सामाजिक कार्यकर्ता डूँगर सिंह खेतवाल ने मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूरी को अपने पत्र के माध्यम से वर्तमान खैरना-अल्मोड़ा मोटर मार्ग का विकल्प सुझाया है। अगर उनके सुझाये विकल्प पर कार्य शुरू हो गया तो भविष्य में खैरना-अल्मोड़ा मार्ग अवरुद्ध होने पर रामगढ़ या रानीखेत होते हुए वाहनों को अल्मोड़ा नहीं जाना पड़ेगा। इससे समय के साथ ईंधन की भी बचत होगी और यात्रियों को दोहरी मार झेलने से भी निजात मिलेगी।
खैरना-अल्मोड़ा राजमार्ग पिछली बरसात में कोसी नदी के तेज प्रवाह में जगह-जगह टूट बह गया था। जौरासी से काकड़ीघाट तक जगह-जगह 10 किमी. सड़क के पूरी तरह नामोनिशा मिट जाने से कई महीनों तक मार्ग अवरुद्ध रहा और डेढ़ सौ से अधिक वाहन जगह-जगह फँसे रहे। तीन-चार माह बाद पहाड़ काट कर किसी तरह वाहनों के चलने लायक बना तो दिया पर कच्चे पहाड़ों के धँसाव को रोकने के उपाय नहीं किये गये। जे.बी.सी. मशीनों से मलबा हटाने के बावजूद थोड़ी बरसात या भारी वाहनों की आवाजाही से हो रहे कम्पन से पहाड़ों का धँसना नहीं रुक रहा है और बार-बार सड़क अवरुद्ध हो जा रही है और यह समस्या भविष्य में भी रहेगी।
मूल रूप से ग्राम व पोस्ट बेड़गाँव, अल्मोड़ा निवासी डूँगर सिंह बेलवाल ने खैरना-अल्मोड़ा राज मार्ग का विकल्प देते हुए मुख्य मंत्री से निवेदन किया है कि वर्तमान मार्ग नैनीताल जिले में आता है। अधिकांश सड़क मार्ग धँसने व मलवा आने वाली कच्ची पहाडि़यों से गुजर रहा है। थोड़ी सी बरसात में मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इससे बचने के लिए यदि खैरना मोटर पुल (रानीखेत मार्ग) के नदी पार से अल्मोड़ा जिले में 'खैरना-काकड़ीघाट' मोटर मार्ग वाया ग्राम ज्याड़ी, वलनी, जमता तथा नौगाँव होते हुए काकड़ीघाट में 'द्वारसों-काकड़ीघाट मोटर मार्ग' के सिरौला नदी में बने पुल पर मिलान किया जाय तो वर्तमान मार्ग अवरुद्ध होने पर भी उसके ठीक होने तक इस मार्ग से यातायात की वैकल्पिक व्यवस्था हो सकती है। इसकी लम्बाई लगभग 10 किमी. होगी जो खैरना-काकड़ीघाट से कम दूर पड़ेगा। इस मार्ग के निर्माण से इस मार्ग पर पड़ने वाले खण्डारखुआ पट्टी के आठ-दस गाँवों को लाभ मिलने के साथ ही पूरा कोसी का अल्मोड़ा जिले की ओर का इलाका सड़क मार्ग से जुड़ जायेगा। इन गाँवों की जनसंख्या पाँच-छः हजार से अधिक होगी। ये क्षेत्र सब्जी उत्पादक हैं इनका मुख्य रोजगार पशुपालन व खेती ही है। सड़क बन जाने से अपना उत्पाद बाजार पहुँचाने, दुःख-बीमारी में बीमार को नजदीक के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ले जाने आदि की सुविधा हो जायेगी।
काकड़ीघाट (अल्मोड़ा) से खूँट-काकड़ीघाट मोटर मार्ग का वर्तमान में निर्माण कार्य चल रहा है। ग्राम-डोबा से ग्राम चैंसली के लिए भी लिंक मोटर मार्ग का निर्माण चल रहा है। चैसली से अल्मोड़ा तक मार्ग ठीक है। इसलिए खैरना पुल को रानीखेत की ओर से थोड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए ग्राम ज्याड़ी से तिरछा द्वारसों-काकड़ीघाट वाली सड़क का निर्माण कर दिया जायेगा तो अल्मोड़ा के लिए यातायात सुचारु चलता रहेगा और अल्मोड़ा सहित अन्य दूरस्थ स्थानों-बोड़ेछीना, सेराघाट, बेरीनाग, अल्मोड़ा, दन्या, पनार, बागेश्वर, कपकोट, शामा, भराड़ी, काण्डा, बेरीनाग, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़, सोमेश्वर, गरुड़-देवाल आदि स्थानों को दैनिक जीवनयापन की सामग्री उचित मूल्य पर उपलब्ध हो सकेगी।
डुंगर सिंह बेलवाल बताते है उपरोक्त मार्ग पक्की जगहों से गुजरने के कारण बहने-धँसने की कोई सम्भावना नहीं है। इस मार्ग के सम्बन्ध में उत्तराखंड लोक वाहिनी के अध्यक्ष डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट कहते हैं -प्रसिद्ध भू वैज्ञानिक प्रो. के. एस. वाल्दिया ने उत्तराखंड सेवा निधि अल्मोड़ा द्वारा आयोजित एक सेमिनार में खैरना-अल्मोड़ा नेशनल हाइवे की मरम्मत करने के बजाय कोसी नदी के पार की ओर से सड़क मार्ग को बनाने की सलाह दी। कोसी पार अल्मोड़ा की ओर का इलाका मजबूत चट्टानों के ऊपर बसा है, जबकि छड़ा-जौरासी से काकड़ीघाट और इधर क्वारब तक का इलाका कच्ची पहाड़ी पर बसा है। अल्मोड़ा बसने पर यहाँ का सारा मलबा भी इन्हीं मार्गों पर डाला गया है।
जौरासी के पास ऊपर से भारी मलबा आ जाने से हफ्ते भर से बंद अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग का 12 दिसम्बर को लोक निर्माण विभाग के भूगर्भ पैनल बोर्ड के डॉ. रमेश चन्द्र उपाध्याय की टीम ने जौरासी के पास 70 मी. की ऊँचाई पर बारीक अध्ययन कर भूस्खलन के लिये जिम्मेदार जोन को ढूँढ निकालने का खुलासा किया है। डॉ. उपाध्याय ने एन.एच. को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए बताया कि पिछले वर्ष की बरसात में पहाड़ी का स्वरूप ही बदल गया। करीब तीन हजार मीटर की ऊँचाई पर पहाड़ी दरकी है और भूस्खलन बढ़ गया है। पहाड़ी के कोणों में बदलाव आने से ढलान में गुरुत्वाकर्षण बढ़ने की वजह से लगातार बोल्डर गिर रहे हैं। खतरा तब और बढ़ जायेगा जब वाहनों की आवाजाही से कम्पन होगा व वर्षा होने पर पानी कच्चे पहाड़ों को और कमजोर करेगा। उन्होंने एन.एच. को सुझाव दिया है कि नीचे से मलबा हटाने के बजाय दरार वाली जगहों से बोल्डर हटा पहाड़ी काटी जाये।
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गार्गी पहली बार मोहल्ला लाइव से जुड़ रही हैं। उनका स्वागत है। अभिव्यक्ति के औजारों पर सरकार की टेढ़ी होती नजरों पर तंज कसते हुए उन्होंने यह गद्य लिखा है। इसमें व्यंग्य भी है और बेलौसपन भी, संवाद भी है और कविता भी, चिंता भी है और जंग की जिद भी। उनका स्वागत कीजिए : मॉडरेटर
सेंसर का बिच्छू
श्री : हेल्लो राज, मैं श्री बोल रहा हूं। यार मैंने तुझे अपने फेसबुक के अकाउंट का पासवर्ड क्या दे दिया, की तूने तो अकाउंट ही डिलीट कर दिया मजाक मजाक में। दोस्त उसमें मेरे काफी जरूरी प्रोफेशनल लिंक्स थे। मैं क्या करूंगा अब?
राज : नहीं श्री, मैंने तो ऐसा नहीं किया। जरूर कोई टेक्नीकल प्रॉब्लम होगी। वैसे तूने लास्ट स्टेटस क्या अपडेट किया था?
श्री : लास्ट स्टेटस। अ हां, कपिल सिब्बल की किसी घिनौनी राजनीति पे कोई कटाक्ष लिखा था।
राज : हा हा हा। दोस्त फिर तो तुझे सेंसर के बिच्छू ने डंसा है!
… [और फिर फोन पे सन्नाटा]
हंसेगा तो फंसेगा
हंसी आ रही है? जी हां, ये कहानी सुन के जितना अफसोस हुआ होगा, उतनी ही हंसी भी आयी होगी, श्री के बेचारेपन पे। ऐसी कहानियां सुन के हमें न चाहते हुए भी हंसी आ जाती है। पर जनाब जो आबो हवा चली है, उससे चौकन्ना हो जाइए, कहीं आप भी हंसी के पात्र न बन जाएं।
अब आप सोच रहे होंगे कि भला आप क्यूं हंसी के पात्र बनेंगे। आखिर आपने ऐसा किया ही क्या है, जो आपकी चीजों पे कोई उंगली उठाये, आपकी बनायी हुई वेबसाइट्स को आप से बिना पूछे बैन कर दे। आपकी सोच पे और उसे प्रकट करने पे पाबंदी लगा दे।
इसका जवाब बड़ा सीधा सा है। ज्यादा कुछ नहीं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्यूंकि आपने आजादी चाही है। आपने चाहा है कि आजादी के 68 साल बाद कम से कम आप अपनी आवाज को दुनिया के सामने रख सकें। आपने चाहा है कि आप तलवार की जगह कलम उठा सकें। आपने चाहा है कि अपने बनाये हुए चित्रों में रंग भर सकें। आपने दरसल खुली हवा में सांस लेना चाहा है। पर हर चाह के लिए, हर अनाज के लिए हम लगान देते आये हैं। और हमारी सरकार अब वो लगान तो नहीं मांगती, पर अब वो लगाम लगा रही है हमारी हर आवाज पर। हर सोच पर। हर आजाद ख्याल पर। चलता है!
लगान तो फिर भी चल गया। ढो लिया किसी तरह। पर क्या लगाम को बर्दाश्त कर पाओगे? आज अगर आपके पास दो जोड़ी 'ली' की जींस न हो, तो चलेगा। अगर फास्ट ट्रैक की घड़ी न हो, तो चलेगा। अगर साथ में टहलने वाली सुंदर सी गर्लफ्रेंड न हो, तो भी चलेगा जनाब, पर क्या अगर कोई आपकी आवाज पे ताला लगा दे, तो चलेगा? कोई आपको अपने विचारों की अभिव्यक्ति से रोके तो चलेगा? अगर कोई आपकी आर्ट (लेखनी, कविताओं, रचनाओं, कार्टून्स, डीबेट्स, कहानी, ब्लॉग्स) पर पाबंदी लगा दे और आपसे बिना पूछे उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दे, तो क्या तब भी चलेगा? नहीं। शायद बौखला जाएंगे और घुटन सी महसूस होगी, आजाद देश का नागरिक होते हुए भी।
पर हमारी इसी "चलाने" वाली आदत की वजह से आज ऐसा हो रहा है। पहले हम खुद अनपढ़ चलते रहे। फिर अनपढ़ और भ्रष्ट नेताओं को चलाते रहे, और अब निराधार और बेबुनियाद पाबंदियों को चलाने की शह सरकार को दे रहे हैं। जी हां, हम खुद न्योता दे रहे हैं अपनी आजादी को खतम करने का।
आजादी बोलेगा, तो बिच्छू काटेगा
सही पढ़ा आपने। आजादी का नाम लिया, तो बिच्छू काटेगा। ये सेंसर का है बिच्छू। जी हां, आप इशारा सही समझ रहे हैं। सेंसर, ये नाम आपने पहले कई बार सुना होगा। शायद हाल में ही सुना हो। विद्या बालन की "डर्टी मूवी" के संदर्भ में सुना होगा। लेकिन ये शब्द अब सुनने और सुनाने से कही ज्यादा बढ़ चुका है। ये अब अपना डंक आपकी जुबां पे मारना चाहता है। हमारी भारत सरकार बड़ी ही चालाकी से आईटी एक्ट के तहत कुछ बेबुनियादी नियमों का झांसा देते हुए इंटरनेट और फ्री स्पीच पे पाबंदियां लगा रही है। सरकार का कहना है कि कुछ वेबसाइट्स मनमाना अश्लील, आपत्तिजनक, देश के खिलाफ भड़काऊ कंटेंट को बढ़ावा दे रही हैं। सरकार ये भी साबित करने में लगी हुई है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे गूगल, फेसबुक, ऑरकुट, ट्विटर आदि निरंकुश आपत्तिजनक कंटेंट को बढ़ावा दे रही है, जो कि सरकार के संविधान और एक सभ्य समाज के खिलाफ है।
ये सेंसर का बिच्छू कैसे हमला कर रहा है, जानिए इस छोटी सी कविता के माध्यम से।
आजादी बोलेगा तो बिच्छू काटेगा
ये सेंसर का है बिच्छू सरकार का है ये बिच्छू आजादी बोलेगा तो बिच्छू काटेगा
ये मुंह पे काटेगा ये कलम को काटेगा हल्लाबोल को रोके ये बिच्छू हर मकड़ी को काटेगा आजादी बोलेगा तो बिच्छू काटेगा
ये गूंगा कर देगा ये लूला कर देगा हलक पे मार डंक ये बिच्छू मुर्दा कर देगा आजादी बोलेगा तो बिच्छू काटेगा
ये ब्लॉग को डंसता है ये आर्ट को पीता है फेसबुक का दुश्मन बिच्छू आवाम को डंसता है आजादी बोलेगा तो बिच्छू कटेगा
ये टूजी का है बिच्छू ये राजा का है बिच्छू ये नेता का है बिच्छू ये बिच्छू बड़ा है इक्छु आजादी बोलेगा तो बिच्छू कटेगा
डर मत, मुंह खोल, हल्ला बोल
लगान देने का जमाना नहीं रहा और लगाम तुझसे बर्दाश्त न होगी। तो करेगा क्या बंधु?
अरे डर मत, मुंह खोल और हल्ला बोल। भ्रष्ट सरकार और उसकी कार्यप्रणाली से तो हम और आप वैसे भी ग्रसित हैं। अब क्या आवाज भी दावं पे लगा देंगे? क्या अब भी अपनी आराम वाली कुर्सी पे बैठ के टीवी के रिमोट से खेलते रहेंगे? क्या इंतजार कर रहे हैं कि आपके सोने, उठने, बैठने, लिखने से लेकर आपकी निजी जिंदगी को भी सरकार सेंसर के नियमों तहत कंट्रोल करे?
क्या इंतजार कर रहे हैं कि राह चलते सरकार का नियम आ जाए कि इस रोड पे सर नीचे और पैर ऊपर कर के चलना है?
अगर नहीं, तो अपनी आवाज को बुलंद कीजिए। आगे आइए, सवाल पूछिए सरकार से, अपने हक के लिए लड़िए और अपाहिज होने से खुद को बचाइए।
अगर चुप रहे तो ऐसा भी होगा कि…
राज : श्री, मैंने कहा था तुझसे कि मैंने तेरा अकाउंट डिलीट नहीं किया है, फिर भी तूने मेरे विश्वास का गलत फायदा उठाया। तूने मेरे ब्लॉग को डिलीट कर दिया दोस्त?
श्री : राज मैं तो खुद ही फंसा हुआ हूं। मैं क्यूं भला ऐसा करूंगा। वैसे कल तूने कोई कार्टून बना के लगाया था क्या अपने ब्लॉग पे?
राज : हां वो, लोकपाल को जोकपाल बताया था… गलत क्या किया। यही तो हो रहा है।
राज : हा हा हा… अरे दोस्त तुझे भी सेंसर के बिच्छू ने डंस लिया है…
… [और फिर फोन पे सन्नाटा]
(गार्गी मिश्र। पेशे से पत्रकार। मिजाज से कवयित्री। फिलहाल बेंगलुरु से निकलने वाली पत्रिका Bangaluredकी उपसंपादक और कंटेंट को-ऑर्डिनेटर। गार्गी से gargigautam07@gmail.com पर संपर्क करें।)
हाथ से बनाया गया एक चिन्ह है, जो एक छोटी सी बेकरी मे लगा था कुछ साल पहले ब्रुकलिन में मेरे पडोस के इलाके में। इस बेकरी में एक छोटी से मशीन लगी थी, जो कि शुगर-प्लेट पर छपाई कर सकती थी। और बच्चे अपनी-अपनी ड्राइंग लाते थे और दुकान में एक शुगर-प्लेट पर छपवा कर अपने बर्थ-डे केक के ऊपर लगाते थे।
मगर दुर्भाग्यवश, एक चीज जो बच्चे खूब बनाते हैं, वो है कार्टून चरित्रों की ड्राइंग। उन्हें मजा आता है लिटल मर्मेड बना कर, स्मर्फ बना कर, मिकी माउस बना कर। मगर असल में ये गैर-कानूनी है कि मिकी माउस का चित्र जो एक बच्चे ने बनाया है, एक शुगर-प्लेट पर छापा जाए। और ये कॉपी-राइट का हनन है। और ऐसे कॉपी-राइट को बच्चों के केक से बचाना इतना उलझा हुआ काम था कि कॉलेज बेकरी ने कहा, "ऐसा है, हम ये काम ही बंद कर रहे हैं। अगर आप शौकिया कलाकार हैं, तो आप हमारी मशीन का इस्तेमाल नहीं कर सकते। अगर आपको अपने बर्थ-डे केक पर छपाई चाहिए, तो आपको हमारे पास पहले से उपलब्ध चित्रों में से एक लेना होगा … केवल पेशेवर कलाकारों द्वारा बनाये गये चित्रों से।"
तो कांग्रेस में इस वक्त दो विधेयक पेश हो चुके हैं। एक है सोपा (SOPA) और दूसरा है पीपा (PIPA)। सोपा (SOPA) का अर्थ है स्टॉप ऑनलाइन पायरेसी एक्ट। ये सेनेट से आया है। पीपा (PIPA) लघु रूप है PROTECTIP का, जो कि स्वयं लघुरूप है प्रिवेंटिंग रियल ऑनलाइन थ्रेट्स टू इकॉनामिक क्रिएटिविटी एन्ड थेफ्ट ऑफ इन्टेलेक्चुअल प्रोपर्टी … इन चीजों को नाम देने वाले कांग्रेस के नुमाइंदों के पास बहुत ढेर सारा फालतू समय होता है। और सोपा और पीपा नाम की बलाएं आखिरकार करना ये चाहती हैं कि वो इतना महंगा बना देना चाहती हैं कॉपी-राइट के दायरे में रह कर काम करने को कि लोग उन काम-धंधों को छोड़ ही दें, जिनमें शौकिया रचना करने वाले शामिल होते हैं।
अब, ऐसा करने के लिए उनका सुझाव ये है कि उन वेबसाइटों को पहचान लिया जाए जो कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं। हालांकि ये साइट कैसे कॉपी-राइट हनन कर रहे हैं, विधेयक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठा है … और फिर वो इन साइटों को डोमेन नेम सिस्टम से बर्खास्त कर देना चाहते हैं। वो इन्हें डोमेन नेम सिस्टम से निष्कासित कर देना चाहते हैं। देखिए, ये डोमेन नेम सिस्टम ही है, जो कि इंसानों को समझ आने वाले नामों को, जैसे कि गूगल डॉट कॉम, उन नामों में बदलता है जिन्हें कंप्यूटर समझता है … जैसे कि 74.125.226.212
असल खराबी इस सेंसरशिप के मॉडल में है, जो कि इन साइटों को ढूंढेगा, फिर उन्हें डोमेन नेम सिस्टम से हटाने की कोशिश करेगा, पर शायद ये काम नहीं करेगा। और आपको लग रहा होगा कि ये कानून के लिए खासी बड़ी दिक्कत होगी, मगर कांग्रेस इस बात से जरा भी परेशान नहीं लगती है। ये सिस्टम धवस्त इसलिए हो जाएगा, क्योंकि आप अब भी अपने ब्राउजर में 74.125.226.212 टाइप कर के या उसको क्लिक करने लायक लिंक बना कर अब भी गूगल तक पहुंच पाएंगे। तो जो सुरक्षात्मक घेरा इस समस्या के आसपास खड़ा किया गया है, वही इस एक्ट का सबसे बड़ा खतरा है।
कैसे कांग्रेस ने ऐसा विधेयक लिख डाला, जो कि अपने मुकर्रर लक्ष्यों को कभी पूरा नहीं करेगा, मगर एक हजार नुकसानदायक साइड इफेक्ट बना डालेगा, ये समझने के लिए आपको इसकी कहानी में गहरे पैठना होगा। और कहानी कुछ ऐसी है…
सोपा और पीपा, ऐसे विधेयक हैं जिनका ड्राफ्ट मुख्यतः उन मीडिया कंपनियों ने लिखा जो कि बीसवीं सदी में शुरू हुई थीं। बीसवीं सदी मीडिया कंपनियों के लिए स्वर्णिम समय था, क्योंकि मीडिया कंटेट की बहुत ही ज्यादा कमी थी। अगर आप कोई टीवी शो बना रहे हैं, तो उसे बाकी सारे टीवी शो से बेहतर नहीं होना होगा; उसे केवल बेहतर होना होगा बाकी दो शो से, जो उसी समय प्रसारित होते हों … जो कि बहुत ही हल्की शर्त है स्पर्धा के लिहाज से। जिसका मतलब है कि यदि आप बिलकुल औसत कंटेंट भी बना रहे हैं, तो फ्री में अमरीका की एक-तिहाई पब्लिक आपकी बात सुनने को मजबूर है। कई लाख लोग एक साथ आपको सुन रहे हैं, तब भी, जबकि आपका बनाया कुछ खास नहीं है। ये ऐसा है, जैसे आपको नोट छापने का लाइसेंस मिल जाए, और साथ ही फ्री इंक भी।
मगर टेक्नालाजी आगे बढ़ गयी, जैसा कि वो हमेशा करती है। और धीरे-धीरे, बीसवीं शताब्दी के अंत तक, कंटेट की वो कमी खत्म सी होने लगी … और मेरा मतलब डिजिटल टेक्नालाजी से नहीं है, साधारण एनालाग टेक्नालाजी भी जरिया बनी। कैसेट टेप, वीडियो कैसेट रेकार्डर, यहां तक कि जेराक्स मशीन भी नये अवसर पैदा करने लगी ऐसे क्रियाकलापों के लिए, जिन्होंने इन मीडिया कंपनियों की हवा निकाल दी। क्योंकि अचानक इन्हें पता लगा कि हम लोग सिर्फ चुपचाप बैठ कर देखने वाले लोग नहीं हैं। हम सिर्फ कनज्यूम करना ही नहीं चाहते। हमें कनज्यूम करने में मजा आता है, मगर जब भी ऐसे नये अविष्कार हम तक पहुंचे, हमने कुछ रचने की भी कोशिश की और अपनी रचना को शेयर करने, बांटने का प्रयास किया। और इस बात ने मीडिया कंपनियों को घबराहट में डाल दिया … हर बार उनकी हालत पतली ही हुई।
जैक वलेंटी ने, जो कि मुख्य लॉबीइस्ट थे मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका के, एक बार घृणा योग्य वीडियो कैसेट रिकार्डर की तुलना जैक द रिपर से की थी और गरीब, हताश, बेचारे हॉलीवुड की उस कमजोर औरत से जो घर पर अकेले शिकार होने को बैठी है। इस स्तर पर चीख-पुकार मचायी गयी थी।
और इसलिए मीडिया इंडस्ट्री ने गिड़गिड़ा कर, जोर डाल कर, ये मांग रखी कि कांग्रेस कुछ करे। और कांग्रेस ने किया भी। 90 के दशक के पूर्वार्ध तक, कांग्रेस ने ऐसा कानून बनाया, जिसने सब कुछ बदल दिया। और उस कानून का नाम था 'द ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट' सन 1992 का। 1992 का द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट ये कहता है कि देखिए, अगर लोग रेडियो प्रसारण को रिकार्ड कर रहे हैं, और फिर दोस्तों के लिए खिचड़ी-कैसेट (रीमिक्स) बना रहे हैं, तो ये अपराध नहीं है। इसमें कोई गलत बात नहीं है। टेप करना, रीमिक्स करना, और दोस्तों में बांटना गलत नहीं है। यदि आप कई सारी उम्दा क्वालिटी की कॉपी बना कर बेच रहे हैं, तो ये बिल्कुल भी सही नहीं है। मगर ये छोटा-मोटा टेप करना वगैरह ठीक है, इसे चलने दो। और उन्हें लगा कि उन्होंने मसले को हल कर दिया है, क्योंकि उन्होंने साफ लकीर बना दी थी – कानूनन गलत और कानूनन सही कॉपी करने के बीच।
मगर मीडिया कंपनियों को ये नहीं चाहिए था। वो ये चाहते थे कि कांग्रेस किसी भी तरह की कॉपी करने पर पूर्ण रोक लगा दे। तो जब 1992 का ऑडियो होम रेकार्डिंग एक्ट पास हुआ, मीडिया कंपनियों ने ये विचार ही छोड़ दिया कि कॉपी करना किसी स्थिति में कानूनन सही माना जा सकता है क्योंकि ये साफ था कि यदि कांग्रेस इस नजरिये से सोचेगी, तो शायद नागरिकों को अपने मीडिया परिवेश में रचनात्मक भागीदारी करने के और भी अधिकार मिले। तो उन्होंने दूसरी ही योजना बनायी। उन्हें इस योजना को बनाने में थोड़ा समय जरूर लगा।
ये योजना पूर्ण रूप से सामने आयी सन 1998 में … डिजिटल मिलेनियम कॉपीराइट एक्ट के रूप में। (डीएमसीए) ये अत्यधिक जटिल कानून था, हजारों हिस्सों में बंटा हुआ। मगर डीएमसीए का मुख्यतः जोर ये था कि ये कानूनन सही है कि आपको ऐसा डिजिटल कंटेट बेचा जाए, जिसे कॉपी नहीं किया जा सकता … बस इतनी सी गलती हुई कि ऐसा कोई डिजिटल कंटेट नहीं हो सकता, जो कॉपी न हो सके। ये ऐसा था, जैसा कि एड फेल्टन ने कहा था, "ऐसा पानी बेचना जो गीला न हो।" बिट्स तो कॉपी लायक होते ही हैं। यही तो कंप्यूटर करते हैं। ये तो उनके सामान्य काम करने के तरीके का निहित अंग है।
तो ऐसी काबिलियत के नाटक के लिए कि असल में कॉपी नहीं होने वाले बिट्स बिक सकते हैं, डीएमसीए ने ये भी कानूनी रूप से सही करार दिया कि आप पर ऐसे सिस्टम थोपे जाएं, जो आपके यंत्रों की कॉपी करने की काबिलियत खत्म कर दें। हर डीवीडी प्लेयर और गेम प्लेयर और टीवी और कंप्यूटर जो आप घर ले जाते रहे… आप चाहे जो सोच कर उसे खरीद रहे थे … कंटेट इंडस्ट्री द्वारा तोड़ा जा सकता था, अगर वो चाहते कि इसी शर्त पर आपको कंटेंट बेचेंगे। और ये सुनिश्चित करने के लिए कि आपको ये पता न लगे, या फिर आप उस यंत्र की साधारण कंप्यूटरनुमा गतिविधियों को इस्तेमाल न कर पाएं, उन्होंने ये गैर-कानूनी करवा दिया कि आप रीसेट कर सकें उनके कंटेंट को कापी होने लायक बनाने के लिए। डीएमसीए वो काला क्षण है, जबकि मीडिया इंडस्ट्री ने उस कानूनी सिस्टम को ताक पर रख दिया, जो कानूनी और गैर-कानूनी कॉपी में फर्क करता था, और पूरी तरह से कॉपी रोकने का प्रयास किया, तकनीक के इस्तेमाल से भी।
डीएमसीए के कई जटिल असर होते आये हैं, और हो रहे हैं, और इस संदर्भ में उसका असर है – शेयरिंग पर कसी गयी लगाम, मगर वो ज्यादातर नाकामयाब ही हुए हैं। और उनकी इस असफलता का मुख्य कारण रहा है ये कि इंटरनेट ज्यादा फैला है और ज्यादा शक्तिशाली बन कर उभरा है, किसी की भी सोच के मुकाबले। टेप मिक्स करना, फैन मग्जीन वगैरह निकालना कुछ भी नहीं है उसके मुकाबले, जो आज घटित हो रहा है इंटरनेट पर।
हम आज ऐसे विश्व के बाशिंदे हैं, जहां ज्यादातर अमरीकी जो 12 वर्ष से बड़े हैं, एक दूसरे से ऑनलाइन चीजें शेयर करते हैं। हम लेख शेयर करते हैं, तस्वीरें साझा करते हैं, ऑडियो, वीडियो सब साझा करते हैं। हमारी शेयर की गयी चीजों में से कुछ हमारी खुद की बनायी होती हैं। कुछ ऐसी सामग्री होती है, जो हमें मिली होती है। और कुछ ऐसी सामग्री भी, जो हमने उस कंटेट से बनायी होती है, जो हमें मिला, और ये सब मीडिया इंडस्ट्री के होश उड़ाने के लिए काफी है।
तो पीपा और सोपा इस युद्ध की दूसरी कड़ी है। मगर जहां डीएमसीए अंदर घुस कर काम करता था … कि हम आपके कंप्यूटर में घुसे हैं, आपके टीवी का हिस्सा हैं, आपके गेम मशीन में मौजूद हैं, और उसे वो करने से रोक रहे हैं, जिसके वादे पर हमने उन्हें खरीदा था … पीपा और सोपा तो परमाणु विस्फोट जैसे हैं और ये कह रहे हैं कि हम दुनिया में हर जगह पहुंच कर कंटेंट को सेंसर करना चाहते हैं। और इसे करने की विधि, जैसे मैने पहले कहा, ये है कि आप हर उस लिंक को हटा देंगे, जो उन आईपी एड्रेस तक पहुंचेंगे। आप को उन्हें सर्च इंजिन से हटाना होगा, आपको ऑनलाइन डाइरेक्ट्रियों से हटाना होगा, आपको यूजर लिस्टों से हटाना होगा। और क्योंकि इंटरनेट पर कंटेट के सबसे बड़े रचयिता गूगल या याहू नहीं हैं, आप और हम हैं, असल में निगरानी आपकी और हमारी ही होगी। क्योंकि आखिर में, असली खतरा पीपा और सोपा के कानून बनने से हमारी चीजों को शेयर करने की काबिलियत को है।
तो पीपा और सोपा से खतरा ये है कि ये सदियों पुराने कानूनी सिद्धांत को, कि "जब तक सिद्ध नहीं, अपराधी नहीं" उलट देंगे कि – "जब तक सिद्ध नहीं, अपराधी" में आप शेयर नहीं कर सकते जब तक कि आप ये न दिखा दें कि आप जो शेयर कर रहे हैं, वो इनके हिसाब से ठीक है। अचानक, कानूनी और गैर-कानूनी होने का पूरा दारोमदार हम पर ही गिर जाएगा। और उन सेवाओं पर जो हमें नया नया काम करने की काबिलियत देना चाहती हैं। और अगर सिर्फ एक पैसा भी एक यूजर की निगरानी में खर्च हो, तो कोई भी ऐसी सेवा दिवालिया हो जाएगी, जिसके सौ मिलियन यूजर होंगे।
और यही इंटरनेट है इनके दिमाग में। सोचिए हर जगह ऐसा ही निशान लगा हो … और यहां कॉलेज बेकरी न लिखा हो, यहां लिखा हो यू-ट्यूब और फेसबुक और ट्विटर। सोचिए यहां लिखा हो टेड, क्योंकि कमेंटों की तो निगरानी हो ही नहीं सकती है किसी भी कीमत पर। सोपा और पीपा का असल असर बताये जा रहे असर से बहुत अलग होगा। असल खतरा ये है कि साबित करने का काम उलटी पार्टी का हो जाएगा, जहां अचानक हम सभी को चोरों की तरह देखा जाएगा, हर क्षण जब भी हम रचना की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगे, कुछ बनाने या शेयर करने के लिए। और वो लोग जिन्होंने हमें ये काबिलियत दी है … दुनिया भर के यू-ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर और टेड – उनका मुख्य काम हमारी निगरानी करने का हो जाएगा, कि कहीं हमारे द्वारा शेयर की गयी चीज से उन पर तो फंदा नहीं कस जाएगा।
अब दो काम हैं, जो आप कर सकते हैं इसे रोकने के लिए … एक साधारण काम है और एक जटिल काम है, एक आसान काम है और एक कठिन है।
साधारण आसान काम ये है : यदि आप अमरीकी हैं, तो अपने विधायक को कॉल कीजिए। जब आप देखेंगे कि कौन लोग हैं, जिन्होंने सोपा को बढ़ावा दिया है, और पीपा के लिए प्रचार किया है, आप देखेंगे कि उन्होंने लगातार कई सालों से दसियों लाख डॉलर पाये हैं पारंपरिक मीडिया इंडस्ट्री से। आपके पास दसियों लाख डॉलर नहीं हैं, लेकिन आप अपने नेताओं को कॉल करके ये याद दिला सकते हैं कि आप के पास वोट है, और आप नहीं चाहते कि आपके साथ चोरों जैसा बर्ताव हो, और आप उन्हें सुझाव दे सकते हैं कि आप चाहेंगे कि इंटरनेट की कमर न तोड़ी जाए।
और अगर आप अमरीकी नहीं हैं, तो आप उन अमरीकियों से बात कीजिए, जिन्हें आप जानते हैं, और उन्हें उत्साहित कीजिए ये करने के लिए। क्योंकि इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जा रहा है, मगर ये है नहीं। ये इंडस्ट्री सिर्फ इस पर नहीं रुकेगी कि इसने अमरीका के इंटरनेट पर कब्जा कर लिया। यदि ये सफल हुए, तो दुनिया भर का इंटरनेट कब्जा लेंगी। ये तो था आसान काम। ये था साधारण काम।
अब कठिन काम : तैयार हो जाइए, क्योंकि और भी हमले होने वाले हैं। सोपा असल में कोयका (COICA) का नया रूप है, जिसे पिछले साल पेश किया गया था, मगर वो पास नहीं हुआ। और ये सारी कहानी ठहरती है डीएमसीए के असफल हो जाने में, टेक्नालाजी का इस्तेमाल करके शेयरिंग रोक पाने में असफल होने में। और डीएमसीए ठहरता है द ऑडियो होम रिकार्डिंग एक्ट पर, जिसने इस इंडस्ट्री के शहंशाहों की हवा निकाल दी थी। क्योंकि ये जटिल है कि पहले कहा जाए कि कोई कानून तोड़ रहा है और फिर सबूत इकट्ठे करना और सिद्ध करना, ये काफी असुविधा भरा है। "काश इसे सिद्ध करने के झमेले में न पड़ना पड़े" कंटेंट कंपनियां ये सोचती हैं। और वो इस झमेले में पड़ना ही नहीं चाहतीं कि ये सोचना पड़े कि क्या फर्क है कानूनी और गैर-कानूनी में। वो तो बस सीधा सरल उपाय चाहती हैं कि शेयरिंग बंद हो जाए।
पीपा और सोपा कोई नयी बात या अलग सा आइडिया नहीं है, न ही ये आज शुरू हुआ कोई खेल है। ये तो उसी पुराने पेंच का अगला घुमाव है, जो पिछले बीस साल से षड्यंत्र कर रहा है। और अगर हमने इसे हरा दिया, जैसा मैं आशा करता हूं, और हमले आएंगे। क्योंकि जब तक हम कांग्रेस को विश्वास नहीं दिला देते कि कॉपीराइट हनन से निपटने का सही उपाय वो है, जो कि नैप्स्टर या यूट्यूब ने इस्तेमाल किया, जहां एक सुनवाई होती है सारे सबूतों के साथ, सारे तथ्यों पर विचार कर के, और उपायों पर विमर्श कर के, जैसा कि प्रजातांत्रिक समाजों में होता है। यही सही तरीका है इस से निपटने का।
और इस बीच, कठिन काम ये है कि कमर कस लीजिए। क्योंकि यही पीपा और सोपा का असली संदेश है। टाइम वार्नर ने बुलावा भेज दिया है और वो हमें वापस सिर्फ कनज्यूमर बनाना चाहते हैं – काउच पोटेटो (couch potato) हम न रचें, न हम शेयर करें … और हमें जोर से कहना चाहिए, "नहीं।"
(अनुवादक के बारे में : स्वप्निल कांत दीक्षित। आईआईटी से स्नातक होने के बाद, कोर्पोरेट सेक्टर में दो साल काम किया। फिर साथियों के साथ जागृति यात्रा की शुरुआत की। यह एक वार्षिक रेल यात्रा है, और 400 युवाओं को देश में होने वाले बेहतरीन सामाजिक एवं व्यावसायिक उद्यमों से अवगत कराती है। इसका उद्देश्य युवाओं में उद्यमिता की भावना को जगाना, और उद्यम-जनित-विकास की एक लहर को भारत में चालू करना है। इस यात्रा में ये युवक जगह-जगह से नये सृजन के लिए उत्साह बटोरते चलते हैं। स्वप्निल उन युवकों में से हैं, जो बनी-बनायी लीक पर चलने में यकीन नहीं रखते। यात्रा की एक झलक यहां देखें।)
धर्मेंद्र सिंह जनसत्ता 1 फरवरी, 2012 : चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों का चरित्र, चाल और चेहरा उजागर हो जाता है। इस चुनाव में हर पार्टी दूसरी पार्टी को पटखनी देने की हर तरह की जुगत में लगी हुई है। इसके लिए पार्टियां तरह-तरह के हथकंडे अपना रही हैं। मकसद साफ है, हर हाल में सत्ता हासिल होनी चाहिए। समाज को बांटना पडेÞ, धर्म के कार्ड का इस्तेमाल करना पडेÞ, सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों की नजरों में सब जायज है। पांच सालों तक इन पार्टियों को कुछ नजर नहीं आता, चुनाव के समय ही उनकी नींद टूटती है। नए वायदे करके और प्रलोभन देकर वे चुनाव का समीकरण बिठाती हैं। इनका सोच जाति, धर्म और क्षेत्र पर आकर सिमट जाता है। मुद्दों से हट कर जाति, धर्म, क्षेत्रवाद का खेल खेला जाता है। टिकट का बंटवारा जाति और धर्म के आधार पर किया जाता है। चुनाव के मैदान में भ्रष्टाचारी और आपराधिक छवि के लोग भी आ धमकते हैं। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में जनता को सपने दिखा रही है। जो काम वह चालीस सालों में नहीं कर पाई उसे अब दस सालों में करने का दावा कर रही है। लेकिन इस चुनाव में सबसे अहम मुद्दा बन गया है मुसलिम वोटरों को लुभाने का। मुसलिम वोट पाने के लिए जहां कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहीं भाजपा ने इस कवायद के खिलाफ ओबीसी और राममंदिर का मुद्दा उछाल दिया है। ओबीसी के सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण में अल्पसंख्यकों को साढ़े चार फीसद आरक्षण दिए जाने के केंद्र सरकार के निर्णय के पीछे मुसलिम मतदाताओं पर पैनी नजर है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद को लगा इतने से काम नहीं बनने वाला है तो आचार संहिता लागू होने के बावजूद उन्होंने साढ़े चार फीसद को बढ़ा कर नौ फीसद करने का वादा कर दिया। हालांकि इस मुद्दे पर सलमान खुर्शीद को चुनाव आयोग से नोटिस मिल चुका है। पर यह जाहिर है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। मुसलमानों को आरक्षण देने की बात हो तो भाजपा अपनी गोटी खेलने से कब चूकने वाली है। अल्पसंख्यकों के लिए घोषित किए गए साढ़े चार फीसद आरक्षण के विरोध के पीछे भाजपा की नजर है ओबीसी पर। वह यह अहसास कराना चाहती है कि ओबीसी कोटे से अल्पसंख्यक आरक्षण मिलेगा तो कहीं न कहीं ओबीसी का हक मारा जाएगा। अब तो भाजपा ने अपने घोषणापत्र में यह एलान भी कर दिया है कि अगर भाजपा सत्ता में आती है तो पिछडेÞ वर्ग के सत्ताईस फीसद आरक्षण के तहत दिए गए 4.5 फीसद अल्पसंख्यक आरक्षण को खत्म कर देगी। यही नहीं, अपने परंपरागत समर्थकों को लुभाने के लिए उसने फिर से राम जन्मभूमि का मुद््दा उठा दिया है। चुनाव के दौरान ही भाजपा को राम मंदिर बनाने का सपना आता है। अब वह एक बार फिर कह रही है कि पार्टी सत्ता में आई तो राम मंदिर के निर्माण में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करेगी। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुखर रही भाजपा जाति की राजनीति में फंस गई है। जिस शख्स की कुर्सी भ्रष्टाचार की वजह से गई और जिसे मायावती ने ठुकरा दिया, उस शख्स के जरिए भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के सपने देखने लगी। उसने बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर लिया। नजर थी कुशवाहा जाति के वोटों पर। पार्टी की जब खूब फजीहत हुई तो कुशवाहा से किनारा करने का नाटक रचा गया। राज्य के मुसलिम मतदाताओं पर समाजवादी पार्टी की खासी नजर है। बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद के मुद््दे पर मुलायम सिंह यादव के रुख ने मुसलमानों के बीच उन्हें नायक बना दिया। 'माय' यानी मुसलिम-यादव के गठजोड़ की वजह से वे तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। लेकिन परमाणु समझौते के मुद्दे पर कांग्रेस का साथ देने के कारण मुसलिम मुलायम से बिदक गए, जिसका खमियाजा उन्हें लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ा। उन्होंने मुसलमानों में अपनी पैठ जमाने के क्रम में आजम खान को फिर से अपने साथ जोड़ा है। मुलायम सिंह को पता है कि बिना मुसलिम समर्थन के चौथी बार मुख्यमंत्री बनना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साढ़े चार फीसद की घोषणा और नौ फीसद के वादे को नाकाफी बताते हुए आबादी के आधार पर आरक्षण की बात कर रही है, यह जानते हुए भी कि मुसलिम आरक्षण को लेकर आंध्र प्रदेश में हाईकोर्ट तीन बार राज्य सरकार की कोशिश नाकाम कर चुका है। राजनीतिक दलों को लगता है कि जब मामला कोर्ट में फंसेगा तो देखा जाएगा। पहले मुसलिम मतदाताओं को प्रलोभन देकर वोट तो बटोरा जाए। उत्तर प्रदेश में मुसलिम आबादी करीब अठारह फीसद के करीब है। ये मतदाता जिधर झुक जाएं, उस पार्टी की नैया पार हो जाए। यही वजह है कि कांग्रेस, समाजवादी और बसपा के बीच मुसलिम मतदाताओं को रिझाने की जबर्दस्त होड़ चल रही है। कांग्रेस ने मुसलिम, ब्राह्मण और दलित समीकरण की बदौलत करीब चार दशक तक उत्तर प्रदेश में राज किया। लेकिन समाजवादी और बसपा के प्रभाव में आकर मुसलिम मतदाता कांग्रेस से खिसक गए। खासकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद। लेकिन इस बार कांग्रेस कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहती है। एक सौ तेरह सीटों पर मुसलिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। राज्य के रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर, बरेली, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, ज्योतिबा फुले नगर, श्रावस्ती, बागपत, बदायूं, लखनऊ, बुलंदशहर और पीलीभीत में उनकी आबादी बीस
से उनचास फीसद है। इन इलाकों में जिस पार्टी को मुसलिम वोटों का तीस फीसद मिल जाए तो उसकी किस्मत संवर जाती है। 2009 के लोकसभा चुनाव में इनका साथ मिला तो कांग्रेस की सीटें इक्कीस हो गर्इं। लोकसभा चुनाव के बाद सीएसडीएस द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक कांग्रेस को पचीस फीसद मुसलमानों ने वोट दिया था, जबकि बसपा को अठारह फीसद और समाजवादी पार्टी को तीस फीसद। सन 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ग्यारह फीसद और 2002 विधानसभा चुनाव के मुकाबले पंद्रह फीसद वोटों का इजाफा हुआ। जबकि बसपा को 2002 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले आठ फीसद और 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले एक फीसद का फायदा हुआ। समाजवादी पार्टी से मुसलिम आधार में दरार पड़ गई थी। यही वजह थी कि 2007 में समाजवादी पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा। सपा को 2002 के विधानसभा चुनाव में मुसलिम मतदाताओं के चौवन फीसद, 2007 के विधानसभा चुनाव में सैंतालीस फीसद और 2009 के लोकसभा चुनाव में महज तीस फीसद वोट मिले। यानी 2002 के मुकाबले 2009 में करीब चौबीस फीसद मुसलिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी से मुंह फेर लिया था। न तो भाजपा को मुसलिम वोटों की जरूरत है न ही मुसलिम मतदाता भाजपा को पसंद करते हैं। इसके बावजूद तीन फीसद मुसलिम मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया था। इस बार भाजपा ने सिर्फ एक मुसलिम उम्मीदवार खड़ा किया है। यह भी साफ है कि बिना मुसलिम समर्थन के कांग्रेस अपनी खोई हुई शक्ति फिर से नहीं पा सकती। लोकसभा चुनाव जैसी कामयाबी दोहराने के लिए कांग्रेस ने आरक्षण का दांव तो चला ही, इस बार मुसलिम उम्मीदवार खड़े करने में भी उसने कोई कोताही नहीं की है। पिछली बार कांग्रेस के छप्पन मुसलिम उम्मीदवार थे तो इस बार इकसठ हैं। इस तादाद में वह और भी इजाफा कर सकती थी,लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठजोड़ की वजह से ऐसा नहीं कर सकी। अब भला मायावती क्यों पीछे रहतीं। इस बार उन्होंने ब्राह्मणों के बजाय मुसलिम मतदाताओं से अधिक आस लगा रखी है। पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले बसपा के इकसठ मुसलिम उम्मीदवार थे, इस बार पचासी हैं। कांग्रेस के आरक्षण कार्ड खेलने से पहले ही बसपा आरक्षण का यह पासा फेंक चुकी थी। मायावती ने इस आरक्षण की मांग को लेकर केंद्र को चिट्ठी लिखी थी। समाजवादी पार्टी, जो मुसलिम समर्थन के बूते सत्ता में आने का ख्वाब देख रही है, उसने चौरासी मुसलिम उम्मीदवार खड़े किए हैं, बसपा से सिर्फ एक कम। पिछली बार उसने इस समुदाय से सत्तावन उम्मीदवार ही खडेÞ किए थे। 403 विधानसभा सीटों में से सौ से सवा सवा सौ सीटों पर मुसलिम मतदाताओं की अहम भूमिका रहती है। लेकिन पिछले चुनाव में सिर्फ चौवन मुसलिम उम्मीदवार ही जीत पाए। इनमें से उनतीस बसपा से जीते थे, जबकि समाजवादी पार्टी से सिर्फ उन्नीस; छह उम्मीदवार अन्य दलों से। गौर करने की बात है कि कांग्रेस के टिकट पर पिछली बार एक भी मुसलिम उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। कांग्रेस चुनावी मौसम में मुसलिम मतदाताओं को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखती है भले इससे उसे फायदा हो या नहीं। तभी तो सलमान रुश्दी के जयपुर आने के मुद्दे पर कांग्रेस का ढुलमुलपन देश के सामने आ गया। जयपुर साहित्य समारोह में शिरकत करने का रुश्दी का कार्यक्रम जिस तरह रद्द किया गया, उसके पीछे वोट की ही राजनीति है। कांग्रेस डर गई कि मुसलिम संगठनों के विरोध के बावजूद अगर रुश्दी को जयपुर के कार्यक्रम में शामिल होने दिया गया तो मुसलिम मतदाता बिदक जाएंगे। सलमान रुश्दी अपना कार्यक्रम रद्द होने से बेहद आहत हुए। उन्होंने कहा कि यह सब उत्तर प्रदेश के चुनाव में मुसलिम वोट हासिल करने के लिए किया गया है। कांग्रेस की इस मुद्दे पर काफी फजीहत हुई, लेकिन इससे पार्टी को क्या फर्क पड़ता है! यही नहीं, चार साल के बाद एक गडेÞ मुर्दे को उखाड़ा गया। बटला हाउस मुठभेड़ पर भी राजनीति शुरू हो गई। दिग्विजय सिंह अपने बयान पर कायम हैं तो उनकी पार्टी और सरकार ने उनके बयान से किनारा कर लिया है। भाजपा इस मुद्दे पर कांग्रेस और सरकार दोनों को घेरना चाहती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या अब इस मुद्दे को उछालने से भाजपा और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के चुनाव में फायदा मिलेगा? आरक्षण के अलावा इस चुनाव में और भी कई मुद््दे उछाले गए हैं। बसपा विकास के नाम पर चुनाव के ठीक पहले तुरुप का पत्ता फेंक चुकी है। एक राज्य के गठन में सालों लग जाते हैं। लेकिन मायावती ने एक नहीं बल्कि चार राज्य बनाने का प्रस्ताव विधानसभा से पास करा दिया। मंजूरी के लिए वे यह प्रस्ताव केंद्र के पास भेज चुकी हैं। उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करके चार राज्य बनें या न बनें, चुनावी मौसम में इस मुद्दे को भुनाने का मौका तो मायावती को मिल ही गया है। चुनावी महादंगल में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहना चाहती है। उनकी घोषणाएं और वादे भले ही अटपटे हों, और उन्हें पूरे करने की राह में चाहे जितनी संवैधानिक अड़चनें हों, पर पार्टियों को इसकी कोई परवाह नहीं है। उनका एक ही मकसद है, किसी तरह से वोट हासिल करना। जहां सब एक ही थैली के चट््टे-बट््टे नजर आएं, वहां यह सवाल उठना लाजिमी है कि वास्तव में चुनने को है क्या! सत्ता परिवर्तन का मतलब विकल्प नहीं है। जबकि जनता विकल्प चाहती है।
कोलकाता, एक फरवरी (एजेंसी) पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कई बार ऐसा लगा कि कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें छला है लेकिन अपनी किताब में उन्होंने दिवंगत राजीव गांधी को ''हमारे दिलों में बसने वाले नेता'' और प्रणव मुखर्जी को अपने भाई के समान बताया है। जब ममता कांग्रेस में थीं तब वर्ष 1991 में कोलकाता में एक रैली में कथित माकपा कार्यकर्ताओं ने उन पर हमला किया था। उन दिनों की याद करते हुए तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ने किताब में लिखा है ''हमारे दिलों में बसने वाले नेता राजीव जी ने मेरे इलाज का भुगतान करने की जिम्मेदारी ली। उन्होंने लोगों को यह पूछने के लिए मेरे पास भेजा कि क्या मैं आगे के इलाज के लिए अमेरिका जाना चाहती हूं।'' हालांकि इस समय ममता की तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी कांग्रेस के साथ रिश्ते काफी कड़वाहट से भर गए हैं, लेकिन वह केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को वह अपने बड़े भाई के समान मानती हैं। उन्होंने कहा ''मैंने उन्हें हमेशा सम्मान दिया है और उनके साथ मेरे रिश्ते एक बड़े भाई और छोटी बहन की तरह हैं।'' पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने जिक्र किया है कि 1986 में पार्टी से हटाए जाने के बाद मुखर्जी ने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी बनाई थी और ममता ने उन्हें पार्टी में वापस लिए जाने के लिए गांधी से कई बार अनुरोध किया था।
ममता की आत्मकथा ''माई अनफॉरगेटेबल मेमॅरीज'' हाल ही में प्रकाशित हुई है। इसमें उन्होंने लिखा है कि 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या की खबर सुन कर उन्हें इतना गहरा आघात लगा था कि एक सप्ताह तक वह न तो किसी से कुछ कह सकीं और न ही कुछ खा सकीं थीं। उन्होंने लिखा है ''मैं एक बार फिर अनाथ हो गई ... अपने पिता की मौत के बाद दूसरी बार ... मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लेती थी और रोती थी।'' इस तेजतर्रार नेता ने कहा है कि राजीव की मौत के दो दशक बीत चुके हैं लेकिन उनका उनके :ममता के: जीवन पर इतना गहरा प्रभाव है कि वह हर कदम पर उनकी उपस्थिति को महसूस करती हैं। मुख्यमंत्री ने कहा ''जब भी मुझे समस्या होती है, जब भी मैं किसी बात पर परेशान होती हूं, मेरी आंखें मेरे कमरे की दीवार पर लगी राजीव की तस्वीर देखती हैं।'' ममता ने कहा कि जब भी पूर्व प्रधानमंत्री की बात होती है तो उन्हें अपने मन में उनके परिवार के लिए गहरा जुड़ाव और खास अहसास होता है। उन्होंने यहां तक कहा कि राजीव की मौत के बाद पार्टी में उत्पन्न शून्य की वजह से वह कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर हुईं और तृणमूल कांग्रेस का गठन किया।