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Tuesday, September 5, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है महात्मा फूले की गुलामगिरि और रवींद्र नाथ के जूता व्यवस्था का आंतरिक उपनिवेशवाद का सामाजिक यथार्थ एक है गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर रवींद्रनाथ का प्रहार राष्ट्रीयताओं की विविधता बहुलता के लोकतांत्रिक ढांचा में ही देश बचता है और निरं�

रवींद्र का दलित विमर्श-सत्रह

नस्ली वर्चस्व का परमाणु राष्ट्रवाद अब हाइड्रोजन बम है

महात्मा फूले की गुलामगिरि  और रवींद्र नाथ के जूता व्यवस्था का आंतरिक उपनिवेशवाद का सामाजिक यथार्थ एक है

गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर रवींद्रनाथ का प्रहार

राष्ट्रीयताओं की विविधता बहुलता के लोकतांत्रिक ढांचा में ही देश बचता है और निरंकुश वर्चस्व की सत्ता देश तोड़ती है

पलाश विश्वास

नस्ली वर्चस्व के फासीवादी नाजी निरंकुश राष्ट्रवाद पश्चिम से और खासतौर पर यूरोप के साम्राज्यवादी राष्ट्रों से आयातित सबसे खतरनाक हाइड्रोजन बम है।

फासीवादी अंध राष्ट्रवाद की कीमत  जापान को हिरोसिमा और नागासाकी के परमाणु विध्वंस से चुकानी पड़ी है।

रवींद्र नाथ ने जापान यात्रा के दौरान इस अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ जापानियों को चेतावनी दी थी।हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिरने से पहले 1941 में ही रवींद्रनाथ दिवंगत हो गये लेकिन उनकी वह चेतावनी अब हाइड्रोजन बम की शक्ल में विभाजित कोरिया के साथ साथ परमाणु साम्राज्यवाद के रचनाकार महाबलि अमेरिका के लिए अस्तित्व संकट बन गया है।

इसी अंध राष्ट्रवाद के कारण दो दो विश्वयुद्ध हारने वाले जर्मनी का विभाजन हुआ लेकिन फासीवाद और नवनाजियों के प्रतिरोध में कामयाबी के बाद बर्लिन की दीवारे ढह गयीं और जर्मनी फिर अखंड जर्मनी है जो बार बार नवनाजियों का प्रतिरोध जनता की पूरी ताकत के साथ कर रहे हैं।

कोरिया खुद जापानी साम्राज्यवाद का गुलाम रहा है और साम्राज्यवाद के हाथों खिलौना बनकर वह उत्तर और दक्षिण में ठीक उसी तरह विभाजित है जैसे अखंड भारत के तीन टुकड़े भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश।

नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादियों के खेल की वजह से विभाजित भारतवर्ष के भविष्य को लेकर चिंतित थे रवींद्रनाथ।

1890 में रवींद्रनाथ ने अपने समाज निबंधों की शृंखला में जूता व्यवस्था लिखकर औपनिवेशिक भारत में नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद की सामंती साम्राज्यवादपरस्ती की कड़ी आलोचना की थी और मृत्युपूर्व अंतिम निबंध सभ्यता के संकट तक सामंतवाद और साम्राज्यवाद के पिट्ठू आंतरिक उपनिवेशवाद के नस्ली वर्चस्ववाद पर उन्होंने लगातार प्रहार किये क्योंकि वे जानते थे कि पश्चिम के इस फासीवादी नाजी राष्ट्रवाद की अंतिम और निर्णा्यक नियति विभाजन की निरंतरता की त्रासदी है और अंतिम सांस तक रवींद्रनाथ ने नस्ली राष्ट्रीयताओं के सहअस्तित्व से बने अखंड दुर्भागा देश को इस भयंकर नियति के खिलाफ चेतावनी दी है।

ब्राजील और अर्जेंटीना में श्वेत अश्वेत संघर्ष के बारे में कहीं चर्चा नहीं होती। लातिन अमेरिका में यह रंगभेद उस तरह नजर नहीं आता जैसे दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में।

रंगभेद की यह तीव्रता यूरोपीय देशों में अब बुहत ज्यादा नजर नहीं आती।बल्कि इस रंगभेद के प्रवर्तक इंग्लैंड में जीवन के हर क्षेत्र में अश्वेतों का ही वर्चस्व हो गया है।

इसके विपरीत भारत में जाति व्यवस्था के तहत असमानता और अन्याय की व्यवस्था अमेरिका की तरह नस्ली वर्चस्व के रंगभेद में तब्दील है।

अमेरिका का श्वेत आतंकवाद और ग्लोबल हिंदुत्व का नस्ली वर्चस्ववाद एकाकार है।फिरभी अमेरिका का विभाजन नहीं हुआ तो इसका सबसे बड़ा कारण अमेरिकी राष्ट्र का संघीय ढांचा है,जिसमें अमेरिका की बहुलता और विवधता का लोकतंत्र बना हुआ है जो श्वेत आतंकवाद का लगातार प्रतिरोध कर रहा है।

सोवियत संघ में जब तक संघीय ढांचा बना रहा और विविधताओं की बहुलता के खिलाफ राष्ट्रीयताओं का निर्मम दमन नहीं हुआ तब तक सोवियत संघ बना रहा और संघीय ढांचा टूटने के बाद ही सोवियत संघ का विभाजन हुआ।

रवींद्र नाथ के विविधता के दलित विमर्श,गांधी के हिंद स्वराज और यहां तक कि नेताजी के आजाद हिंद फौज की संरचना में संघीय ढांचा के बीज हैं जहां केंद्र की निरंकुश नस्ली वर्चस्व की सत्ता के बजाय जनपदों के लोक गणराज्यों का लोकतंत्र है।

स्वतंत्रता सेनानियों से बनी भारत की संविधान सभा ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के आधार बने भारत के संविधान के लिए विविधता और बहुलता के लोकतंत्र की रक्षा के लिए समानता और न्याय के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संविधान की प्रस्तावना में महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म के सिद्धांतों के तहत नागरिक और मनवाधिकार की आधारशिला रखते हुए स्वतंत्र सार्वभौम लोक गणराज्य भारत के लिए संघीय ढांचा का विकल्प चुना जो राष्ट्रीयताओं की समस्या के समाधान का रास्ता था।

नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद ने उस संघीय ढांचा को तहस नहस करके दिल्ली केंद्रित निरंकुश फासीवादी सत्ता की स्थापना कर दी है,जिसके खिलाफ रवींद्रनाथ उन्नीसवीं सदी से अपने मृत्यु से पहले तक लगातार चेतावनी देते रहे हैं।

रवींद्र रचनाधर्मिता की यही मुख्यधारा है जो भारत की साझा संस्कृति की विरासत है जो बौद्धमय भारत के समता और लक्ष्यों के अनुरुप हैं।

बहुजन पुरखों और सामंतवादविरोधी मनुष्यता के धर्म के पक्षधर इस महान देश का धर्म और आध्यात्म भी सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व के विरुद्ध है लेकिन सवर्ण विद्वजतजनों की इसमें दिलचस्पी नहीं है तो पीड़ित शोषित अत्याचार के शिकार और नरसंहार संस्कृति के तहत वध्य बहुसंख्य जनगण इसे भारतीय इतिहास और संस्कृति,लोक और जनपद के नजरिये से समझने के लिए तैयार नहीं हैं।


गौरतलब है कि महात्मा ज्योतिबा फूले ने  गुलामगिरी की प्रस्तावना में शुरुआती दो पैरा में इसी नस्ली वर्चस्व के विशुद्ध राष्ट्रवाद की चर्चा की हैः


सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं, यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं। यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है। यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ी अमावनीयता का रवैया अपनाया था। सैकड़ों साल बीत जाने के बाद भी इन लोगों में बीती घटनाओं की विस्मृतियाँ ताजी होती देख कर कि ब्राह्मणों ने यहाँ के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया। दफना कर नष्ट कर दिया।

उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलो-दिमाग पर कायम रखने के लिए, ताकि उनकी स्वार्थपूर्ति होती रहे, कई तरह के हथकंडे अपनाए और वे भी इसमें कामयाब भी होते रहे। चूँकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए थे और बाद में ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के दाँव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मण-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें हमेशा-हमेशा लिए अपना गुलाम बना कर रखने के लिए, केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथो की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथो में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि, उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं। इस तरह का झूठा प्रचार उस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए। उन ग्रंथो में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को (ब्रह्म द्वारा) पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि शूद्रों को हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मण-पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मण-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, तभी इन्हें ईश्वर प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।

(साभारःहिंदी समय,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा)

रवींद्रनाथ ने यूरोपीय सभ्यता के अनुकरण के तहत बंगाली भद्रलोक सवर्ण नस्ली राष्ट्र वाद पर तीखा प्रहार करते हुए जूता व्यवस्था निबंध में वैदिकी धर्म संस्कृति के यूरोपीय सभ्यता के साथ सामंजस्य बैठकर ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी कर रहे भद्रलोक बिरादरी के ओहदे के हिसाब से बूट से लेकर भांति भाति के जूतों से पीटे जाने की अनिवार्यता का स्वीकार करने के तर्कों का ब्यौरा पेश किया है।पहले पहल जूता खाने की यूरोपीय सभ्यता में नजीर न होने की वजह से विरोध करनेवाले प्रभुवर्ग वर्ण के लोगों ने लाट साहेब के उन्हीं के हितों का हवाला देने पर उसी जूता व्यवस्था का कैसे महिमामंडन किया है,उसका सिलिसलेवार ब्यौरा दिया है।

गौरतलब है कि बंकिम के आनंदमठ में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसानों के जनविद्रोह को मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्व के जिहाद बताकर कंपनी राज को हिंदू राष्ट्र बनने से पहले तक हिंदुओं का हित बताने की दैवी वार्ता के साथ वंदेमातरम का उद्घोष हुआ और हिंदुत्व राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रतता संग्राम के दौरान जूता व्यवस्था को अपनी नियति मान ली।अंग्रेजी हुकूमंत की जूताखोरी का महिमामंडन वैदिकी संस्कृति के हवाले से भद्रलोक बिरादरी ने निःसंकोच किया और वे दूसरों के मुकाबले अपने ऊंचे ओहदों को लेकर खुश रहे।यह गुलामगिरी का बांग्ला राष्ट्रवाद है जो आनंदमठ के जरिये हिंदुत्व का फासीवादी राष्ट्रवाद है।

সমাজ লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

জুতা-ব্যবস্থা

লাটসাহেব রুখিয়া দরখাস্তের উত্তরে কহিলেন, 'তোমরা কিছু বোঝ না, আমরা যাহা করিয়াছি, তোমাদের ভালোর জন্যই করিয়াছি। আমাদের সিদ্ধান্ত ব্যবস্থা লইয়া বাগাড়ম্বর করাতে তোমাদের রাজ-ভক্তির অভাব প্রকাশ পাইতেছে। ইত্যাদি।'

নিয়ম প্রচলিত হইল। প্রতি গবর্নমেন্ট-কার্যশালায় একজন করিয়া ইংরাজ জুতা-প্রহর্তা নিযুক্ত হইল। উচ্চপদের কর্মচারীদের এক শত ঘা করিয়া বরাদ্দ হইল। পদের উচ্চ-নীচতা অনুসারে জুতা- প্রহার-সংখ্যার ন্যূনাধিক্য হইল। বিশেষ সম্মান-সূচক পদের জন্য বুট জুতা ও নিম্ন-শ্রেণীস্থ পদের জন্য নাগরা জুতা নির্দিষ্ট হইল।

যখন নিয়ম ভালোরূপে জারি হইল, তখন বাঙালি কর্মচারীরা কহিল, 'যাহার নিমক খাইতেছি, তাহার জুতা খাইব, ইহাতে আর দোষ কী? ইহা লইয়া এত রাগই বা কেন, এত হাঙ্গামাই বা কেন? আমাদের দেশে তো প্রাচীনকাল হইতেই প্রবচন চলিয়া আসিতেছে, পেটে খাইলে পিঠে সয়। আমাদের পিতামহ-প্রপিতামহদের যদি পেটে খাইলে পিঠে সইত তবে আমরা এমনই কী চতুর্ভুজ হইয়াছি, যে আজ আমাদের সহিবে না? স্বধর্মে নিধনং শ্রেয়ঃ পরধর্মোভয়াবহঃ। জুতা খাইতে খাইতে মরাও ভালো, সে আমাদের স্বজাতি-প্রচলিত ধর্ম।' যুক্তিগুলি এমনই প্রবল বলিয়া বোধ হইল যে, যে যাহার কাজে অবিচলিত হইয়া রহিল। আমরা এমনই যুক্তির বশ! (একটা কথা এইখানে মনে হইতেছে। শব্দ-শাস্ত্র অনুসারে যুক্তির অপভ্রংশে জুতি শব্দের উৎপত্তি কি অসম্ভব? বাঙালিদের পক্ষে জুতির অপেক্ষা যুক্তি অতি অল্পই আছে, অতএব বাংলা ভাষায় যুক্তি শব্দ জুতি শব্দে পরিণত হওয়া সম্ভবপর বোধ হইতেছে!) কিছু দিন যায়। দশ ঘা জুতা যে খায়, সে একশো ঘা-ওয়ালাকে দেখিলে জোড় হাত করে, বুটজুতা যে খায় নাগরা-সেবকের সহিত সে কথাই কহে না। কন্যাকর্তারা বরকে জিজ্ঞাসা করে, কয় ঘা করিয়া তাহার জুতা বরাদ্দ। এমন শুনা গিয়াছে, যে দশ ঘা খায় সে ভাঁড়াইয়া বিশ ঘা বলিয়াছে ও এইরূপ অন্যায় প্রতারণা অবলম্বন করিয়া বিবাহ করিয়াছে। ধিক্‌, ধিক্‌, মনুষ্যেরা স্বার্থে অন্ধ হইয়া অধর্মাচরণে কিছুমাত্র সংকুচিত হয় না। একজন অপদার্থ অনেক উমেদারি করিয়াও গবর্নমেন্টে কাজ পায় নাই। সে ব্যক্তি একজন চাকর রাখিয়া প্রত্যহ প্রাতে বিশ ঘা করিয়া জুতা খাইত। নরাধম তাহার পিঠের দাগ দেখাইয়া দশ জায়গা জাঁক করিয়া বেড়াইত, এবং এই উপায়ে তাহার নিরীহ শ্বশুরের চক্ষে ধুলা দিয়া একটি পরমাসুন্দরী স্ত্রীরত্ন লাভ করে। কিন্তু শুনিতেছি সে স্ত্রীরত্নটি তাহার পিঠের দাগ বাড়াইতেছে বৈ কমাইতেছে না। আজকাল ট্রেনে হউক, সভায় হউক, লোকের সহিত দেখা হইলেই জিজ্ঞাসা করে, 'মহাশয়ের নাম? মহাশয়ের নিবাস? মহাশয়ের কয় ঘা করিয়া জুতা বরাদ্দ?' আজকালকার বি-এ এম- এ'রা নাকি বিশ ঘা পঁচিশ ঘা জুতা খাইবার জন্য হিমসিম খাইয়া যাইতেছে, এইজন্য পূর্বোক্ত রূপ প্রশ্ন জিজ্ঞাসা করাকে তাঁহারা অসভ্যতা মনে করেন, তাঁহাদের মধ্যে অধিকাংশ লোকের ভাগ্যে তিন ঘায়ের অধিক বরাদ্দ নাই। একদিন আমারই সাক্ষাতে ট্রেনে আমার একজন এম-এ বন্ধুকে একজন প্রাচীন অসভ্য জিজ্ঞাসা করিয়াছিল, 'মহাশয়, বুট না নাগরা?' আমার বন্ধুটি চটিয়া লাল হইয়া সেখানেই তাহাকে বুট জুতার মহা সম্মান দিবার উপক্রম করিয়াছিল। আহা, আমার হতভাগ্য বন্ধু বেচারির ভাগ্যে বুটও ছিল না, নাগরাও ছিল না। এরূপ স্থলে উত্তর দিতে হইলে তাহাকে কী নতশির হইতেই হইত! আজকাল শহরে পাকড়াশী পরিবারদের অত্যন্ত সম্মান। তাঁহারা গর্ব করেন, তিন পুরুষ ধরিয়া তাঁহারা বুট জুতা খাইয়া আসিয়াছেন এবং তাঁহাদের পরিবারের কাহাকেও পঞ্চাশ ঘা'র কম জুতা খাইতে হয় নাই। এমন-কি, বাড়ির কর্তা দামোদর পাকড়াশী যত জুতা খাইয়াছেন, কোনো বাঙালি এত জুতা খাইতে পায় নাই। কিন্তু লাহিড়িরা লেপ্টেনেন্ট-গবর্নরের সহিত যেরূপ ভাব করিয়া লইয়াছে, দিবানিশি যেরূপ খোশামোদ আরম্ভ করিয়াছে, শীঘ্রই তাহারা পাকড়াশীদের ছাড়াইয়া উঠিবে বোধ হয়। বুড়া দামোদর জাঁক করিয়া বলে, 'এই পিঠে মন্টিথের বাড়ির তিরিশটা বুট ক্ষয়ে গেছে।' একবার ভজহরি লাহিড়ি দামোদরের ভাইঝির সহিত নিজের বংশধরের বিবাহ প্রস্তাব করিয়া পাঠাইয়াছিল, দামোদর নাক সিটকাইয়া বলিয়াছিল, 'তোরা তো ঠন্‌ঠোনে।' সেই অবধি উভয় পরিবারে অত্যন্ত বিবাদ চলিতেছে। সেদিন পূজার সময় লাহিড়িরা পাকড়াশীদের বাড়িতে সওগাতের সহিত তিন জোড়া নাগরা জুতা পাঠাইয়াছিল; পাকড়াশীদের এত অপমান বোধ ইহয়াছিল যে, তাহারা নালিশ করিবার উদ্যোগ করিয়াছিল; নালিশ করিলে কথাটা পাছে রাষ্ট্র হইয়া যায় এইজন্য থামিয়া গেল। আজকাল সাহেবদিগের সঙ্গে দেখা করিতে হইলে সম্ভ্রান্ত 'নেটিব'গণ কার্ডে নামের নীচে কয় ঘা জুতা খান, তাহা লিখিয়া দেন, সাহেবের কাছে গিয়া জোড়হস্তে বলেন, 'পুরুষানুক্রমে আমরা গবর্নমেন্টের জুতা খাইয়া আসিতেছি; আমাদের প্রতি গবর্নমেন্টের বড়োই অনুগ্রহ।' সাহেব তাঁহাদের রাজভক্তির প্রশংসা করেন। গবর্নমেন্টের কর্মচারীরা গবর্নমেন্টের বিরুদ্ধে কিছু বলিতে চান না; তাঁহারা বলেন, 'আমরা গবর্নমেন্টের জুতা খাই, আমরা কি জুতা-হারামি করিতে পারি!'


अब गोरक्षकों के राष्ट्रवादी तांडव के संदर्भ में समाज निबंध शृंखला के तहत आचरण अत्याचार विषय पर रवींद्रनाथ के इस मंत्वय पर गौर करें जिसमें उन्होंने गोहत्या पर सजा और मनुष्य की हत्या पर बिना प्रायश्चित्त सामाजिक प्रतिष्ठा के हिंदुत्व पर प्रहार किया है।इस निबंध में जाति व्यवस्था के तहत अस्पृश्यता के वैदिकी धर्म में नीची जातियों,अस्पृश्यों के उत्पीड़न के सामाजिक यथार्थ,उनकी जल जंगल जमीन से बेदखली का भी ब्यौरा है

একজন লোক গোরু মারিলে সমাজের নিকট নির্যাতন সহ্য করিবে এবং তাহার প্রায়শ্চিত্ত স্বীকার করিবে , কিন্তু মানুষ খুন করিয়া সমাজের মধ্যে বিনা প্রায়শ্চিত্তে স্থান পাইয়াছে এমন দৃষ্টান্তের অভাব নাই । পাছে হিন্দুর বিধাতার হিসাবে কড়াক্রান্তির গরমিল হয় , এইজন্য পিতা অষ্টমবর্ষের মধ্যেই কন্যার বিবাহ দেন এবং অধিক বয়সে বিবাহ দিলে জাতিচ্যুত হন ; বিধাতার হিসাব মিলাইবার জন্য সমাজের যদি এতই সূক্ষ্মদৃষ্টি থাকে তবে উক্ত পিতা নিজের উচ্ছৃঙ্খল চরিত্রের শত শত পরিচয় দিলেও কেন সমাজের মধ্যে আত্মগৌরব রক্ষা করিয়া চলিতে পারে । ইহাকে কি কাকদন্তির হিসাব বলে । আমি যদি অস্পৃশ্য নীচজাতিকে স্পর্শ করি , তবে সমাজ তৎক্ষণাৎ সেই দন্তিহিসাব সম্বন্ধে আমাকে সতর্ক করিয়া দেন , কিন্তু আমি যদি উৎপীড়ন করিয়া সেই নীচজাতির ভিটামাটি উচ্ছিন্ন করিয়া দিই , তবে সমাজ কি আমার নিকট হইতে সেই কাহনের হিসাব তলব করেন । প্রতিদিন রাগদ্বেষ লোভমোহ মিথ্যাচরণে ধর্মনীতির ভিত্তিমূল জীর্ণ করিতেছি , অথচ স্নান তপ বিধিব্যবস্থার তিলমাত্র ত্রুটি হইতেছে না । এমন কি দেখা যায় না ।

সমাজ লিখেছেন রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

আচারের অত্যাচার


आज सुबह हमारे एक पुराने मित्र,सरकारी अस्पताल के अधीक्षक पद से रिटायर शरणार्थी नेता ने फोन करके कहा कि आप हिंदुत्व के खिलाफ हैं और बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के बारे में कुछ भी नहीं लिखते।

उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि आप लोग तो रोहिंगा मुसलमानों के बारे में लिखेंगे और असम बांग्लादेश और बंगाल के मिलाकर ग्रेटर इस्लामी बांग्लादेश के एजंडा पर आप खामोश रहेंगे।

उन्होमने दावा किया की वे मरा लिखा सबकुछ पढ़ते हैं और मरे तमाम वीडियो भी देखते हैं।

पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न,शरणार्थी समस्या पर मैं लगातार लिखता रहा हूं जिसे वे हिंदुत्व के खिलाफ राजनीति बता रहे हैं और बंगाल के नस्ली सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ रवींद्र के दलित विमर्श को भी वे गैर प्रासंगिक मानते हैं।

गौरतलब है कि बंगाल के ज्यादातर शरणार्थी नेताओं और आम शरणार्थियों की तरह वे भी हिंदुत्व के झंडवरदार और संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के समर्थक हैं और उन्हें समझाना मुश्किल हैं।

वे सुनते नहीं हैं और न वे पढ़ते हैं बल्कि उन्हें हिंदुओं के खतरे में होने की फिक्र ज्यादा है और राष्ट्रवाद की वजह से हुए युद्ध गृहयुद्ध देश के विभाजन और विश्वव्यापी शरणार्थी समस्या और नस्ली वर्चस्व के फासीवाद नाजीवादके बारे में कुछ बी समझाना मुश्किल है।

विभाजनपीड़ितों के भारत विभाजन और शरणार्थी समस्या के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने की बात समझ में आती है लेकिन नस्ली वर्चस्व के फासीवादी विशुद्धता के हिंदुत्व एजंडे पर किसी संवाद के लिए सवर्ण विद्वतजन उसीतरह तैयार नहीं हैं जैसे वे बहुजनों के जीवन और आजीविका,उनकी नागरिकता,उनके नागरिक और मानवाधिकार और शरणार्थी समस्या पर कुछ भी कहने लिखने को तैयार नहीं हैं।

जाहिर है कि हम उन विद्वतजनों के लिए रवींद्र विमर्श पर यह संवाद नहीं चला रहे हैं।हम उन्हीं को सीधे संबोधित कर रहे हैं जो नियति के साथ सवर्ण अभिसार के शिकार नरसंहारी संस्कृति के वध्य मानुष हैं।

बहारहाल जो मेरा लिखा पढ़ते हैं और मेरा वीडियो देखते हैं,उन्हें मालूम होगा कि पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ितों के बारे में,बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न,सलाम आजाद और तसलिमा नसरीन के साथ इस मुद्दे पर लिखे हर किसी के साहित्य पर,शरणार्थी समस्या,नागरिकता कानून,शरणार्थि्यों के देश निकाला अभियान और आधार के बारे में कितना लिखा और कितना कहा है।

पूर्वी बंगाल के विभाजन पीड़ितों के बारे में हमने जिलावार पूरे भारत के हर हिस्से में बसे शरणार्थियों की समस्या पर विस्तार से लगातार लिखा है।लेकिन मेरी चूंकि किताबें नहीं छपतीं और अखबारों,पत्रिकाओं में भी मैं नहीं छपता तो राष्ट्रवाद के प्रसंग में रवींद्र के दलित विमर्श  पर विभाजन पीड़ित हिंदुत्व सेना में तब्दील शरणार्थियों की इससे बेहतर प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं की जा सकती।

दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत देश के विभाजन के साथ ही राष्ट्रवाद के नस्ली वर्चस्व आधारित राष्ट्र में राष्ट्रीयता का संकट शुरु हो गया था।

विभाजन  के वक्त ही मास्टर तारासिंह ने पूछा था,हिंदुओं को हिंदुस्तान मिला और मुसलमानों को पाकिस्तान,तो सिखों को क्या मिला।

सिखों की राष्ट्रीयता के सवाल पर खालिस्तान आंदोलन और सिखों के नरसंहार के बारे में हम जानते हैं।

आदिवासी राष्ट्रीयताएं आदिवासी भूगोल के अलावा हिमालय क्षेत्र में सबसे ज्यादा हैं लेकिन उनकी राष्ट्रीयता के राष्ट्रीय प्रश्न को संबोधित किये बिना छत्तीसगढ़ और झारखंड आदिवासी राज्य बनाकर आदिवासी भूगोल में गैरआदिवासियों के नस्ली वर्चस्व को बहाल रखकर आदिवासी राष्ट्रीयता के सवाल को और उलझा दिया गया है।इसी तरह उत्तराखंड और तेलंगना अलग राज्य बने और वहां भी आम जनता अपने संसाधनों से बेदखल किये जा रहे हैं।

समस्याओं को बनाये रखकर नस्ली वर्चस्व बहाल करने की यह सत्ता राजनीति है तो निरंकुश कारपोरेट अर्थव्यवस्था का माफियातंत्र भी।

अखंड भारत में हिंदू बहुसंख्यक थे तो भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बनने के बाद इस्लामी राष्ट्रीयता वहां बड़ी राष्ट्रीयता बन गयी।ज

नसंख्या स्थानांतरण का कार्यक्रम भारी खून खराबे के बावजूद सिरे से फेल हो जाने से भारत में मुसलमान और पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक हो गये।

विभाजन के तुरंत बाद सीमाओं के आर पार अल्पसंख्यक उत्पीड़न शुरु हो गया।पाकिस्तानी इस्लामी राष्ट्रीयता बंगाली भाषायी राष्ट्रीयता के दमन पर आमादा हो गयी तो पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह हो गया और भारत के सैन्य हस्तक्षेप से बांग्लादेश बना।

बांग्लादेश बनते ही फिर इस्लामी बांग्लादेशी राष्ट्रवाद के तहत बांग्ला राष्ट्रवाद के विरुद्ध अभियान और भारत में अल्पसंख्यक खिलाफ हिंदुत्व की दंगाई राजनीति बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और तेज हो गया।

विभाजन पीड़ित हिंदुत्व की पैदल सेना को इस्लामी राष्ट्रवाद का यथार्थ समझ में आता है लेकिन हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद की सीमापार होने वाली भयंकर प्रतिक्रिया की कहानी समझ में नहीं आती।

तसलिमा के उपन्यास लज्जा में हिंदुओं का उत्पीड़न और बांग्लादेश से उनका पलायन से हिंदुत्व की सुनामी बनती है लेकिन बांग्लादेश और दुनियाभर में राम के नाम बाबरी विध्वंस के राष्ट्रवाद की परिणति जो लज्जा की पृष्ठभूमि है,समझ में नहीं आती।दुनियाभर में अंध राष्ट्रवाद के नतीजतन युद्ध गृहयुद्ध और आधी दुनिया के शरणार्थी बन जाने और देश के बीतर जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका रोजगार नागरिक मानवाधिकार से अनंत बेदखली का नस्ली राष्ट्रवाद और मनुस्मति विधान की निरंकुश फासीवादी सत्ता के यथार्थ उन्हें और बाकी नागरिकों को समझ में नहीं आता।वे नरसंहारों के मूक दर्शक हैं और अपनी हत्या के इंतजाम के समर्थक भी।

बंगाल और पंजाब और आदिवासी भूगोल की राष्ट्रीयताएं ही नहीं, बल्कि भारत और पाकिस्तान में कश्मीरियों की राष्ट्रीयता का संकट भी इस दास्तां का भयानक सच है।भारत में शामिल कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर सीमा के आर पार कश्मीरियत के भूगोल के दोनों हिस्सों में आजादी की मांग उठ रही है और भारत में यह मांग हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ है तो पाकिस्तान में इस्लामी राष्ट्रवाद के खिलाफ।

भारत और पाकिस्तान में कश्मीरी राष्ट्रीयता की इस समस्या को सिरे से नजरअंदाज किये जाने के नतीजतन किसी को समझ में नहीं आता कि कश्मीर समस्या हिंदू मुस्लिम राष्ट्रीयताओं का सवाल नहीं है और यह कश्मीरी राष्ट्रीयता की समस्या है,जिसे सीमायुद्ध में तब्दील करने वाले नस्ली राष्ट्रवाद की सत्ता पाकिस्तान और भारत में सिरे से मानने से इंकार करता है और कश्मीर की समस्या का समाधान आज तक नहीं हो सका।यह निषिद्ध विषय है।

मानवाधिकार के हनन का विरोध के खिलाफ आवाज उठाना हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के लिए राष्ट्रद्रोह है उसीतरह जैसे बौद्ध अनुयायी नम्यांमार में बहुसंख्यक बौद्धों की ओर से रोहिंगा मुसलमानों के नरसंहार के खिलाफ खामोश हैं तो हिंदुत्ववादी इस मुद्दे पर चुप्पी के साथ बंगालादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न पर मुखर हैं।

जनसंख्या की इस राजनीति पर हमने पहले चर्चा की है।आगे भी करेंगे।

बंगाल में ही गोरखालैंड आंदोलन गोरखा राष्ट्रीयता बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता अस्सी के दशक से चल रहा है।

अस्सी के दशक में अलग गोरखालैंड राष्ट्र के आंदोलन में हजारों लोग मारे गये।दार्जिलिंग के पहाड़ों को राजनीतिक स्वायत्तता देकर इस समस्या का तदर्थ हल निकाला गया लेकिन नस्ली वर्चस्व की राजनीति के तहत दार्जिलिंग के पहाड़ फिर ज्वालामुखी है और फिर गोरखालैंड का आंदोलन जारी है जो सिर्फ दार्जिलिंग के पहाडो़ं तक सीमाबद्ध नहीं है।

गोराखा राष्ट्रीयता के भूगोल  और इतिहास में समूचा नेपाल,उत्तराखंड के गोरखा शासित हिस्से.सिक्किम और भूटान भी शामिल है और महागोरखालैंड का एजंडा भी पुराना है।सत्ता के नस्ली वर्चस्व की राजनीति से यह आग बूझेगी नहीं।

आदिवासी राष्ट्रीयताओं की समस्या को संबोधित किये बिना असम को कई टुकड़ों में विभाजित किया जाता रहा है।लेकिन पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताओं का आपसी विवाद थमा नहीं है।

मणिपुर में नगा और मैती संघर्ष लगातार जारी है तो असम में ही बोरोलैंड को स्वशासी इलाका बनाने के बाद भी अल्फाई अहमिया राष्ट्रवाद,इस्लामी ग्रेटर बांग्लादेश और आदिवासी राष्ट्रीयताओं का गृहयुद्ध जारी है।

इसी तरह त्रिपुरा में आदिवासी राष्ट्रीयता उग्रवाद में तब्दील है।

सत्ता की राजनीति राष्ट्रीयता आंदोलन के उग्रवादी धड़ों का का शुरु से इ्स्तेमाल उसीतरह करती रही है जैसे मेघालय में हाल में भाजपाई राजकाज है और असम में अल्फाई राजकाज है तो त्रिपुरा में फिर वामसत्ता को उखाड़ फेंकने का हिंदुत्व एजंडा है।

कश्मीर में सत्ता हड़पने की राजनीति का किस्सा बंगाल में भी दोहराने की तैयारी के तहत गोरखालैंड बनाम बांग्ला राष्ट्रीयता के गृहयुद्ध के पीछे भी नस्ली वर्चस्ववाद के हिंदुत्व एजंडे का हाथ है।यह हिंदुत्ववादियों को समझाना मुश्किल है तो सवर्ण धर्मनिरपेक्षता के झंडेवरदार बी राष्ट्रीयताओं की समस्या पर उसी नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के तहत किसी भी संवाद से पिछले सात दशकों से इंकार करते रहे हैं,जिनमें वामपंथी भी शामिल है।

ऐसा तब है जबकि लेनिन,स्टालिन और माओ ने भी राष्ट्रीयता की समस्या को संबोधित करने के गंभीर प्रयास किये हैं।



Sunday, September 3, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-16 आंतरिक उपनिवेश में नस्ली नरसंहार के प्रतिरोध में आदिवासी अस्मिता के झरखंड आंदोलन के दस्तावेजों का अनिवार्य पाठ भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच দুই ছিল মোর ভুঁই, আর সবই গেছে ঋণে। বাবু বলিলেন, 'বুঝেছ উপেন? এ জমি লইব কিনে।' কহিলাম আমি, 'তুমি ভূস্বামী, ভূমির অন্ত নাই - চেয়ে দেখো মোর আছে বড়জোর ম�

रवींद्र का दलित विमर्श-16

आंतरिक उपनिवेश में नस्ली नरसंहार के प्रतिरोध में आदिवासी अस्मिता के झरखंड आंदोलन के दस्तावेजों का अनिवार्य पाठ

भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच

দুই ছিল মোর ভুঁই, আর সবই গেছে ঋণে। বাবু বলিলেন, 'বুঝেছ উপেন? এ জমি লইব কিনে।' কহিলাম আমি, 'তুমি ভূস্বামী, ভূমির অন্ত নাই - চেয়ে দেখো মোর আছে বড়জোর মরিবার মতো ঠাঁই। শুনি রাজা কহে, 'বাপু, জানো তো হে, করেছি বাগানখানা, পেলে দুই বিঘে প্রস্থে ও দিঘে সমান হইবে টানা - ওটা দিতে হবে।'

पलाश विश्वास


দুই ছিল মোর ভুঁই, আর সবই গেছে ঋণে। বাবু বলিলেন, 'বুঝেছ উপেন? এ জমি লইব কিনে।' কহিলাম আমি, 'তুমি ভূস্বামী, ভূমির অন্ত নাই - চেয়ে দেখো মোর আছে বড়জোর মরিবার মতো ঠাঁই। শুনি রাজা কহে, 'বাপু, জানো তো হে, করেছি বাগানখানা, পেলে দুই বিঘে প্রস্থে ও দিঘে সমান হইবে টানা - ওটা দিতে হবে।'

  (दो बीघा जमीन ही बची है मेरी,बाकी सारी जमीन हुई कर्ज के हवाले।बाबू बोले,समझे उपेन?उसे मेरे हवाले करना होगा।यह जमीन मैं खरीद लुंगा।मैने कहा,तुम हो भूस्वामी,तुम्हारी भूमि का अंत नहीं।मुझे देखो,मेरी मौत के बाद शरण के लिए इतनी ही जमीन बची है।सुनकर राजा बोले-बापू,जानते हो ना,बागान तैयार किया है मैंने,तुम्हारी दो बिघा जमीन शामिल कर लूं तो लंबाई चौड़ाई में होगा बराबर,उसे देना होगा।)

राष्ट्रीयताओं के दमन और आदिवासी भगोल में अनंत बेदखली अभियान और भारतीय किसानों की अपनी जमीन छिन जाने के बारे में रवींद्र नाथ की लिखी कविता दो बिघा जमीन आज भी मुक्तबाजारी कारपोरेट हिंदुतव की नरसंहारी संस्कृति का सच है।यही फासिज्म का राजकाज और राष्ट्रवाद दोनों है।

हो सकें तो विमल राय की रवींद्र नाथ की कविता दो बीघा जमीन पर केंद्रित फिल्म को दोबारा देख लें।

भारत में राष्ट्रीयता का मतलब हिंदुत्व का नस्ली फासीवादी राष्ट्रवाद और उसके कारपोरेट साम्राज्य के सैन्यतंत्र के अश्वमेधी का महिमामंडन है।

अनार्य द्रविड़ दलित शूद्र आदिवासी स्त्री अस्मिताओं का विमर्श इस राष्ट्रवाद के विरुदध है तो रवींद्र के राष्ट्रवाद विरोध बौद्धमय भारत के मनुष्यता का धर्म है और दलित विमर्श के तहत अस्पृश्यता विरोधी चंडाल आंदोलन भी,जो अपने आप में आदिवासी किसान जनविद्रोह का परिणाम है।

राष्ट्रवाद के विरोध का सिलसिला रवींद्र के त्रिपुरा पर लिखे 1885 में प्रकाशित  उपन्यास राजर्षि से लेकर मृत्युपूर्व उनके लिखे निबंध सभ्यता के संकट तक जारी रहा है।वे जब बहुलता,विविधताऔर सहिष्णुता के जनपदीयलोकगणराज्यों की परंपरा में मनुष्यता की विविध धाराओं के महामिलन तीर्थ भारततीर्थ बतौर नये भारत की परिकल्पना कर रहे थे, तब उनके लिए फासीवादी नाजी नस्ली राष्ट्रवाद के परिदृश्य में भारत में हिंदुत्व के नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद के सामंती साम्राज्यवादी हिंदुत्व पुनरूत्थान का सच सबसे भयंकर था।

तब तक राष्ट्र के अंतर्गत राष्ट्रीयताओं के दमन के नजरिये से राष्ट्रीयताओं की समस्या पर कम से कम भारत में कोई चर्चा नहीं हुई है।

रूस की चिट्ठी में,चीन और जापान के प्रसंग में उऩ्होंने अंध राष्ट्रवाद की चर्चा तो की है लेकिन राष्ट्र के अंतर्गत राष्ट्रीयता के दमन की नरसंहार संस्कृति  की चर्चा नहीं की है।बल्कि रूस में विविध राष्ट्रीयताओं के विलय के साम्यवाद की उन्होंने प्रशंसा की है।भारतीय किसानों और कृषि संकट के संदर्भ में दलितों की दशा का चित्रण भी उन्होंने शुरु से लेकर आखिर तक की है।

वास्तव में रवींद्र नाथ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के जिन विविध बहुल घटकों के विलय के कथानक को अपनी रचनाधर्मिता का केंद्रीय विषय बनाया है,वह राष्ट्रीयताओं की समस्या ही है और फर्क सिर्फ इतना है कि रवींद्र नाथ इन राष्ट्रीयताओं के समन्वय और सहअस्तित्व की बात कर रहे थे।

लेनिन,स्टालिन और माओ त्से तुंग की तरह राष्ट्रीयताओं की समस्या मानकर सभ्यता और मनुष्यता की रवींद्रनाथ ने चर्चा नहीं की है।

वास्तव में फासीवादी राष्ट्रवाद के उनके निरंतर विरोध राष्ट्रीयताओं की राष्ट्र के नस्ली वर्चस्व के अंतर्गत राष्ट्रीयताओे की इसी समस्या को ही रेखांकित करता है और इसीलिए फासिस्ट मनस्मृति राष्ट्रवादियों को उनके साहित्य से उसी तरह घृणा है जैसे भारत के अवर्ण अनार्य द्रविड़ अल्पसंख्यका  कृषि और प्रकृति से जुड़े जन समुदाओं और मेहनतकशों से।

मुक्तबाजारी अर्थव्वस्था इन जन समुदायों की नरसंहारी संस्कृति पर आधारित है तो कारपोरे टहिंदुत्व का फासीवादी राष्ट्रवाद का आधार भी यही है।मनुस्मृति विधान का नस्ली वर्चस्व,आदिवासी भूगोल का दमन और अस्पृश्यता का सारा तंत्र यही है।

भारत में राष्ट्रीयताओं की समस्या पर संवाद निषिद्ध है तो जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका समानता न्याय किसानों,दलितों.शूद्रों,पिछड़ों,मुसलमानों और विधर्मियों, हिमालयक्षेत्र की आदिवासी और गैर आदिवासी राष्ट्रीयताओं,कश्मीर और आदिवासी भूगोल के नागरिक मानवाधिकार के पक्ष में आवाज उठाने वाले तमाम लोगों अरुंधति राय, सोनी सोरी, नंदिता सुंदर, साईबाबा से लेकर हिमांशु कुमार तक राष्ट्रवादियों के अंध राष्ट्रवाद के तहत राष्ट्रद्रोही हैं और इसके विपरीत मनुष्यता के विरुद्ध तमाम युद्ध अपराधी राष्ट्रनायक महानायक हैं,जो बंकिम की राष्ट्रीयता के धारक वाहक  हिंदुत्व के मनुस्मृति विधान के भगवा झंडेवरदार हैं।

इसलिए हमने कल नेट पर उपलब्ध राष्ट्रीयता की समस्या पर उपलब्ध सारी सामग्री शेयर की है और आदिवासियों के दमन उत्पीड़न और सफाया के दस्तावेज भी शेयर किये हैं।

भारत में राष्ट्रीयता समस्या को लेकर रवींद्र के दलित विमर्श को समझने के लिए कामरेड एके राय के आंतरिक उपनिवेश के विमर्श को समझना जरुरी है और जयपाल सिंह मुंडा  का आदिवासी अस्मिता विमर्श भी।

इस सिलसिले में सत्ता राजनीति से जुड़ने से पहले शिबू सोरेन,विनोद बिहारी महतो और ईएन होरो के झारखंड आंदोलन से संबंधित दस्तावेज भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। सत्ता में निष्णात होने से पहले आदिवासी आंदोलन के इतिहास को दोबारा पलटकर देखना भारत में राष्ट्रीयता की समस्या को समझने में मददगार हो सकता है।

प्रतिरोध के सिनेमा के लिए बहुचर्चित युवा फिल्मकार संजय जोशी ने डाक से वीरभारत तलवार संपादित नवारुण पब्लिशर्स की तरफ से प्रकाशित पुस्तक झारखंड आंदोलन के दस्तावेज खंड 1 भेजी है।264 पेज की यह पुस्तक भारत में राष्ट्रीयता के राष्ट्रीय प्रश्न को समझने के लिए एक अनिवार्य पाठ है,लेकिन इसकी कीमत जन संस्करण 299 रुपये और पुस्तकालय संस्करण 549 रुपये हैं जो हिंदी पुस्तकों की कीमत के हिसाब से बराबर है लेकिन आम जनता तक इस पुस्तक को उपलब्ध कराने में यह कीमत कुछ ज्यादा है।

हमने पत्रकारिता की शुरुआत 1980 में धनबाद से ही की और झारखंड आंदोलन के तहत राष्ट्रीयताओं की समस्या पर केंद्रित विमर्श में उस दौरान हमारी भी सक्रिय भागेदारी रही है।कामरेड एक राय,शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो के साथ साथ इस पुस्तक में शामिल आदिवासियों के राष्ट्र की समस्या के लेखक सीताराम शास्त्री से हमारा निरंतर संवाद रहा है।

हमारे दैनिक आवाज में शामिल होने से पहले कवि मदन कश्यप वहां संपादकीय में थे और तब हमने अंतर्गत का एक अंक राष्ट्रीयता की समस्या  और झारखंड आंदोलन पर निकाला था।

हमारे धनबाद आने से पहले वीर भारत तलवार भी दैनिक आवाज में थे  और हमारे ज्वाइन करने से पहले वे आवाज छोड़ चुके थे लेकिन तब भी  वे धनबाद में थे और  शालपत्र निकाल रहे थे।वीरभारत तलवार की ज्यादा अंतरंगता उपन्यासकार (गगन घटा गहरानी) मनमोहन पाठक के साथ थी।

वीर भारत तलवार लगातार झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे हैं और झारखंडी विमर्श के वे निर्माता भी रहे हैं।इस पुस्तक में शामिल तमाम दस्तावेज या तो उन्होंने खुद अनूदित किये हैं या उन्हें शालपत्र में प्रकाशित किया है, इसलिए इन दस्तावेजों की प्रामाणिकता के बारे में किसी तरह के संदेङ का कोई अवकाश नहीं है।

सरायढेला.धनबाद के पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा केंद्रीय सम्मेलन में मैं भी मौजूद था।इसी सम्मेलन में झारखंड आंदोलन दो फाड़ हो गया था और एके राय से शिबू सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा अलग हो गया था।

एके राय से अलगाव के बाद झारखंड आंदोलन का लगातार बिखराव और विचलन होता रहा है और अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आंदोलन सिरे से लापता है।नये राज्य में एके राय के विचारों के लिए कोई जगह नहीं है।

विनोद बिहारी महतो दिवंगत हैं और शिबू सोरेन सिरे से बदल गये हैंं।

पुस्तक की भूमिका में वीर भारत तलवार ने सही लिखा हैः

अगर आप झारखंड और आदिवासियों के नाप पर राजनीति करने वाले संगठनों और पार्टियों के उन पुराने दस्तावेजों को देखें ,जिन्हें इन पार्टियों ने झारखंड आंदोलन के दौरान स्वीकृत किया था ,तो आप हैरान हो जायेंगे।खासकर झारखंड मुक्तिमोर्चा और आजसू के उस समय के पार्टी कार्यक्रम और घोषणापत्र को देखकर किसी के भी  मन में यही सवाल उठेगा कि क्या यही झारखंड मुक्ति मोर्चा है? यही आजसू है?...झारखंड आंदोलन के दौरान इन पार्टियों ने जो कुछ कहा और झारखंड बन जाने के बाद ,सत्ता में रहते हुए इन्होंने जो कुछ किया,इन दोनों के बीच,इनकी कथनी और करनी के बीच,क्या कोई संबंध है?..

इस पुस्तक में राज्य पुनर्गठन आयोग को 1954 में झारखंड पार्टी के जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में दिया गया मेमोरेंडम है तो 1973 में झारखंड पार्टी के एनई होरो के नेतृ्त्व में भारत के प्रधान मंत्री को दिया गया मेमोरंडम भी है।

भारत में राष्ट्रीयताओं की समस्या को समझने के लिए बेहद जरुरी दस्तावेज सीताराम शास्त्री ने तलवार के सहयोग से तैयार बंगाल के कामरेडों को समझाने के लिए लिखा। यह दस्तावेज- भारत में राष्ट्रीय प्रश्न और आदिवासियों के राष्ट्र की समस्या इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।तो आदिवासी विमर्श और राष्ट्रीयता की समस्या पर वीरभारत का आलेख झारखंडः क्या,क्यों और कैसे? भी अनिवार्य पाठ है।बाकी सांगठनिक दस्तावेजो के अलावा कामरेड एके राय के तीन दस्तावेज इस पुस्तक में शामिल किये गये हैं।1.भारत में आंतरिक उपनिवेशवाद और झारखंड की समस्या 2.भारत में असमान विकास तथा उत्पीड़ित जातियों का शोषण 3.झारखंड आंदोलन की नई दिशा और झारखंडी चरित्र

ऋषि बंकिमचंद्र बांग्ला सवर्ण राष्ट्रवाद के साहित्य सम्राट हैं तो हिंदुत्व के नस्ली फासीवादी राष्ट्रवाद की जड़ें उनके आनंदमठ, दुर्गेश नंदिनी जैसे आख्यान में हैं। इतिहास में हिंदुत्व के नस्ली वर्चस्व को महिमामंडित करने वाले बंकिम के वंदे मातरम साहित्य के खिलाफ दो बीघा जमीन पर खड़े हैं रवींद्रनाथ और उनका सामाजिक यथार्थ, उनका इतिहास बोध,,उऩका बौद्धमय भारत इस नस्ली राष्ट्रवाद के खिलाफ मुकम्मल दलित विमर्श है तो यह आदिवासी भूगोल के दमन और उत्पीड़न पर आधारित फासीवादी नस्ली सैन्य राष्ट्र और आंतरिक उपनिवेशवाद का सच भी है।

आर्यावर्त के भूगोल से बाहर बाकी बचा भारत अनार्य,द्रविड़ और दूसरी राष्ट्रीयताओं का भूगोल है और महाभारत का इंद्रप्रस्थ उसके दमन का केंद्र है।

रवींद्र के दलित विमर्श बहुलता ,विविधता और सहिष्णुता के जनपदीय लोक गणराज्यों से बने स्वदेश के हिंद स्वराज की कथा है,जहां गांधी का दर्शन और रवींद्र का दलित विमर्श पश्चिमी उस फासीवादी नस्ली राष्ट्रवाद के विरुद्ध एकाकार है जो नस्ली सत्ता वर्चस्व के लिए नरसंहारी संस्कृति के प्रतिरोध की दो बिघा जमीन भी है।

सवर्ण विमर्श में राष्ट्र के सामंती साम्राज्यवादी चरित्र पर,राष्ट्रीयताओं की समस्या पर घनघोर संवाद होने के बावजूद सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व पर आधारित राष्ट्र और राष्ट्रवाद के संदर्भ और प्रसंग में सिरे से सन्नाटा है।

दलित विमर्श इस नस्ली वर्चस्व के विरोध में है और चूंकि बहुजन कृषि और प्रकृति से जुड़े तमाम जनसमुदायों की जड़ें आ्रर्यों की वैदिकी सभ्यता से अलग अनार्य द्रविड़ और अन्य अनार्य नस्लों, सभ्यताओं और राष्ट्रीयताओं में है,जिनके उत्तराधिकारी आज के आदिवासी है तो रवींद्र के इस दलित विमर्श की समझ के लिए आदिवासी अस्मिता की समझ भी जरुरी है।

इसलिए हमने इस चर्चा में इससे पहले रांची से प्रकाशित चार पुस्तकों की चर्चा की थी।इन चार पुस्तकों में आदिवासी अस्मिता पर भारत की संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आवाज उठाने वाले जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों का संग्रह (अंग्रेजी में) अश्विनी कुमार पंकज संपादित आदिवासीडम भी है।

गौरतलब है कि किसी एक राष्ट्रीयता के वर्चस्व पर आधारित पश्चिमी राष्ट्र दूसरी राष्ट्रीयताओं के दमन का तंत्र है और उसके इसी फासीवादी नाजी साम्राज्यवादी चरित्र के खिलाफ गांधी और रवींद्र राष्ट्रवाद के खिलाफ खड़े हो गये।

जर्मनी,जापान और इटली के फासीवादी नाजी समय के बारे में सबको कमोबेश मालूम है।इस फासीवादी नाजी कालखंड से भी पहले ब्रिटिश,फ्रांसीसी,पुर्तगीज,स्पेनीश साम्राज्यवाद ने नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के तहत उपनिवेशों में नस्ली नरसंहार के जरिये राष्ट्रीयताओं का सफाया किया है।

अमेरिका,लातिन अमेरिका के मूलनिवासियों का सफाया इस नस्ली नरसंहार का वीभत्स इतिहास है और नई दुनिया के खोज के तमाम महानायकों मसलन कोलंबस और वास्कोडिगामा के हाथ लाखों मूलनिवासियों के कत्लेआम के खून से लहूलुहाऩ हैं और नस्ली इतिहासकारों के आख्यान में वही महिमामंडित पाठ्यक्रम है।

अमेरिका में लोकतंत्र के मूल्यों के खात्मे के सात उसी रंगभेदी नस्ली नरसंहार कार्यकर्म का पुनरूत्थान अमेरिका साम्राज्यवाद का मुक्तबाजारी बहुराष्ट्रीय पूंजी का चेहरा है।जिसके साथ हुंदुत्व के नस्ली राष्ट्रवादियों की सत्ता का युद्धक गठजोड़ है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की शुरुआत  1857 की क्रांति से होती है और उसमें 1757 के तुरंत बाद शुरु आदिवासी शूद्रों दलितों के चुआड़ विद्रोह की कथा नहीं है जिसकी कोख से अंग्रेजी हुकूमत को बनाये रखने के लिए स्थायी भूमि बंदोबस्त के तहत जमींदारियों का सृजन हुआ और ब्रिटिश हुकूमत के साथ जमींदारियों के सवर्ण वर्चस्व के विरोध में आदिवासी किसानों का सामंतवादविरोधी साम्राज्यवाद विरोधी महासंग्राम का सिलसिला भी इसीके साथ शुरु हुआ और शुरु हुआ  भारत में अनार्य द्रविड़ और दूसरी अनार्य राष्ट्रीयताओं के दमन के सैन्य राष्ट्रवाद का निर्माण बंकिम के आनंदमठ  के साथ।

भारत के आदिवासी खुद को असुरों के वंशज कहते हैं और दुर्गा का मिथक रचा गढ़ा गया आनंदमठीय नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद के तहत जो सत्ता वर्ग के खिलाफ राष्ट्रीयताओं के महासंग्राम में आदिवासी असुरों का वध कार्यक्रम है।

हिंदुत्व के फासवीवादी पुनरूत्थान की जमीन आनंदमठ है और भारतामाता का दुर्गावतार भी यही आनंदमठीय राष्ट्रवाद का आंतरिक उपनिवेशवाद है।

राष्ट्रीयताओं के दमन का इतिहास  इसलिए जर्मनी,इटली या जापान तक सीमाबद्ध नहीं है और न साम्राज्यवादी पश्चिमी राष्ट्रों के दनियाभर में फैले उपनिवेशी की ही यह व्यथा कथा है।

साम्यवादी राष्ट्रों में भी राष्ट्रीयताओं के दमन का इतिहास है।

सोवियत संघ और चीन में भी.सोवियत संघ का विघटन राष्ट्रीयताओं के गृहयुद्ध का परिणाम है तो चीन में राष्ट्रीयता के दमन को तिब्बत के सच के संदर्भ में समझा जा सकता है।जबकि लेनिन,स्टालिन और माओ त्से तुंग जैसे राष्ट्र नेताओं ने राष्ट्रीयता की समस्या के समाधान के लिए अपनी तरफ से लगातार कोशिशें की हैं और सच यह है कि साम्यवादी राष्ट्रों ने राष्ट्रीयता के यथार्थ को मानकर इस समस्या के समाधान की लगातार कोशिश की है लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों में ऐसा कोई विमर्श नहीं चला।

पश्चिम के माडल पर निर्मित भारतीय राष्ट्र में भी राष्ट्रीयताओं के राष्ट्रीय प्रश्न को संबोधित करने का प्रयास नहीं हुआ और गांधी और रवींद्रनाथ को पश्चिम के इसी राष्ट्रवाद से विरोध था।

गौरतलब है कि झारखंड आंदोलन के साम्यवादी नेता कामरेड एक राय ने इसी नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद को आतंरिक उपनिवेशवाद कहा है और मैंने भी अपने उपन्यास अमेरिका से सावधान में साम्राज्यवादी मुक्तबाजार की चुनौती के संदर्भ में लगातार इस आंतरिक साम्राज्यवाद की चर्चा की है।

राष्ट्रीयता के इस राष्ट्रीय प्रश्न को समझने के लिए हमने मुक्तबाजार के पहले  शहीद शंकर गुहा नियोगी के निर्माण और संघर्ष की राजनीति की चर्चा की है और झारखंड राज्य की परिकल्पना में झारखंड के आंदोलनकारियों की अर्थव्यवस्था,जल जंगल जमीन राष्ट्रीय संसाधन खनिज संपदा और औद्योगीकरण के बारे में आंदोलन की रणनीति भी कमोबेश उसी निर्माण और संघर्ष की राजनीति पर आधारित है।

बंगाल में सार्वजनीन दुर्गोत्सव के वंदेमातरम राष्ट्रवाद के तहत ही महिषासुर वध के मिथक का भारतीय नस्ली राष्ट्रवाद का प्रतीक दुर्गावतार बनाया गया है।

ब्रिटिश हुकूमत,स्थाई भूमि बंदोबस्त के जरिये किसानों की जल जंगल जमीन आजीविका और रोजगार से बेदखली के 1757 से शुरु चुआड़ विद्रोह के दमन में ही दुर्गावतार के वंदेमातरम राष्ट्रवाद के हिंदुत्व पुनरुत्थान के बीज हैं तो सैन्य राष्ट्रवाद के विमर्श के मुकाबले रवींद्र के दलित विमर्श की अनार्य द्रविड़ जमीन बंगाल में सामंती व्यवस्था के संकट के दौरान जमींदारी तबके के जर्मनी से जुड़े जमींदारों के हित में किसानों के हक हकूक के खिलाफ मनुस्मृति विधान के पक्ष स्वेदशी आंदोलन और अनुशीलन समिति के सवर्ण राष्ट्रवाद के दौरान दुर्गा के महिषमर्दिनी मिथक को राष्ट्रवाद बना देने के हिंदुत्व उपक्रम को समझने के लिए चुआड़ विद्रोह के भूगोल इतिहास को समझना जरुरी है।

गौरतलब है कि आदिवासी,शूद्र दलित शासकों के  चुआड़ विद्रोह भारतीय विमर्श और भारतीय इतिहास में किसी भी स्तर पर दर्ज नहीं है और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनार्य असुरों के आदिवासी किसान जनविद्रोहों को कभी शामिल ही नहीं किया गया है और इस इतिहास में वंदेमातरम के अखंड राष्ट्रवाद के सिवाय बाकी राष्ट्रीयताओं के वजूद को सिरे से खारिज कर दिया गया है,जबकि रवींद्र की भारत परिकल्पना में इन राष्ट्रीयताओं के लोक गणराज्यों के विलय का कथानक है।

चुआड़ विद्रोह,संथाल विद्रोह और मुंडा विद्रोह से लेकर बंकिम के आनंदमठ में बहुचर्चित संन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह के भूगोल में बिहार झारखंड ओड़ीशा छत्तीसगढ़ आंध्र मध्यप्रदेश और बंगाल के आदिवासी भूगोल नस्ली वर्चस्व के इस राष्ट्रवाद की सामंती संरचना और ब्रिटिश साम्रज्यवाद के खिलाफ भारतीय अनार्य द्रविड़ राष्ट्रीयताओं के महासंग्राम का इतिहास है जो भारत के मुक्ति संग्राम के सवर्ण नस्ली विमर्श में कहीं शामिल नहीं है।

इसीलिए भारतमाता का दुर्गावतार नस्ली मनुस्मृति राष्ट्रवाद का प्रतीक है तो महिषासुर वध आदिवासी भूगोल का सच


Friday, September 1, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-15 मैं अछूत हूं,मुझे मंत्र का अधिकार नहीं है मैं अछूत हूं,मेरी कोई जाति नहीं है!.. सभ्यता का संकटःफर्जी तानाशाह बहुजन नायक नायिकाओं का सृजन और विसर्जन मनुस्मृति राजनीति का सोशल इंजीनियरिंग है। भारत विभाजन के बाद बहुजनों की आस्था,उनके धर्म और उनके राजनीतिक स्वायत्तता के इन आंदोलनों को बाबा बाबियों के तानाशाह रंगीला दूल्हा दुल्हनों के हवाले करने की कारपोरेट �

रवींद्र का दलित विमर्श-15

मैं अछूत हूं,मुझे मंत्र का अधिकार नहीं है

मैं अछूत हूं,मेरी कोई जाति नहीं है!..

सभ्यता का संकटःफर्जी तानाशाह  बहुजन नायक नायिकाओं का सृजन और विसर्जन मनुस्मृति  राजनीति का सोशल इंजीनियरिंग है।

भारत विभाजन के बाद बहुजनों की आस्था,उनके धर्म और उनके राजनीतिक स्वायत्तता के इन आंदोलनों को बाबा बाबियों के तानाशाह रंगीला दूल्हा दुल्हनों के हवाले करने की कारपोरेट सत्ता के ब्राह्मणतांत्रिक सत्ता राजनीति का हाथ रहा है। जिससे इन आंदोलनों के मार्फत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नियंत्रण में रखकर मनुस्मृति राज बहाल किया जाये और बहुजनों के सामुदायिक जीवन और साझा संस्कृति की विरासत और उनके मनुष्यता के धर्म का हिंदुत्वकरण कर दिया जाये।

पलाश विश्वास

बंगाल के नबाव के दरबारी दो पूर्वज गोमांस की गंध सूंघने का आरोप में मुसलमान बना दिये गये थे तो रवींद्र के पूर्वज अछूत पीराली ब्राह्मण बन गये थे।

नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले सामाजिक बहिस्कार की वजह से अपने बचपन की अस्पृश्यता यंत्रणा पर उन्होंने कोई दलित आत्मकथा नहीं लिखी लेकिन उनकी स्मृतियों में इस अस्पृश्यता का दंश है।

नोबेल पुरस्कार पाने के बावजूद हिंदुत्व के पवित्र धर्मस्थलों में उनका प्रवेशाधिकार निषिद्ध रहा है।

ब्रहामसमाजी टैगोर परिवार  जमींदारी और कारोबार के तहत कोलकाता में प्रतिष्ठित थे लेकिन भद्रलोक समाज से बहिस्कृत थे।

गीताजंलि में इसीलिए उनका अंतरतम लालन फकीर का मनेर मानुष और उनका प्राणेर मानुष है और दैवी शक्ति की आराधना के बजाय विश्वमानव के अंत-स्थल में वे अपने ईश्वर को खोज रहे थे।

अस्पृश्यता  के इसी दंश के चलते कोलकाता का जोड़ासांको छोड़कर वीरभूम के आदिवासी गांवों में उन्होंने शांतिनिकेतन को अपनी कर्मभूमि बनाया उसीतरह जैसे नव जागरण के मसीहा ईश्वर चंद्र विद्यासागर कोलकाता,भद्रलोक समाज और अपने परिजनों को भी छोड़कर आदिवासी गांव में अपना अंतिम जीवन बिताया।

आदिवासी के अनार्य द्रविड़ सामुदायिक जीवन के लोकतंत्र को दोनों ने जीवन का उत्सव मान लिया और उसीमें समाहित हो गये।

भविष्यद्रष्टा रवींद्रनाथ टैगोर ने गीतांजलि में जो लिखा वहीं नियति के साथ भारत का साक्षात्कार है और ये पंक्तियां भारत में सभ्यता के संकट की निर्मम अभिव्यक्ति हैंः

हे मोर दुर्भागा देश,जादेर कोरेछो अपमान

अपमाने होते हबे ताहादेर सबार समान

मानुषेर परशेरे प्रतिदिन ठेकाइया दूरे

घृणा करियाछो तुमि मानुषेर प्राणेर ठाकुरे

(ओ मेरे अभागा देश,जिनका तुमने किया है अपमान

अपपमान में ही होना होगा उन्हीं के समान

मनुष्य के स्पर्श को प्रतिदिन तुमने ठुकराया है

तुमने घृणा की है मनुष्य के प्राण में बसे ईश्वर से)

इसी तरह उन्होंने 1936 में पत्रपुट कवितासंग्रह के 15वीं कविता में लिखाः

आमि व्रात्य,आमि मंत्रहीन,

देवतार बंदीशालाय

आमार नैवेद्य पौंचालो ना!..

हे महान पुरुष,धन्य आमि,देखेछि तोमाके

तामसेर परपार होते

         आमि व्रात्य,आमि जातिहारा

      (मैं अछूत हूं,मुझे मंत्र का अधिकार नहीं है

       देवता के बंदीगृह में

      मैरा नैवेद्य पहुंचा नहीं!..

हे महान पुरुष,मैं धन्यहूं,मैंने तुम्हें देखा है

     अंधकार के दूसरे छोर से

     मैं अछूत हूं,मेरी कोई जाति नहीं है!..


नस्ली राष्ट्रवाद के फासीवादी चरित्र रवींद्र समय की युद्ध विध्वस्त पृथ्वी का ही सच नहीं है,यह दरअसल भारत का ज्वलंत सामाजिक यथार्थ का निरंतर समयप्रवाह है। भारत में अस्पृश्यता की मनुस्मृति व्यवस्था रंगभेदी फासीवाद से अलग नहीं है और यही भारत की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या है जो असमानता और अन्याय की निरंकुश नरसंहार संस्कृति भी है।यही फासिज्म का राजकाज,सभ्यता का संकट है।

भारत में ब्रिटिश राजकाज के दौरान मनुस्मृति के तहत निषिद्ध अधिकारों से वंचित बहुजन समाज को लगता था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने पर भारत में फिर सत्ता ब्राह्मणतांत्रिक वर्ण वर्ग वर्चस्व की हो जायेगी तो रवींद्र नाथ अपनी मृत्यु से पहले अंग्रेजों के भारत छोड़ जाने के से पहले इस नस्ली राष्ट्रवाद के हिंदुत्व अभ्युत्थान की आशंका से बेहद चिंतित थे,जिसकी हम चर्चा कर चुके हैं।

सभ्यता का संकट शीर्षक उनके मृत्युपूर्व आलेख में भारत में सत्ता हस्तांतरण के बाद मनुष्यता के संकट में भारत के विखंडन की उन्होंने विस्तार से चर्चा की है।

भारत विभाजन की त्रासदी में अखंड भारत और विखंडित भारत में हिंसा और घृणा का सिलसिला अभी जारी है और यही  हिंसा और घृणा की संस्कृति ही भारत में सत्ता की राजनीति है,जिसके शिकार दलित,पिछड़े,मुसलमान और तमाम विधर्मी लोग, अनार्य द्रविड़ और दूसरे अनार्य जनसमुदाय, आदिवासी और मजबूत होती पितृसत्ता के शिकंजे में फंसी स्त्री,तमाम मेहनतकश लोग,किसान और मजदूर हैं।

रवींद्र नाथ ने भारतीय जनता के सामाजिक जीवन को धार्मिक माना है और इस धर्म को उन्होंने मनुष्यता का धर्म माना है जो सत्ता वर्ग के रंगभेदी अस्मिता आधारित विशुद्धता का नस्ली धर्म नहीं है।

वे अंत्यज अछूत और बहुजनों की आस्था और बहुजन समाज की बात ही कर रहे थे। वे आस्था की स्वतंत्रता और आस्था के लोकतंत्र की बात कर रहे थे।

सत्ता हस्तांतरण के बाद सत्ता के वर्ग वर्ण वर्चस्व के लिए बहुजनों के राजनीतिक सामाजिक धार्मिक आर्थिक विघटन बिखराव विस्थापन दमन उत्पीड़न का सबसे भयंकर सच अगर शरणार्थी समस्या और आदिवासियों का सफाया अभियान है तो बहुजन राजनीति और धर्म आस्था में भी सत्ता नियंत्रित बाबा बाबियों के अभ्युत्थान मार्फत हिंदुत्व का यह पुनरुत्थान उत्सव है।

बहुजन राजनीति भी बहुजनों के सामुदायिक जीवनयापन और साझा विरासत की संस्कृति के विरुद्ध यही बाबा बाबी संस्कृति में निष्णात है और इसी वजह से सत्ता का वर्ग वर्ण वर्चस्व निरंकुश ब्राह्मणतंत्र में निष्णात है,जिसकी आशंका बहुजन पुरखों मसलन महात्मा ज्योतिबा फूले और गुरुचांद ठाकुर के साथ साथ पीराली अछूत ब्राह्मण ब्रह्मसमाजी कवि रवींद्रनाथ को थी।

गौरतलब है कि सत्ता वर्ग के तमाम संगठन और उनकी रंगभेदी नस्ली फासीवादी राजनीति संस्थागत है और वही संगठित राष्ट्र व्यवस्था का पर्याय है तो बहुजन समाज में संस्थागत संगठन के विघटन और बिखराव के तहत धार्मिक राजनीतिक बाबा बाबियों को खड़ा करके,उन्हें कठपुतलियां बनाकर बहुजन समाज को गुलाम बनाये रखने का खेल ही अस्मिता निर्भर धर्मांध अंध राष्ट्रवादी राजनीतिक वर्चस्व का समीकरण है।

इन्हें स्थापित करने ,इनके महिमामंडन करने में यही राजनीति काम करती है और फिर रस्म अदायगी के बाद इन्हीं प्रतिमाओं का सार्वजनिक विसर्जन का रिवाज है।समूचा प्रचारतंत्र महिमामंडन,प्राण प्रतिष्ठा और विसर्जन उत्सव में लगा रहता है। विसर्जन के समयभी ढोल नगाड़े पीटने का सार्वजनिक विजयोत्सव का महिषासुर वध है।यही कुल मिलाकर भारत में समता,न्याय और कानून का राज है।

धर्म और राजनीति में सत्ता समर्थित तमाम महानायकों महानायिकाओं और बाबा बाबियों के प्रकरण में यही वैज्ञानिक प्रक्रिया चलती रहती है।

पवित्र धर्मस्थलों और संस्थागत धार्मिक संस्थानों में प्रवेशाधिकार वंचित जनसमुदाओं की आस्था और सामुदायिक जीवन के साथ साथ समान मताधिकार के लोकतंत्र में वंचित दलित बहुजन जनसमुदायों के लिए तमाम डेरे,मठ और ऐसे ही वैकल्पिक धार्मिक संगठन,पंथ उनकी राजनीतिक ताकत के आधार भी हैं,जिसका नियंत्रण आजादी से पहले उन्हीं के हाथों में हुआ करता था और यही उनकी राजनीतिक धार्मिक स्वायत्तता का आधार था।

बंगाल का मतुआ और कर्नाटक का लिंगायत धर्म इसके उदाहरण हैं तो पंजाब में सिख समाज के सत्ता वर्गीय अकालियों के मुकाबले यही फिर डेरा संस्कृति है तो बाकी देश में तमाम मठ और बाबा बाबियों के अखाड़े इसीतरह के  वैकल्पिक परिसर हैं।

बंगाल में मतुआ धर्म ब्राह्मण धर्म के खिलाफ बहुजनों का चंडाल आंदोलन रहा है तो कर्नाटक में लिंगायत आंदोलन बहुजनों का ब्राह्णधर्म के खिलाफ सामाजिक सशक्तीकरण आंदोलन रहा है।

जैसे तमिलनाडु का ब्राह्मणधर्म संस्कृति विरोधी द्रविड़ आंदोलन।

देशभर में बंगला के चैतन्य महाप्रभू और पंजाब के गुरुनानक के सुधार आंदोलनों के तहत सामंती दैवी सत्ता के विरुद्ध मनुष्यता के धर्म के तहत साधुओं, संतों, पीर, फकीरों, बाउलों और समाज सुधारकों के ये आंदोलन बहुजन पुरखों के नेतृत्व में बहुजनों के राजनीतिक धार्मिक स्वयायत्ता के आंदोलन रहे हैं।

इनमें आदिवासी धर्म और राजनीति के स्वायत्तता आंदोलन और आदिवासी किसान जनविद्रोह की परंपरा भी है,जो सामंती और साम्राज्यवादी सत्ता के साथ साथ ब्राह्मणतंत्र के नस्ली वर्चस्व और मनुस्मृति विधान की असमानता और अन्याय के विरुद्ध थे।

भारत विभाजन के बाद बहुजनों की आस्था,उनके धर्म और उनके राजनीतिक स्वायत्ता के इन आंदोलनों को बाबा बाबियों के तानाशाह रंगीला दूल्हा दुल्हनों के हवाले करने की कारपोरेट सत्ता के ब्राह्मणतांत्रिक सत्ता राजनीति का हाथ रहा है।

जिससे इन आंदोलनों के मार्फत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नियंत्रण में रखा जाये और बहुजनों के सामुदायिक जीवन और साझा संस्कृति की विरासत और उनके मनुष्यता के धर्म का हिंदुत्वकरण कर दिया जाये।

इसी राजनीति के तहत अकाली अब पूरी तरह संघ परिवार के शाखा संगठन में तब्दील हैं तो महात्मा गौतम बुद्ध,महात्मा महावीर,गुरुनानक, महात्मा ज्योतिबा फूले,बाबासाहेब भीमारव अंबेडकर,नारायण स्वामी,हरिचांद गुरुचांद,अयंकाली,पेरियार से लेकर मान्यव कांशीराम के तमाम आंदोलनों का हिंदुत्वकरण उसीतरह हो गया जैसे कि तमाम मठों,जिनमें गोरखपुर का मठ भी शामिल है,तमाम डेरों,मतुआ,लिंगायत और द्रविड़ आंदोलनों का हिंदुत्वकरण हुआ है और इससे बीरसा मुंडा का आंदोलन भी अछूता नहीं है।

फर्जी तानाशाह  बहुजन नायक नायिकाओं का सृजन और विसर्जन सत्ता राजनीति का सोशल इंजीनियरिंग है।

हमारे बेहद प्रिय युवा मित्र अभिषेक श्रीवास्तव ने राम रहीम प्रकरण पर फेसबुक पर एक बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी,जिस पर अलग से चर्चा करने की जरुरत थी।भारत की परिकल्पना ही दरअसल रवींद्र का दलित विमर्श है।

लोक और जनपदों में रचे बसे भारत में बहुलता,विविधता,सहिष्णुता के लोकतंत्र में मनुष्यों की आस्था और धर्म,खासतौर पर सामंती वर्ण वर्ग वर्चस्वी सत्ता वर्ग के संरक्षित परिसर से बहिस्कृत और अछूत अंत्यज बहुजन समाज के सामाजिक यथार्थ के सिलसिले में आस्था और धर्म के अधिकार से वंचित समुदाओं का सच ही भारत में बहुजन आंदोलन के बिखराव और राजनीति में सवर्ण राजनीति के हित में प्रायोजित  दूल्हा दुल्हन बारात संस्कृति को समझने के लिए अभिषेक का यह मंतव्य गौरतलब है।

अभिषेक ने लिखा हैः

इन तमाम बाबाओं के अपने-अपने पंथ हैं। ये पंथ हिंदू धर्म में बहुलता का बायस रहे हैं। द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, गोरख, कबीर, नानक, सूफ़ी, सांख्‍य, अघोर... गिनते जाइए। जितनी शाखाएं, उतने बाबा। ये रंग-बिरंगे पंथ हिंदू धर्म को मोनोलिथ यानी एकांगी नहीं बनने देते। जो जनता इन पंथों के बाबाओं की भक्‍त है, वह स्ट्रिक्‍टली वैष्‍णव या शैव नहीं है। उसकी धार्मिक आस्‍थाओं में राम-कृष्‍ण या अन्‍य अवतार उस तरह से नहीं आते जैसे एक सामान्‍य शहरी सवर्ण हिंदू के मानस में रचे-बसे होते हैं। इसीलिए इन पंथों के बाबा लोग भले पंथ के नाम पर राजनीति करते हों, लेकिन इनके सामान्‍य गंवई निम्‍नवर्गीय अवर्ण भक्‍त कर्मकांड के ऊपर व्‍यक्तिगत आचरण को जगह देते हैं। सौ में दस भले हिंसा करते हैं लेकिन बाकी नब्‍बे ऐसी घटनाओं के बाद टूट जाते हैं।

मुझे लगता है कि हिंदू धर्म के एकांगी बनने की राह में जो आस्‍थाएं रोड़ा हैं, वे ही आरएसएस के निशाने पर हैं। निशाने का मतलब गलत न समझिएगा। पंथ-प्रधान का भ्रष्‍ट होना एक सामान्‍य बात है लेकिन उन्‍हीं पंथ-प्रधानों को कुकृत्‍यों की सज़ा मिलना बेशक एक स्‍कीम का हिस्‍सा हो सकता है जो आरएसएस की वैचारिकी में फिट नहीं बैठते। जो लोग दो दिन से डिमांड कर रहे हैं कि ऐसे तमाम बाबाओं की नकेल कसी जाए, वे शायद व्‍यापक तस्वीर को मिस कर रहे हैं। आप चेहरों को भूल जाइए, तो उनके पीछे के तमाम पंथ दरअसल आरएसएस का एंटीडोट हैं/थे/होने की क्षमता रखते हैं। मैं इसमें गोरक्षनाथ मठ की परंपरा को भी गिनता हूं। रामदेव और रविशंकर सरीखे तो सरेंडर किए हुए धार्मिक कारोबारी हैं, वे इस नैरेटिव में नहीं आते।


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