploitation. Domestically, the CPI(M)
"has an alternative policy framework" which will enable the Indian people
"to realise their inherent potential and create a better India on that
basis". As also because, the CPI(M) is the only political party that
offers the Indian youth a vision of a better future…. which puts forward
alternative policies to marshal our country's resources to provide our
youth with quality education, good health and sustainable employment".

Sitaram Yechury underscored the fact that the CPI(M) is a "consistent
political force that advocates and struggles for the unity of our
multi-religious, multi-lingual, multi-cultural, multi-ethnic population
against all efforts at sharpening communal polarisation and thwarting the
RSS/BJP designs to impose their project of a rabidly intolerant fascistic
'Hindu Rashtra'".

Towards achieveing these tasks the Draft calls upon the Party to take up
social issues in a big way, while simultaneously taking up the issues of
economic exploitation and social oppression – "the two feet upon which
stands the advance of class struggles in India." Among the social issues
identified for taking up by the entire Party are the "championing the
struggle against gender oppression, discrimination against the dalits,
tribals, disabled and religious minorities".

The draft also outlines the various methods that need to be employed to
expand the influence of the Party and strengthening the Party organization
as its vision can only be materailised if the organisational capacities of
the Party are strengthened enormously.

After the introduction of the Draft Resolution, the discussions along with
the draft report began. In the morning session today three delegates
participated in the discussion – P. Rajeev from Kerala, Samik Lahiri from
West Bengal and Narayan Kar from Tripura.

The discussions on both these documents will continue till the evening of
December 30.


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मोदी के विवेक पर प्रत्याशा का बोझ -एच.एल.दुसाध


               मोदी के विवेक पर प्रत्याशा का बोझ  

                                      -एच.एल.दुसाध

   वैसे तो भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ.भीमराव आंबेडकर के जयंती की रौनक साल दर साल बढती ही जा रही है,पर यह वर्ष इस लिहाज से बहुत खास रहा.इस वर्ष उनकी 125 वीं जयंती होने के कारण तमाम राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने अपने-अपने स्तर पर एक दूसरे से बढ़कर भव्य आयोजन किया.इस सिलसिले को आगे बढाते हुए दलित उद्यमियों का संगठन डिक्की (दलित इन्डियन चेंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) 29 दिसंबर को दिल्ली में 'एससी/एसटी उद्यमियों का भव्य राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित करने जा रही है.वैसे तो यह वर्ष डिक्की की स्थापना का दसवां वर्ष भी है,किन्तु विज्ञान भवन जैसे प्रतिष्ठित सभागार में आयोजन के पीछे निश्चय ही प्रमुख प्रेरणा आंबेडकर की 125 वीं जयंती ही है.इसी से प्रेरित हो कर दस साल पुराने इस संगठन ने इस वर्ष से  राष्ट्रीय सम्मलेन की शुरुआत की है.

  काबिले गौर है कि डिक्की की पहचान मुख्यतः मेलों के आयोजक के रूप में रही है जिसमें दलित उद्यमियों द्वारा तैयार उत्पादों की पर्दर्शनी लगायी जाती है.इस दिशा में इसकी शुरुआत 4-5 जून, 2010 को पुणे में आयोजित दलित एक्सपो-2010 से हुई,जिसका उदघाटन टाटा संस के निदेशक डॉ.जेजे इरानी ने किया तथा जिसमें 150 से अधिक दलित उद्यमियों ने अपने प्रोडक्ट की प्रदर्शनी लगाया था.चूंकि वह मेला दलितों द्वारा लगाया गया था इसलिए कयास लगाया गया था कि उसमें  वैसे उत्पादों की भरमार होगी जो दलितों के जातिगत पेशों से जुड़े होते हैं.लेकिन वहां चमड़े से जुड़े उत्पादों के सिर्फ दो ही स्टाल थे,भरमार वैसे उत्पादों की थी जिनसे दलितों के जुड़ने की सहज कल्पना ही नहीं की जा सकती.वहां के स्टाल गवाही दे रहे थे कि वे सीसीटीवी,मोबाइल जैमर,मैजिक बॉक्स,आर्गेनिक चाकलेट और टॉफी जैसी अत्याधुनिक वस्तुएं बना रहे हैं;बीपीओ चला रहे हैं तथा उसकी विदेशों में शाखाएं खोलने का मंसूबा पाल रहे हैं.वे चीनी और टेक्सटाइल मिलों के मालिक बन रहे तथा कंस्ट्रक्सन व्यवसाय में अपनी पहचान स्थापित कर रहे हैं.कहने का मतलब है कि पुणे के दलित एक्सपो ने इस बात पर मोहर लगा दिया था कि दलित भी दूसरों की तरह,किसी भी तरह का उत्पाद तैयार कर सकते हैं.बाद में 2011 में मुंबई के बांद्रा-कुर्ला काम्लेक्स में आयोजित दूसरे मेले ने जहां पुणे की भव्यता को म्लान किया,वहीँ दलित उद्यमिता की प्रतिष्ठा में और इजाफा कर दिया.उसके बाद डिक्की की धाक इस कदर जम गयी कि पुणे से शुरु हुए इस संगठन की शाखाएं देखते ही देखते देश के तमाम प्रमुख शहरों में फ़ैल गईं तथा इसके सदस्यों की संख्या हजार को छूली.लोगों ने दलित राजनीति और दलित साहित्य का उभार देखा था किन्त दलित उद्यमिता का उभार उनकी सोच से परे था.किन्तु डिक्की ने बता दिया है कि दलित उद्यमिता के क्षेत्र में भी दस्तक दे दिए हैं.आज डिक्की से जुड़े कई उद्यमी 21 वीं सदी के दलितों के रोल मॉडल हैं.एससी/एसटी उद्यमियों के राष्ट्रीय सम्मलेन का अन्यतम एजेंडा आर्थिक जगत के दलित नायकों को युवा दलितों से रूबरू कराना है.इसके लिए दिल्ली और उसके पार्श्ववर्ती इलाकों के इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कालेजों के अंतिम वर्ष के एससी/एसटी छात्रों को विशेष तौर से आमंत्रित किया गया है ताकि वे देश –विदेश से आये एक हजार दलित उद्यमियों से रूबरू होकर उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ बनने की प्रेरणा ले सकें.लेकिन डिक्की के इस आयोजन के मुख्य आकर्षण की बात की जाय तो निश्चित रूप से देश की निगाहें प्रधानमंत्री मोदी पर होंगी जो इसके मुख्य अतिथि होंगे.और ऐसा होने का एकमेव व प्रधान कारण विगत एक वर्ष में मोदी और उनकी पार्टी के पितृ संगठन संगठन आरएसएस द्वारा आंबेडकर के प्रति प्रदर्शित की गयी श्रद्धा है.   

 आंबेडकर जयंती के 125 वें वर्ष में कांग्रेस सहित तमाम दलों ने आंबेडकर की विरासत से खुद को जोड़ने का प्रयास किया ,पर इनमें सबसे आगे निकल गयी भाजपा.कोई सोच नहीं सकता था कि 'रिडल्स इन हिन्दुइज्म' के लेखक और वर्षो पहले 'हिन्दू के रूप में न मरने' की घोषणा करने वाले डॉ.आंबेडकर को भाजपा के घोर हिंदुत्ववादी पितृ संगठन की ओर से 'भारतीय पुनरुत्थान के पांचवे चरण के अगुआ' के रूप में आदरांजलि दी जा सकती है,लेकिन मोदी-राज में ऐसा हुआ.इससे आगे बढ़कर उनके साथ अपने रिश्ते जोड़ने के लिए भाजपा ने और भी बहुत कुछ किया.मोदी राज में ही इस वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह में दादर स्थित इंदू मिल को आंबेडकर स्मारक बनाने की दलितों की वर्षो पुरानी मांग को स्वीकृति मिली.बात यही तक सिमित नहीं रही,इंदू मिल में स्मारक बनाने के लिए 425 करोड़ का फंड भी मोदी सरकार ने मुहैया करा दिया.लन्दन के जिस तीन मंजिला मकान में बाबासाहेब आंबेडकर ने दो साल रहकर शिक्षा ग्रहण की थी,उसे इसी वर्ष चार मिलियन पाउंड में ख़रीदने का बड़ा काम मोदी राज में ही हुआ.इनके अतिरिक्त भी आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष में भाजपा ने ढेरों ऐसे काम किये जिसके समक्ष आंबेडकर-प्रेम की प्रतियोगिता में बाकी दल बौने बन गए.इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था 26 नवम्बर को 'संविधान दिवस' घोषित करना एवं इसमें निहित बातों को जन-जन तक पहुचाने की प्रधानमंत्री की अपील.इसके लिए उन्होंने जिस तरह संसद के शीतकालीन सत्र के शुरुआती दो दिन संविधान पर चर्चा के बहाने डॉ.आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने का उपक्रम चलाया,उससे 125 वीं जयंती और यादगार बन गयी. इस अवसर prसंविधान निर्माण में डॉ.आंबेडकर की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्होंने जिस तरह यह कहा था-' अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता,तो कोई बताये कि मेरे दलित,पीड़ित,शोषित समाज की हालत क्या होती?परमात्मा ने उसे वह सब दिया है ,जो  मुझे और आपको दिया है,लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है.उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है-'उससे मोदी सरकार के प्रति दलितों की प्रत्याशा में कई गुना इजाफा हो गया.इस प्रत्याशा के कारण ही 29 दिसंबर को पुरे देश के दलितों की निगाहें दिल्ली के विज्ञान –भवन की और होंगी. मोदी भी इस बात से अनजान नहीं होंगे,इसलिए जब वे २९ दिसंबर की सुबह १०.३० पर विज्ञानं भवन में प्रवेश करेंगे ,निश्चय ही उनके विवेक पर इस प्रत्याशा का बोझ होगा.बहरहाल मोदी अगर सचमुच दलितों की दुर्दशा को दूर करना चाहते हैं तो उन्हें निम्न बातों पर गंभीरता से विचार करना होगा.

   सबसे पहले तो यह ध्यान रखना होगा संविधान प्रारूप समिति में जाने के पीछे डॉ.आंबेडकर का प्रधान अभीष्ट दलित वर्ग का कल्याण करना था,जिसका खुलासा उन्होंने 25 नवम्बर,1949 को संसद में दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में भी किया था.इस बात की ओर राष्ट्र का ध्यान नए सिरे से आकर्षित करते हुए विद्वान् सांसद शरद यादव ने गत 27 नवम्बर को संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान कहा था-'हिन्दुस्तान के संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर को जो जिम्मा दिया गया था ,वह इसलिए दिया गया था कि देश के सबसे जयादा छोटे और सब से ज्यादा निचले तबके,छोटी जाति व वीकर सेक्शन के लोगों की जिंदगी कैसे ठीक होगी,कैसी संवरेगी,उन्हें बनाने का यही मकसद था.' लेकिन बाबा साहेब इस मकसद में पूरी तरह सफल इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि संविधान निर्माण के समय वे दुनिया के सबसे लाचार स्टेट्समैन थे.पाकिस्तान विभाजन के बाद वह संविधान सभा में पहुंचे थे तो उस दल की अनुकम्पा से जिसका लक्ष्य परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न तबके का हित-पोषण था.उनकी लाचारी की ओर संकेत करते हुए पंजाबराव देशमुख ने कहा था कि यदि आंबेडकर को संविधान लिखने की छूट मिली होती तो शायद यह संविधान अलग तरह का बनता.मनचाहा संविधान लिखने की छूट न होने के कारण ही उन्हें 'राज्य और अल्पसंख्यक'पुस्तिका की रचना करनी पड़ी थी.अगर मनचाहा संविधान लिखने की छूट होती तो अक्तूबर 1942 में गोपनीय ज्ञापन के जरिये ब्रितानी सरकार के समक्ष ठेकों में आरक्षण की मांग उठाने वाले आंबेडकर क्या संविधान में  ठेकों सहित सप्लाई,डीलरशिप इत्यादि अन्यान्य आर्थिक गतिविधियों में दलितों व अन्य वीकर सेक्शन के लिए हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं कर देते?

  काबिले गौर है कि मानव सभ्यता के इतिहास में जिन तबकों को शोषण,उत्पीडन और वंचना का शिकार बनना पड़ा,वह इसलिए हुआ कि जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर रही उन्होंने उनको शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक-शैक्षिक इत्यादि) में वाजिब हिस्सेदारी नहीं दिया.जहां तक आंबेडकर के लोगों का सवाल है उन्हें हजारों सालों से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रखा गया.स्मरण रहे डॉ.आंबेडकर के शब्दों में अस्पृश्यता का दूसरा नाम बहिष्कार है.इस देश के शासकों ने जिस निर्ममता से आंबेडकर के लोगों को शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत कर अशक्त व असहाय बनाया,मानव जाति के इतिहास में उसकी कोई मिसाल ही नहीं है.बहरहाल अपनी सीमाओं में रहकर जितना मुमकिन था,उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14,15(4),16(4),17,24,25(2),29(1),38(1),38(2),39,46,164(1),244,257(1),320(4),330,332,334,335,338,340,341,342,350,371इत्यादि प्रावधानों के जरिये मोदी के दलित ,पीड़ित,शोषित समाज चेहरा बदलने का सबल प्रयास किया.लेकिन आजाद भारत के शासक आंबेडकर के लोगों के प्रति प्रायः असंवेदनशील रहे इसलिए वे इन प्रावधानों को भी इमानदारी से लागू नहीं किये .फलतः आज भी दलित शोषित अपनी दुर्दशा से निजात नहीं पा सके हैं.काबिले गौर है कि आंबेडकरी आरक्षण से प्रेरणा लेकर अमेरिका ने अपने देश के कालों व वंचित अन्य नस्लीय समूहों को सरकारी नौकरियों के साथ-साथ सप्लाई,डीलरशिप,ठेंको,फिल्म-टीवी इत्यादि समस्त क्षेत्रों में ही अवसर सुलभ कराया.इससे अमेरिकी वंचितों के जीवन में सुखद बदलाव आया. प्रधानमंत्री यदि सचमुच अवसरों से वंचित दलित शोषितों के जीवन में बदलाव लाना चाहते हैं,जोकि संविधान निर्माता की दिली चाह थी,तो मौजूदा आरक्षण के प्रावधानों को कठोरता से लागू करवाने के साथ ही उन्हें सप्लाई,डीलरशिप,ठेंको ,फिल्म-टीवी इत्यादि में पर्याप्त अवसर दिलाने का मन बनायें और उसकी घोषणा डिक्की के मंच से करें.साल के विदा लेते-लेते आंबेडकर की 125  वीं जयंती वर्ष में डॉ.आंबेडकर के लोगों के मुकम्मल-अस्पृश्यतामोचन का डिक्की से बेहतर मंच और कहां मिल सकता है!                                        

     (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं )

      

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Palash Biswas


Last day,around 10.30 I saw a grand procession emerging out of Howrah terminus and it was the red sea all the way to the Kolkata Brigade Maidan.It was soothing to see Blue flags with the red ones on Bengali Newstime Channel.I am not sure whether I was seeing it with open eyes or it was just a replication of Jia Bheem Comrade of Anand Patwardhan in my wild dream.

But I missed the blue flags and I could not trace them anywhere else!


Meanwhile,RSS has not acted to uproot the rot within till this date nor the Prime minister has spoken anything to clarify his position against the wild accusation!


Mind you!BJP on December 23, 2015, suspended its MP Kirti Azad, who has been leading a campaign against Finance Minister Arun Jaitley on alleged corruption in DDCA, charging him with anti-party activities and accusing him of "colluding" with Congress and AAP .Suspended BJP parliamentarian Kirti Azad on Monday once again refused to directly name finance minister Arun Jaitley in the Delhi and District Cricket Association (DDCA) controversy even as he remained defiant and made more charges!


NDTV reports:Kirti Azad, suspended by the Bharatiya Janata Party (BJP) for his attack on Finance Minister Arun Jaitley, addressed a press conference. Below are the highlights:

  • People often comment on what is happening

  • To say that I was speaking on behalf of Congress representative is to tarnish the name and the seat of the speaker

  • No party chief has the right to speak out of turn

  • The SFIO report that we have been hearing about, it asked the DDCA multiple times for documents

  • And I took the initiative to investigate this matter with the zeal of an investigative agency as well

  • I want to tell the Spokespersons that if all accounts were in order then why did the Registrar of Companies file a case against them?

  • I would like to tell the CBI that I have already done all the investigation. There are efforts to stop the move to weed out corruption in Sports.

  • Companies with no experience got contracts in DDCA. If this is not a fraud, then what is?

  • I want all the people who are defaming me, to tell me the irregularities in the various deals that took place with the DDCA and Koshnik

  • Proxy litigation a serious charge, DDCA often pitting two entities against each other

  • I have not done anything against party line. I would tell BJP spokespersons to be careful while speaking in public.

  • Take me to the companies that I have named and show me their audited accounts.

  • It is not justified to defame me, please respond to the allegations that I have levied

  • I have staunchly worked for the BJP for years, a lot of people are jealous and it shows

  • Please don't bring Jaitley into this. It's his birthday today and this matter is about corruption not Jaitley.

  • Let the investigation take its course


Why the Criminal Pursuit of Saibaba and Arundhati Roy is Bad in Law

BY MARKANDEY KATJU

The Nagpur bench of the Bombay High Court has cancelled the bail application of Delhi University lecturer G.N. Saibaba and issued a contempt of court notice to the author, Arundhati Roy for writing an article in Outlook magazine criticising the charges against him.

In my view, the court is wrong on both counts.

The case against Saibaba is that he had links with Maoist extremists. However, in Sri Indra Das vs. State of Assam, 2011. the Supreme Court observed that mere membership of a banned organisation (i.e. banned under the Unlawful Activities Prevention Act or TADA or any other statute) will not incriminate a person. The court referred to several decisions of the United States Supreme Court in this connection, which it followed.

The President of India, Pranab Mukherjee, presents Saibaba with his doctoral degree at the 90th convocation of Delhi University on March 19, 2013 .

In Scales v United States (1961), the US Supreme Court made a distinction between an active and a passive member of an organisation, and held that the latter could not be charged of a crime. In that decision Justice Harlan observed:

"The clause (in the McCarran Act, 1950) does not make criminal all associations with an organisation which has been shown to engage in illegal advocacy. There must be clear proof that a defendant 'specifically intends to accomplish the aims of the organisation by resort to violence'. A person may be foolish, deluded, or perhaps merely optimistic, but he is not by this statute made a criminal."

In Noto v United States (1961), Justice Harlan observed:

"… The mere teaching of Communist theory, including the teaching of the moral propriety or even moral necessity for a resort to force and violence, is not the same as preparing a group for violent action and steeling it to such action. There must be some substantial direct or circumstantial evidence of a call to violence now or in the future which is both sufficiently strong and sufficiently pervasive to lend colour to the otherwise ambiguous theoretical material regarding Communist Party teaching."

Justice Hugo Black in a concurring judgment in the same case wrote:

"In 1799, the English Parliament passed a law outlawing certain named societies on the ground that they were engaged in 'a traitorous conspiracy' in conjunction with the persons from time to time exercising the powers of government in France.. One of the many strong arguments made by those who opposed the enactment of this law was stated by a member of that body, Mr. Tierney :

'The remedy proposed goes to the putting an end to all these societies together. I object to the system, of which this is only a branch; for the Right Hon. gentleman has told us he intends to propose laws from time to time upon this subject, as cases may arise to require them. I say these attempts lead to consequences of the most horrible kind. I see that government are acting thus: those whom they cannot prove to be guilty, they will punish for their suspicion. To support this system, we must have a swarm of spies and informers. They are the very pillars of such a system of government.'

In Communist Party v. Subversive Activities Control Board (1961), Justice Hugo Black observed:

"The first banning of an association because it advocates hated ideas – whether that association be called a political party or not – marks a fateful moment in the history of a free country. That moment seems to have arrived for this country. This whole Act, with its pains and penalties, embarks this country, for the first time, on the dangerous adventure of outlawing groups that preach doctrines nearly all Americans detest. When the practice of outlawing parties and various public groups begins, no one can say where it will end. In most countries such a practice once begun ends with a one party government."

In Joint Anti-Fascist Refugee Committee v. McGrath (1951), Justice Douglas in his concurring judgment observed: "In days of great tension when feelings run high, it is a temptation to take short cuts by borrowing from the totalitarian techniques of our opponents. But when we do, we set in motion a subversive influence of our own design that destroys us from within."

In Yates v. United States (1957), Justice Harlan observed:

"In failing to distinguish between advocacy of forcible overthrow as an abstract doctrine and advocacy of action to that end, the District Court appears to have been led astray by the holding in Dennis that advocacy of violent action to be taken at some future time was enough. The District Court apparently thought that Dennis obliterated the traditional dividing line between advocacy of abstract doctrine and advocacy of action."

In Brandenburg v. Ohio (1969), the US Supreme Court by a unanimous decision reversed its earlier decision in Whitney v. California (1927) and observed: "The Constitutional guarantees of free speech and free press do not permit a state to forbid or proscribe advocacy of the use of force or of law violation except where such advocacy is directed to inciting or producing imminent lawless action and is likely to incite or produce such action."

In Whitney, Justice Brandeis, one of the most celebrated judges of the US Supreme Court had, in a concurring judgment which really reads like a dissent, observed:

"Fear of serious injury cannot alone justify suppression of free speech and assembly. Men feared witches and burned women. It is the function of free speech to free men from the bondage of irrational fears. To justify suppression of free speech there must be reasonable ground to fear that serious evil will result if free speech is practiced. There must be reasonable ground to believe that the danger apprehended is imminent… ….. The wide difference between advocacy and incitement, between preparation and attempt, between assembling and conspiracy, must be borne in mind."

In the same judgment, Justice Brandeis went on to observe:

"Those who won our independence by revolution were not cowards. They did not fear political change. They did not exalt order at the cost of liberty. To courageous, self-reliant men, with confidence in the power of free and fearless reasoning applied through the processes of popular government, no danger flowing from speech can be deemed clear and present, unless the incidence of the evil apprehended is so imminent that it may befall before there is opportunity for full discussion. If there be time to expose through discussion the falsehood and fallacies, to avert the evil by the process of education, the remedy to be applied is more speech, not enforced silence."

In Gitlow v. New York (1925) Justice Holmes (with whom Justice Brandeis joined) observed:

…"If what I think the correct test is applied, it is manifest that there was no present danger of an attempt to overthrow the government by force on the part of the admittedly small minority who shared the defendant's views. It is said that this Manifesto was more than a theory, that it was an incitement. Every idea is an incitement. It offers itself for belief, and, if believed, it is acted on unless some other belief outweighs it, or some failure of energy stifles the movement at its birth. The only difference between the expression of an opinion and an incitement in the narrower sense is the speaker's enthusiasm for the result. Eloquence may set fire to reason. But whatever may be thought of the redundant discourse before us, it had no chance of starting a present conflagration. If, in the long run, the beliefs expressed in proletarian dictatorship are destined to be accepted by the dominant forces of the community, the only meaning of free speech is that they should be given their chance and have their way.

"If the publication of this document had been laid as an attempt to induce an uprising against government at once, and not at some indefinite time in the future, it would have presented a different question. The object would have been one with which the law might deal, subject to the doubt whether there was any danger that the publication could produce any result; or, in other words, whether it was not futile and too remote from possible consequences. But the indictment alleges the publication and nothing more."

In Terminiello v. Chicago (1949) Justice Douglas, speaking for the majority, observed:

"….A function of free speech under our system of government is to invite dispute. It may indeed best serve its high purpose when it induces a condition of unrest, creates dissatisfaction with conditions as they are, or even stirs people to anger. Speech is often provocative and challenging. It may strike at prejudices and preconceptions and have profound unsettling effects as it presses for acceptance of an idea. That is why freedom of speech, though not absolute,…is nevertheless protected against censorship or punishment, unless shown likely to produce a clear and present danger of a serious substantive evil that rises far above public inconvenience, annoyance or unrest….There is no room under our Constitution for a more restrictive view. For the alternative would lead to standardisation of ideas either by legislatures, courts, or dominant political or community groups."

In DeJonge v. Oregon (1937) Chief Justice Hughes  wrote that the state could not punish a person making a lawful speech simply because the speech was sponsored by a subversive organisation. In Abrams v. US  (1919) Justice Holmes in his dissenting judgment wrote:

"Persecution for the expression of opinions seems to me perfectly logical. If you have no doubt of your premises or your power and want a certain result with all your heart you naturally express your wishes in law and sweep away all opposition. To allow opposition by speech seems to indicate that you think the speech impotent, as when a man says that he has squared the circle, or that you do not care whole-heartedly for the result, or that you doubt either your power or your premises. But when men have realized that time has upset many fighting faiths, they may come to believe even more then they believe the very foundations of their own conduct that the ultimate good desired is better reached by free trade in ideas, — that the best test of truth is the power of the thought to get itself accepted in the competition of the market; and that truth is the only ground upon which their wishes safely can be carried out. That, at any rate, is the theory of our Constitution. It is an experiment, as all life is an experiment. Every year, if not every day, we have to wager our salvation upon some prophecy based upon imperfect knowledge. While that experiment is part of our system I think that we should be eternally vigilant against attempts to check the expression of opinions that we loathe and believe to be fraught with death, unless they so imminently threaten immediate interference with the lawful and pressing purposes of the law that an immediate check is required to save the country. I wholly disagree with the argument of the government that the 1st Amendment left the common law as to seditious libel in force. History seems to me against the notion."

Considering the above legal position, one fails to understand how a person who is 90% disabled, is permanently confined to a wheelchair, and was held in jail for 17 months in horrible conditions could be incriminated and charged as being an imminent threat to state security, and denied bail.

The case against Arundhati Roy

I have carefully perused the article of Arundhati Roy and I fail to see how it could be regarded as contempt of court in a democratic country and with a Constitution having freedom of speech as a guaranteed right vide Article 19(1)(a).

Arundhati Roy. Credit: Wikimedia Commons

The basic principle in a democracy is that the people are supreme. It follows that all authorities – whether judges, legislators, ministers, or bureaucrats are servants of the people. Once this concept of popular sovereignty is kept firmly in mind, it becomes obvious that the people of India are the masters and all authorities (including the courts) are their servants.  It would logically follow that in a democracy the people have the right to criticise judges. Why then should there be a Contempt of Courts Act, which to some extent prevents people from criticising judges or doing other things that are regarded as contempt of court?

In a democracy, the purpose of the contempt power can only be to enable the court to function. The power is not to prevent the master (the people) from criticising the servant (the judge) if the latter does not function properly or commits misconduct.

Article 19(1)(a) of the Constitution gives the right of freedom of speech and expression to all citizens. But Articles 129 and 215 give the power of contempt of court to the higher judiciary, and this power limits the freedom granted by Article 19(1)(a). How are these two provisions to be reconciled?

Once it is accepted that India is a democracy and that the people are supreme, reconciliation can only be effected by treating the right of the citizens to free speech and expression under Article 19(1)(a) to be primary, and the power of contempt to be subordinate. In other words, the people are free and have the right to criticise judges, but they should not go to the extent of making the functioning of the judiciary impossible or extremely difficult.

Hence, the true test to determine whether an act amounts to contempt of court or not is this: does it make the functioning of the judges impossible or extremely difficult? If it does not, then it does not amount to contempt of court even if it is harsh criticism

The view expressed above is, in fact, accepted now in England, the country from which India got its contempt law.

"Justice is not a cloistered virtue," said Lord Atkin. "It must suffer the scrutiny and outspoken comments of ordinary men."

As observed by Lord Salmon in AG vs. BBC (1981): "The description 'Contempt of Court' no doubt has a historical basis, but it is nonetheless misleading. Its object is not to protect the dignity of the courts but to protect the administration of justice."

In R vs. Commissioner of Police (1968) Lord Denning observed: "Let me say at once that we will never use this jurisdiction as a means to uphold our own dignity. That must rest on surer foundations. Nor will we use it to suppress those who speak against us. We do not fear criticism, nor do we resent it. For there is something far more important at stake. It is no less than freedom of speech itself."

Once a British newspaper ran a banner headline calling the majority judges of the House of Lords who decided the Spycatcher case (Attorney General vs. Guardian Newspaper (1987)) "YOU FOOLS". Fali Nariman, who was present in England at that time, asked Lord Templeman, who was one of the majority, why the judges did not take contempt action. Lord Templeman smiled and said that judges in England took no notice of personal insults. Although he did not regard himself as a fool, others were entitled to their opinion.

In Balogh vs Crown Court at St Albans (1975), the defendant told the judge "You are a humourless automaton. Why don't you self destruct?". The judge smiled, but took no action.

The true test of contempt

The best shield and armour of a judge is his reputation of integrity, impartiality, and learning. An upright judge will hardly ever need to use the contempt power in his judicial career. I submit that the purpose of the contempt power is not to vindicate or uphold the majesty and dignity of the court (for it is automatically vindicated and upheld by the proper conduct of the judge, not by threats of using the contempt power) but only to enable the court to function. The contempt power should only be used in a rare and exceptional situation where, without using it, it becomes impossible or extremely difficult for the court to function. Even in such situations, the contempt power should not be used if a mere threat to use it suffices.

There may, of course, be differences of opinion about what acts prevent, or make very difficult, the functioning of a judge. For instance, do comments by the public (including lawyers, journalists, etc.), or publicity in the media about a pending case cause this? I think not. A judge should have the equanimity and inner strength to remain unperturbed and unruffled in any situation.

The expression 'preventing or making it extremely difficult for the judge to function' should ordinarily be understood with reference to a judge who has a true judge's temperament – one that is detached, calm, with equanimity, and with broad enough shoulders to shrug off baseless criticism or attempts to influence him without being perturbed.

Contempt jurisdiction is now very sparingly exercised in these Western countries. Thus in Secretary of State for Defence v. Guardian Newspapers (1985), Lord Diplock observed that "the species of contempt which consists of 'scandalising the judges' is virtually obsolescent in England and may be ignored."

Moreover, it must always be remembered that contempt jurisdiction is discretionary jurisdiction. A judge is not bound to take action for contempt even if contempt has, in fact, been committed.

Before concluding, I may refer to Judges by David Pannick in which he states:

"Some politicians, and a few jurists, urge that it is unwise or even dangerous to tell the truth about the judiciary. Judge Jerome Frank of the US Court of Appeals sensibly explained that he had little patience with, or respect for, that suggestion. He observed." I am unable to conceive that, in a democracy, it can never be wise to acquaint the public with the truth about the workings of any branch of government. It is wholly undemocratic to treat the public as children who are unable to accept the inescapable shortcomings of man-made institutions.The best way to bring about the elimination of those shortcomings of our judicial system which are capable of being eliminated is to have all our citizens informed as to how that system now functions. It is a mistake, therefore, to try to establish and maintain, through ignorance, public esteem for our courts."

In this connection, reference may be made to the amendment to the Contempt of Courts Act (the Contempt of Courts Amendment Act, 2006), which has introduced a new Section 13(b) that states: "The courts may permit, in any proceedings for contempt of court, justification by truth as a valid defence if it is satisfied that it is in public interest and the request for invoking the said defence is bona fide."

Thus, truth is now a defence in contempt of court proceedings if it is in the public interest and is bona fide. This amendment is in the right direction, and was long overdue.

In sum, the notice issued  to Arundhati Roy is a reminder of the urgent need for India to adopt a fresh, modern, democratic approach to contempt jurisdiction. If England, the United States and the Commonwealth countries can do so without compromising the majesty of their courts, there is no justification for our judges to cling to the old anachronistic view.

http://thewire.in/2015/12/25/why-the-criminal-pursuit-of-saibaba-and-arundhati-roy-is-bad-in-law-17883/



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