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Friday, May 18, 2018

दिल्ली में सत्ता के नाभिनाल से जुड़े लोगों का हिंदी साहित्य और तमाम विधाओं पर एकाधिकार कब्जा हो गया और हम तिनके की तरह उड़ बिखर गये। पलाश विश्वास

दिल्ली में सत्ता के नाभिनाल से जुड़े लोगों का हिंदी साहित्य और तमाम विधाओं पर एकाधिकार कब्जा हो गया और हम तिनके की तरह उड़ बिखर गये। 
पलाश विश्वास 
लेखकों का संगठन बनाने के लिए चर्चा शुरु करने में परिचय, कौशल किशोर और विनय श्रीकर दोनों का बहुत योगदान रहा।धीरेंद्र सारिका में छपने के कारण स्थापित हो चुके थे।लेकिन हम लोगों तब सिर्फ लघु पत्रिकाओं में ही लिख रहे थे।

कोटा की बैठक में सुधीश पचौरी और धीरेंद्र ने व्यवसायिक पत्रिकाओं में न लिखने और सिर्फ लघु पत्रिकाओं में ही लिखने के बारे में सबसे जोरदार दलीलें पेश कीं।

कपिलेश भोज और मैं जीआईसी नैनीताल से गये हुए थे।तब तक गिरदा से भी हमारा संवाद शुरु नहीं हुआ था और न नैनीताल समाचार और पहाड़ निकल रहे थे।इसलिए लेखोकों के संगठन बनाने के सिलसिले में कौशल किशोर,विनय श्रीकर,सव्यसाची,शिवराम और महेंद्र नेह तो हमें भी बराबर महत्व दे रहे थे,बाकी लोगों के लिए हम बच्चे थे।

एक बात और,लेखक संगठन बनाने के बारे में शेखर जोशी,अमरकांत,मार्कंडेय,भैरव प्रसाद गुप्त और दूधनाथ सिंह भी सत्तर के दशक से सक्रिय थे।

हम लोग उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी में शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में इमरजेंसी के बाद संसदीय राजनीति के खिलाफ हो गये थे,इसलिए जनवादी लेखक संघ के लिए संवाद से जाहिरा तौर पर अलग हो गये थे।

1079 में इलाहाबाद में मैं एमए पास करने के बाद पीएचडी करने के इरादे से गया और वहां शेखर जी के घर ठहरा।वहीं हम लेखक संगठन बनाने की इलाहाबाद के लेखकों और कवियों की सक्रियता के मुखातिब हुए।भैरवजी इन लेखकों के सर्वमान्य नेता थे और जनपदों के इन तमाम लेखकों के साथ सव्यसाची जी का लगातार संपर्क बना हुआ था।लेकिन भोपाल और दिल्ली वाले लगातार इन्हें हाशिये पर डालने में लगे हुए थे।

इलाहाबाद में वीरेन डंगवाल,मंगलेश डबराल,उर्मिलेश,रामजी राय और नीलाभ हमारी धारा के लोग थे और तब हम भी संस्कृतिकर्मियों को संगठित करने में अलग से संवाद करने लगे थे।

जेएनयू पहुंचकर गोरख पांडे से मुलाकात हुई,जो इस बारे में सबसे ज्यादा उत्साही थे।

जेएनयू में पढ़े लिखने की महत्वाकांक्षा छोड़कर 1980 में मैं धनबाद चला गया और आवाज के माध्यम से कोयलाखानों के मजदूरों और झारखंड आंदोलन में सक्रिय हो गया।

तब कामरेड एकेराय और महाश्वेता देवी के संपर्क में आ जाने से हमारी दृष्टि संसदीय राजनीति के एकदम खिलाफ हो गयी।मैंने कभी सरकारी नौकरी के लिए कोई आवेदन पत्र नहीं लिखा।

सव्यसाची,शिवराम,महेंद्र नेह और इलाहाबाद के लेखकों कवियों से उनकी जेनुइन रचनाधर्मिता ,ईमानदारी और प्रतिबद्धता के कारण हमेशा वैचारिक मतभेद के बावजूद संवाद जारी रहा।

धनबाद में तब वीरभारत तलवार और मनमोहन पाठक शालपत्र निकाल रहे थे।मदनकश्यप अंतर्गत निकाल रहे थे और हमलोग सात हो गये।कुल्टी से संजीव भी हमारे साथ थे।फिर धनबाद से कतार का प्रकाशन शुरु हुआ और इसी बीच बिहार नवजनवादी सांस्कृति मोर्चा का गठन हो गया।जिसमें हम सारे लोग सक्रिय हो गये।महाश्वेता देवी इस सांस्कृतिक मोर्चा के साथ शुरु से थीं।जिसके साथ नवारुणदा हमेशा रहे और हमने उनके साथ कोलकाता में बांग्ला में भाषाबंधन भी निकाला।

फिर इंडियन पीपुल्स फ्रंट बना जिसमें शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में उत्तराखंड और यूपी के हमारे तमाम पुराने साथी शामिल थे।दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के शंकर गुहा नियोगी भी इसमें शामिल थे।हम लोगों का इलाहाबाद,मथुरा ,अलीगढ़,बनारस जैसे जनपदों से कभी कोई टकराव नहीं रहा हालांकि आपातकाल का समर्थन करने वाले भोपाल बिरादरी से हमारा कोई संवाद नहीं था।

हम मेरठ में दैनिक जागरण में 1984 को चले आये तो नई दिल्ली में गोरखपांडे की पहल पर जनसंस्कृति मोर्चा के गठन की कवायद जोरों से चल रही थी।नई दिल्ली में यह संगठन बना तो इसमें बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा का विलय हो गया था।

इसी बीच इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, मथुरा, अलीगढ़, कोटा, अलवर,भोपाल,कोलकाता समेत सभी जनपदों में हिंदी के गढ़ों को ध्वस्त करके दिल्ली में सत्ता के नाभिनाल से जुड़े लोगों का हिंदी साहित्य और तमाम विधाओं पर एकाधिकार कब्जा हो गया और हम तिनके की तरह उड़ बिखर गये।

Thursday, May 17, 2018

अफसोस,शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया। पलाश विश्वास

अफसोस,शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया। 
पलाश विश्वास
आदरणीय जगदीश्वर चतुर्वेदी ने जनवादी लेखक संघ की कथा बांची है और इसपर प्रतिक्रियाओं के जरिये शिवराम और महेंद्र नेह के नाम आये हैं,जिनसे हमारे बेहद अंतरंग संबंध आपातकालके दौरान हो गये थे।

जगदीश्वरजी की कथा पर मेरा यह मतव्य नहीं है क्योंकि जिन लोगों के नाम उन्होंने गिनाये हैं,उनकी सचमुच बहुत बड़ी भूमिका रही है। लेकिन जनवादी लेखकों का संगठन बनाने में उत्तरार्द्ध के संपादक सव्यसाची जी की बहुत बड़ी भूमिका रही है,जिसे बाद की कुछ घटनाओं में उन्हें हाशिये पर कर दिये जाने से खास चर्चा नहीं होती तो जनवादी लेखक संघ के गठन के लिए सव्यसाची की पहल पर शिवराम और महेंद्र नेह ने आपातकाल के दौरान कोटा में जो गुप्त बैठक का आयोजन किया,उसकी शायद चर्चा करना जरुरी है।

इलाहाबाद के शेखर जोशी,अमरकांत मार्केंडय,दूधनाथ सिंह और भैरव प्रसाद गुप्त भी जनवादी लेखक बनाने के प्रयासों में लगातार जुटे हुए थे।इलाहाबाद में 100,लूकर गंज के शेखरजी के आवास में रहते हुए शैलेश मटियानी और इन सभी लेखकों से पारिवारिक जैसे संबंद होने की वजह से यह मैं बखूब जानता हूं।

हमने साम्यवाद के बारे में दिनेशपुर में रहते हुए ही पढ़ना शुरु कर दिया था और मेरे घर बसंतीपुर में मरे जन्म से पहले से नियमित तौर पर स्वाधीनता डाक से आती थी।क्योंकि मेरे पिता पुलिन विश्वास नैनीताल जिला किसानसभा के नेता थे जिन्होंने 1958 में तेलंगाना आंदोलन की तर्ज ढिमरी ब्लाक में किसान विद्रोह का नेतृत्व किया था।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन के सिलसिले में वे जेल गये।पुलिस ने उनकी बेरहमी से पिटाी की हाथ तोड़ दिया।इस आंदोलन में उनके साथी थे कामरेड हरीश ढौंडियाल एडवोकेट जो नैनीताल में पढ़ाई के के  दौरान मेरे स्थानीय अभिभावक थे,कामरेड सत्येंद्र,चौधरी नेपाल सिंह,हमारे पड़ोसी गांव अर्जुन पुर के बाबा गणेशा सिंह।तब कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कामरेड पीसी जोशी थे।

इस आंदोलन का सेना,पुलिस और पीएसी के द्वारा दमन करने वाले थे भारत में किसानों के बड़े नेता चौधरी चरण सिंह,जिनके अखिल बारत किसान समाज की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य पुलिनबाबू थे और तब चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री थे।तेलंगाना की तर्ज पर पार्टी ने ढिमरी ब्लाक आंदोलन से पल्ला झाड़ दिया।

किसानों के चालीस गांव फूंक दिये गये थे।भारी लूटपाट हुई थी और तराई के हजारों किसान इस आंदोलन केकारण जेल गये थे।तब यूपी में कांग्रेस के मुकाबले कम्युनिस्ट पार्टी बहुत मजबूत थी और पूरे उत्तर प्रदेश में पार्टी का जनाधार था,उसके सक्रिय कार्यकर्ता थे।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन से दगा करना पहला बड़ा झटका था।बाबा गणेशा सिंह जेल में सड़कर मर गये।बाकी लोगों पर 1967 तक उत्तर प्रदेश में संविद सरकार बनने तक मुकदमा चला।

आजादी के बाद शरणार्थी आंदोलन को लेकर  भी पिताजी का कामरेड ज्योति बसु से टकराव हो गया था,जिसके कारणवे ओड़ीशा चरबेटिया कैंप भेज दिये गये थे और वहां भी आंदोलन करते रहने के कारण उन्हें  और उनके साथियों को 1952 में नैनीताल के जंगल में भेज दिया गया।

आंदोलन के उन्ही साथियों के साथ वे दिनेशपुर इलाके में गांव बसंतीपुर आ बसे।जाति या खूनका रिश्ता न होने के बावजूद आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले ये लोग जो पूर्वी बंगाल में भी तेभागा आंदोलन से जुड़े थे,हमेशा एक परिवार की तरह रहे।

आज भी बसंतीपुर एक संयुक्त परिवार है जबकि उन आंदोलनकारियों में से आज कोई जीवित नहीं हैं और उनकी तीसरी चौथी पीढ़ी गांव में हैं।आंदोलनों की विरासत की वजह से इन सभी लोगों में पारिवारिक रिश्ता आज भी कायम है और इस गांव में आज भी पुलिस नहीं आती क्योंकि लोग आपस में सारे विवाद निपटा लेते हैं और थाने में  इस गांव का कोई केस आज तक दर्ज नहीं हुआ है।

पार्टी के ढिमरी ब्लाक आंदोलन के नेताओं,किसानों से पल्ला झाड़ लेने की वजह से मेरे पिता कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग हो गये लेकिन 1967 तक तराई में क्म्युनिस्ट आंदोलन जोर शोर से चलता रहा औऱ इस आंदोलन का दमन का सिलसिला भी जारी रहा।

मैं शुरु से आंदोलनकारियों के साथ था और नेताओं से भरोसा उठ जाने की वजह से पिताजी मुझे इसके खिलाफ लगातार सावधान करते रहे।हालांकि उन्होंने मुझपर कभी कोई रोक नहीं लगायी उऩसे गहरे राजनीतिक मतभेद के बावजूद।

जीआईसी में गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के निर्देशन में विश्व साहित्य और मार्क्सवाद का हमने सिलसिलेवार अध्ययन शुरु किया और इसी सिलसिले में मैं और कपिलेश भोज उत्तरार्द्ध के पाठक बन गये।

सव्यसाची की पुस्तिकाओं से हमें मार्क्सवाद को गहराई से समझने में मदद मिली और हम मथुरा तक रेलवे का टिकट काटकर सव्यसाची के घर इमरजेंसी के दौरान पहुंच गये।

हमने वापसी के लिए टिकट का पैसा घड़ियां बेचकर जुगाड़ लेने का फैसला किया था।मथुरा में सव्यसाची जी के घर डा.कुंवरपाल सिंह,डा.नमिता सिंह,विनय श्रीकर,भरत सिंह,सुनीत चोपड़ा के साथ हमारी मुलाकात हुई और वहीं कोटा की बैठक के बारे में पता चला।सव्यसाची जी ने कोटा के लिए हमारे भी टिकट कटवा दिये।

कोटा में हमारी मुलाकात देहरादून से आये धीरेंद्र अस्थाना से हुई।वहीं हम पहलीबार शिवराम और महेंद्र नेह से मिले।

शिवराम के नुक्कड़ नाटक के तो हम पाठक थे ही।महेंद्र नेह के जनगीत के भी हम कायल थे।इसी सम्मेलन में जनवादी लेखक सम्मेलन बनाने पर चर्चा की शुरुआत हुई।

बैठक के संयोजन में कांतिमोहनकी स्करियभूमिका थी तो सबसे ज्यादा मुखर सुधीश पचौरी थे।हम सभी लोग अलग अलग टोलियों में कोटा का दशहरा मेला भी घूम आये।हमारी टोली में महेंद्र नेह और शिवराम दोनों थे।

कपिलेश और मैं महेंद्र नेह के साथ ही ठहरे थे।

बैठक के अंतराल के दौरान मैं और कपिलेश भोज कोटा के बाजार में भटकते हुए घड़ी बेचकर वापसी का टिकट कटवाने की जुगत में थे तो फौरन शिवराम और महेंद्र नेह को इसकी भनक लग गयी।उन्होंने तुरंत हमारे लिए टिकट निकाल लिये।

अफसोस की बात यह है कि सव्यसाची को लोगों ने भुला दिया है और जनवादी लेखक संघ के गठन में शिवराम और महेंद्र नेह की भूमिका को भी भुला दिया गया।

यहीं नहीं,हिंदी में नुक्कड़ नाटक आंदोलन में शिवराम की नेतृत्वकारी भूमिका भी भुला दी गयी।हमने तो शिवराम से ही नुक्कड़ नाटक सीखा।गिरदा भी शिवराम से प्रभावित थे।हमने नैनीताल में भी नुक्कड़ नाटक इमरजेंसी और बाद के दौर में किये।

गौरतलब है कि शिवराम ने तब नुक्कड़ नाटक लिखे और खेले जब हिंदी में गुरशरणसिंह और सफदर हाशमी की कोई चर्चा नहीं थी।

शिवराम और महेंद्र नेह भी पार्टी से निकाल दिये गये और कामरेडों ने उन्हें सव्यसाची के साथ भुला दिया।इन कामरेडों में सुनीत चोपड़ा भी शामिल हैं।

रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं? पलाश विश्वास

रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं?
पलाश विश्वास

I was with religious fanatics for many years. In fact, I was one of them. They don't understand Tagore, and his message of universal humanity and emancipation. Their hate and bigotry is dark, divisive, and past. Rabindranath Tagore is love, light and future.


बंगाल में आज रवींद्र जयंती की रस्म अदायगी हो रही है।जो मूलतः रवींद्र संगीत पर केंद्रित है।नजरुल जयंती पर भी यही माहौल होता है।वैदिकी मंत्रोच्चार की तरह।रवींद्र विमर्श पर कोई जनसंवाद नहीं होता और न नजरुल साहित्य पर।ज्ञान पर एकाधिकार वर्चस्व की वजह से बहुसंख्य जनता के साथ ज्ञान के मठाधीश का बर्ताव जजमानों को प्रसाद बांटने जैसा होता है।साहित्य में भी यही उपक्रम जारी है ।इसे यूं समझें कि जैसे मीडिया में सूचनाओं की पल दर प्रतिपल आंधियां चलती रहती हैं और ये सारी सूचनाएं सत्ता वर्ग के हित में होती हैं जिनसे आम जनता के हितों का कोई संबंध नहीं होता।एक उदाहरण पेश करुं तो शायद बहुतों को बेहद बुरा लग सकता है।बाकी दुनिया के मुकाबले में हमारे यहां दलित साहित्य के नाम पर आत्मकथाओं को जोर शोर से महिमामंडन किया जाता है।यह दलित आत्मकथा और स्त्री आत्मक्थ्य के बारे में समान रुप से सच है।नतीजतन भारतीय भाषाओं में  समूचा दलित साहित्य आत्मक्थ्य के विविध रुप हैं,जहां व्यक्ति के संघर्ष और व्यक्ति के उत्थान का ही घनघोर महिमामंडन किया जाता है।असके विपरीत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और स्त्रियों के भी जबर्दस्त सामूहिक सामुदायिक जीवन की,समाज को बदल डालने के प्रयासों,आंदोलननो,सामूहिक विद्रोहों के आख्यान या तो बहुत कम लिखे जाते हैं या जानबूझकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है।
रवींद्र साहित्य और नजरुल साहित्य का भी सच यही है।खासकर रवींद्र ने अस्पृश्यता के खिलाफ,अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ,सामाजिक विषमता के विरुद्ध,वर्चस्ववाद के खिलाफ,दलितों,स्त्रियों और किसानों के हक में जो लिखा है,वर्चस्ववाद के खिलाफ जो विद्रोह किया है,उस पर कोई चर्चा बंगाल या बंगाल से बाहर होती नहीं है।गीतांजलि भी उनका आत्मकथ्य है और यह दैवी सत्ता के खिलाफ विद्रोह है जिसे आध्यात्म कहा जाता है।उनकी प्रमुख रचनाओं  का स्रोत बौद्ध साहित्य है लेकिन उन्हे वेद उपनिषद से प्रभावित कहकर प्रचारित किया जाता है।
बंगाली स्त्रियों के कंठ और ह्रदय में रवींद्र और नजरुल संगीत जिंदा है क्यों रवींद्र और नजरुल के गीतों में ही स्त्री को पितृसत्ता की दीवारों से मुक्ति मिलती है।इसके विपरीत रवींद्र को हिंदू कुलीन  राष्ट्रवाद के महानायक बतौर पेश किया जाता है और यही सलूक डा.भीमराव अंबेडकर के साथ भी हो रहा है।
इस पर मैंने बहुत लिखा है।आगे जीते रहें तो फिर लिखते रहेंगे।
सविता इस वक्त सोदपुर की स्त्रियों के साथ रवींद्र जयंती पर हर साल की तरह कार्यक्रम में गयी हैं और जाने से पहले पूछकर गयी है कि उत्तराखंड में क्या स्त्री को इतनी आजादी है और वहां क्या स्त्रियों के लिए सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों के अवसर हैं,मैं जवाब में कुछ कह नहीं सका।
अमेरिका में तीन दशक से ज्यादा समय से रह रहे डा.पार्थ बनर्जी ने अमेरिका और यूरोप में फ्रीसेक्स के मिथ को तोड़ते हुए फेसबुक पर भारत के पुरुष वर्चस्व और अज्ञानता के अंधकार पर प्रहार किया है और बांग्ला में लिखा यह पोस्ट मैंने शेयर भी किया है।पार्थबाबू से बात हुई है कि इस टिप्पणी का अनुवाद करके प्रकाशित किया जाना है।
आज उऩ्होंने रवींद्र जयंती पर बंगालियों के रवींद्र प्रेम के पाखंड की धज्जियां उधेड़ते हुए दावा किया है  कि वे रवींद्र को समझते ही नहीं है।
पार्थ बाबू विद्वान हैं और वे ऐसा दावा करने की हैसियत भी रखते हैंषहम ऐसा कह लिख नहीं सकते हैं।लेकिन उन्होंने रवींद्र विमर्श पर मेरे लिखे को अपनी इन टिप्पणियों से सही साबित कर दिया है।

On the birthday of poet-philosopher-educator Rabindranath Tagore, I created an English-language audio program -- especially for my American friends, Indian and Pakistani friends, and Bengali-origin young people who would prefer English over Bengali. The program is open and free. I hope you listen, comment, and share. Tagore finds me my identity, my consciousness, my progressive mission, and truly, my reason to live. No, he is not God. He is a man, who symbolized modernity and enlightenment.

বাঙালিদের একটা স্বভাব আছে, খুব কম জেনেও অনেক কথা বলা। তাও আবার ভুল বানানে। যাই হোক, আমি তো আর ব্যাকরণচঞ্চু নই। তাও, রবীন্দ্রনাথের উক্তি বলে যাহোক তাহোক কারুর একটা ভুলভাল উক্তি ভুল-বানানে কোট করে দিচ্ছে দেখলে মনে একটা রক্তলোলুপ প্রতিহিংসার মনোভাব জাগে। ভীষণরকম নন-ভায়োলেন্ট বলে কিছু করতে পারিনা। এই করে করে আঙুলের নখগুলো চিবিয়ে আখের ছিবড়ে করে ফেলেছি।

বাঙালি কত জানে! শ্লীলতা অশ্লীলতার ব্যাপারটা তো আছেই। আমেরিকা ঘোর অশ্লীল। বীভৎস। "ওখানে যা সব ব্যাপার হয়, সে আর কী বলবো মশাই। ট্রেন বাস রাস্তাঘাট পার্কে পশ্চিমে সর্বত্র চূড়ান্ত বেলেল্লাপনা চলে। মানুষ, না কুকুর?" "কোথায় দেখলেন, দাদা, দিদি?" "দেখার কোনো দরকার নেই। খবর পাই।" "আহা, কোথায় খবরটা পেলেন, সেটা বলুন?" "ওই তো, আমাদের এক ভাগ্নের বাড়িওলার ছোট ছেলের মেজো শালা গিয়েছিলো।" "ও আচ্ছা, তাই বলুন। আপনি অন্যের মুখের ঝোল ঝাল অম্বল খাচ্ছেন।"

এই পর্যন্ত বলার পরে কথার মোড় অন্যদিকে ঘুরেই যাবে। কারণ বক্তা এখন রেগে আগুন, এবং বিলো-বেল্ট একখানা ঝাড়ার জন্যে তৈরী হচ্ছেন। "আরে যান যান মশাই। আপনাদের আমেরিকার কথা আর বলবেন না।" "কেন, আবার কী হলো?" "কী আপনি আমেরিকায় স্কুলে ছেলেমেয়েদের ওপর মারধোর করা হয়না বলছেন? ছাত্রদের প্রতি হিংসা হচ্ছে না কিন্তু তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে। আমেরিকার কাণ্ড কারখানা দেখে হাঁসাও যায় না কাঁদাও যায় না।" (অ্যাকচুয়াল কমেন্ট আজকেই -- বানান বিভীষিকার "হাঁসি"।)। আমার উত্তর, " "তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে ।" -- কোথায় হলো? আপনারা কত জানেন! আমেরিকা সম্পর্কে কিছু না জেনেই সেখানকার ছাত্রদের সম্পর্কে আপনাদের কী মূল্যবান ধারণা! বরং, ফ্লোরিডার বন্দুকবাজির পরে সারা আমেরিকায় ছাত্রছাত্রীরা প্রতিবাদ করে রাস্তায় নেমেছে এই ভায়োলেন্স বন্ধ করার জন্যে। এসব খবর কি আপনাদের কানে পৌঁছয় না?"

এইরকম আরো আছে। অনেক। যদি বলি, এর পরেও কি আপনি আপনার ছেলেকে বা মেয়েকে আমেরিকায় আসার চান্স পেলে বন্ধ করবেন তার আসা?" তখন দেখবেন, সবাই অদৃশ্য। কিন্তু, ঝাল ঝাড়া থেকেই যাবে। যদি বলেন, "আচ্ছা, আমেরিকার ম্যাকডোনাল্ড, কোক, পিজ্জা হাট, কে এফ সি'তে যান না কখনো?" নিঃশব্দ। "আমেরিকান সিনেমা দেখেন না?" কেউ নেই তখন স্টেজে।

আর যা যা দেখেন আমেরিকার জিনিস (ইচ্ছে করেই "জিনিস" লিখলাম ভুল বানানে) -- শ্লীলতার খাতিরে সেসব আর লিখলাম না। আফটার অল, এই ফেসবুকে আমার বৌ, বোন, বন্ধু আর হাজার ছাত্রছাত্রী আছে। কিছুটা শুনুন, আর অন্যটা ইম্যাজিন করে নিন। সত্যজিৎ রায়ের "নীল আতঙ্ক" এর কাছে শিশু!

আমেরিকার শাসকদের বিরুদ্ধে, যুদ্ধ, সি আই এ, বন্দুকবাজি, পুলিশি অত্যাচার, মিডিয়া ও মানবাধিকার লঙ্ঘনের বিষয়ে আমি এতো লিখেছি যে লোকে ভাবে আমি পাগল। এতোই মূর্খ যে নিজের ভালোমন্দ, নিরাপত্তাও বুঝিনা। যা খুশি লিখি। একদিকে এইসব লিখি, আবার অন্যদিকে আমেরিকার বা অন্য কিছুটা উন্নত দেশের শিক্ষাব্যবস্থার আধুনিকতা, নারীর স্বাধীনতা সমানাধিকার, শিশুদের জন্যে হাজার আনন্দ পার্ক খেলার ব্যবস্থা সিনেমা, তারা যাতে ভয়হীন ভাবে বড় হতে পারে, তার জন্যে স্কুলে একেবারে প্রথম থেকেই নিবেদিতপ্রাণ শিক্ষক শিক্ষিকাদের দেওয়া ভালোবাসা -- তা নিয়ে লিখেছি বহু বছর ধরে। আবার এই মার্কিন বন্ধু ও বান্ধবীদের, গুরুস্থানীয় মানুষদের খুব কাছ থেকে দেখেছি হিউম্যান রাইটস'এর কাজ করতে, পরিবেশ নিয়ে আন্দোলন করতে, যুদ্ধের বিরুদ্ধে রাস্তায় নামতে। তাদের কাছে অনেক শিখেছি।

এইসব কথা বাঙালিরা তেমন কেউ জানতেও চায়না। শিখতেও চায়না। কিন্তু বাজে বকতে তো আর পয়সা লাগেনা। আর সেন্টিমেন্টাল বাঙালি বাজে বকতে পেলে আর কিছু চায়না। কাজেই ....

ফেসবুকে এসব কথা বলে কোনো লাভ আছে কি? যেখানে একটা তিনশো বছরের পুরোনো ঠাকুর, অথবা তিন বছরের পুরোনো কুকুরের ছবি পোস্ট করলে তিন হাজার নতুন লাইক পাওয়া যায়?

শ্লীলতা অশ্লীলতা আলোচনায় অনেক বাঙালি কুকুর প্রসঙ্গ এনেছেন। আমার মনে হয়, এঁরা মানুষ যত না চেনেন, কুকুর চেনেন তার চেয়ে বেশি। আমার মনে হয়, এঁরা আসলে সবাই সেই ধর্মরাজরূপী সারমেয়নন্দন। নইলে, এতো ধার্মিক আবার কুকুর-বিশেষজ্ঞ -- একসাথে এমন আশ্চর্য সঙ্গম তাঁদের মধ্যে ঘটলো কী করে?

এ যে অদ্ভুত মিরাক্কেল!
__________________________

রবীন্দ্র জয়ন্তীতে আমার কবি প্রণাম।

নিউ ইয়র্ক, ইউ এস এ।

Partha Banerjee ও হ্যাঁ, রবীন্দ্রভক্ত বাঙালিদের বলতে ভুলে গেছি এই পঁচিশে বৈশাখে -- ইস্কুলে এই প্রাচীনপন্থী শিক্ষাব্যবস্থা সহ্য করতে না পেরে রবীন্দ্রনাথ ওই স্কুলগুলো বর্জন করেছিলেন, এবং পরে মুক্তচিন্তার বিশ্বভারতী প্রতিষ্ঠা করেছিলেন। অবশ্য ইতিহাস কেউ পড়েনা, আর অনেকে আজকাল ভুলিয়ে দেওয়ার চেষ্টাও করে যাচ্ছে খুব বেশি।

अब बंगाल में या अन्यत्र वर्चस्ववादी,पाखंडी वामपंथी अपना वजूद बनाने के लिए संघियों के साथ सरकार भी बना ले तो मुझे कम से कम ताज्जुब नहीं होगा।

अब बंगाल में या अन्यत्र वर्चस्ववादी,पाखंडी वामपंथी अपना वजूद बनाने के लिए संघियों के साथ सरकार भी बना ले तो मुझे कम से कम ताज्जुब नहीं होगा।
पलाश विश्वास
बंगाल में पंचायत चुनावों में वामपंथियों ने सीटों के तालमेल के बहाने ममता बनर्जी को हराने के नाम पर कांग्रेस के साथ साथ भाजपा के साथ भी गठबंधन कर लिया है और वैचारिक लीपापोती करके इस सच को छुपाने का काम भी वे कर रहे हैं।इससे नाराज हतास वामपंथी कार्यकर्ता सत्ता के साथ होने की लालच में भाजपा के सात ही नत्थी होंगे और संपूर्ण भगवाकरण की हालत में बंगाल में लाल रंग ही सिरे से गायब हो जायेगा।

इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।वामपंथी सत्ता के लिए हमेशा समझौते करते रहे हैं। असम,मेघालय और त्रिपुरा के भगवेकरण का कोई प्रतिरोध वाम नेतृत्व ने नहीं किया और उन्हें जड़े जमाने का मोका भरपूर दिया।इसलिए नतीजे आने से पहले ही मैं कह रहा था कि त्रिपुरा में वामपंथी ही वामपंथ को हराने वाला है।हमारे मित्रों ने इस पर यकीन नहीं किया।

सच यही है कि भारत में समता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण रोकने के लिए ही अपने व्रग जाति हितों के मुताबिक वामपंथियों ने ही वामपंथ को हरा दिया है।

बंगाल से पहले उत्तरभारत में वामपंथ का बहुत असर रहा है और वाम नेतृ्त्व ने यूपी,बिहार,पंजाब जैसे राज्यों में अपने ही नेताओं और कार्यकर्ताओं को हाशिये पर डालकर वामपंथ का सफाया कर दिया।

ईमानदारी से इस सच का सामना किये बिना आप हिंदुत्व सुनामी को रोक नहीं सकते।


पार्टी और जनसंगठनों में करोडो़ं कैडर होने के बावजूद,तीन राज्यों की सरकारे ंबचाने के लिए लिए लगातार कांग्रेस की जनविरोधी सरकार को समर्थन देना क्या भूल गये? 

जनहित और जनसरोकारों से खुल्लमखुल्ला दगा करने के भोगे हुए यथार्थ और केंद्र सरकार की जनसंहारी नीतियो के वास्तव अनुभवों से आम जनता दस साल के करीब करीब अंत के दौरान विचारधारा के पाखंड के तहत भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के फर्जी विरोध के नाटक पर यकीन नहीं कर सकी।

नागरिकता कानून संशोधन हो या श्रम कानूनों का खात्मा या फिर आधार योजना,वामपंथियों ने आम जनता के हितों के मुताबिक कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया।
  इसीलिए 1991 के बाद से लेकर अब तक आर्थिक सुधारों का कोई कारगर विरोध नहीं हो पाया।ट्रेड यूनियनों पर दशकों के एकाधिकार होने के बावजूद श्रम कानूनों केसाथ साथ कामगारों के हकहकूक ,रोजगार खत्म होने के किलाफ इसीलिे कोई विरोध नहीं हुआ।

मलयाली और बंगाली नेतृत्व के वर्चस्ववादी रवैये की वजह से बाकी देश में वामपंथ का पूरा सफाया हो गया है।इस वर्चस्व को बनाये रखने के लिए 1977 में संघियों के साथ गठजोड़ हुआ तो बंगाल में अजय मुखर्जी सरकार और ज्योति बसु की सरकार के दौरान नक्सल उन्मूलन के नाम पर मेहनतकश तबके के दमन,सफाये का आप क्या कहेंगे?

विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का समर्थन तो भाजपा के साथ ही वामपंथी कर रहे थे।1977 में सत्ता में आये संघियों ने हर क्षेत्र में घुसपैठ कर ली तो वीपी शासनकाल के दौरान हिंदुत्व की लहर पैदा करके आखिरकार बाबरी विध्वंस की नींव पर भारत को हिंदू राष्ट्र बना ही लिया।दरअसल वाम नेतृत्व विचारधारा के पाखंड के तहत धर्मनिरपेक्षता की रट तो लगाता रहा लेकिन अपने वर्ग,जाति हित के तहत वे हिंदू राष्ट्र के कभी विरोधी नहीं थे।

यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत में सांप्रदायिक ध्रूवीकरण की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल में ही हुआ और उन्ही सांप्रदायिक त्वों के वारिसान ने पूरे वामपंथ पर कब्जा करके मनुस्मृति के एजंडे को ही लागू करने में जन प्रतिरोध की हालत बनने न देकर सबसे ज्यादा मदद की है।

जमीनी,प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और नेताओं को इन लोगों ने  दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया।

फिर बाजार की ताकतों के भरोसे नंदीग्राम सिंगुर प्रकरण का क्या?

बहुजन तबकों को स्थानीय नेतृ्त्व में भी प्रतिनिधित्व न देने वाले वामपंथी संघियों से भी ज्यादा ब्राह्मणवादी है और वर्गीयध्रूवीकरण के बजाय वर्ग जाति अस्मिता वर्चस्व के तहत मरण पर्यंत अपना नेतृत्व बनाये रखना ही इनका मकसद है।

आपको ताज्जुब हो रहा है लेकिन दशकों के अनुभव के तहत मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा है।त्रिपुरा में भी हार तय थी।दिनेशपुर में प्रेरणा अंशु के 32 वें वार्षिकोत्सव पर देशभर के सामाजिक कार्यकर्ताओं से मैने यही कहा था।

वामपंथियों के अवसरवाद की वजह से ही उत्तर भारत में संघियों के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं बन सका और इसी वजह से बंगाल के बाद केरल औरत्रिपुरा में भगवा झंडा लहरा रहा है।असम और पूर्वोत्तर के भगवेकरण से पहले वामपंथियों का भगवाकरण हो गया  है।

बहुजनों के सफाये में वामपंथी भी पीछे नहीं हैं।मरीचझांपी से लेकर नंदीग्राम सिंगुर तक इसके गवाह हैं।नक्सलियों के सफाये में भी ज्यादातर आदिवासी ,दलित और पिछड़े मारे गये।

बदले हुए हालात में सत्तालोलुप वाम नेतृत्व अगर भाजपा के साथ बंगाल में भी सरकार बनायें तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।लेकिन आशंका हैकि यह मौका भी उनके हाथ ऩहीं लगेगा।अगर ममता बनर्जी नहीं सुधरीं तो जिस तेजी से बंगाल का उग्र हिंदुत्वकरण हो रहा है,भाजपा देर सवेर अकेले ही सत्ता दखल कर लेगी।

जिस सच को वामपंथी नजर्ंदाज कर रहे हैं,वह यह है कि  वामपंथी भाजपा से कितना ही मधुर रिश्ता बना लें लेकिन वामपंथी नेतृत्व न  सही वामपंथी विचारधारा और आंदोलन से संघियों को सबसे ज्यादा नफरत है,जिनकी वजह से उनका हिंदुत्व एजंडा छात्रों,युवाओं,किसानों,कामगारों के प्रतिरोध के कारण लागू करना अब भी असंभव है।

प्रेरणा अंशु किसान,गांव,प्रकृति और पर्यावरण पर विमर्श की पत्रिका है ताकि किसानों,कामगारों और बहुसंख्य वंचितो के हित में विकास के जनमुखी माडल के साथ समता और न्याय के आधार पर समाज का निर्माण हो।


 प्रेरणा अंशु के संस्थापक संपादक और मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता दिवंगत मास्टर प्रताप सिहं के सपनों और आदर्सों के मुताबिक प्रेरणा अंशु  किसान,गांव,प्रकृति और पर्यावरण पर विमर्श की पत्रिका  है ताकि किसानों,कामगारों और बहुसंख्य वंचितो के हित में विकास के जनमुखी माडल के साथ समता और न्याय के आधार पर समाज का निर्माण हो।
प्रेरणा अंशु उत्तराखंड की तराई से 32 साल से निकलने वाली सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन की वाहक है।
छात्रों,युवाओं और नवोदितों को इसमें वरीयता दी जाती है लेकिन सामाजिक सरोकार और तेवर के साथ प्रतिष्ठितों का भी स्वागत है।
आलेख दो सौ शब्दों के,कहानी ज्यादा से ज्यादा तीन पेजों की,लघुकथा,व्यंग्य,रपट,आलोचना,कविता,गजल,गीत समेत सभी विधाओं और ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों पर मौलिक रचनाओं का स्वागत है।ज्यादा से ज्यादा लोगों को स्पेस देने के लोकतंत्र का ख्याल रखते हुए छोटी,सारगर्भित रचनाएं ही भेजें।
रचनाएं मेल से भेज सकते हैंः
Email:perrnaanshu @gmail.com
संसाधनों की सीमाबद्धता के बावजूद सामाजिक नेटवर्किंग के माध्यम से मास्साब यह पत्रिका 32 वर्षों से चला रहे थे।हम इसी परंपरा का निर्अवाह कर रहे हैं। अब हमें आपका सहयोग चाहिए।
पत्रिका के सदस्य,प्रतिनिधि बनकर आप हमारे इस सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन के नेटवर्क में शामिल हो सकते हैं।
ब्यौरे के लिए मेल करें या पत्र लिखें।
पताः संपादक,प्रेरणा अंशु,
समाजोत्थान संस्थान,
वार्ड नंबर3,
दिनेशपुर,
ऊधमसिंहनगर (उत्तराखंड)
पिन-263160
 कार्यकारी संपादक
पलाश विश्वास


Tuesday, May 8, 2018

महाश्वेता देवी के धनबाद के दो घनिष्ठ लोगः कामरेड एके राय और मैं

महाश्वेता देवी के धनबाद के दो घनिष्ठ लोगः कामरेड एके राय और मैं

पलाश विश्वास

सत्ताइस साल कोलकाता और बंगाल में बिताने के बाद मैं उत्तराखंड की तराई के दिनेशपुर रूद्रपुर इलाके में अपने गांव वापस जा रहा हूं।ऐसे में हमेशा के लिए बंगाल छोड़ जाने का दुःख के साथ आखिरकार अपने गांव अपने लोगों के बीच जा पाने की खुशी दोनों एकाकार है।अब मैं यहां का डेरा समेटने में लगा हूं तो ऐसे में धनबाद से कामरेड एके राय के गंभीर रुप से बीमार पड़ने की खबर मिली है।


दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पेज पर मेरे चर्चित उपन्यास अमेरिका से सावधान पर लिखते हुए अपने लेख में महाश्वेता दी ने धनबाद में कामरेड एके राय और मेरे साथ घनिष्ठ संपर्क होने की बात लिखी थी।महाश्वेता दी कई बरस हुए,नहीं हैं।अभी अभी कामरेड अशोक मित्र का भी अवसान हो गया।नवारुणदा महाश्वेता देवी से पहले कैंसर से हार कर चल दिये।कोलकाता का बंधन इस तरह लगातार टूटता जा रहा था। 1984 में मैंने धनबाद छोड़ और तबसे लेकर अबतक धनबाद से कोई रिश्ता बचा हुआ था तो वह कामरेड एके राय के कारण ही।


यूं तो 1970 में ही आठवीं पास करने से पहले तराई से जगन्नाथ मिश्र के बाद शायद पहले पत्रकार गोपाल विश्वास संपादित अखबार तराई टाइम्स में मैं छपने लगा था।हालांकि चूंकि मेरे पिता सामाजिक कार्यकर्ता और किसानों और शरणार्थियों के नेता पुलिनबाबू की मदद के लिए देश भर के शरणार्थियों और किसानों की समस्याओं पर कक्षा दो से ही मुझे नियमित लिखना पढ़ता था क्योंकि पिताजी हिंदी में बेहतर लिख नहीं पाते थे।1973 में जीआईसी नैनीताल पहुंचने के बाद गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी की प्रेरणा से मेरा हिंदी पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन शुरु हो गया। लेकिन जनसरोकार और वैज्ञानिक सोच के साथ लेखन का सिलसिला नैनीताल समाचार से शुरु हुआ।


राजीव लोचन शाह,गिरदा और शेखर पाठक,नैनीताल समाचार,पहाड़ और उत्तराखंड संघर्षवाहिनी के तमाम साथी मेरे  थोक भाव से लगातार अब तक लिखते रहने की बुरी आदत के लिए जिम्मेदार हैं।इनमें भी गिरदा,विपिन त्रिपाठी,निर्मल जोशी,भगतदाज्यू जैसे आधे से ज्यादा लोग अब नहीं है। एक तो बांग्लाभाषी,फिर अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी के इस तरह आजीवन हिंदी साहित्य न सही,हिंदी पत्रकारिता में खप जाने के पीछे इन सभी लोगों का अवदान है।


एमए पास करने के बाद कालेजों में नौकरी करने का विकल्प मेरे पास खुला था लेकिन मैं डीएसबी नैनीताल में पढ़ाना चाहता था और इसके लिए पीएचडी जरुरी थी।इसी जिद की वजह से मैं नैनीताल छोड़ने को मजबूर हुआ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गया।इलाहाबाद में शैलेश मटियानी और शेखर जोशी के मार्फत पूरी साहित्यिक बिरादरी से आत्मीयता हो गयी,लेकिन वीरेनदा और मंगलेश दा के सुझाव मानकर मैं उर्मिलेश के साथ जेएनयू पहुंच गया।वहीं मैंने महाश्वेता दी का उपन्यास जंगल के दावेदार हिंदी में पढ़ा।


इसी दरम्यान उर्मिलेश कामरेेड एके राय से मिलने धनबाद चले गये,जहां दैनिक आवाज में मदन कश्यप थे।मैं बसंतीपुर गया तो एक आयोजन में झगड़े की वजह से सार्वजनिक तौर पर पिताजी ने मेरा तिरस्कार किया।अगले ही दिन उर्मिलेश का पत्र आया कि धनबाद में आवाज में मेरी जरुरत है। वे दरअसल उर्मिलेश को चाहते थे लेकिन तब उर्मिलेश जेएनयू में शोध कर रहे थे और पत्रकारिता करना नहीं चाहते थे।उन्होंने मुझे पत्रकारिता में झोंक दिया,हांलाकि बाद में वे भी आखिरकार पत्रकार बन गये। शायद दिलोदिमाग में बीरसा मुंडा के विद्रोह और कामरेड एके राय के आंदोलन का गहरा असर रहा होगा कि पिताजी के खिलाफ गुस्से के बहाने शोध,  विश्वविद्यालय, वगैरह अकादमिक मेरी महत्वाकांक्षाएं एक झटके के साथ खत्म हो गयी और मैं धनबाद पहुंच गया।


अप्रैल,1980 में दैनिक आवाज में काम के साथ आदिवासियों और मजदूरों के आंदोलनों के साथ मेरा नाम जुड़ गया और बहुत जल्दी एकेराय,शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो से घनिष्ठता हो गयी। वहीं मनमोहन पाठक, मदन कश्यप,बीबी शर्मा,वीरभारत तलवार और कुल्टी में संजीव थे,तो एक टीम बन गयी और हम झारखंड आंदोलन के साथ हो गये,जिसके नेता कामरेड एके राय थे जो धनबाद के सांसद भी थे।


एके राय झारखंड को लालखंड बनाना चाहते थे और उनकी सबसे बड़ी ताकत कोलियरी कामगार यूनियन थी।वे अविवाहित थे और सांसद होने के बावजूद एक होल टाइमर की तरह पुराना बाजार में यूनियन के दफ्तर में रहते थे।अब भी शायद वहीं हों।


कोलियरी कामगार  यूनियन ने धनबाद में प्रेमचंद जयंती पर महाश्वेता देवी को मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया।वक्ताओं में मैं भी था।महाश्वेता दी के साथ कामरेड एके राय और मेरी घनिष्ठता की वह शुरुआत थी।


यहीं से मेरे लेखन में किसानों और शरणार्थियों के साथ साथ आदिवासी और मजदूरों की समस्याएं प्रमुखता से छा गयीं तो नैनीताल समाचार और पहाड़ की वजह से पिछले करीब चालीस साल तक पहाड़ से बाहर होने के बावजूद  हिमालय और उत्तराखंड से मैं कभी दूर नहीं रह सका।

महाश्वेता दी मुझे कुमायूंनी बंगाली लिखा कहा करती थी।


कामरेड एके राय एकदम अलग किस्म के मार्क्सवादी थे।जो हमेशा जमीन से जुड़े थे और विचारधारा से उनका कभी विचलन नहीं हुआ।बल्कि शिबू सोरेन और सूरजमंडल की जोड़ी ने कामरेड एके राय को झारखंड आंदोलन से उन्हें दीकू बताते हुए अलग थलग कर दिया तो झारखंड आंदोलन का ही विचलन और विघटन हो गया।कामरेड राय लगातार अंग्रेजी दैनिकों में लिखते रहे हैं और उनका लेखन भी अद्भुत है।


भारतीय वामपंथी नेतृत्व ने कामरेड एकेराय और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता,आर्थिक सुधारों के पहले शहीद शंकर गुहा नियोगी का नोटिस नहीं लिया,जो सीधे जमीन से जुड़े हुए थे और भारतीय सामाजिक यथार्थ के समझदार थे।


वामपंथ से महाश्वेता दी के अलगाव की कथा भी हैरतअंगेज है।यह कथा फिर कभी।


अशोक मित्र, ऋत्विक घटक,सोमनाथ होड़,देवव्रत विश्वास जैससे भारतीय यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध लोगों को भी वामपंथ का वर्चस्ववादी कुलीन नेतृत्व बर्दाश्त नहीं कर सका।आज भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले गये वामपंथियों को इस सच का सामना करना ही चाहिए।



Wednesday, May 2, 2018

बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव? पलाश विश्वास

बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव?

पलाश विश्वास

मई दिवस को जनता के अर्थशास्त्री डा.अशोक मित्र का 9.15 पर निधन हुआ। प्राध्यापक इमानुल हक की फेसबुक पोस्ट से दस बजे के करीब खबर मिली।


पुष्टि के लिए टीवी चैनलों को ब्राउज किया तो 10.30 बजे तक कहीं कोई सूचना तक नहीं मिली।गुगल बाबा से लेकर अति वाचाल सोशल मीडिया के पेज खंगाले तो कुछ पता नहीं चला।फिर हारकर एबीपी आनंद पर पंचायत चुनाव को लेकर  पैनली चीख पुकार के मध्य स्क्रालिंग पर निधन की एक पंक्ति की सूचना मिली तो लिखने बैठा।


आज कोलकाता में कोई अखबार प्रकाशित नहीं हुआ और टीवी पर कहीं भी अशोक मित्र की कोई चर्चा नहीं है।रविवार से लेकर बुधवार तक दीदी की कृपा से दफ्तरों में अवकाश है तो कोलकाता में भी छुट्टी का माहौल है।कहीं पर अशोक मित्र पर कोई चर्चा नहीं है।


सुबह समयांतर के संपादक आदरणीय पंकज बिष्ट का फोन आया तो पता चला कि दिल्ली में आज अखबारों में खबर तो आयी है लेकिन टीवी चैनलों पर अशोक मित्र नहीं है।देश को मालूम ही नहीं पड़ा कि किसी अशोक मित्र का निधन हो गया है।


इसके विपरीत,आज के बांग्लादेश के अखबारों और टीवी चैनलों को देखा तो वहीं सर्वत्र इस उपमहाद्वीप के महान अर्थशास्त्री और साहित्यकार अशोक मित्र की चर्चा हर कहीं देखकर हैरत हुई कि उनके मुकाबले हमारी सांस्कृतिक हैसियत कहां है,यह सोचकर।


अभी हाल में एक बालीवूड अभिनेत्री के शराब पीकर विदेश में बथटब में दम घुटने से हुई मौत पर हफ्तेभर का राष्ट्रीय शोक का नजारा याद आता है तो अहसास होता है कि जो बिकाऊ है,वही मुक्त बाजार का सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आइकन है।


वैसे भी हिंदी समाज को अपनी संस्थाओं,विरासत और इतिहास की कोई परवाह नहीं होती।बाकी भारतीय भाषाओं में भी पढ़ने लिखने का मतलब या तो साहित्य है या फिर धर्म या अपराध या सत्ता की राजनीति,राजनीति विज्ञान नहीं।


इतिहास के नाम पर हम मिथकों की च्रर्चा करते हैं।इतिहास लेखन हमारी विरासत नहीं है।इतिहास की चर्चा करने पर हम सीधे वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण ,महाभारत, मनुस्मृति, इत्यादि की बात करते हैं,जिसे साहित्य तो कहा जा सकता है,इतिहास कतई नहीं।


एशिया के मुकाबले यूरोप में मध्ययुग में गहन अंधकार कहीं ज्यादा था।अमेरिका का इतिहास ही कुश सौ साल का है।लेकिन यूरोप और अमेरिका में नवजागरण के बाद ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों और विधाओं की अकादमिक चर्चा होती रही है।वस्तुगत विधि से समय का इतिहास सिलसिलेवार दर्ज किया जाता रहा है तो हम मध्ययुग से पीछे हटते चले जा रहे हैं और आदिम बर्बर प्राचीन असभ्यता के काल में,जहां हमारी संस्कृति में हिंसा और घृणा के सिवाय कुछ बचता ही नहीं है।


हम मिथकों और धर्मग्रंथ को इतिहास मानते हुए अत्याधुनिक तकनीक से ज्ञान विज्ञान की लगातार हत्या कर रहे हैं।यही हमारा राष्ट्रवादी उन्माद है,जिसका इलाज नहीं है।


एक छोटे से द्वीप इंग्लैंड की भाषा अंग्रेजी सिर्फ नस्ली और साम्राज्यवादी वर्चस्व से पूरी दुनिया पर राज कर रही है,इस धारणा के चलते हम अंग्रेजी से घृणा करते हैं।लेकिन अंग्रेजी भाषा और साहित्य में विश्वभर की तमाम संस्कृतियों,साहित्य और ज्ञान विज्ञान पर जो सिलसिलेवार विमर्श जारी है,उसके मुकाबले हमने भारतीय भाषाओं में साहित्य और धर्म के अलावा ज्ञान विज्ञान पर आम जनता को संबोधित किसी संवाद का उपक्रम शुरु ही नहीं किया है।ज्ञान हमारी शिक्षा का उद्देश्य नहीं रही है और न रोजगार का मकसद शिक्षा का है।यह हमारी क्रयशक्ति का अश्लील प्रदर्शन है।


आज जो लूट का तंत्र देश को खुले बाजार बेच रहा है,उसकी वजह यही है कि शिक्षा के अभूतपूर्व विकास के बावजूद ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में पाठ्यक्रम की परिधि से बाहर हम अब भी अपढ़ हैं और हम चौबीसों घंटे राजनीति पर चर्चा करते रहने के बावजूद राजनीति नहीं समझते।


हमारी कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है और न हमारा कोई इतिहास बोध है।


हमने देश को मुक्तबाजार बना दिया है  और धार्मिक कर्मकांड को ही सांस्कृतिक विरासत मानते हुए सांस्कृतिक बहुलता और विविधता के साथ साथ इतिहास और भूगोल की हत्या कर दी।


बाजार का व्याकरण ही हमारे लिए अर्थशास्त्र है और उत्पादन प्रणाली और श्रम से,उत्पादकों से हमारा कोई रिश्ता नहीं है।


गांव,खेत और किसानों के साथ साथ देशी उद्योग,धंधों के कत्लेआम के दृश्य देखने के लिए हमारी कोई आंख नहीं बची है।


छात्रों,युवाजनों,बच्चों,महिलाओं और वयस्कों की असहाय असुरक्षित स्थिति से हमें कोई फर्क तब तक नहीं पड़ता जबकि हम अपने गांव या नगर महानगर में बाजार में उपलब्ध भोग सामग्री के उपभोग से वंचित न हो जायें।


ऐसे परिदृश्य में में न परिवार बचा है और न समाज।

अब हम कह नहीं सकते कि मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं।

हम पूरी तरह असामाजिक हो गये हैं।

हमारा कोई सामुदायिक जीवन नहीं है।

इसीलिए इतिहास,सांस्कृतिक विरासत, विविधता, बहुलता, लोकतंत्र, संप्रभुता,स्वतंत्रता,समानता,न्याय,प्रेम जैसी अवधारणाएं हमारे लिए बेमायने हैं।


टीवी पर जो नजर आये,जो जैसे भी हो करोड़पति अरबपति हो जाये, वे ही हमारे आदर्श है।हमारा न कोई पूर्वज है, न हमारा कोई मनीषी है, न हमारी कोई संस्कृति है, न हमारा कोई इतिहास है।


न हमारा कोई अतीत है और न वर्तमान, और न भविष्य।

न हमारा कोई राष्ट्र है और न कोई राष्ट्रीयता।

सिर्फ अंध राष्ट्रवाद है।

हमारे दिलोदिमाग में बाजार है बाकी हम डिजिटल इंडिया है,जिसका न कोई संविधान है और न कोई कानून।


बाजार के चमकते दमकते चेहरों के मुकाबले किसी अशोक मित्र का क्या भाव?



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