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Monday, August 20, 2012

दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी है कि पूरे देश को या असम या फिर गुजरात बना दिया जाये, पक्ष विपक्ष समवेत सत्ता वर्ग का यही समीकरण!

दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी है कि पूरे देश को या असम या फिर गुजरात बना दिया जाये, पक्ष विपक्ष समवेत सत्ता वर्ग का यही समीकरण!

पलाश विश्वास

दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी है कि पूरे देश को या असम या फिर गुजरात बना दिया जाये, पक्ष विपक्ष समवेत सत्ता वर्ग का यही समीकरण है। यह सांप्रदायिकता कोई पाकिस्तानी कारस्तानी नहीं है, अपने ही सत्ता वर्ग और उसके पिट्ठू पढ़े लिखे मौकापरस्त सुविधाभोगी मलाईदार तबके की करतूत है। पाकिस्तान और मुसलमानों को देशका दुश्मन साबित​ ​ करते हुए इस देश में कोई राम रथ नहीं, वास्तविक अर्थों में कारपोरेट साम्राज्यवाद का विजय रथ चला रहा है।

असम के बोडो स्वशासित आदिवासी इलाके के दंगापीड़ित तीन लाख से ज्यादा लोग अभी शरणार्थी शिविरों में हैं। जिस गर्मजोशी  में आज ​​हम ईद मुबारक कहते रहे, मनाते रहे, उसमें सांप्रदायिक सौहार्द भी उतना ही होता तो सायद यह नौबत नहीं आती। राजनीतिक रोजा,​​ इफ्तार और नमाज की असलियत का खुलासा तो सच्चर कमिटी की रपट से हो ही गया,पर पाखंड और विस्वासघात का सिलसिला जारी​ ​ है। भाषाई, नस्ली और धार्मिक अल्पसंख्यकों में भय और असुरक्षा का वातावरण बनाये रखना जहां सत्ता की राजनीति की निरंतरता है, वहीं बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को उकसाकर अंध राष्ट्रवादका आवाहन हिंदुत्व का एजंडा है।ऐसे में असम के हालात सुधरने के आसार नजर नहीं​ ​ आ रहे हैं।

अल्पसंख्यकों में भय और असुरक्षा का माहौल कैसे बनता है और उसका कैसे कैसे राजनीतिक इस्तेमाल होता है, यह और यह भी कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का कैसे वैज्ञानिक प्रयोग संभव है, बतौर शरणार्थी और एक पेसेवर पत्रकार के नाते मुझे खूब मालूम है।अविभाजित​ ​ उत्तरप्रदेश के जिला नैलीताल की तराई में थारू और बुक्सा आदिवासियों के  घने जंगलात वाले इलाके में मेरा जन्म हुआ।मेरा ननिहाल​ ​ ओड़ीशा के आदिवासीबहुल बालेश्वर जिले के बारीपदा में है। पिता ाजीवन अछूत बंगाली शरणार्थियों और किसानों के हक हकूक के लिए ​​लड़ते रहे। मरे भी इसी लड़ाई में कैंसर से जूझते हुए। वे तेलंगाना के तर्ज पर तराई में १९५८ में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे।​​जेल गये।पुलिस ने पीट कर उनके हाथ तोड़े। संपत्तिकी कुर्की जब्ती एक बार नहीं, तीन तीन बार हुई।१९७३ नें जीआईसी नैनीताल पढ़ने गये तो अपना वजूद हिमालय से जुड़ गया। भौगोलिक अलगाव और शोषण का भोगा हुआ यथार्थ मालूम पड़ा।फिर पत्रकारित की शुरुआत झारखंड के को.लांचल वासेपुर विख्यात धनबाद से हुई।जहां भूमिगत आग से झुलसते हुए देशभर के आदिवासी आंदोलनों से जुड़ना हुआ। पहाड़ के पर्यावरण ​​आंदोलन और देश के आदिवासी इलाकों की जल जंगलजमीन की लड़ाई में अपना वजूद एकाकार होता गया। ८४ में उत्तरप्रदेश के मेरठ में ​​जब पहुंचे तो आपरेशन ब्लू स्टार की प्रतिक्रिय में इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी। देश भर में सिख नरसंहार और सिखों के खिलाफ घृणा​ ​अभियान शुरू हो गया। इससे पहले बालासाहब देवरस की एकात्म यात्रा का दिल्ली में स्वागत करके कांग्रेस ने हिंदुत्व राष्ट्रवाद का आगाज ​​कर दिया था। हरित क्रांति के बहाने, बड़े बांधों और उर्वरकों के लिए विदेशी पूंजी वर्चस्व का दौर तभी शुरू हो गया था। सूचना क्रांति इंदिरा के जमाने में टेलीविजन नेटवर्क के विस्तार से शुरू हुआ था।राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनते ही राम मंदिर का ताला खुलवा दिया।संघ पर प्रतिबंध लगानेवाली इंदिरा गांधी को संघ का पूरा समर्थन था। चाहे बांग्लादेश युद्ध हो या आपरेशन ब्लू स्टार या सिखों का नरसंहार, सभी नाजुक मामलों में।१९८४ के मामलों में संघ ने राजीव को समर्थन दिया यह कहते हुए कि हिंदू हितों की रक्षा जो करें, वोट उसी को।हिंदुत्व का यह पुनरूत्थान कांग्रेस के सहयोग  के  बिना असंभव थी।

असम के मामले में भले ही कांग्रेस और संघ परिवार एक दूसरे के हितों के विरुद्ध मोर्चाबंद दीख रहे हों, लेकिन देश को असम या गुजरात बनाने के खेल में दोनों बराबर के पार्टनर है आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में अमेरिकी इजराइली अगुवाई में भारत की पारमाणविक हिस्सेदारी जैसी है यह राजनीति और रणनीति।​
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​उग्र अंध राष्ट्र वाद का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था, बाजार और सर्वात्मक कारपोरेट अभियान से है। भारत में नवउदारवाद या मुक्त बाजार ​​व्यवस्था हिंदुत्व के पुनरूत्थान के बिना एकदम असंभव था।अंबेडकरवादी बाबसाहेब के अर्थशास्त्र को भूलकर जाति उन्मूलन के बजाय ​​जाति पहचान, सत्ता में भागेदारी और सोशल इंजीनियरिंग में उलझकर इस हिंदुत्व को मजबूत ही करते रहे हैं। हम शुरू से मानते रहे हैं कि ​​मनुस्मृति एक आर्थिक व्यवस्था है, जो विशेषाधिकार संपन्न तबके को जन्मजात आरक्षण देती है और बाकी जनता का जाति व्यवस्था के अमोघ हथियार के जरिये समान अवसर, सामाजिक न्याय. समता, नागरिकता. मानवाधिकार और संपत्ति, आजीविका , रोजगार के अधिकारों से ​​धर्म की आड़ में बहिष्कार करती है। मनुस्मृति की यह आदिम व्यवस्था और खुले बाजार की उत्तर आधुनिक श्रमवर्जित तकनीक सर्वस्व​ ​ बंदोबस्त में कोई बुनियादी फर्क नहीं है।इसीलिए हिंदुत्व के झंडेवपर दारों को न उत्तरआधुनिकतावाद से कोई परहेज है, न कारपोरेट​ ​​साम्राज्यवाद से और न खुले बाजार, विदेशी पूंजी या आर्थिक सुधारों से।अस्सी के दशक को प्रस्थान बिंदू माने सिख नरसंहार और ​​राममंदिर बाबरी विध्वंस आंदोलन के साथ, तो चरण दर चरण उदारीकरण और विदेशी पूंजी के खेल के साथ हिंदुत्व राष्ट्रवाद के उत्थान का ​अंतर्संबंध साफ उजागर हो जायेगा।​

कारपोरेट व्यवस्था अगर निनानब्वे फीसद जनता के बहिष्कार और नरसंहार संस्कृति पर निर्भर है, तो हिंदुत्व की अर्थ व्यवस्था और​ ​ राजनीति भी वही है। क्या वाइब्रेंट गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बतौर प्रस्तुत करने में अमेरिका, कारपोरेट ​​इंडिया, मीडिया और हिंदुत्व की तमाम ताकतें जो कांग्रेस के भीतर भी बेहद शक्तिशाली हैं, समानरुप से सक्रिय नहीं है क्या भारत के सिलिकन वैली बतौर बेंगलूर पर संघ परिवार का कब्जा नहीं है क्या गुजरात में वंचितों और बहिष्कृतों को हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील करके अनुसूचितों,अल्पसंख्यकों, पिछड़ों के आर्थिक  सशक्तीकरण को रोका नही गया।अब असम का मामला गुजरात प्रयोग का राष्ट्रीयकरण है, जिसका घुसपैठिया तत्व या हिंदू मुस्लिम  विवाद से कोई संबंध नहीं है। गुजरात में जिस तरह कारपोरेट इंडिया और विदेशी पूंजी के लिए सारे दरवाजे खुले हैं, वैसा बाकी देश में होना चाहिए, अंतिम लक्ष्य तो यही है।असम में जटिल जनसांख्यिकी और शरणार्थी समस्या के चलते साठ के दशक के यह हिंदुत्व की भूमिगत प्रयोगशाला है। पिछले​  एक दशक से लगातार पूर्वोत्तर और उसकी समस्याओं से सरोकार रखने के कारण और खासकर खुद शरणार्थी परिवार से होने के कारण,​ दंगा पीड़ित असम में साठ के दशक से दिवंगत पिता के अनुभवों की विरासत के आधार पर मैं दावे केसाथ कह सकता हूं कि संघ परिवार ​या कांग्रेस दोनों में  किसी को आदिवासियों से कुछ लेना देना नहीं है। छत्तीसगढ़ में सलवा जुड़ुम के जरिये नरसंहार करने वाली, पूरे राज्य को कारपोरेट घरानों के हवाले करने वाली, आदिवासी स्वशासित इलाके को भंग करके गुजरात के कांधला में सेज बनाने वाली बाजपा का बोड़ो आदिवासियो से क्या लेना देना है, समझने महसूसने वाली बात है। विशेष सैन्यअधिकार कानून के तहत पूर्वोत्तर और तरह तरह के सैन्य अभियानों के मार्फत पांचवीं छठी अनुसूचियों के तहत जल जंगल जमीन के संवैधानिक अधिकारों से बेदखली के अश्वमेध में तो कांग्रेस और संघ परिवार दोनों भागीदार है।​



​अस्सी के दशक में बाहैसियत उत्तर प्रदेश के बसे बड़े दो अखबारों के मुख्य उपसंपादक बतौर हमने हिंदू और मुसलिम दोनों समुदायों के​​ लोगों को उद्योग धंधों और आजीविका से बेदखल होते और पारंपारिक कुटीर उद्योगों पर कारपोरेट कब्जे का सिलसिला दंगों में झलसते जनपदों में देखा है और लिखा भी है। अंडे सेंते लोग, उनका मिशन, उस शहर का नाम बताओजहां दंगे नहीं होंगे और दूसरी कहानियों में दंगों के बूगोल और अर्थव्यवस्था को बेनकाब किया है, जिसका हिंदी के आलोचकों ने खास नोटिस नहीं लिया।गुजरात और असम में जो हुआ और हो रहा है, उसके पीछे सर्वात्मक कारपोरेट आक्रमण है। विडंबना है कि बारत में कम्युनिस्ट, मार्कसवादी और माओवादी न अंबेडकर, और न अंबेडकर साहित्य अर्थशास्त्र​ ​ पढ़ते हैं, इसलिए जमीनी हकीकत को वे सवर्ण नजरिये से देखते हैं और प्रकारांतर से बहिष्कृतों और वंचितों के संहार की व्यवस्था को​ ​ अपनी विचारधारा के विपरीत मजबूत करते हैं। मजदूर आंदोलनों, किसानसभाओं. छात्र युवा आंदोलनों, भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के पीछे बी यही अंतरविरोध काम करते हैं। जिसके कारण न बाजार का विरोध हुआ, न सांप्रदायिकता और हिंदू राष्ट्रवाद का, न आर्थिक सुधारों का और न कारपोरेच सर्वातमक आक्रमम का। सिर्फ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का जाप करने से अल्पसंख्योकों का भला नहीं हो जाता। वामशासित पशचिम बंगाल और केरल में मुसलमानों की हालत इसका खुलासा करती है। ममता भी वामपंथियों के नक्शेकदम पर वही तौर तरीके अपना रही है।

अल्पसंख्यकों के भय और उनमें ज्यादा से ज्यादा असुरक्षा का बोध जीवनके बुनियादी जरुरतों, समस्याओं और अवसरों , अधिकारों की​ ​ लड़ाई से बेदखल करने का नायाब फार्मूला है, जो बंगाल में दलितों और आदिवासियों के मामले में बी प्रासंगिक है और वर्चस्ववादी ​​व्यवस्था बनाये रखा है। विडंबना है कि संघ परिवार का अब कोई खास असर न होने के बावजूद हिंदू महासभा के इस मौलिक आधार श्रक्षेत्र में मनुस्मृति की अर्थ व्यवस्था सबसे ज्यादा मजबूत है।करीब दो दशक तक बंगाल के कोने कोने में घूमकर मेरा तो यही अनुभव है।
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हम लोग बचपन से दंगाई मीडिया को देखते रहे हैं, पर इधर दंगाई जिस कदर सोशल मीडिया पर हावी हो गये हैं और सांप्रदायिक विष वमण कर रहे हैं बाकायदा अकादमिक मुहिम चलाते हुए, वह हैरतअंगेज है। कुछ मंच तो इस कदर केशरिया हो गये हैं कि अभिव्यक्ति का यह आखिरी विकल्प भी खतरे में हैं।धुर सांप्रदायिक उन्माद बढ़ाने में तकनीक का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है।लोग मारकाट के मिजाज में फिंजां खराब होने की दुहाई देकर अपनी अपनी देसभक्ति और धर्मनिरपेक्षता की डंका पीट रहे हैं तो दूसरी ओर, किसी को न सूचना है और न समझ कि इस बावेला की आड़ कारपोरेट अश्वमेध के घोड़े दसों दिशाओं को फतह कर रहे हैं। राजनेता सांप्रदायिकता की आग में अपनी अपनी रोटी सेंकते हुए २०१४ के माफिक सत्ता​  समीकरण बनाने की कवायद में निष्णात है, पर सरकारें चलाने वाले, नीति निर्धारण करने वले गैर राजनीतिक गैर संवैधानिक तत्व आर्थिक नरसंहार के कार्यक्रम को तेजी से अमल में लाने की कोशिश में है। संसद में पेश होते होते कैग रपट में राष्ट्र को हुए नुकसाल की रकम दस लाख ​करोड़ से घटकर दो लाख करोड़ हो गयी।आरोपों में घिरे मर्यादा पुरुषोत्तम को बचाने की तैयारी के तहत कामनवेल्थ घोटाले में सुरश कलमाडी को बरी कर दिया गया, ये बातें नजरअंदाज होती रहीं। तो दूसरी ओर, वित्तमंत्री सारी समस्याओं के समाधान बतौर उपभोक्ता बाजार बढ़ाने, विदेशी पूंजी ही एकमात्र समाधान जैसे मंत्र जापने लगे हैं वित्तीय और मौद्रिक नीतियों को तिलांजलि देते हुए।भारतीय शेयर बाजार दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और हम शाइनिंग इंडिया के नागरिक हैं।इस विभ्रम के पाल गुड में जीते हुए हम सांप्रदायिक हो जाने का मजा ले रहे हैं। आज ईद मना रहे हैं तो कल दुर्गा पूजा मनायेंगे और फिर गणेश चतुर्दशी।उत्सवों का भाईचारा पाखंड बनकर हमारी सांप्रदायिकता को कवर अप करता है। हर हाथ में मोबाइल, हर घर में गाड़ी और कंप्यूटर राष्ट्र का लक्ष्य है।हर व्यक्ति को रोजगार और अजीविका का समान अवसर, हर किसी को भोजन, घर, स्वास्थ्य- यह लक्ष्य समावेशी विकास और बाजार में ​नकदी बढ़ाने और बाजार के विस्तार की रणनीति के तहत चलाये जाने वाले सरकारी गैर सरकारी कार्यक्रमों और समावेशी विकास के​ ​ शोर में गायब है।

तमाम कानून बदले जा रहे हैं। बैंकों का बाजा बज गया। जीवनबीमा खत्म। सारे सार्वजनिक प्रतिष्ठान बेच दिये जाने की तैयारी है। जल जंगल जमीन के हक हकूक खत्म करने के लिए नरसंहार संस्कृति चालू है। खनन और  और खानों के निजीकरण से घोटालों से निजातपाने का उपाय किया जा रहा है।हमें इसकी खबर तक नहीं है क्योंकि अर्थशास्त्र नहीं, हम जातीय धार्मिक पहचान और अलगाव के साथ अपना दिलोदिमाग से काम लेते हैं।

बायोमैट्रिक नागरिकता के बहाने निनानब्वे फीसद जनता के अर्थ व्यवस्था और जीवन के हर क्षेत्र से बहिष्कार, आदिवासियों, शरमार्थियों, ​​बस्तीवालों और खानाबदोश समूहों का विस्थापन, देश निकाला हमें नजर नहीं आता। हम नागरिक के जातीय पहचान,नस्ली भौगोलिक ​​अवस्थान,मातृभाषा और धर्म के आधार पर न्याय अन्याय की परिभाषा गढ़ते हैं और उसीका बचाव करते है।आदिवासियों को हिंदू बनाने से उनका दमन खत्म नहीं हो जाता और न अलगाव। न गांव राजस्व गांव बतौर दर्ज होते हैं, न बेदखली रुकती है, न भूमि सुधार लागू होते हैं, न वनाधिकार कानून और न ही संविधान की पांचवीं छठीं अनुसूचियों के तहत जल जंगल जमान के हक हकूक उन्हें मिल जाते हैं। पर हम लोग आदिवासियों को हिंदू बनाने पर तुले हुए हैं और मुसलमानों के खिलाफ हिंसक घृणा अभियान में शामिल हैं। सबसे मजे कि बात है कि अवैध घुसपैठिया बतौर मुसलमानों का निष्कासन राजनीतिक कारण से ही असंभव है। बुरे फंसे हैं देशभर में छितराये हुए दलित अछूत शरणार्थी, जिनके खिलाफ संघ परिवार का देश निकाला अभियान १९४७ से पहले से चालू है।राजनीतिक कारणों से सत्ता समीकरण की गरज से मुसलमानों के पक्ष में फिर भी राजनीति खड़ी हो जाती है, लेकिन दलित हिंदू शरणार्थियों के हक में बोलने वाला कोई नहीं है। नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित कराने में सभी राजनीतिक दलों की गोलबंदी और बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ बंगाल के सभी सांसदों के वोट से यह साबित हो चुका है।

नॉर्थ ईस्ट के पांच लाख लोगों को अफवाहों से डराकर 5 राज्यों से भागने पर मजबूर करने के जिम्मेदार लोग पाकिस्तान में हैं। भारत ने आज ऐलान किया कि उसके पास सबूत हैं और वो जल्द ही ये सबूत खुद पाकिस्तान को देगा। भारतीय खुफिया एजेंसियों की जांच में पता चला है कि पाकिस्तान से भारत पर ये अब तक का सबसे बड़ा साइबर हमला था। इस बार इंटरनेट के सहारे भारत में सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की साजिश रची गई।भारत सरकार की मानें तो इसके पीछे पाकिस्तान की सायबर आर्मी है। जिसने असम में हुई जातीय हिंसा, जातीय दुश्मनी गौर से देखी और फिर उसे इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर झूठी और पुरानी तस्वीरें डाल कर, धमकी भरे एसएमएस और पुरानी तस्वीरों वाले एमएमएस के जरिए सांप्रदायिक रंग दे दिया। एक वर्ग विशेष को दूसरे वर्ग विशेष से बेतरह डरा दिया, डर ये कि असम की हिंसा का जवाब दूसरे राज्यों में दिया जाएगा। नतीजा ये हुआ कि 5 लाख से भी ज्यादा लोग इस असुरक्षा के चलते अपनी पढ़ाई-लिखाई और नौकरियां छोड़ अपने घर लौट गए।पक्के सबूत मिले हैं कि असम हिंसा के बाद नॉर्थ ईस्ट के लाखों लोगों के महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और तमिलनाडु से वापस भागने के पीछे पाकिस्तान की सरजमीं पर मौजूद सायबर आर्मी का हाथ है। भारत पाकिस्तान को इस गहरी साजिश के सबूत देगा। इस मामले में जारी तकनीकी जांच में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उस देश से (पाकिस्तान) से गलत तरीके से तैयार की गयीं तस्वीरें सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइट पर अपलोड की गयीं।भारत सरकार ने गुमराह करने वाले पोर्टल पर कार्रवाई की है और ऐसे 250 से अधिक वेबसाइट को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया है जहां पर गलत तरीके से तैयार किये गए चित्र और वीडियो अपलोड किये गए हैं जिसके कारण कर्नाटक और देश के कुछ अन्य राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन की स्थिति उत्पन्न हुई।

सरकार का यह दावा अगर मान लिया जाये तो सवाल उठता है कि बुनियादी समस्या क्या पूर्वोत्त्तर वालों का पलायन ही है। तो असम में ​​बार बार जो दंगे भड़कते रहे हैं, उसमें क्या पाकिस्तान ही दोषी है?तो इतनी देरी से कार्रवाई क्यों? पूर्वोत्तर के मंगोलायड लोगों के साथ क्या नस्ली भेदभाव​ ​ और उनकी बाकी लोगों से अलग पहचान के कारण ही अफवाहों को हवा देना आसान नहीं हुआ? क्या पूर्वोत्तर के लोगों को हम शुरू से अपने समान भारतीय मानते रहे हैं? क्या हम उन्हे चिंकी नहीं कहते रहे?क्या विशेष सैन्य अधिकार कानून के खिलाफ बारह साल से भूख हड़ताल पर इरोम शर्मिला और पूर्वोत्तर की जनता की लड़ाई में हम कभी शरीक रहे हैं?असम हिंसा के बाद देश के कई हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों पर हमले की अफवाहों के थमने के बाद वापस अपने राज्य लौटे लोगों को अब महसूस हो रहा है कि उन्हें वापस नहीं लौटना चाहिये था। कुछ लोग अपने काम पर वापस भी जाने के इच्छुक हैं। पिछले कुछ दिनों में अपने मूल राज्यों में लौटे पूर्वोत्तर के लोगों का मानना है कि उनका भविष्य अनिश्चित हो जायेगा क्योंकि रोजगार के अवसर सीमित हैं।

दूसरी ओर, पाकिस्तान ने भारत के इस दावे को बेबुनियाद बताते हुए खारिज कर दिया कि उस देश के कुछ लोग सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइटों का इस्तेमाल सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने और पूर्वोत्तर के लोगों में दहशत फैलाने के लिए कर रहे हैं। भारतीय दावे को ठुकराने के साथ साथ पाकिस्तान ने नयी दिल्ली से इस संबंध में सबूत मुहैया कराने को भी कहा है। यह मुद्दा पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक और उनके भारतीय समकक्ष सुशील कुमार शिंदे के बीच फोन पर बातचीत में उठा।

गृह सचिव आर के सिंह ने कहा कि गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने पाकिस्तानी समकक्ष से कल बातचीत के दौरान यह बताया कि भारत इन घटनाक्रम से जुड़े सभी साक्ष्य पाकिस्तान को सौंपेगा जो कुछ संगठनों और लोगों के गलत तरीके से तैयार किये गए चित्र और वीडियो अपलोट करने में शामिल होने से जुड़े हैं।

दिल्ली में उन्होंने संवाददाताओं से कहा, हम इसे उनके (पाकिस्तान) साथ साझा करेंगे। गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि अब तक 130 वेबसाइटों को ब्लाक कर दिया गया है और शेष को जल्द ही बंद किया जायेगा। उन्होंने कहा, हम कुछ अन्य साइटों को बंद करने की योजना बना रहे हैं।

सिंह ने कहा कि तकनीकी जांच में यह बात सामने आई है कि पाकिस्तान में इन वेबसाइटों पर भड़काउ चित्र अपलोड किये गए। बहरहाल, मलिक ने कहा कि उन्होंने भारत से इस बारे में सबूत मुहैया कराने के लिए कहा है कि पाकिस्तान के कुछ तत्व सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइट्स का उपयोग सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए कर रहे हैं।

शिंदे से कल फोन पर हुई बातचीत का संदर्भ देते हुए मलिक ने कहा, भारतीय मंत्री ने कहा कि सेलुलर सेवाओं के जरिये पाकिस्तान से अफवाहें फैलीं। हम इन आरोपों को पूरी तरह से खारिज करते हैं और इसे आधारहीन पाते हैं। उन्होंने कहा, मैंने उनसे (शिंदे से) अनुरोध किया कि वह इस संबंध में हमें सबूत दें और हम इसे देखेंगे। मलिक ने कहा कि उन्होंने और शिंदे ने क्षेत्रीय हालात पर चर्चा की जिसमें उन अफवाहों का भी जिक्र शामिल था जिनके चलते असम के हजारों लोगों को कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

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