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Sunday, October 27, 2013

जाति उन्मूलन का विमर्श और महिषासुर वध आज कोई ज़ख़्म‍ इतना नाज़ुक नहीं जितना यह वक़्त है जिसमें हम-तुम सब रिस रहे हैं चुप-चुप। ***शमशेर बहादुर सिंह 25 से लेकर 29 दिसंबर तक पटना में बामसेफ एकीकरण का राष्ट्रीय सम्मेलन

जाति उन्मूलन का विमर्श और महिषासुर वध

आज कोई ज़ख़्म‍ इतना नाज़ुक नहीं जितना यह वक़्त है जिसमें हम-तुम सब रिस रहे हैं चुप-चुप। ***शमशेर बहादुर सिंह


25 से लेकर 29 दिसंबर तक पटना में बामसेफ एकीकरण का राष्ट्रीय सम्मेलन


पलाश विश्वास

आज कोई ज़ख़्म‍ इतना नाज़ुक नहीं जितना यह वक़्त है जिसमें हम-तुम सब रिस रहे हैं चुप-चुप। ***शमशेर बहादुर सिंह

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आज कोई ज़ख़्म‍ इतना नाज़ुक नहीं जितना यह वक़्त है जिसमें हम-तुम सब रिस रहे हैं चुप-चुप। ***शमशेर बहादुर सिंह


मौजूदा परिदृश्य का इतना सटीक विवरण शमशेर के शब्दों में ही संभव है।हमारी पीढ़ी लाचार है और कला कौशल के द्वंद्व फंद में इतनी निष्णात कि हम ऐसे शब्दबंध गढ़ भी नहीं सकते। रिसते जाना और रीतते जाना आज का सामाजिक यथार्थ है।


सबसे पहले आपके लिए यह अहम जानकारी कि बामसेफ एकीकरण केंद्रीय कार्यकारी समिति की शनिवार को मुंबई में हुई बैठक में आगामी 25 से लेकर 29 दिसंबर तक पटना में बामसेफ एकीकरण का राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन तय हुआ है।


खास बात है कि यह आयोजन जागरुकता और सशक्तीकरण मुहिम के प्रतिबद्ध ऐसे  कार्यकर्ताओं का होगा जो अंबेडकरी विचारधारा के मार्फत अंबेडकरी आंदोलन के तहत देश में समता व सामाजिक न्याय आधारित समाज की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है।


खास बात यह है कि इस सम्मेलन में कथित अंबेडकरी संगठनों की तरह निर्लज्ज अश्लील धनवसूली का कोई कार्यक्रम नहीं है बल्कि यह असुर महिषासुर वध की निरंतरता बनाये रखनेवाले कारपोरेट उत्तरआधुनिक मनुस्मृति अश्वमेध अभियान के विरुद्ध प्रतिरोधी जनमत तैयार करने के उद्देश्य को समर्पित है।


इस सम्मेलन में कोई एकतरफा भाषणबाजी या प्रवचन का आयोजन नहीं है। देश के भूगोल के हर हिस्से, उत्पादन प्रणाली के शक्तिपूंज के हर अंग, सभी सामाजिक समुदायों और शक्तियों के प्रतिनिधित्व और बागेदारी का अभूतपूर्व आयोजन है।


भाषण के बजाय इस सम्मेलन में पांचों दिन संवाद होगा। हर सत्र में देश और देशवासियों, संविधान व कानून के राज, समता और सामाजिक न्याय के लिए चुनौती बने हर मुद्दे  पर देश भर से आने वाले प्रतिनिधि न सिर्फ संवाद करेंगे, बल्कि समाधान के उपाय खोजकर निर्दिष्ट कार्यक्रम बनायेंगे जो अमल में लाया जायेगा।


इस सम्मेलन के मार्फत अंबेडकरी आंदोलन में व्यक्तिवादी मसीहावादी तानाशाही को तिलांजलि देकर तृणमूल स्तर से लेकर जिला, राज्य देश के छह क्षेत्रों पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण मध्य व पूर्वोत्तर और राष्ट्रीय सत्र पर लोकतांत्रिक पद्धति के तहत अंबेडकरी आंदोलन के लिए संगठनात्मक ढांचा बानाया जा सकेगा।


मुंबई बैठक में एकीकृत बामसेफ का संविधान फाइनल हो गया है जिसे राष्ट्रीय सम्मेलन मे ंपेश करके पास कराने के बाद अमल में लाया जायेगा। किसी भी स्तर पर कोई पदाधिकारी दो साल से ज्यादा अवधि तक अपने पद पर नही ंरहेगा।सारे फैसलों की प्रक्रिया फतवेबाजी के बजाय तृणमूल स्तर से जनसुनवाई और जनभागेदारी के मार्फत पूरी होगी ,जिसे लागू करेंगी जिला,प्रदेश, क्षेत्रीय व राष्ट्रीय कार्यकारी समितियां।


सारी वित्तीय गतिविधियां हर सत्र पर वित्तीय समितियों के मार्फत कार्यकारी समितियों द्वारा पास बजट के मुताबिक होगा। न कोई कोषाध्यक्ष होगा और न किसी व्यक्ति या ट्रस्ट के नाम संगठन को कोई खाता होगा। सभी स्तरों पर कार्यकारी समितियों के अध्यक्ष और सचिव से लेकर कार्यकर्ता बजट के मुताबिक काम करेंगे और हर कोई संगठन को हिसाब दाखिल करने के लिए उत्तरदायी होंगे। अध्यक्ष या सचिव या अन्य अधिाकारी को व्यक्तिगत तौर पर कोई वित्तीय या नीतिगत फैसला करने का हक होगा नहीं।


मसविदा संविधान राष्ट्रीय सम्मलन  में उपलब्ध होगा और इसके सारे अंश देश, संविधान,कानून का राज, नागरिकता, मानवाधिकार,जल जंगल जमीन और आजीविका बचाने के जागरुकता और सशक्तीकरण मुहिम से संबद्ध हैं।


ऐसे तमाम प्रतिबद्ध अंबेडकरी संगठनों और कार्यकार्ताओं का इस राष्ट्रीय अधिवेशन में स्वागत है। विवरण के लिए वे हमारे कार्यकारी समिति के अध्यक्ष एन बी गायकवाड़ जी से उनके मोबाइल फोन नंबर 09819024594 पर संपर्क कर सकते हैं।


जाति विमर्श का घटाटोप है जाति विमर्श आधारित कारपोरेट समय में। अस्मिता और पहचान के द्वीपों में कैद हो गयी हमारी नागरिकता। हम धर्माध लोग जाति अंध हैं, इसीलिए धर्माध भी हैं।जाति से टकराने की अब तक की सारी परिकल्पनाएं राजनीतिक रही हैं। डा. भीमराव अंबेडकर ने सामाजिक न्याय और शोषणविहीन समाज के आधार पर जो जाति उन्मूलन की बात कर रहे थे,उसकी बुनियाद लेकिन आर्थिक है।हमारी समझ से अंबेडकरी जाति उन्मूलन की परिकल्पना और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो से शुरू वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लिए क्रांतियात्रा के बुनियादी उद्देश्यों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। हमारी समझ से भारत में समाजवादी,साम्यवादी और यहां तक कि गांधीवादी तरीके से सामाजिक बदलाव का कोई भी प्रयास अंबेडकर विचारधारा को आत्मसात किये बिना असंभव है।


मुश्किल जो है , वह दरअसल भारतीय मानस का जाति सर्वस्व रसायन के सामाजिक यथार्थ की जड़ों में हैं। हमारी विचारधारा जो भी हो, हम जाति से ऊपर उठकर बात नही कर सकते। आरक्षण के प्रसंग में सत्ता वर्चस्व वाली जातियों के साथ साथ आरक्षण लाभार्थी जातियों के लिए भी इस जाति दलदल से निकलकर जाति उन्मूलन की अंबेडकरी परिकल्पना की ठोस जमीन पर खड़ा होना मुश्किल है।विडंबना तो यही है कि  अंबेडकर के बाद अंबेडकरी आंदोलन सामाजिक परिवर्तन का झंडावरदार बनने के बजाय यथास्थिति कायम रखकर आर्थिक बहिस्कार व नस्ली जनसंहार के कारपोरेट परिदृश्य में सीढीदार जाति नव्यवस्था के मार्फत सत्ता में भागेदारी के जरिये समता और सामाजिक न्याय हासिल करने की जद्दोजहद में मलाईदार तबकों के निहित स्वार्थ साधने का साधन बन गया है, जो न अंबेडकर विचारधारा है और न अंबेडकरी आंदोलन। इसी आत्मघाती मृग मरीचिका में बहुजन मूलनिवासी भारतीय कृषि समाज,जिसका चौतरफा सर्वनाश जाति वर्चस्व वाले कारपोरेट राज में हुआ है और आदिवासी, पिछड़ा, शूद्र, अस्पृश्य व अल्पसंख्यक हजारों तबकों में जो खंड खंड है, वे आधुनिक असुरों और महिषासुरों में तब्दील है और कारपोरेट समय में बिना किसी प्रतिरोध अविराम वे जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका नागरिक व मानव अधिकारों से बेदखल होते हुए इस अनंत वधस्थल में रोज तरह तरह के उत्सवों और आयोजनों में मारे जा रहे हैं।


हमारे क्रांतिकारी मित्र मानें या न मानें, अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन का साम्यवादी या समाजवादी विचारधारा से कोई अंतरविरोध नहीं है। लेकिन जैसे अंबेडकरी विचारधारा के लोग जाति उन्मूलन के कार्यक्रम से हटकर धर्मांध राष्ट्रवाद की पैदल सेना में तब्दील है, ठीक उसी तरह इस देश में प्रगतिशील साम्वादी व समाजवादी आंदोलन अब तक जाति वर्चस्व बनाये रखने के लिए मूलनिवासी बहुजनों को मनुस्मृति राष्ट्रवाद की पैदल सेना बनाता रहा है।


ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि भारतीय कृषि समाज ही जाति व्यवस्था का शिकार है। सत्तावर्ग जातिव्यवस्था से मुक्त है चूंकि वे वर्ण परिचय से विशुद्ध,सर्वश्रेष्ठ है और जीवन के हर क्षेत्र में उन्हीं का एकाधिकार है। कृषि संकट का मौजूदा परिदृश्य शासक कारपोरेट तबकों का कारपोरेट धार्मिक कार्यक्रम है। भारतीय कृषि ही भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद है न कि वाणिज्यिक रंग बिंरंगी सेवाएं या शेयर बाजार या विकास दरें या रेटिंग या उन्मुक्त बाजार का यह निरकुंश कालाधन का यह अबाध पूंजी प्रवाह।



ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि औपनिवेशिक व्यवस्था के विरुद्ध साम्राज्यवाद विरोधी, सामंती व्यवस्था विरोधी तमाम आदिवासी विद्रोह और किसान आंदोलनों क मकसद भूमि सुधार और उत्पादन प्रणाली में मेहनतकश आवाम के  हक हकूक, जल जंगल जमीन आजीविका  नागरिक व मानवाधिकार बहाल रखने के लिए हुए।

बंगाल में मतुआ आंदोलन, संन्यासी विद्रोह, नील विद्रोह से लेकर चंडाल विद्रोह और तेभागा आंदलनतक का प्रमुख मुद्दा भूमि सुधार था।


केरल मे ंअयंकाली का  आंदोलन  या महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबाफूले माता सावित्रीबाई फूले का आंदोलन, मुंबई में लोखंडे का मजदूर आंदोलन, तमिलनाडु में पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन, केरल में नारायण गुरु का आंदोलन, देशभर में सूफी संतों का आंदोलन मनुष्यता के अधिकारों का आंदोलन है।जो मनुष्यों को वानर, राक्षस, दैत्य, दानव, राक्षस, असुर महिषासुर ,शूद्र और अस्पृश्य बानाने और उनके वध की संस्कृति के विरुद्ध है।


इन सारे आंदोलनों के पीछे आर्थिक बुनियादी मुद्दे और जल जंगल जमीन के हक हकूक की बहाली के मुद्दे हैं।बहुजनों और मूलनिवासी भारतीय कृषिसमाज के सफाये का यह मनुस्मृति शास्त्रीय धार्मिक उत्सवी कारपोरेट अभियान भी विशुद्ध आर्थिक है जिसे न सिर्फ अस्मिता की राजनीति से रोकना संभव है और न सत्ता में भागेदारी के कारपोरेट राजनीति से।


जब आप अपने जनप्रतिनिधि मनोनीत अपराधियों और बाहुबलियों को बनाने के लिए बाध्य हैं,तब राजनीतिक स्वतंत्तता की कोई प्रासंगिकता नही रहती। न संविधान बचता है और न कानूनका राज और न बचता है लोकतंत्र।बचता है सिर्फ जातिवादी वर्चस्ववाद ।


अब तक जाति उन्मूलन की हर परिकल्पना जाति वर्चस्व बनाये रखने की ही परिकल्पना साबित हुई है,समता और सामाजिक न्याय वर्गविहीन शोषनविहीन समाज निर्माण की परिकल्पना नहीं।भारतीय कृषि समाज की व्यापक एकता,निनानब्वे फीसद वंचित जनता की सक्रिय हिस्सेदारी के बिना शासकों की देख रेख में जातिव्यवस्था आधारित कारपोरेट जनसंहार संस्कृति की अर्व्यवस्था का निषेध असंभव है।


हमारा मकसद है कि घृमा अभियानों के विरुद्ध हिंसामुक्त लोकतांत्रिक जनांदोलन,जो किसी के भी प्रति वेमन्सव भाव रखने के बजाय सामाजिक बदलाव के प्रति प्रतिबद्ध हो और इस अर्थव्यवस्था में उत्पादकों के हक हकूक जल जंगल नागरिकता आजीविका नागरिक व मानवाधिकारों की पहाली करता हो।


हम न सिर्फ बाबा साहेब के अनुयायी हैं, बल्कि हम भारत के तमाम आदिवासी विद्रोहों और किसान मजदूर आंदोलन के अपने तमाम पुरखों के अनुयायी है।सूफी संतों के अनुयायी हैं, जो निरंतर सामाजिक बदलाव, समता व सामाजिक न्याय के हक में आवाज उठाते रहे हैं। हम तथागत गौतम बुद्ध के समतामूलक समाज की बात कर रहे हैं,इसलिए बामसेफ एकीकरण का यह अभियान हमारे पुरखों की गौरवशाली परंपरा के तहत नये प्रस्थानबिंदु तय करने और नयी यात्रा शुरु करने का कार्यक्रम है।


इस कार्यक्रम में समविचारी सभी व्यक्तियों और संगठनों का खुला स्वागत है।



केरल मे ंअयंकाली का  आंदोलन  या महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबाफूलेLike ·  · Get Notifications · Share · 18 hours ago


Feroze Mithiborwala
Dalits attacked!! A mob of over 60 men and women — all from the dominant Maratha caste — allegedly attacked the Dalit basti of Rajwada in Shevge Dang village, Nashik district, on Sunday, causing serious head injuries to 13 men. The police have arrested 11 men so far.
According to the villagers, the attackers came in tractors, carrying sickles, knives, bricks and boulders. They alleged that their houses were damaged and photographs of B R Ambedkar were desecrated.

According to reports, the fight ensued over a small accident, when a tempo owned by a person belonging to the Maratha caste rammed into a tree on October 15, injuring several persons travelling in it, including a 50-year-old Dalit woman Lata Bharit.

"My son went to Chandrakant Shinde, the driver, and asked for compensation. He was abused and sent back. Both parties approached the police and the issue was resolved amicably," said Lata.

"While the Dalit families assumed the situation was normal, the Maratha men had begun to conspire. They waited for most of the villagers to leave for their daily work, and then attacked," said investigating officer and SDPO R N Hazare. The police have registered an FIR for attempt to murder, criminal conspiracy and dacoity under the IPC.

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Feroze Mithiborwala
Junagadh, Gujarat: Just a few days ago on Dussehra, more than 30,000 Dalits, Adivasis and OBCs converted to Buddhism. This news appeared in the Gujarat papers, but has been neglected by the national media. This is a major step forward for Bahujan movement, in their quest for self respect, dignity, social justice, religio cultural spiritual democracy and politico economic empowerment.

बोकारो ( खबर आजतक ) : आदिवासी संगठनों के आह्वान पर आज झारखंड बंद का राज्य में व्यापक असर रहा ! संगठनों ने राज्य में स्थानीय नीति की मांग को लेकर झारखंड बंद का आ...See More

Ak Pankaj
हिंदी के मठाधीश प्याज की चिंता से आगे नहीं जा सकते.

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गुजरात में इशरत जहां की तरह ही छत्तीसगढ़ के सरगुजा में मीना खलखो नामक 17 साल की आदिवासी लड़की को पुलिस ने 2 साल पहले मार डाला था. सरकार ने इस मामले में मीना के परिजनों को मुआवजा देने के बाद भी इस मुठभेड़ को फर्जी नहीं माना था. अब इशरत जहां के मामले में आरोपपत्र दायर होने के बाद कांग्रेस ने मांग की है कि मीना खलको मामले की भी सीबीआई जांच हो. 6 जुलाई 2011 को छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले के ग्राम करचा में 17 वर्ष की किशोरी मीना खलखो का एनकाउंटर हुआ था.


घटना के बाद 11 जुलाई 2011 को प्रदेश के गृहमंत्री ने संबंधित थाने के थानेदार सहित 24 पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया था. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक मीना खलखो को दो गोलियां लगी थी, जो नजदीक से मारी गई थी. वहीं कोई भी पुलिसकर्मी घायल नहीं हुआ था. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तब कहा था कि इस मामले की निष्पक्ष जांच की जाएगी.


रमन सिंह ने न्यायिक जांच आयोग नियुक्त कर जिला एवं सत्र न्यायाधीश बिलासपुर अनिता झा इस प्रकरण की जांच करेंगी और तीन माह के भीतर राज्य शासन को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगी। रिपोर्ट में जो भी दोषी पाया जाएगा, उसके खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी। किसी भी दोषी व्यक्ति को बख्शा नहीं जाएगा।


इसके बाद 31 अगस्त 2011 की खबर के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने न्यायिक जांच की अधिसूचना जारी कर मामले की न्यायिक जांच की घोषणा की थी. न्यायिक जांच के लिए एकल जांच आयोग नियुक्त किया था, जिसमें जिला एवं सत्र न्यायाधीश बिलासपुर अनिता झा एकल सदस्य थी. जांच आयोग को अपनी रिपोर्ट राज्य शासन को तीन माह के भीतर प्रस्तुत करनी थी.


लेकिन कुछ नहीं हुआ. क्या मीना खलखो के फर्जी एनकाउंटर के खिलाफ भी लोग बोंलेगे? या आदिवासियों के जान की कोई कीमत नहीं होती??

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Asur Nation-असुर दिसुम changed their cover photo.

July 2

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Tarun Kanti Thakur
**************আজকের সুবিচার ********

***** উচ্চবর্ণের হিন্দুরা গরু-ছাগলকে যে টুকুন ভালবাসা ও মর্যাদা দেয় ,অস্পৃশ্যরা তাদের কাছে সেটুকুও আশা করতে পারা না ৷

বর্ণাশ্রম ব্যবস্থাই শোষণের মূল উৎস ৷ এই ব্যবস্থায় ব্রাহ্মণেরা কেবল বর্ণশ্রেষ্টই নয় , এর মাধ্যমে তারা অতি সহজ উপায়ে সন্মানজনক ও আরামদায়ক জীবিকা বেছে নিয়েছে ৷

............................... বাবাসাহেব ডঃ বি .আর . আম্বেদকর ৷৷

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Dalit Mat
अलीगढ़ "अमर उजाला" में दो साल रहा था। तब अलीगढ़. मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की रिपोर्टिंग करता था। इस वजह से वहां के तमाम प्रोफेसर मेरे अच्छे मित्र हैं। पिछले दिनों एक वरिष्ठ असिस्टेंट प्रोफेसर मुझसे मिलने आए थे। उन्होंने मुस्लिम दलितों औऱ ओबीसी की बात की। बताते रहें कि दलित और ओबीसी मुसलमानों का भी वही हाल है जो हिन्दुओं में इन जातियों का है। उन्होंने बताया कि पठान किस तरह से उनलोगों का शोषण करते हैं। और मंडल आंदोलन के दौरान राजपूतों और पठानों ने किस तरह साथ मिलकर दलितों-पिछड़ों के खिलाफ लड़ा। दंगों पर भी बात हुई। बता रहे थे कि यूपी के मुसलमान अपनी सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित हैं।

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TaraChandra Tripathi
जब से यह टीवी भयी पुस्तक भयी अछूत
क्राइम रिपोर्टर बनि गयो जासूसी अवधूत
जासूसी अवधूत, तिरस्कृत गुलशन नन्दा
हाथ लगाये नहीं उन्हें भी कोई बन्दा.
अब तो बस सरकार खरीदे कछु ले दे कर
दीमक ही पढ़ि रहे गोदामन में जी भर कर

तुरत फुरत को युग भयो, लिखा लिखी डाइजेस्ट,
क्म्प्यूटर में राखि कै, कर दीनो कटपेस्ट
करि दीनों कट्पेस्ट, मेल जग जाहिर कीनो
जो कुछ रख्यो संभारि, वह गूगल छीनो,
कहै रिटायर दास शेष है जो भी ढेरी
ठेले में रखवाय करौ गलियन में फेरी
गंगा सहाय मीणा
कल रात जेएनयू में Anita Bharti और अश्विनी कुमार पंकज ने हिंदू फासीवाद के विविध रूपों का पर्दाफाश किया और सुषमा असुर ने असुरी और हिंदी में अपने गीत और कविताएं सुनाई. बातचीत विचारोत्‍तेजक रही.

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Himanshu Kumar"जय छत्तीसगढ़"
कल सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी का ज़मानत का मामला सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायलय के सामने आएगा .

सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी की कहानी दरअसल भारतीय समाज की सडन की कहानी है .

इन दोनों को सरकार ने पूरी योजना बना कर नकली मुकदमों में फंसा कर जेल में डाला .

दोनों को जेल में खूब यातनाएं दी गयीं .

सारी यातनाओं का विवरण बाहर भी भेज दिया गया .

पुलिस के इन दोनों के खिलाफ बनाये हुए सारे मामले झूठे साबित हुए .

अब आखिरी एक मामला बचा है जिस का बहाना बना कर इन दोनों साहसी आदिवासियों को जेल में डाल कर रखा हुआ है .

आखिरी मामला इतना फर्जी और हास्यास्पद है उसमे कभी किसी को जेल हो ही नहीं सकती .

लेकिन ये दोनों निर्दोष आदिवासी सारी दुनिया को जानकारी होने के बाद भी जेलों में सड़ाये जा रहे हैं .

असल में इन दोनों आदिवासियों के मामले में हम अपनी क्रूर और जिद्दी सनक पर अड् गए हैं.

क्योंकि अगर ये दोनों आदिवासी सही हैं तो क्या ये सरकार , सभ्यता हमारी लूट सच में गलत है ?

बस इस जिद की वजह से इन दोनों को जेल में डाल कर रखा गया है .

लेकिन इस पूरी लड़ाई में सोनी सोरी और लिंगा कोडोपी तो हारे ही नहीं .

लड़ाई तो आपकी नकली सभ्यता और आपके ढोंग ने हारी है .

बेपर्दा आप हुए हैं .

आप क्या सोचते हैं आप किसी को मार कर या सता कर जीत जाते हैं ?

नहीं बल्कि मुझे आप ही हारे हुए और हाँफते हुए दीख रहे हैं .

ध्यान से देखिये भारत के करोड़ों आदिवासी, दलित अपसंख्यक आपकी इस सभ्यता पर सवाल उठा रहे है .

इन्हें अनदेखा मत कीजिये . भारत सिर्फ आपका ही नहीं है बल्कि सबका है .

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Shreeram Maurya shared Jayantibhai Manani's photo.

फेसबुक के ओबीसी मित्रो, जानो और जागो... संवैधानिक आरक्षण विरोधी जातिवादीओ के गढ़ कहे जाने वाले बनारस हिन्दू विवि में अध्यापक पदों की संख्या 1490 हैं. इस हिन्दू...See More





साथी

(मज़दूर बिगुल के अक्‍टूबर 2013 अंक में प्रकाशित लेख। अंक की पीडीएफ फाइल डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें और अलग-अलग लेखों-खबरों आदि को पढ़ने के लिए उनके शीर्षक पर क्लिक करें)

झारखंडी भाषा संस्कृति अखड़ा
प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल हो क्षेत्रीय भाषा
रांची : झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति और विभिन्न संगठनों ने शनिवार को झारखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं में बाहरी भाषाओं का सामूहिक विरोध किया। यह विरोध प्रकट अलबर्ट एक्का चौक पर लाठी और नगाड़ा पीट कर किया गया। इसके साथ ही लोगों ने गीताश्री उरांव के बयान का भी जोरदार समर्थन किया। विरोध प्रदर्शन के साथ स्थानीय नीति बनाने और बाहरी भाषाओं को झारखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल नहीं करने की भी जोरदार वकालत की। वहीं, सरकार से पांचवीं अनुसूची लागू करने की मांग की गई। कहा गया कि इतने सालों से बाहरी लोगों ने सरकार में रह कर झारखंड के लिए कुछ नहीं किया और जब कोई यहां कुछ करना चाह रहा है तो उसका विरोध कर रहे हैं। संगठन के वक्ताओं ने कहा कि वे इसका मुंहतोड़ जवाब देंगे। अलबर्ट एक्का चौक पर विरोध के दौरान वक्ताओं ने सभा भी की। इसमें कहा गया कि बाहर के लोग लगातार आकड़ों का खेल खेलकर यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वे भी झारखंडी हैं। साथ ही आदिवासी मूलवासी की रक्षा के लिए बने कानून का खूब उल्लघंन कर रहे हैं। इस विरोध में प्रेमचंद मुमरू, रतन तिर्की, वंदना टेटे आदि थे।रांची : झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति और विभिन्न संगठनों ने शनिवार को झारखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं में बाहरी भाषाओं का सामूहिक विरोध किया। यह विरोध प्रकट अलबर्ट एक्का चौक पर लाठी और नगाड़ा पीट कर किया गया। इसके साथ ही लोगों ने गीताश्री उरांव के बयान का भी जोरदार समर्थन किया। विरोध प्रदर्शन के साथ स्थानीय नीति बनाने और बाहरी भाषाओं को झारखंड की प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल नहीं करने की भी जोरदार वकालत की। वहीं, सरकार से पांचवीं अनुसूची लागू करने की मांग की गई। कहा गया कि इतने सालों से बाहरी लोगों ने सरकार में रह कर झारखंड के लिए कुछ नहीं किया और जब कोई यहां कुछ करना चाह रहा है तो उसका विरोध कर रहे हैं। संगठन के वक्ताओं ने कहा कि वे इसका मुंहतोड़ जवाब देंगे। अलबर्ट एक्का चौक पर विरोध के दौरान वक्ताओं ने सभा भी की। इसमें कहा गया कि बाहर के लोग लगातार आकड़ों का खेल खेलकर यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वे भी झारखंडी हैं। साथ ही आदिवासी मूलवासी की रक्षा के लिए बने कानून का खूब उल्लघंन कर रहे हैं। इस विरोध में प्रेमचंद मुमरू, रतन तिर्की, वंदना टेटे आदि थे।

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For in these days, with the Press in hand, it is easy to manufacture Great Men. Carlyle used a happy phrase when he described the great men of history as so man...See More

Sunil Khobragade added a new photo. — with Pradeep Dhobley.

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S.r. Darapuri shared Suresh Gautam's photo.
डोंडीया खेडा एक पुरात्न बौद्ध स्थल है

Like ·  · Share · October 25 at 12:12pm · Ed

झारखंडी भाषा संस्कृति अखड़ा and Ak Pankaj shared Manoj Praveen Lakra's photo.

झारखंडी भाषाओं के समर्थन में प्रदर्शन झारखंडी भाषाओं के हक और सम्मान के लिए और लूट की संस्कृति के खिलाफ झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की ओर से शनिवार को रांची के अलबर्ट एक्का गोलांबर के समक्ष प्रदर्शन किया गया. अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने कहा कि .यहां की भाषा, संस्कृति और लोगों का सम्मान नहीं करने वाले यहां के नागरिक नहीं हो सकते. उनकी करनी से राज्य की समरसता भंग हो रही है. जिन भाषाओं को उनके गृह राज्य में ही मान्यता नहीं, उनका समर्थन हमारे उपर चढ़ कर नहीं की जा सकती. झारखंड में पांचवी अनुसूची के प्रावधानों को लागू कराने के लिए अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई है. हमारे जल, जंगल, जमीन लूटे जा रहे और अब यहां की भाषाओं पर प्रहार किया जा रहा है. हम शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव के जनजातीय व क्षेत्रीय भाषाओं के पक्ष में दिये बयान का समर्थन करते हैं. रतन तिर्की ने कहा कि भाषा के लिए हमारे पूर्वजों ने भी लड़ाई लड़ी थी. हम पर हमला बंद करें. डा वृंदावन महतो ने कहा कि क्या यहां की भाषाओं को बिहार, बंगाल या ओडिशा में महत्व दिया जायेगा? फादर स्टेन स्वामी, रेमिस कंडुलना, पीसी मुर्मू, कालीदास मुर्मू, करमचंद अहीर, मनोनीत टोप्पो, डा अर्चना कुमारी, जोसफ लकडा, विजय गुप्ता, तनूजा मुंडा, अमृत टोप्पो, रघुवर साहू आदि मौजूद थे.




दैनिक देशबंधु में आदरणीय मित्र हरिलाल दुसाध का यह विचारोत्तेजक लेख छपा है।



हिन्दू धर्म-संस्कृति : सम्पूर्ण मानवता के लिए चुनौती

एच एल दुसाध

(11:44:35 PM) 26, Oct, 2013, Saturday

हिन्दुओं की पूजा का सीजन चल रहा है। बंगाल के बंगाली दुर्गा पूजा और उत्तर व पश्चिम भारत के लोग रावण-दहन कर दैविक-कृपा का लाभ उठा चुके हैं। अब वे दैविक-कृपालाभ का भण्डार और समृध्द करने लिए लक्ष्मी (दिवाली), छठ, जगधात्री इत्यादि की पूजा की तैयारियों में जुट गए हैं। बहरहाल इस बार दुर्गा पूजा का जिस पैमाने पर बहुजन समाज के जागरूक लोगों ने बहिष्कार किया, वह मीडिया में चर्चा का विषय बन गया। विजय दशमी, दशहरा या नवरात्रि का हिन्दू धार्मिक उत्सव, 'असुर' राजा महिषासुर और उनके अनुयायियों के आर्यों द्वारा वध और सामूहिक नरसंहार का अनुष्ठान है, यह मानते हुए फेस बुक पर असंख्य लोगों ने दुर्गा पूजा बंद करने की मांग कर डाली। दूसरी तरफ विभिन्न  संगठनों द्वारा 60  से अधिक जगह महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन हुआ, जिनमें झारखण्ड के गढ़वा जिले के 'अशोक विजय दशमी' जैसी महत्वपूर्ण किताब के लेखक डॉ. विजय कुमार त्रिशरण ने अलग से मीडिया का ध्यान आकर्षित किया। डॉ. त्रिशरण के प्रयास से गढ़वा और उसके पार्श्ववर्ती जिलों में दस जगह कार्यम आयोजित कर रावण को 'मर्यादा-पुरुषोतम' और महिषासुर को 'महान मूल निवासी सम्राट' के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए दुर्गा  पूजा से लोगों को विमुख करने का बलिष्ठ प्रयास हुआ। किन्तु हिंदी पट्टी में 'महिषासुर शहादत दिवस' मनाने की जो अचानक बढ़ आई है, उसके पृष्ठ में है जेएनयू का 'आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम' (एआईबीएसएफ ) जिसके अध्यक्ष हैं जितेन्द्र यादव।

2011 में एआईबीएसएफ ने एक पत्रिका में छपे हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार, चिन्तक व राजनीतिकर्मी प्रेम कुमार मणि के लेख 'किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?' के माध्यम से जेएनयू छात्रों के विमर्श के लिए 'महिषासुर के सच' को रखा। मणि ने अपने लेख में यह सत्योद्धाटित किया था कि आर्यों ने भैंसपालक समाज के नायक महिषासुर को उस दुर्गा के हाथों छल से वध करवा दिया, जिस दुर्गा को बंग देश की वेश्याएं अपने कुल का बतलाती हैं। ऐसे विषयवस्तु से जुड़े लेख पर संघी-सवर्ण छात्रों ने जहां फोरम के छात्रों से मारपीट की वहीं जेएनयू प्रशासन  के अध्यक्ष जितेन्द्र यादव को धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में नोटिस जारी किया। इस पर देश के बुध्दिजीवियों, पत्रकारों की तीव्र प्रतियिा हुई जिसके दबाव में प्रशासन ने नोटिस वापिस ले ली। इस नैतिक जीत से उत्साहित पिछड़े वर्ग के छात्रों ने 25 नवम्बर, 2011 को पहली बार जेएनयू परिसर में 'महिषासुर शहादत दिवस' का आयोजन किया। आयोजन सफल रहा और उससे प्रेरित होकर हिंदी पट्टी के विभिन्न अंचलों में वैसे आयोजनों का सिलसिला चल पड़ा। इस साल साठ से अधिक जगहों पर इसका आयोजन हुआ जो बतलाता है कि बहुजन समाज के बीच महिषासुर की छवि एक नए मिथकीय नायक के रूप में प्रतिष्ठित होते जा रही है।

बहरहाल काबिले गौर है इटली के मशहूर क्रांतिकारी लेखक अंतोनियो ग्राम्सी सहित दुनिया के ढेरों समाज विज्ञानियों ने ही कहा है कि यदि शोषितों को शासकों के वर्चस्व को तोड़ना है तो उन्हें उनकी सांस्कृतिक वर्चस्वता को तोड़ते हुए अपना वैकल्पिक सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना होगा। ऐसा दुनिया के तमाम देशों में हुआ है। जहां तक भारत का सवाल है यह संघर्ष लम्बे समय से चला आ रहा है। यह काम मध्य युग के संतों ने किया, आधुनिक भारत में फुले, शाहूजी, पेरियार, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर, रामस्वरूप वर्मा सहित ढेरों महामानवों ने इस कार्य को अंजाम दिया। आज् ााद भारत में कांशीराम ने इसे बलिष्ठतापूर्वक अंजाम दिया। उनके आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्तर भारत में लोग हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें घरों से निकाल कर नदी-तालाबों में डुबोने लगे। बाद में जब उनकी शिष्या मायावतीजी के हाथों में सत्ता आई उन्होंने उसका इस्तेमाल वैकल्पिक सांस्कृतिक प्रतीक खड़ा करने अनुपम मिसाल कायम किया। इस क्रम में दलित साहित्य ईश्वर-विरोध में विश्व चैम्पियन बन विभिन्न प्रान्तों में सोत्साह शुरू हुआ महिषासुर का शहादत दिवस हिन्दू-धर्म-संस्कृति के खिलाफ लम्बे समय से चल रही बहुजन -संस्कृति की लड़ाई की ही एक नई कड़ी है।

सवाल पैदा होता है लम्बे समय से चल रही इस लड़ाई का परिणाम क्या निकला? मेरे ख्याल से परिणाम नहीं के बराबर सामने आया। इसका सबूत हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रवर्तकों की वर्तमान पीढ़ी का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्जा है। ऐसा इसलिए हुआ कि क्योंकि  वैकल्पिक सांस्कृतिक लड़ाई लड़ते समय हिन्दू धर्म संस्कृति के पीछे उसके प्रवर्तकों के असल लक्ष्य को ध्यान में नहीं रखा गया। इसके प्रवर्तक विदेशी आर्य थे। दुनिया में हर काल में सर्वत्र  ही विजेताओं का असल लक्ष्य विजित देश के संपदा-संसाधनों पर कब्जा जमाना तथा पराधीन बनाये गए लोगों के सस्ते श्रम का शोषण करना रहा है। हिन्दू धर्म-संस्कृति भारत के विदेशीगत शासकों के चरम लक्ष्य की पूर्ति में जिस तरह सहायक बनी, वह विश्व इतिहास के बेनजीर घटना है। विश्व इतिहास में किसी भी अन्य साम्रायवादी जमात ने  सम्पदा-संसाधनों पर चिर-स्थाई तौर पर कब्जा जमाने के लिए धर्म और संस्कृति का वैसा इस्तेमाल नहीं किया, जो आर्य कर गए।  

हिन्दू-संस्कृति का उत्स दरअसल वर्ण-व्यवस्थाधारित वर्ण-धर्म है। प्रत्येक संगठित धर्म के प्रवर्तकों की भांति वर्ण-धर्म के प्रवर्तक आर्यों ने  भी जीवन का चरम लक्ष्य पारलौकिक सुख अर्थात् मोक्ष  बताया। इसे अर्जित करने के लिए उन्होंने विभिन्न वर्णों के लिए कर्म निर्दिष्ट किए। ये कर्म ही धर्म हैं, जिनका निष्ठापूर्वक अनुपालन करते हुए हिन्दू ईश्वर के विभिन्न अंगों से जन्मे, विभिन्न किस्म (वर्ण) के हिन्दू मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इसमें ब्राह्मण का कर्म इंटेलेक्चुअल प्रोफेशन अर्थात अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य और राय संचालन में मंत्रणादान ; क्षत्रिय का भू-स्वामित्व, राय और सैन्य संचालन तथा वैश्य का कार्य  पशु पालन-व्यवसाय-वाणिय। इसमें जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष अर्जित करने के लिए  आर्यों ने बहुजनों के लिए निर्दिष्ट किया तीन उच्चतर वर्णों की सेवा के, वह भी पारिश्रमिक रहित। तो वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तन के पीछे मोक्ष नहीं, किसी भी अन्य विदेशागत की भांति हिन्दू साम्रायवादियों का चरम लक्ष्य संपदा-संसाधनों पर कब्जा जमाना तथा पराधीन मूलनिवासियों के सस्ते ही नहीं, नि:शुल्क श्रम का दोहन रहा।

अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दू धर्म-संस्कृति के मुकाबले वर्षों से संघर्ष चला रहे लोग उसके पीछे क्रियाशील अर्थशास्त्र को समझने में पूरी तरह असमर्थ रहे। अगर उसके अर्थशास्त्र को समझे होते तब आज की भांति आर्यों की मौजूदा पीढ़ी का शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) पर 80-85 प्रतिशत कब्जा नहीं होता। आज की तारीख में पूरे विश्व में ही किसी भी परंपरागत सुविधा व शक्ति-संपन्न तबके का किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में शक्ति के स्रोतों 80-85 प्रतिशत कब्जा नहीं है। सारी दुनिया में ही प्राचीन व्यवस्थाओं के सुविधा-संपन्न तबके इतिहास के पन्नों की शोभा बनकर रह गए हैं। प्राचीन रोम के पैट्रिसियन तथा यूरोप के मध्य युग के किंग, लॉर्ड्स, बैरन जैसे अतीत की सुविधा-संपन्न जमात का कहीं अता-पता नहीं है। किन्तु भारत में प्राचीन युग के शक्ति-संपन्न की मौजूदा पीढ़ी आज भी अपने पूर्वजों की भांति ही शक्ति संपन्न है तो दोष हिन्दू धर्म - संस्कृति के खिलाफ संघर्ष चलने वालों का है जिन्होंने हिन्दू-धर्म-संस्कृति के पीछे निहित अर्थशास्त्र की पूरी तरह अनदेखी कर अपनी सारी ऊर्जा अमूर्त मुद्दों में झोक दी। क्या महिषासुर की शहादत मनाने में जुटे लोग हिन्दू धर्म-संस्कृति के प्रवर्तन के पीछे छिपे आर्यों  के अभीष्ट को समझते हुए उसके प्रवर्तकों की वर्तमान पीढ़ी के शक्ति के स्रोतों पर कब्जे को तोड़ने में भी ऊर्जा लगायेंगे?

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)


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