Friday, October 17, 2014
Prespective Bangladesh,reference to Muslim terrorবর্ধমানে বোমা বিস্ফোরণ ও বাংলাদেশের জামায়াত
Tuesday, October 14, 2014
আমাদের মধ্যে আর নেই সংসদে হরিবোল করা মতুয়া সঙ্ঘাধিপতি কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর
আমাদের মধ্যে আর নেই সংসদে হরিবোল করা মতুয়া সঙ্ঘাধিপতি কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর
পলাশ বিশ্বাস
আজ সকালের কাগজ পড়েই মাথায হাত।
জানতাম তিনি অসুস্থ,কিন্তু তাঁর কর্মক্ষমতার সঙ্গে খানিকটা পরিচিত,তাই বার্ধক্যের হানা এবং দীর্ঘ অসুস্থতা সত্বেও আশা করেছিলাম তিনি আবার সুস্থ হয়ে উঠবেন।
তিনি বনগাঁর সাংসদ কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর। । মতুয়া মহাসংঘের বড়মা বীণাপাণি দেবীর বড় ছেলে তিনি। গত তিন মাস ধরে ভুগছিলেন জনডিসে। দিল্লির দুটি বেসরকারি হাসপাতালে চিকিত্সার পর আজ সকালে কলকাতার একটি বেসরকারি হাসপাতালে ভর্তি হন তিনি। দুপুর সাড়ে বারোটা নাগাদ তাঁর জীবনাবসান হয়। বয়স হয়েছিল আটাত্তর ।
ভারতের পশ্চিমবঙ্গের বনগাঁ কেন্দ্রের সাংসদ কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর প্রয়াত হলেন। কোলকাতার একটি বেসরকারি নার্সিং হোমে তিনি আজ (সোমবার) মারা যান।
মৃত্যুর খবর পেয়েই হাসপাতালে যান মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। হাসপাতালে যান মুকুল রায়, মদন মিত্র, জ্যোতিপ্রিয় মল্লিক সহ তৃণমূলের নেতা কর্মীরা। শেষ শ্রদ্ধা জানাতে মঙ্গল ও বুধবার ঠাকুরনগরে রাখা থাকবে তাঁর দেহ। বৃহস্পতিবার তাঁর অন্ত্যেষ্টি ।
Mamata Banerjee
I am deeply pained at the untimely passing away of Kapil Krishna Thakur, our MP from Bongaon and Head of Matua Mahasangha.
We are with his family and my brothers and sisters of Matua Community at this moment of grief.
May the departed soul rest in peace.
মৃত্যুকালে তার বয়স হয়েছিল আটাত্তর বছর। তিনি চলতি বছরের মে মাসে তৃণমূল কংগ্রেসের টিকিটে বনগাঁ (তপশিলি) সংরক্ষিত কেন্দ্রে এমপি নির্বাচিত হন।
তিনি সারা জীবন বামপন্থী ছিলেন এবং হঠাত লোকসভা ভোটের আগে তৃণমুলে গিযে বাবা প্রমথ রন্জন ঠাকুরের মতই সংসদে গিয়ে হরিবোল জযধ্বনে দিয়েছিলেন।
প্রচলিত সংবাদ মাধ্যমের মত,ভাটব্যান্কের অন্ক নিযে আমার মাথা ব্যথা নেই
তিনি মতুয়া সঙ্ঘাধিপতি ছিলেন।
পূর্ব বাংলার পূর্ব পুরুষদের মতুয়া আন্দোলনের তিনিই শেষ ধ্বজাবাহক, সেনাধিপতি মতুয়া বাহিনীর।
তিনি মতুয়া আন্দোলনকে কোথায় রেখে গেলেন,সেই চিন্তাটাই সবচেয়ে বড়
শেষপর্যন্ত বাংলার জাতি ধর্ম নির্বিশেষ কৃষক আন্দোলনের মূল প্রতিনিধিত্ব ক্ষমতার রাজমনীতিতে হারিয়ে গেলেই সাঢ়ে সর্বনাশ,হরিচাঁদ গুরুচাঁদ মতাগদর্শের মানুষদের এ কথাটি মনে রাখতে হবে।
পিআর ঠাকুরের সঙ্গে ঠাকুরনগরে বাবার সঙ্গে গিয়ে একাবর মাত্র দেখা হয়েছিল সেই 1973 সালে,মানুষটি তখন সাংসদ ছিলেন না বোধ হয়,কিন্তু তাঁকে কাছ থেকে দেখার সুযোগ হয নি।
আমার জেঠিমার মা,আমার দিদিমা ঔ ঠাকুর বাড়িরই মেয়ে,কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর কথাটি মনে রেখেছিলেন,এবং সেই সূত্রে আমার মতামতকতে গুরুত্বও দিতেন,আমার সৌভাগ্য।
ষাটের দশকে বড়মাকে নিয়ে তিনি বাসন্তীপুরে আমাদের বাড়িতে গিয়েছিলেন এবং ঠাকুরনগরে যখন সবিতা আর আমি যাই শেশবার,সেকথা তিনি মনেও করেছিলেন।
তবূ সেবার তিনি বলেছিলেন আম্বেডকরকে নিয়ে কোনো আলোচনা করব না
কিন্তু তারপর চন্দ্রপুরে যাই,ত তিনি মতুয়া কেন্দ্রের বাইরে অপেক্ষা করছিলেন
বাহালি উদ্বাস্তুদের নাগরিকত্বের আন্দোলনে তাঁ পুরোদম সমর্থন ছিল এবং এই প্রসঙ্গেই সেবার তাঁর সঙ্গে দীর্ঘ আলোচনা হয়েছিল।
তারপর তিনি ক্ষমতার অলিন্দে কোথায় ধরা ছোঁযার বাইরে চলে গেলেন,আর যোগাযোগ হইনি,তবু তাঁর স্বচ্ছ ভাবমুর্তি ও আন্তরিকতার ছবি এতটুকু ম্লান হয়নি কোনো দিন।
আজ তাঁকে হারানোর খবর বড়ই বেদনাদাযক।
সেই কবে ষাটের দশকে তিনি বাসন্তীপুর গিয়েছিলেন এবং ঘটনাচক্রে আজ আবার আমি বাসন্তীপুর যাচ্ছি দীর্ঘ সাত বছর পর,সেখানকার মাটিতে তাঁর পরশ পাইকি না দেখবো।
পারিবারিক সূত্রে জানা গেছে, কপিলকৃষ্ণ বাবু বার্ধক্যজনিত কারণে কিছুদিন ধরে অসুস্থ ছিলেন। তা ছাড়া তিনি জণ্ডিসেও ভুগছিলেন। তার মৃত্যুতে গভীর শোক প্রকাশ করে পরিবারের প্রতি সমবেদনা জানিয়েছেন বনগাঁর বিধায়ক বিশ্বজিৎ দাস। তিনি জানান, 'তার মৃত্যুতে দলের অপূরণীয় ক্ষতি হল। তিনি হঠাৎ করে এভাবে চলে যাবেন আমরা বুঝতে পারিনি। এছাড়া কপিল বাবু মতুয়া মহাসংঘের সংঘাধিপতি ছিলেন। সমস্ত মতুয়া ভক্তের প্রতি সমবেদনা জানাচ্ছি।'
গত মে মাসে লোকসভা নির্বাচনের সময় ঠাকুর নগরের ঠাকুর বাড়ি তথা মতুয়া সম্প্রদায়ের প্রতি সম্মান জানাতে বনগাঁ কেন্দ্রে কপিল কৃষ্ণ ঠাকুরকে তৃণমূল কংগ্রেসের প্রার্থী করেছিলেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়।
বিশেষ করে কপিল বাবুর মা তথা সব মতুয়া ভক্তের শ্রদ্ধাভাজন বীণাপাণি ঠাকুরের (বড় মা) প্রতি ভালবাসার নিদর্শন হিসাবে মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায় কপিলকৃষ্ণ ঠাকুরকে এমপি করবেন বলে মনস্থির করেন।
এমপি নির্বাচিত হওয়ার তিন মাসের মধ্যেই গত ১ সেপ্টেম্বর তিনি শ্রম বিভাগের স্ট্যান্ডিং কমিটির সদস্য হয়েছিলেন।
কপিল কৃষ্ণ ঠাকুরের ছোট ভাই মঞ্জুলকৃষ্ণ ঠাকুর বর্তমানে পশ্চিমবঙ্গ সরকারের উদ্বাস্তু পুনর্বাসন দফতরের মন্ত্রী।
কপিল কৃষ্ণ ঠাকুরের প্রয়াত বাবা প্রমথরঞ্জন ঠাকুর বা পিআর ঠাকুরও ১৯৬২ সালে বিধান চন্দ্র রায়ের মন্ত্রীসভায় উপজাতি কল্যাণ দফতরের রাষ্ট্রমন্ত্রী ছিলেন। দু'বার বিধায়কও হয়েছিলেন তিনি। ১৯৬৭ সালে তিনি নবদ্বীপ লোকসভা কেন্দ্র থেকে এমপি নির্বাচিত হন।
প্রয়াত এমপি কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর মতুয়া মহাসংঘের প্রধান ছিলেন। তার মৃত্যুর খবর ছড়াতেই অসংখ্য ভক্ত অনুরাগী ভিড় জমিয়েছেন গাইঘাটার ঠাকুর নগরের ঠাকুর বাড়িতে। তাকে শেষ শ্রদ্ধা জানানোর জন্য বহু তৃণমূল নেতা কর্মীরা ভিড় করে রয়েছেন তার বাসভবনে। সকলেই তার পার্থিব দেহ কোলকাতা থেকে আসার অপেক্ষায় রয়েছেন।#
RIP Kapil Krishna Thakur - Trinamool MP and Matua scion
October 13, 2014
Trinamool Congress Lok Sabha MP Kapil Krishna Thakur (78) breathed his last today in a city hospital. He was one of the scions who had from a very early life fought for upliftment and social welfare of the Matua community. He is survived by his wife.
He was the elder son of Binapani Debi Thakurani (Baroma), the leader of Matua community and great grandson of Shri Shri Guruchand Thakur. He had been the Sanghadhipati of Matua Mahasabha.
Kapil Krishna Thakur had been elected from the Bongaon constituency in the 2014 Lok Sabha elections, defeating his nearest rival by almost one and a half lakh votes.
After being elected as MP, he was a Member of the Standing Committee on Labour.
A graduate of the Calcutta University, he had been a recipient of the prestigious Sri Sri Thakur Harichand-Guruchand prize for his sustained work among the Matuas to uplift them.
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তৃণমূল লোকসভা সাংসদ শ্রী কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর আজ কলকাতায় শেষ নিঃশ্বাস ত্যাগ করেন। বর্তমানে তাঁর স্ত্রী জীবিত। তিনি মতুয়া সঙ্ঘমাতা বীণাপাণি দেবী ঠাকুরের (বড়মা) বড় ছেলে এবং শ্রী শ্রী গুরুচরণ ঠাকুরের প্রপৌত্র।
তিনি বনগাঁর মনিগ্রাম হাই স্কুল থেকে পাশ করার পরে কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয় থেকে স্নাতক হন। তিনি জীবনের প্রথম থেকেই বনগাঁর মতুয়া সম্প্রদায়ের সামাজিক উন্নয়নের সঙ্গে যুক্ত ছিলেন। তিনি বনগাঁয় বহু উন্নয়নমূলক কাজ করেছেন।
কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর মতুয়া সঙ্ঘের একজন সক্রিয় কর্মী ছিলেন। মতুয়া গোষ্ঠীর উন্নয়নের জন্য তিনি শ্রী শ্রী ঠাকুর হরিচন্দ্র-গুরুচন্দ্র পুরস্কার পেয়েছিলেন।
Monday, October 13, 2014
हिंदुत्व का कारोबार: आनंद तेलतुंबड़े
हिंदुत्व का कारोबार: आनंद तेलतुंबड़े
हाशिए की आवाज स्तंभ के तहत समयांतर के अक्तूबर, 2014 अंक में प्रकाशित. अनुवाद:रेयाज उल हक
आनंद तेलतुंबड़े
नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले की प्राचीर से लोगों से जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयतावाद को दस साल तक स्थगित रखने के लिए बड़ी जोशीली अपील की, लेकिन इसके बावजूद उनके कुनबे की सांप्रदायिक हरकतें कम नहीं हो रही हैं. अपील के उलट, हाल में नौ राज्यों में उपचुनावों के प्रचार अभियान दौरान ये हरकतें इस घटिया स्तर तक पहुंच गईं, कि लोगों को लगने लगा कि भाजपा ने दोमुंहेपन और बेईमानी का अपना पुराना खेल फिर से शुरू कर दिया है. इसने विवादास्पद सांसद योगी आदित्यनाथ को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी और केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र के साथ उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीट के उपचुनाव की कमान सौंप दी. गोरखपुर से पांचवीं बार सांसद बने, भगवा कपड़े में लिपटे इस नौजवान योगी ने बड़े कम वक्त में इतनी बदनामी हासिल कर ली है कि वह भाजपा का हिंदुत्व का चेहरा बन गया है. मोदी के भाषण के महज दो दिन पहले, उसने संसद के भीतर सांप्रदायिक जहर उगलते हुए इस बात पर जोर दिया कि हिंदुओं को अल्पसंख्यकों के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह इस पर सहमति में सिर हिला रहे थे. भाजपा के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी के मुताबिक योगी को सोच-समझ कर उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के चेहरे के रूप में चुना गया था. यह बहुत साफ था कि भाजपा सांप्रदायिक रूप से लोगों को बांटना चाहती थी, मानो लोकसभा चुनावों के दौरान अमित शाह ने बड़ी महारत से जो किया था, वह कुछ कुछ उसे दोहराना चाहती थी.
मैंने पिछले स्तंभ में यह चेतावनी दी थी कि अगर हिंदुत्व ब्रिगेड की घटिया बदमाशियों को समय रहते काबू में नहीं किया गया तो वे भाजपा के लिए आत्मघाती साबित होंगी. उपचुनावों के नतीजों ने इसे सचमुच दिखा भी दिया. जिन नौ राज्यों की 32 सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से 26 सीटें भाजपा के पास थीं जिसे महज चार महीने पहले राष्ट्रीय चुनावों में शानदार जीत भी हासिल हुई थी. लेकिन उपचुनावों में वह महज 12 सीटें बचा पाई. सबसे तगड़ा झटका यूपी में लगा जहां अपने चुने हुए प्रचारक आदित्यनाथ के नेतृत्व में इसने 11 में 7 सीटें खो दीं. इसके बाद राजस्थान और गुजरात की बारी थी, जहां इसे लोकसभा चुनावों में पूरी तरह एकतरफा जीत हासिल हुई थी, वहीं उपचुनावों में दोनों राज्यों में 3-3 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा. इस हार ने संघी शिविर की बेबुनियाद उन्माद की हवा तो निकाली ही, इसने यह संकेत भी दिए कि भाजपा की भारी जीत के बावजूद इसका मुख्य जनाधार पहले के चुनावों की तरह अब भी करीब 22 फीसदी के आसपास ठहरा हुआ है. आम चुनावों में निर्णायक अंतर पहली बार वोट डाल रहे 4 करोड़ मतदाताओं की वजह से आया था, जो भाजपा की विकास संबंधी लफ्फाजी और रणनीतिक रूप से छिपा कर रखे हुए हिंदुत्व की वजह से उसकी तरफ आकर्षित हुए थे. उपचुनावों ने साफ तौर से यह जाहिर किया कि उन्होंने भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को नकारा है. अगर भाजपा इसे नजरअंदाज करेगी तो वह खुद अपनी कब्र खोदेगी, लेकिन जिस मुद्दे पर इसे जरूर ही आत्मविश्लेषण करना चाहिए, वह यह है कि इसका सांप्रदायिक मुद्दा भविष्य के लिए कितना व्यावहारिक है.
हिंदुत्ववादी हेराफेरी
दूसरे अनगिनत मुद्दों पर भाजपा के लफ्फाजी से भरे हुए दिखावे के बावजूद, अपने मातृ संगठन आरएसएस से विरासत में हासिल किया हुआ हिंदुत्व इसकी बुनियादी विचारधारा है. संघ परिवार इसके बारे में चाहे जितनी गोल-मोल बातें, हिंदुत्व और कुछ नहीं बल्कि ऊंची जाति के कुलीनों द्वारा अपने नस्ली प्रभुत्व को फिर से हासिल करने की योजना है. भारत अंतर्विरोधों की जमीन है, जहां सबसे जमीनी स्तर पर भाषा अपने अर्थ खो देती है, जहां आजादी का मतलब गुलामी हो सकता है, जहां साम्राज्यवाद का मतलब साम्राज्यवाद-विरोध हो सकता है, जहां स्वराज का मतलब बंधुआगिरी हो सकती है और राष्ट्रीय का मतलब राष्ट्र-विरोधी हो सकता है. इसमें और भी चीजें जुड़ सकती हैं, जो इस पर निर्भर करता है कि आप किस जातीय समूह से जुड़े हुए हैं. 1818 में पेशवाई के पतन ने पुणे के चितपावनों को भारी सदमा पहुंचाया, जिसने उनमें से अनेक को ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने को प्रेरित किया. पारंपरिक रूप से इसे एक साम्राज्यवाद-विरोधी और क्रांतिकारी कदम माना जाता था, लेकिन असल में यह एक साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी कदम था, जिसे उन्होंने बुनियादी तौर पर अपना खोया हुआ राज हासिल करने के लिए उठाया था. क्योंकि अगर वे साम्राज्यवाद-विरोधी होते तो यकीनन उन्होंने अपनी दो तिहाई जनता के हर कदम पर होने वाले जातीय उत्पीड़न पर गौर किया होता. 'हिंदुत्व' के जनक विनायक दामोदर सावरकर इन 'वीर क्रांतिकारियों' में आखिरी थे, जिन्होंने अपने लोगों को संगठित होने और उनके सपनों के लिए काम करने का विचारधारात्मक आधार मुहैया कराया. इसमें उनका 'अन्य' मुसलमानों और ईसाइयों को बनना था, जो मुख्यत: निचली जातियों से आते हैं. 1920 के दशक में महाराष्ट्र में दलितों के जो शुरुआती आंदोलन उभरे, उनसे पैदा हुए संभावित खतरे ने भी उनको संगठन के एक फासीवादी स्वरूप में संगठित होने की तरफ धकेला. इस तरह आरएसएस पैदा हुआ.
यूरोप का फासीवाद और नाजीवाद उनकी प्रेरणा रहे हैं. गोलवलकर के विचार-रत्नों की एक झलक देखने भर से पता चलता है कि वे कितने खतरनाक और छल-कपट से भरे हैं. यह महसूस करते हुए कि वे व्यापक जनता का 'ब्राह्मणवादीकरण' किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते, इसलिए उन्होंने अनेक ऐसे संगठनों का एक फंदा बनाया, जो ज्यादातर सामाजिक समूहों की जरूरतों को लगातार पूरा करता रह सकता था. इस तरह समय बीतने के साथ, वे आदिवासियों, दलितों और पिछड़ी जातियों के बड़े तबकों का ब्राह्मणवादीकरण करने में कामयाब रहे. एक तरफ जबकि दूसरी छोटी दलित जातियां आसानी से ही इस फंदे में आ गईं, अब तक ब्राह्मणवाद के कटु आलोचक रहे आंबेडकर के अनुयायियों को सामाजिक समरसता मंच के जरिए इस जाल में फांसा गया. आज भाजपा की झोली में सबसे ज्यादा अनुसूचित जातियों/जनजातियों के सांसद और विधायक हैं. एक तरफ जबकि संघ परिवार को अपनी ऐसी चालबाजियों में कामयाबी इत्तेफाक से इसके लिए अनुकूल, नवउदारवादी दौर में हासिल हुई है, वहीं इसके भीतरी अंतर्विरोध भी इस तरह विकसित हुए हैं, कि वे उसके उभार और अस्तित्व को सीमित कर रहे हैं. इसे यह महसूस नहीं होता है कि ये अंतर्विरोध बुनियादी रूप से उसकी विचारधारात्मक उद्देश्य की अस्पष्टता से पैदा हुए हैं. हिंदू, हिंदूवाद, हिंदुत्व, हिंदुस्तान: इसकी यह पसंदीदा शब्दावली असली लग सकती है, लेकिन बुनियादी रूप में ये अवास्तविक और धुंधली है. उनका न तो इतिहास में कोई वजूद था और न ही कहीं और.
हिंदू, हिंदुत्व, हिंदुस्तान
संघ के मुखिया मोहन भागवत का तरीका दो अलग अलग चीजों को बेहद सरलीकृत तरीके से आपस में जोड़-तोड़ कर उनसे एक मनमाना नतीजा निकालने का है. इसके तहत वे कहते हैं कि भारत हिंदुस्तान था, हिंदुस्तान के लोग हिंदू हैं और इस तरह भारत हिंदू राष्ट्र है. उन्हें शायद ही यह बात समझ में आई हो कि उन्होंने न केवल एक बेवकूफी की बात कह दी है, बल्कि वे जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं. क्योंकि इसका सीधा मतलब यह है कि अगर भारत पहले से ही एक हिंदू राष्ट्र है, तो उनका अभियान तो पूरा हो चुका है और इसलिए अब उन्हें अपनी दुकान बंद कर देने की जरूरत है. कोई भी देख सकता है कि संघ परिवार के पूरे अभियान की जड़ें या तो अज्ञानता में धंसी हुई हैं या फिर झूठ-फरेब में. जिस पहचान पर वे इतराते फिरते हैं, वो अपने सबसे बेहतरीन रूप में विदेशियों द्वारा दिया हुआ नाम है और बदतरीन रूप में एक अपमानजनक संबोधन है. इनमें से पहली स्थिति के मुताबिक, हिंदू शब्द फारसी लोगों द्वारा स का गलत उच्चारण करते हुए उसे ह कहने से पैदा हुआ, जो सिंधु नदी के पार रहने वाले लोगों के बारे में बताना चाहते थे. हालांकि यह एक लोकप्रिय धारणा है, लेकिन इसमें आलोचनात्मक नजरिया नहीं है और इसकी पुष्टि मुमकिन नहीं, क्योंकि फारसी भाषा में अनगिनत ऐसे शब्द हैं जो स से शुरू होते हैं (मसलन शिया, सुन्नी, शरीअत, साहिर, सरदार) और उनको सही-सही बोला जाता है. फारसी और तुर्क लोगों ने जिन अर्थों में हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया है, वे अर्थ उनके शब्दकोशों में मिलते हैं और वे भागवत और उनके संघ परिवार के लिए भारी शर्मिंदगी का कारण बन सकते हैं. उन शब्दकोशों में हिंदू का मतलब चोर, डकैत, रहजनी करने वाला, गुलाम, हुक्म मानने वाला नौकर और काली चमड़ी वाला भी होता है, जैसा कि हिंदू-ए-फलक का मतलब 'आसमान और शनि का कालापन' से जाहिर होता है. हिंदू शब्द के अपमानजनक होने का एक और पता 'हिंदू कुश' से चलता है, जो मध्य एशिया की सरहद पर स्थित पर्वतीय श्रृंखला है और जिसका मतलब हिंदुओं का हत्यारा है. इनमें से चाहे जो भी मामला हो, यह शब्द संस्कृत में या भारत की किसी भी स्थानीय बोली और भाषा में नहीं मिलता.
हिंदू का कभी भी कोई धार्मिक मतलब नहीं था. प्राचीन फारसी कीलाक्षर शिलालेख और जेंद आवेस्ता, हिंदू शब्द का हवाला किसी धार्मिक नाम के बजाए एक भौगोलिक नाम के रूप में देते हैं. जब फारस के राजा डेरियस प्रथम ने 517 ईसा पूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप की सरहद तक अपनी सल्तनत का विस्तार किया, तो प्राचीन फारसी लोगों ने भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का जिक्र 'हिंदू' कह कर किया था. प्राचीन यूनानी और आर्मेनियाई लोगों ने भी यही उच्चारण अपनाया और इस तरह यह नाम चल पड़ा. जब बात हिंदूवाद की आई तो तिलक और राधाकृष्णन जैसे नायकों ने जो परिभाषा पेश की वह कोई परिभाषा ही नहीं थी. उसमें उन्होंने असल में हर चीज शामिल कर दी थी. आखिर में यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास आया, जिसे फैसला करना था कि हिंदूवाद क्या है. उसने 1966 में और फिर 1955 में इस पर फैसला दिया भी. स्वामीनारायण (1780-1830) के अनुयायियों द्वारा दायर किए गए मामले में उन्होंने दावा किया था कि वे लोग हिंदू नहीं हैं. ऐसा उन्होंने 1948 बॉम्बे हरिजन (टेंपल एंट्री) एक्ट को चुनौती देने के लिए किया था, जो दलितों को सभी मंदिरों में दाखिल होने का अधिकार देता है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राधाकृष्ण और कुछ यूरोपीय लोगों द्वारा दी गई परिभाषाओं का हवाला देते हुए, हिंदूवाद को इसकी सहिष्णुता और सबको मिला कर चलने के आधार पर परिभाषित किया. यह दिलचस्प बात है कि इसके पीछे असल में कुछ हिंदुओं द्वारा दूसरे हिंदुओं (दलितों) को अपने मंदिरों से बाहर रखने की इच्छा थी. संघ परिवार के दावों के उलट भारत में हरेक के हिंदू होने (या उसे हिंदू होना चाहिए) की बात कभी भी सच नहीं थी. वह सदियों पहले सिंधु घाटी और वेदों के दौर में सच नहीं थी, वह उत्तर भारत में शुरुआती आबादियों के बसने के बाद भी भारत के ज्यादातर हिस्सों के लिए सही नहीं थी, और यह बौद्ध धर्म के उदय के बाद तो यकीनन ही कभी सही नहीं रही.
भारत का विचार
यही मौका है जब संघ परिवार अपनी खामखयाली से बाहर आए और इतिहास के कुछ कठोर तथ्यों को समझे. वे जिस देश पर गर्व करने का नाटक करते हैं, उसे इंडिया या भारत कहा जाता है, हिंदुस्तान नहीं. यह उपनिवेशवादियों की देन है, यह अपनी इस शक्ल और आकार में इससे पहले कभी भी वजूद में नहीं था. जिन मुसलमानों से नफरत करना उन्हें पसंद है, वे तब से इस जमीन का हिस्सा हैं, जब आठवीं सदी में 17 बरस के मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर कब्जा किया और इस्लाम के विस्तार की राह खोल दी. ऐसा तलवार के दम पर नहीं हुआ, जैसा कि वे (संघ परिवार) यकीन करते हैं, बल्कि इसकी वजह यह थी कि उनके (संघ परिवार के) सनातन धर्म से सताई हुई निचली जातियों पर इस्लाम के बराबरी के पैगाम का असर हुआ था. बेहद समृद्ध इस विशाल उपमहाद्वीप में गुलामी का एक इतिहास रहा है, जिसके पीछे उनमें (संघ परिवार में) पाई जानेवाली श्रेष्ठतावादी सनक है और जिसका नतीजा आखिरकार भयानक तबाही वाले बंटवारे के रूप में सामने आया. इसके बाद भी, भारत में मुसलमानों की आबादी भारत को दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशों में से एक बनाती है. संघ परिवार जिस भारतीय संस्कृति पर बेकार ही गर्व करता है, उसमें मुसलमानों का योगदान उनकी आबादी के लिहाज से कहीं ज्यादा व्यापक है. असल में भारत की ज्यादातर पुरातात्विक धरोहर मुसलमानों की ही बदौलत है. जिस 'मेहराब' के बारे में प्राचीन या यहां तक कि मध्यकालीन भारत तक में कुछ पता नहीं था, वह उन्हीं की देन है, जिसने इन धरोहरों को इस लायक बनाया कि भारत अब भी उन पर गर्व करता है. कला और संगीत में उनका योगदान भी कहीं ज्यादा है. फिर भारत को आधुनिकता और बुनियादी ढांचा उपनिवेशवादियों ने मुहैया कराया, हालांकि ऐसा करने के पीछे उनके अपने हित काम कर रहे थे. लेकिन उनकी जगह लेने वाले देशी हुक्मरान इसकी आखिरी बूंद तक निचोड़ लेने को बेताब हैं.
अच्छा होगा, अगर संघ परिवार यह समझ ले कि उनका 'हिंदू' का धंधा कभी कारगर साबित नहीं होने वाला है. वे जितना इस प्रभुत्ववादी मंसूबे को आगे बढ़ाएंगे, उतना ही वे लोगों को अपने से दूर करते जाएंगे. यह बेहतर होगा कि वे बाबसाहेब आंबेडकर की इस सलाह को सुनें, जिनको वे 'प्रात:स्मरणीय' मानते हैं:
'हिंदुओं में उस चेतना की निहायत ही कमी है, जिसे समाजशास्त्री 'कॉन्शसनेस ऑफ काइंड' (समग्र वर्ग की चेतना) कहते हैं. हिंदू वर्ग चेतना जैसी कोई चीज नहीं होती. हरेक हिंदू में जो चेतना पाई जाती है, वह उसकी अपनी जाति की चेतना होती है. यही वजह है कि हिंदूओं से एक समाज या राष्ट्र बनने को नहीं कहा जा सकता.'
भारत का विचार इसकी जनता की बहुलता और विविधता का विचार है. सिर्फ इन्हीं शर्तों पर यह बहु-राष्ट्रीय देश वजूद में बना रह सकता है.
JUMP CUT Who Is Going To Be Clean? We are still not ready to accept that cleanliness and sanitation are caste-based. BHASHA SINGH
हमारे मुद्दे दूसरे हैं। हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं। हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम! पलाश विश्वास
हमारे मुद्दे दूसरे हैं।
हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।
हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम!
पलाश विश्वास
संविधान बचाओ देश बचाओ देशभक्त नागरिकों!
हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।
इसीलिए इसी सिलसिले में मित्रों,अमित्रों,आज कुछ बेतरतीब बातें करने की इजाजत हूं और शायद अगले पखवाड़े में यही सिलसिला जारी रहना है छिटपुट उपलब्ध कनेक्टिविटी के साथ क्योंकि पीसी तो सोदपुर छूटा जा रहा है और टैब और ऐप्स का अभ्यस्त नही हूं।घर में जो पीसी है,उसकी कनेक्टिविटी का अंदाज नहीं है।फिर दौड़ भाग भी खूब होनी है और मोबाइल पर मैं सोसल नेटवर्किंग कर नहीं सकता।
सिलसिलेवार बातें कोलकाता लौटकर होनी है।फिलवक्त यात्रा पर जाते जाते बेहद जरुरी बातें करनी हैं।जिनपर आगे सिलसिलेवार चर्चा बी करेंगे ,अगर मौका हुआ और सकुशल सोदपुर लौटना हुआ।
आगे किस किनारे बंधेगी अपनी नाव,कुछ भी पता नहीं है।
हो सकता है कि इस बार आखिरी बार अपनी माटी को छूने का मौका है।
आखिरीबार हिमालय को छूने का कार्यक्रम भी हो सकता है यह।
दोस्तों से मुलाकातें भी आखिरी हो सकती हैं।
हालात संगीन है और हम मुक्तबाजारी युद्ध गृहयुद्ध के कुरुक्षेत्रे धर्मक्षेत्रे अपनी नियतिबद्ध परिणति के इंताजार में हैं।
दोस्त सारे महामहिम होते जा रहे हैं और आम लोगों के महामहिमों से संवाद के अवसर होते नहीं हैं।
आगे सिर्फ पिछवाड़ा है।
सामने कुछ भी नहीं है।
हम अब अतीत में जी रहे हैं और वर्तमान हमें लील रहा है।
फिर हो सकता है कि जिंदगी मौका दें न दें।जिंदगी जो अबूझ पहेली है कि गले मिलने का फिर मौका मिले न मिले, न गिले न शिकवे का फिर कोई मौका बने न बने।जिनके होने के लिए हम हैं,जो गुलमोहर की धूप छांव हैं,वे हो न हो।
हो सकता है कि मित्रों में कुछ विश्वसुंदरी की तर्ज पर नोबेलिया हो जायें।जेएनयू के किसी कवि या कोलकाता के किसी कथाकार के नोबेल बन जाने की प्रबल संभावना है जैसे हमारे पुरातन सारे सहकर्मी और मित्र संपादक हो गये हैं और हम वही डफर के डफर रहे।
प्रीमियम रेट पर रेलयात्रा की औकात हो यान हो और न जाने किस बंद गली में कैद रहे बाकी जिंदगी।अपनी माटी की खुशबू में समाहित हो आने का संजोग कोईबने न बने।अनियंत्रित विनियमित बाजार के अबाध पूंजी प्रवाह और न्यूनतम राजकाज में हम जैसे लोगों का क्या हश्र होगा कौन जाने।
देश की सबसे धनी महिला अब छनछनाते विकास बांटेंगी वंचितों को और देश को युद्धक अर्थव्यवस्था बनाने का जिम्मा जिस कंपनी का है ,उसका संविधान दशकों बाद बदल रहा है।कारोबारियों को ईटेलिंग में प्रतिस्पर्धा करने की सलाह दी जा रही है।हीरक चतुर्भुज में हम फिर कहा मिले या न मिले ,क्या ठिकाना है।
हमारे मुद्दे दूसरे हैं।
हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।
हमारे मुद्दे आम जनता के खिलाफ राष्ट्र के नस्ली युद्ध के हैं।हमारे मुद्दे भारतीय लोक गणराज्य का भविष्यसे जुड़े हैं।रहेंगे।क्योंकि हम सर्फ नागरिक हैं।महामहिम पार्टीबद्ध नहीं हैं और न होंगे।
बाबासाहेब अंबेडकर का भी हो सकता है कि कोई जाति पूर्वग्रह रहा हो और जाति उन्मूलन के उनके एजंडे में खामियां भी रही हों,हो सकता है कि उनका अर्थशास्त्र मौलिक भी न हो।
हो सकता है कि हिंदुत्व के मुद्दों पर उनके खुलासे में इतिहास बोध न हो और न उनके बनाये संविधान में कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो।
बाबासाहेब के बचाव के लिए हम कुछ कहना नहीं चाहेंगे क्योंकि बाबासाहेब की ऊंचाई हालिल किये बिना हम मंतव्य करने की हालत में नहीं है।पद,प्रतिष्ठा और संपन्नता में जो हमसे बेहतर हैं,वे बोलें लिखें,उनकी अभिव्यक्ति का हम सम्मान करते हैं।
वर्णवर्स्वी दुर्गा पूजा और महिषासुर वध के लिए स्त्री मिथक के पक्ष विपक्ष के मिथकों के हम खिलाफ हैं क्योंकि हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम।
हम जेएनयू कैंपसे अस्मिता अभियान के खिलाफ रहे हैं और हमारी कोशिश देश तोड़ने की नहीं जोड़ने की है।
हम किसी खेमे में नहीं हैं और हिंदुत्व के एजंडे का विरोध करने के बावजूद देशभक्त निष्ठावान समर्पित संघ परिवार के कार्यकर्ताओं का हम सम्मान करते हैं और इसीलिए मोदी के राजकाज के उजले पक्ष पर हम कालिख नहीं पोत रहे हैं।
हम इंदिरा और नेहरु की आलोचना कर रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वाम पाखंड का भी विरोध कर रहे हैं।
नरसंहार संस्कृति वाम दक्षिण नहीं होती है,वह सत्ता वर्ग की वर्णवर्चस्वी और नस्ली संस्कृति है।
हम महिषासुर प्रकरण में महिषासुर पूजा के उतने ही खिलाफ हैैं जितना आस्था के बहाने अश्लील वर्णवर्चस्व और नस्ली घृणा के दुर्गोत्सव का और इसे हम धार्मिक मामला नहीं मानते हैं और न जाति का मामला।
लोकतंत्र का तकाजा है कि जैसे धार्मिक माने जानेवाली कुप्रथाओं का अब तक निषेध होता रहा है,उसीतरह भ्रूण हत्या,आनर किलिंग,दहेज समेत नरसंहार की स्त्रीविरोधी आदिवासी और दलित विरोधी प्रथाओं का भी अंत हो।
हम यह भी मानते हैं कि भारतीय संविधान में अनेक गड़बड़ियां रह सकती हैं जैसे धर्मग्रंथों और मिथकों में भी होती हैं।
मानवाधिकार और सभ्यता के लिहाज से उनमें संशोधन अवश्य होने चाहिए।लेकिन देशी विदेशी कंपनियों,वर्ण वर्चस्व और नस्लभेद के मनुस्मृति शासन को लागू करने के लिहाज से इतिहास और संविधान संशोधन के हम विरुद्ध हैं।
हम कानून के राज के पक्ष में हैं तो लोकतंत्र के पक्ष में भी।एकपक्षीय सांस्कृतिक वर्चस्व के किलाप अपर संस्कृति के वक्तव्य को बाकायदा पुलिसिया राष्ट्र के दमन तंत्र के तहत दबाना और बहुसंख्य का उसके पक्ष में खड़े हो जाने के विरुद्ध हम हैं।
राष्ट्रतंत्रमें बुनियादी परिवर्तन के लिए हम भारतीय संविधान में भी परिवर्तन के पक्ष में हैं।वोट बैंक के गणित,मुक्त बाजार और युद्धक अर्थव्यवस्था के देशी विदेशी हितों के मद्देनजर विशुद्ध कारपोरेट लाबिइंग के तहत काननून और संविधान बदलने के देश बेचो अभियान का हम हर हल में विरोध करेंगे और इसीलिए हम संविधान बचाओ देश बचाओ अभियान भी चला रहे हैं।
आप आस्था के नाम पर आदिवासियों की हत्या का जश्न मना सकते हो और उन पर अपना ध्रम और मिथक थोंप सकते हों तो उनका भी अधिकार बनता है,इतिहास को अपने नजरिये से गढ़ना और अपने मिथकों को सार्वजनिक करना।
हो सकता है कि यह विशुद्ध राजनीति हो,लेकिन सत्तावर्ग को अपनी राजनीति में अपनी आस्था का इस्तेमाल जायज है तो आदिवासियों और वंचितों की राजनीति का हम हर स्तर पर विरोध करें तो यह लोकतंत्र के खिलाफ है।
हम फारवर्ड प्रेस का समर्थन नहीं कर रहे हैं और न दुर्गा को गणिका बताते हुए महिषासुर मिथक का।
हम मनावाधिकार के हक में खड़े हैं जिसके तहत नरहत्या गलत है,गैरकानूनी है और असुर भी मनुष्य हैं,आदिवासी हैं।ओबीसी भी हैं,उन शूद्र राजाओं के वंशज जो अठारवीं सदी तक इस देश के विबिन्न हिस्सों पर राज करते रहे हैं।
हम सत्तापक्ष के अलावा विपक्ष की अभिव्यक्ति का भी सम्मान करते हैं और असहमत होने के बावजूद उसके खातिर लड़ सकते हैं।
लेकिन जैसा कि हमने कहा कि हमारे मुद्दे मिथक नहीं,सामाजिक यथार्थ हैं।
हमारा नजरिया भाववादी नही है,वस्तुवादी है और हम किसी भी तरह के अस्मिता आधारित ध्रूवीकरण के बजाय वर्गीय ध्रूवीकरण के पक्षधर हैं।
अपने पुरातन और बेहद कामयाब सहकर्मी संपादक सुमंत भट्टाचार्य के हस्तक्षेप पर लगे फेसबुकिया मंतव्य पर दो बातें कहनीं हैं।
उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा है कि मिथकीय महिमांडन नहीं होना चाहिए।
हम भी यही अर्ज कर रहे हैं कि दुर्गा की मूर्ति बनायी गयी है और उसीकी पूजा होती है तो इसके विरोध में महिषासुर की मूर्ति बनाकर मिथकीय महिमांडन से भावावेग अंधड़ से हम सामाजिक यथार्थ को संबोधित नहीं कर सकते।
हमारा दुर्गापूजा का विरोध लेकिन मिथकीय महिमामंडन नहीं है और न ही दुर्गा का चरित्र हनन है।किसी भी स्त्रीके ,चाहे वह स्त्री मिथक ही क्यों न हो,उसका चरित्रहनन पुरुषतांत्रिक है।
दुर्गा का मिथक जो भी है और आस्था भी जो है,उसके बारे में हमें कुछ नहीं कहना है।
महिषासुर विवाद का सच किंतु यही है कि देश भर में आदिवासी समाज की पहचान असुरसंस्कृति से जुड़ती है और बंगाल और झारखंड और शायद अन्यत्र भी असुर जातियां हैं।तो उनीकी हत्या का उत्सव क्यों मनाया जाना चाहिए,बुनियादी सवाल यही है।
बुनियादी सवाल है कि अपनी ह्त्या के उत्सव का वे विरोध क्यों नहीं कर सकते।
अगर नरबलि की प्रथा रुक सकती है तो असुर बिरादरी की भावनाओं का सम्मान करते हुुए बिना असुर वध के भी आस्था के उत्सव हो सकते हैं।
बहुसंख्य समुदायों को अल्पसंख्यक समुदायों को मुख्यधारा मे जोड़ने की पहल करनी चाहिए।दूसरी बात यह कि बाकी जो सतीरुपेण देवियां हैं ,वे भी आदिवसी मूल की ही हैं और उनका कहीं कोई विरोध नहीं हो रहा है।
दरअसल सतीपीठों का विमर्श और भैरवों को उनसे जोड़ने का मिथक दरअसल आर्य अनार्य संस्कृतियों का समायोजन रहा है।यह मिथक संस्कृतियों के एकीकरण का है।
दूसरी बात यह है कि आर्य बाहरी है या भीतरी ,इस पर अलग अलग दावे हैं।संघ परिवार तो महाकाव्यों से लेकर वैदिकी साहित्य को भी इतिहास बनाने पर तुले हैं।
इस पचड़े में हम पड़ना नहीं चाहते हैं लेकिन भारत वर्ष में अद्वैत संस्कृति कभी रही हो,ऐसा अभी साबित हुआ नहीं है।
बहुल संस्कृति के देश में अलग अलग नस्लें है और जाति व्यवस्था में इस नस्ली आधिपात्य के भी ऐतिहासिक कारण हैं।जो उत्पादन संबंधों से जुड़े हैं।अर्थव्यवस्था में जन्मजात आरक्षण का स्थाई बंदोबस्त है यह और व्यवस्था बदलने के लिए,राष्ट्रतंत्र में बुनियादी परिवर्तन के लिए हम बाबासाहेब के जाति उन्मूलन एजंडा को प्रस्थानबिंदू मानते हैं।
सांप्रतिक इतिहास में कश्मीर, मणिपुर, संपूर्ण हिमालय, दक्षिण भारत और मध्य भारत,समूचा पूर्वोत्तर और यहां तक कि पूरब के बंगाल,बिहार और ओड़ीशा जैसे राज्यों के प्रति सत्ता वर्चस्व वाले समुदायों का आचरण नस्लवादी है।
हम इस नस्लवादी आचरण को समझे बिना कश्मीर को देश का अभेद्य अंग मानते हैं और हद से हद किसी हैैदर जैसी फिल्म बजरिये मुख्य़धारा के विमर्श के तहत हम अपने अपने स्तर पर कश्मीर का यथार्थ देखते परखते हैं,जबकि कश्मीरियों के नजरिये को हम सिरे से राष्ट्रद्रोही मानते हैं।
मध्यभारत के आदिवासी भूगोल,हिमालय और पूर्वोत्तर के आफसा देश से भी हम जुड़ते नहीं हैं क्योंकि नस्ली वर्चस्व के कारण हम इस अस्पृश्य भूगोल के गैरनस्ली लोगों के नागरिक और मानवाधिकार हनन को राष्ट्रहित में मानते हैं।
फिर भी गनीमत है कि इरोम शर्मिला लेकिन सोनी सोरी की तरह राष्ट्रद्रोही अभी करार नहीं दी गयीं।
दुर्गा के मिथक पर असुरों की टिप्पणी से जो हमारी आस्था को आघात पहुंचता है,वह मिथक सर्वस्व है।
दुर्गा न मूल मिथक में कोई सामाजिक यथार्थ है और न महिषासुर मिथक के आदिवासी विवरण में।
हम दरअसल दो अलग अलग मिथकों के विवाद में है।
इसके विपरीत,गुवाहाटी की सड़क पर नंगी भगायी जाती आदिवासी कन्या और निरंकुश सैन्य शासन के विरुद्ध मणिपुरी माताओं के नग्न प्रदर्शन या सोनी सोरी की आपबीती और ऐसे ही रोजाना देश कि किसी न किसी कोने में गैर नस्ली महिलाओं के उत्पीड़न पर हम विचलित नहीं होते।
सलवा जुड़ुम हमें बतौर नागरिक लज्जित नहीं करता।
न आफसा हमें शर्मिंदा करता है और न हम आधार निगरानी योजना के खिलाप खड़े हो पाते हैं और न निरंकुश बेदखली अभियान या अश्वमेधी राजकाज और सत्ता राजनीति के।
संतान समेत दुर्गावतार की प्रतिमाएं है और वध्य जो असुर है अश्वेत,उसके नस्ली बिंब संयोजन के सौंदर्यबोध में नरसंहार संस्कृति का आक्रामक और अद्यतन सामाजिक यथार्थ है।
हम पहले भी लिख चुके हैं कि दुर्गा बाकी चंडी रुपों की तरह कोई वैदिकी देवी नहीं हैं और दुर्गावतार मिथक वैदिकी है।
यह बंगीय अवदान है.जिसका राष्ट्रीयकरण हुआ है।
वैष्णोदेवी की पूरे देश में आराधना होती है और असुरों को मां के दरबार से कोई ऐतराज नहीं है।इसे समझा जाना चाहिए।
असली दुर्गा पूजा तो बनेदी बाड़ी की पूजा है जो बंगाल के सामंतों की विरासत है,उसीतरह जैसे सतीप्रथा।सतीप्रथा कोई वंचितों और गैरनस्ली लोगों की परंपरा नहीं रही है।
बौद्धमय बंगाल के पतन से पहले जयदेव ने गीत गोविंदम रचा और इस्लामी शासन के दौरान बंगाल में वैष्णव आंदोलन चैतन्य.महाप्रभु का चला।
शैव और शाक्त संप्रदाय आदिकाल से रहे हैं जैसे राजा शशांक शैव रहे हैं।
आधुनिक राजनीतिकों के सार्वजनीन दुर्गोत्सव से पहले बंगाल में कोई दुर्गा संप्रदाय नहीं रहा है।
यह ब्राह्मणों की देवी रही है और दुर्गा का मिथक ब्राह्मणवादी है,यह भी इतिहास विरुद्ध है।
ब्राह्मण को शिव ,काली और विष्णु के उपासक रहे हैं।
दुर्गापूजा इस्लामी मनसबदार राजाओं और अंग्रेजी हुकूमत में जमींदारी की निहायत व्यक्तिगत पूजा रही है,जिसकी अनिवार्य रस्म नरबलि है।
नरबलि तंत्र पद्धति और कापालिक कर्म है और बंगाल और अन्यत्र भी नरबलि और नरसंहार ब्राह्मण जाति का नहीं,बल्कि शासक वर्ग का साझा अश्वमेध राजसूय है।
लेकिन इस नरसंहारी शक्ति में हिंदुत्व के पुरोहितों को शामिल किये बिना इस सर्वजन स्वीकृत बनाया जा नहीं सकता,इसलिए राक्षस रावण को भी ब्राह्मण बना दिया गया।
पूजा समंतों की और पुरोहित ब्राह्मण।
चूंकि प्रजाजनों की कोई भूमिका वध्य बन जाने के सिवाय थी नहीं,इसलिए इस पूजा के कर्मकांड में शामिल होने की योग्यता सिर्फ ब्राह्मणों और सिर्फ ब्राह्मणों को दे दिया गया।
वही रघुकुल रीति चली आ रही है और दुर्गापूजा में भोग रांधने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को ही है।
किसी और देव देवी की पूजा पद्धति में इतना कठोर अनुशासनबद्ध बहिस्कार नहीं है।
आस्था की लोक परम्परा भी है और उसमें ब्राह्मण या पुरोहित की कोई भूमिका नहीं है।सूर्यउपासना वैदिकी और गैर वैदिकी दोनों है।
यूपी बिहार की लोकभूमि में जो सूर्यउपासना का छठ है ,उसमें न जाति और न नस्ली भेदभाव है और न उगते और डूबते सूर्य को अर्घ देने की कोई विधि है।
आस्था के इस सामाजिक न्याय को भी समझना जरुरी है।