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Monday, June 9, 2014

क्या हम आशा भोंसले मंगेशकर की भी नहीं सुनेंगे? তবে কি আমরা আশা ভোঁশলে মঙ্গেশকরকে ও শুনব না? वह जीवन संगीत बाजार ने खत्म कर दिया है।किंवदंती लता मंगेशकर की बहन आशा भोंसले को ही लीजिये,जरुरी नहीं कि वे सारे लोग जो मौदी के कट्टर समर्थक हैं,वे मुक्त बाजार के महाविनाश कार्यक्रम के भी समर्थक होंगे!

क्या हम आशा भोंसले मंगेशकर  की भी नहीं सुनेंगे?

তবে কি আমরা আশা ভোঁশলে মঙ্গেশকরকে ও শুনব না?


वह जीवन संगीत बाजार ने खत्म कर दिया है।किंवदंती लता मंगेशकर की बहन आशा भोंसले को ही लीजिये,जरुरी नहीं कि वे सारे लोग जो मौदी के कट्टर समर्थक हैं,वे मुक्त बाजार के महाविनाश कार्यक्रम के भी समर्थक होंगे!


पलाश विश्वास

বিয়ে করে আবেগে ভাসলে চলবে না

নতুন গায়িকাদের প্রতি পরামর্শ আশা ভোঁশলে-র। কারণ সময় পাল্টেছে। 'সারেগামাপা'র শ্যুটিংয়ের জন্য খুব মন দিয়ে প্রসাধন সারতে সারতে আজকের গান নিয়ে বলছিলেন অনেক কথা। পার্পল মুভি টাউনে তাঁর মুখোমুখি স্রবন্তী বন্দ্যোপাধ্যায়।


কম্পিউটারের ওপর আপনার এত রাগ?

শুনুন, যখন থেকে এই যন্ত্রটা আমার, আপনার জীবনের মধ্যে ঢুকেছে, তখন থেকে মানুষের ভাবনা, কিছু সৃষ্টি করার ইচ্ছে সবই বন্ধ হয়ে গেছে। না কোনও কবিতা লেখা হচ্ছে, না ভাল গান তৈরি হচ্ছে, না কলম থেকে শব্দ ঝরছে! এই যে আগামী প্রজন্ম, তারা আর কিচ্ছু করবে না। মিলিয়ে নেবেন আমার কথা। শুধুমাত্র কম্পিউটারের সঙ্গে জীবন কাটিয়ে দেবে এরা। আপনাকে যদি জিজ্ঞেস করা হয় আপনার ফোন নাম্বার কী? আপনি হোঁচট খাবেন। কারণ ওটা আপনার ফোনে আছে। আমাদের মস্তিষ্ক কাজ করা বন্ধ করে দিয়েছে। শুধু কম্পিউটারের ইশারায় আমরা উঠি বসি। বাচ্চারা মাঠের গন্ধই চিনল না। খেলছে তো কেবল কম্পিউটার। নামতা শিখছে কম্পিউটারে। ওদের কল্পনাশক্তিকে তো আমরাই মেরে ফেলছি।


http://www.anandabazar.com/supplementary/anandaplus


लता मंगेशकर की बहन आशा भोंसले ने कहा हैः

सुनिये, जबसे इस यंत्र(कंप्यूटर) का प्रवेश हुआ है हमारे आपके जीवन में,तब से मनुष्य की भावना,उसकी सृजन की इच्छा की मौत हो गयी है। न कोई कविता लिखी जा रही है और न कोई अच्छा गीत तैयार हो रहा है।कलम से शब्दों का झरना बंद है।भावी पीढि़यां अब कुछ भी नहीं करेंगी।आप मेरी चेतावनी याद रखे और उसे भविष्य में परख भी लें।अगली पीढ़ियां सिर्प कंप्यूटर के साथ जीवन बिता देंगी।आपसे मैं आपका फोन नंबर मांग लूं तो आप दुविधा में पड़ जायेंगे।क्योंकि वह आपको याद है ही नहीं,वह तो आपके फोन में दर्ज है।हमारे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है।हम सिर्फ कंप्यूटर के इशारे पर उठ बैठ करते रहते हैं।बच्चोे खुले मैदान की गंध से अनजान हैं।हमने उनकी कल्पनाशक्ति की हत्या कर दी है।


साभार आनंद बाजार पत्रिका

कंप्यूटर की महिमा से फिर भारी चूक हो गयी है,लता बंगेशकर की बहन आशा भोंसले की जगह सर्वत्र लता मंगेशकर ही लिखा गया है।हाथ कंगन को आरसी क्या,पढ़े लिखे को आरसी क्या!इस भयंकर भूल की ओर कई पाठकं ने ध्यान खींचा है।वे पढ़ते हुए दिलोदमािमाग से काम लेेते हैं,यह साबित हुआ और यह भी साबित हुआ कि सबकुछ खत्म हुआ नहीं है।हमें गलती का खेद है और ऐसे जागरुक लोगों का हम आभार व्यक्त करते हैं।


संशोधित रोजनामचा दुबारा पोस्ट कर रहा हूं


अखबार तो खूब पढ़ना होता है,लेकिन आजकल टीवी देखना नहीं होता।सविता को खास तरह की एलर्जी है।जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे,तो राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संक्रमणकाल के उस संक्रामक दौर में वह प्रधानमंत्री का चेहरा देखना नहीं चाहती थीं और चूंकि किराये के घर में अलग अलग टीवी सेट रखना संभव होता नहीं है,तब हम समाचार नहीं देखते थे।लोकसभा चुनावों में नमोमय भारत निर्माण के मध्य ही आक्रामक धर्मोन्मादी कारपोरेट सरकार के जनादेश सुनिश्चित बताकर सविता ने फिर चेतावनी दे दी थी कि अब फिर समाचार चैनलों का बायकाट है।


गनीमत है कि इस वक्त हम आनलाइन हैं और समाचार देखने जानने के लिए टीवी पर निर्भर नहीं हैं।रियल टाइम मीडिया फेसबुक ट्विटर से हर पल समाचार ब्रेक होता रहता है किसी भी टीवी अखबार से ज्यादा तेजी से।


सविता मजे में एनीमल प्लानेट,डिस्कवरी देखती रहती है।


लेकिन घटनाओं और दुर्घटनाओं,सामाजिक सांस्कृतिक संक्रमण,अर्थव्यवस्था,राजनीति और इतिहास के शिकंजे में हम फंसे हैं तो मुंह चुराकर उनके सर्वव्यापी असर से बच नहीं सकते हम।


अखबार पढ़े या नहीं,दसों दिशाओं में जो लबालब खून की नदियां हैं,जो ज्वालामुखी जमीन के अंदर दफन है और जो जल सुनामियां हमारे इंतजार में हैं,घात लगाये मौत की तरह हमें घेरे हुए हैं।


बंगाल में दीदी ने पर्वतारोही छंदा गायेन को लाने के लिए नेपाल तक जाने का वायदा किया था,दरअसल बिना आक्सीजन,बिना भोजन आठ हजार मीटर के उस तुषार आंधी मध्य जीवित बचने की कोई चामत्कारिक संभावना भी नहीं बचती।


नेपाल सरकार ने तीन दिन बीतते न बीतते मृत्यु प्रमामपत्र परिजनों को थमा दिया लेकिन सारा बंगाल छंदा की वापसी के इंतजार में है,ठीक उसीतरह जैसे धर्मोन्मादी हिंदू करपोरेटराज का सिलसिलेवार समर्थन धर्मनिरपेक्षता के नाम करते हुए जनविश्वासघाती पाखंडी वाम अब भी विचारधारा की जुगाली करते हुए जनांदलनों की हत्या करने के बाद खोये हुए जनाधार की वापसी में लगा है।



हम आत्मवंचना के चकाचौंधी कार्निवाल में कबंधों के जुलूस में शामिल विष्ण खरे जी के शब्दों में आत्ममुग्ध अमानवीयजंबो हैं जो मानवीय संवेदना से कोई रिश्ता रखता ही नहीं है।


बांग्ला के बड़े अखबार में आज देश में सबसे बड़ी सेलिब्रिटी मोदी समर्थक जीवित किंवदंती सुरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर जी की सगी बहन आशा भोंसले का साक्षात्कार पढ़कर लहूलुहान हूं।


जो उन्होंने बताया है,वह हमारे रोजमर्रे का अनुभव है।


चालीस सालों की पत्रकारिता में हम सूचनाओं को शायद ही कभी भूले हों।


बिना नोट लिये, बिना रिकार्ड किये हमने बेहद तकनीकी,बेहद जटिल दो दो पेज के साक्षात्कार कंप्यूटर विप्लव से पहले यूं ही करते रहे हैं और वीपी जैसे धुरंधरों को बिना कलम दिखाये परेशान करते रहे हैं कि आखिर हम लिख क्या रहे हैं।


कभी गलती नहीं हुई।


लेकिन कंप्यूटर आते ही दिमाग ने काम करना आहिस्ते आहिस्ते बंद कर दिया है।


तकनीकी सावधानी बरतने के बवजूद मामूली सी तकनीकी त्रूटि की वजह से भारी सी भारी छूट निकल जाती है।


चाहकर भी सृजनधर्मी लिखा नहीं जाता।


हरे जख्म के बावजूद भरे बाजार में आह तक करने की इजाजत नहीं है।


आशा जी ने इस साक्षात्कार में हैरतअंगेज तरीके से मुक्त बाजार की धज्जियां बिखेर दी हैं।आधुनिक संगीत चर्चा की पद्धति और विज्ञापनी सेलिब्रेटी निर्माण प्रक्रिया पर प्रत्याघत करते हुए।


आशा जी   के मुताबिक आधुनिक संगीत में जीवन यापन का अनुभव सिरे से लापता है और सारे गीत आइटम संगीत है।


आशा जी  के मुताबिक अलग अलग ट्रैक पर डुयेट गाया जाता है प्राणहीन।रिद्म शोरशराबा है लेकिन सुर नहीं है।


आशा जी  के मुताबिक जीवन से सरगम गायब हो गया है।


मुक्त बाजार का अरुंधती लहजे में उल्लेख नहीं किया है आशा  दीदी ने,लेकिन मुक्त बाजार बंदबस्त की कारुणिक उपस्थिति को हर पंक्ति में वेदनामयअभिव्यक्ति दी है।


आशा जी आज के किसी गायक गायिका का नाम नहीं ले सकतीं।


आशा जी आज का कोई गीत याद नहीं कर सकतीं।


आशा जी  के मुताबिक गीत संगीत सिर्फ वह नहीं है जो रियेलिटी शो में है या फिल्मों सीरियल में है।वह जीवन संगीत बाजार ने खत्म कर दिया है।


आशा जी  के मुताबिक सरगम सिरे से लापता है।


अरसे बाद शास्त्रीय सगीत के व्याकरण और अनुशासन पर बोलते हुए आशा जी ने बेहद दर्दभरे शब्दों में कह दिया कि हम अब एक अदद कंप्यूटर या मोबाइल पर निर्भर हैं और हम इतने ज्यादा तकनीक निर्भर हैं कि हमारी स्मृति नहीं है कोई।ह


आशा जी के मुताबिक हम अपना फोन नंबर तक मोबाइल से चेक करते हैं।


आशा जी  के मुताबिक सारी सृजनशीलता रचनाधर्मिता ग्रैफिकल चकाचौंध है। प्राणहीन चामत्कारिक।


आशा जी  के मुताबिक मौलिकता गायब है।रेडीमेड हेराफेरी है यह तकनीकी दक्षता।


इस इंटरव्यू के आलोक में मुझे बहुत कुछ नये सिरे से सोचना पड़ रहा है।


जैसे कि जो आस्थावान लोग धर्मोन्मादी हिंदुत्व के नाम पर नमोमय भारत के निर्माण में शरीक हैं,वे सारे लोग आशा जी की तरह ही मुक्त बाजार से समामाजिक सांस्कृतिक कायाकल्प के फक्षधर हों,यह जरुरी भी नहीं है क्योंकि मुक्तबाजारी आखेट से वे अपने प्रियतम को खो रहे हैं हर पल।


सिर्फ खोने का वह अहसास नहीं है।


मोबाइल,टीवी, एसी,कंप्यूटर, इंटरनेट के जाल में फंसे हमें अपनी देह की सुध बुध नहीं है और न हमें मन की थाह है।


हम सिरे से असामाजिक असांस्कृतिक हैं और अराजक भी हैं।


आशा जी अद्वितीय संगीत शिल्पी हैं और उन्हें उनके सुदीर्घ अभिज्ञता,सुर और सरगम के प्रति आजीवन कुमारी प्रतिबद्धता ने सत्य का साक्षात्कार करना सिखाया है।


मोदी समर्थक लता मंगेशकर की सगी बहन आशा भोंसले का यह साक्षात्कार तब आया है जब अमेरिका में मोदी विरोधी संगीत शिल्पी शुभा मुद्गल को बजरंगियों का पराक्रम दरशन करना पड़ा और देश भर में सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में स्त्री पुरुष साहचार्य और सहअस्तित्व, हिंदू मुसलिम भाईचारा अद्भुत वर्चस्वी दंगाई बलात्कारी संस्कृति में समाहित है ।


ऐसे चरम संक्रमणकाल में  आशा जी के इस वक्तव्य का नोट अवश्य लिया जाना चाहिए कि अब कोई कविता नहीं लिखी जायेगी और न कोई सुरबद्ध सरगमी गीत गाया जायेगा।


मुक्त बाजार के आतंकवादी परिदृश्य का इससे हृदय विदारक अभूतपूर्व विस्फोट हमने कहीं नहीं देखा।


मुझे संगीत अच्छा लगता है।


बिहु से मुझे ऩई ऊर्जा मिलती है और लोकधुनों में अपनी जमीन पर होने का अहसास जगता है।लेकिन मैं बेहद बेसुरा हूं।एक पंक्ति गा नहीं सकता।अलग अलग स्वर पहचान नहीं सकता।बमुश्किल लता, आशा ,संध्या, बेगम अख्तर,केएल सहगल,मोहम्मद रफी मन्ना डे,किशोर कुमार जैसे चुनिंदा संगीतशिल्पियों की आवाज पहचान लेता हूं।अलका,श्रेया या सुनिधि को अलग अलग पहचान नहीं पाता।इस नाकाबिलियत के बावजूद सुर ताल में होना अच्छा सुहाना लगता है और सुर ताल कटने का अंदाजा हो ही जाता है।


भारत निर्माण और कारपोरेट जीवन यापन में जो सुरतालछंद का यह विपर्यय है,बेशक इसे लता मंगेशकर ही हम सबसे बेहतर महसूस और अभिव्यक्त कर सकती हैं। लेकिन क्या हमें इसका तनिक अंदाजा भी नहीं होनी चाहिए?


मेरी पत्नी सविता ने मेरी मां की तरह मेरे गांव में सीमाबद्ध जीवन नहीं बिताया है। लेकिन वह जहां रहती है,उस इलाके से उतना ही प्यार है उसे,जितना कि मेरी मां को मेरे गांव से था।


हम कोलकाता में 1991 में आये और 1995 में सविता की ओपन हर्ट सर्जरी हो गयी।अनजान इलाके के अनजान अनात्मीय लोगों ने तब उसे खून दिया,यह किसी भी कीमत पर नहीं भूलती।


खुद अस्वस्थ होने पर इलाके भर में किसी भी मरीज को अस्पताल पहुंचाने के लिए वह सबसे पहले भागती है।मौका हो तो अस्पताल से लाश लेकर श्मशान तक चली जाती है।


फिरभी वह समाज सेवी नहीं है और न प्रतिबद्धता का कोई पाखंड है उसमें।


वह अपने हिसाब से कर्ज निपटा रही है।


अब तो हमारे इलाके में पंद्रह बीस लाख का कट्टा है लेकिन जब आस पास दो दो हजार का कट्ठा था तब भी अपनी रिहाइश बदलने का विकल्प उसने उसी तरह ठुकरा दिया जिस तरह उसकी जिद की वजह से मैं बार बार बेहतर  विकल्प मिलने के बावजूद जनसत्ता छोड़ नहीं सका क्योंकि जनसता और इंडियन एक्सप्रेस के सारे लोग हमेशा हमारा साथ देते रहे हैं।


इस अपनापे के आगे उसे हर चीज बेकार लगती है।


संजोग से वह भी शौकिया तौर पर सुर साधती है।स्थानीय महिलाओं के साथ सांस्कृतिक प्रयास में शामिल है।


सविता हमारी नास्तिकता के विपरीत बेहद आस्तिक है।सारे देव देवियों को मानती है।लेकिन कर्म कांडी नहीं है।


पर्व और त्योहारों पर गंगास्नान अवश्य करती है।रामकृष्ण मिशन के बेलुड़ मठ में जाती है लेकिन प्रवचन नहीं सुनती और न ही बाबा रामदेव के योगभ्यास में यकीन करती है और न ही आस्था,संस्कार वगैरह वगैरह चैनल देखती है।


मैं स्वभाव व चरित्र से जितना अधार्मिक और नास्तिक हूं,वह उतनी ही धार्मिक और आस्थामयी है।लेकिन तंत्र जंत्र मंत्र में उसकी कोई आस्था नहीं है और न ही ज्योतिष में।


हमने एक दूसरे पर अपने वितचार थोंपने के प्रयास नहीं किये और साथ साथ जीते इकतीस साल हो गये।


स्वभाव से हिंदू और धार्मिक होने के बावजूद सविता लेकिन हिंदू राष्ट्र के विरोध में मुझसे ज्यादा कट्टर है।


मैं तो नरेंद्र मोदी के वक्तव्य को ध्यान से सुनता पड़ता हूं और संघियों का रचा लिखा समझने की कोशिश करता हूं,लेकिन सविता सीधे बहिस्कार करती है।


अर्थशास्त्र से वह एमए है लेकिन मुक्त बाजार के बारे में वह कुछ नहीं बोलती और अनार्थिक होने के बावजूद मुक्त बाजार का मैं लगातार मुखर विरोध कर रहा हूं।


वह मुक्त बाजार के विरोध में बोलती कुछ नहीं है लेकिन कारपोरेट राज के पक्ष में वह भी नहीं है।


हम धर्म निरपेक्षता के नाम पर उस जनता के जीवन यापन की घोर उपेक्षा कर रहे हैं जो मोदी समर्थक  होते हुए या न होते हुए प्रबल भाव से हिंदू हैं और कारपोरेट राज और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था,बाजारु संस्कृति के सख्त खिलाफ हैं।


चूंकि हम खुद मुक्त बाजार और कारपोरेट राज के खिलाफ कोई जोखिम उठाकर खुद को संकट में डालना नहीं चाहते,बहुसंख्य जनगण को हम धर्मोन्मादी मानकर चल रहे हैं।


संघ परिवार के साथ चल रहे और घनघोर मोदी समर्थक सारे लोग इस मुक्त बाजारी अर्थ व्यवस्था के समर्थक नहीं हैं और न ही इस राज्यतंत्र की तरह वे किसी अंबानी, टाटा, जिंदल, मित्तल, हिंदुजा, पास्को, वेदांत के गुलाम है।


कंधमाल के बेजुबान अपढ़ आदिवासियों ने अपने प्रतिरोध से बार बार ऐसा बता दिया है,उन अजनबी स्वरों को हमने लगातार नजर्ंदाज किया है।


क्या हम लता मंगेशकर की बहन आशा भोंसले की भी नहीं सुनेंगे?

इसी सिलसिले मेरी एक पुरानी कविता फिर नये सिरे से पढ़ लेंः


ई-अभिमन्यु


पलाश विश्वास


बच्चा अब खुले मैदान में नहीं भागता, भूमंडलीकरण के

खुले बाजार में चारों तरफ सीमेंट का जंगल, फ्लाईओवर।

स्वर्णिम चतुर्भुज सड़कें। आयातित कारें। शापिंग माल।

सीमाहीन उपभोक्ता सामग्रियां। आदिगन्त कबाड़खाना,

या युध्द विध्वस्त रेडियो एक्टिव रोगग्रस्त जनपद,

बच्चे के लिए कहीं कोई मैदान नहीं है दौड़ने को।


बच्चा किताबें नहीं पढ़ता, मगज नहीं मारता अक्षरों में।

अक्षर की सेनाएं घायल, मरणासन्न। कर्णेद्रिंय भी

हुए इलेक्ट्रानिक मोबाइल। वर्च्युअल पृथ्वी में

यथार्थ का पाठ प्रतिबंधित है और एकान्त भी नहीं,

चैनलों के सुपर सोनिक शोर में कैसे पढ़े कोई।


बच्चा कोई सपना नहीं देखता, बस, कभी-कभी

बन जाता वह हैरी पाटर, सुपरमैन स्पाइडरमैन,

या फिर कृष। इंद्रधनुष कहीं नहीं खिलते इन दिनों

हालांकि राजधानी में होने लगा है हिमपात,

मरुस्थल में बाढ़ें प्रबल, तमाम समुन्दर सुनामी,

रुपकथा की राजकन्याएं फैशन शो में मगन,


नींद या भूख से परेशान नहीं होता बच्चा अब

ब्राण्ड खाता है। पीता है ब्राण्ड जीता है ब्राण्ड॥

ब्राण्ड पहनकर बच्चा अब कामयाब सुपर माडल।

इस पृथ्वी में कहीं नहीं है बच्चों की किलकारियां,

नन्हा फरिश्ता अब कहीं नहीं जनमता इन दिनों


सुबह से शाम तलक तितलियों के डैने

टूटने की मानिन्द बजती मोबाइल घंटियां

पतझड़ जैसे उड़ते तमाम वेबसाइट

मेरे चारों तरफ शेयर सूचकांक की बेइन्तहा

छलांग, अखबारों के रंगीन पन्नों के बीच

शुतुरमुर्ग की तरह सर छुपाये देखता रहता मैं,

मशीन के यन्त्राश में होते उसके सारे

अंग-प्रत्यंग। उसकी कोई मातृभाषा नहीं है,

उसके होंठ फड़कते हैं, जिंगल गूँजता है।


डरता हूं कि शायद किसी दिन बच्चा

समाहित हो जाये किसी कम्प्यूटर में,

या बन जाये महज रोबो कोई।

सत्तर के दशक में विचारधारा में

खपने का डर था। अब विचारधारा

नहीं है। पार्टी है और पार्टीबध्द हैं बच्चे।


इतिहास और भूगोल के दायरे से

बाहर है बच्चा विरासत, परम्परा और

संस्कारों से मुक्त अत्याधुनिक है बच्चा,

क्विज में चाक चौबन्द बच्चा हमें

नहीं पहचानता कतई। हम बेबस देखते

हैं कि तैयार कार्यक्रमों के साफ्टवेअर

से खेलता बच्चा चौबीसों घंटों,

नकली कारें दौड़ाता है तेज, और तेज,

लड़ता है नकली तरह-तरह के युध्द

असली युध्दों से अनजान एकदम,


एक गिलास पानी भरकर पीने

की सक्रियता नहीं उसमें, भोजन की

मेज पर बैठने की फुरसत कहाँ।

चैटिंग के जरिये दुनियाभर में दोस्ती, पर

एक भी दोस्त नहीं है उसका, उसके साथी

बदल जाते हैं रोज-रोज, एकदम नाखुश,

बेहद नाराज आत्मध्वंस में मगन बच्चा,

उसके कमरे का दरवाजा बंद, खिड़कियां बंद,

मन की खिड़कियां भी बंद हमेशा के लिए।


शायद रोशनी से भी डरने लगा है बच्चा,

सूरज का उगना, डूबना उसके लिए निहायत

बेमतलब है इन दिनों, बेमतलब दिनचर्या,

चाँद सितारे नहीं देखता बच्चा आज कल

नदी, पहाड़, समुंदर आकर्षित नहीं करते।

उसका सौंदर्यबोध चकाचौंध रोशनी

और तेज ध्वनि में कैद है हमेशा के लिए।

दिसम्बर 2006

http://www.aksharparv.com/kavita.asp?Details=368



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Deepak Kumar


Sales Manager


বিয়ে করে আবেগে ভাসলে চলবে না

নতুন গায়িকাদের প্রতি পরামর্শ আশা ভোঁশলে-র। কারণ সময় পাল্টেছে। 'সারেগামাপা'র শ্যুটিংয়ের জন্য খুব মন দিয়ে প্রসাধন সারতে সারতে আজকের গান নিয়ে বলছিলেন অনেক কথা। পার্পল মুভি টাউনে তাঁর মুখোমুখি স্রবন্তী বন্দ্যোপাধ্যায়।

৯ জুন, ২০১৪, ০০:০০:০০

আত্মজীবনী লিখছেন? আমরা কবে পড়তে পারব?

লেখা প্রায় শেষ। রোজই রাতে চেষ্টা করি লেখার। আশা করছি খুব তাড়াতাড়ি আপনাদের হাতে তুলে দিতে পারব বইটা।

আজকের ফিল্ম ইন্ডাস্ট্রি, ফিল্ম মিউজিকের কথা আপনার লেখায় থাকবে?

আজকের ফিল্ম মিউজিক বলে কিছু হয় না।

কেন, এখনকার হিন্দি ছবি দেখেন না?

নাহ্। আমার ইচ্ছেও করে না।

হিন্দি ছবির গান বা কোনও অ্যালবামের গান কেমন লাগে?

খুব খারাপ। না ভাল কোনও কথা আছে। না কোনও সুর মনে ধরে। আমাদের সঙ্গীতশাস্ত্র বলে ছেলেরা নীচের পর্দায় গাইবে। আর মেয়েরা উঁচু পর্দায়। সেখানেই তো শিল্পীর পারদশির্র্তা। আমাদের সময় তো আমরা উঁচু পর্দাতেই গাইতাম। রেওয়াজের জাদু তো সেখানেই ধরা পড়ত। এখন উল্টো। ছেলেরা চড়া গাইছে, মেয়েরা নীচে। কেন, মেয়েরা কি আজকাল চড়াতে গাইতে পারে না?

এখন ডুয়েট গাওয়ার ক্ষেত্রেও কি ছেলে-মেয়ের গানের ফারাক বোঝা যায়?

আমাদের সময় ডুয়েট গাওয়া একটা দারুণ ব্যাপার ছিল। এখন ডুয়েট গানও লোকে একা গায়। ট্র্যাক করা থাকে। শিল্পীরা যে যার সুবিধা মতো আলাদা আলাদা গান রেকর্ড করে। ডুয়েটের সেই প্যাশনটা গানে পাওয়া যায় না। আসলে ভাল গান গাইবার লোকেরই বড় অভাব।

সে কী! ইন্ডাস্ট্রিতে এত লোক নাম করেছে!

(থামিয়ে দিয়ে) দেখুন, নাম করা আর গান গাওয়া এক নয়। নাম তো যে কেউ, যে ভাবেই হোক করে ফেলে। ওটা কোনও কাজের কথা নয়। এখন সব আইটেম সং। শুধুই রিদম। গানে কোনও অনুভবও নেই। গানের কথা অন্তরকে নাড়া দিয়ে যায় না।

এখনকার কোনও গানই আপনার পছন্দ হয় না?

মাঝে সামান্য একটু বদল চোখে পড়েছিল। পাকিস্তানি সঙ্গীতশিল্পীরা গান গাইছিলেন। কথা ভাল হচ্ছিল। ওই যে 'যব সে তুনে দেখা হ্যায় সনম' বা 'তেরে নয়নো সে নয়না লাগে রে' শুনে ভেবেছিলাম আরও ভাল গান আসবে বুঝি। কিন্তু কই? এখন তো সব ধুম ধাড়াক্কার গান। নাচ আছে। সুর নেই। এখন মনেও হয় না সঙ্গীতের ক্ষেত্রে ভাল কিছু আর হবে!

অরিজিত্‌ সিংহ-র গান শুনেছেন? উনি তো ভীষণ জনপ্রিয়...

কে? নাহ্। অরিজিত্‌ সিংহ-র গান ঠিক মনে পড়ছে না। তবে হানি সিংহ-র নাম শুনেছি। গান যদিও শুনিনি। এ রকম প্রচুর নাম আসে। কিন্তু কেউ নিজস্ব গায়কি নিয়ে, ঘরানা নিয়ে অনেক দিন ধরে টিকে গিয়েছে, এমনটা তো দেখিনি।

এখন তো শিল্পীদের ফিল্মের গানের নিরিখে রেটিং করা হয়। এটা কি ঠিক?

এটা একদমই ভুল। ফিল্মে গান না গাইলে যে শিল্পী হবে না এমনটা আমি মনে করি না। নিজেদের গান গাইতে হবে। এইচ.এম.ভি যখন থেকে রেকর্ড করা বন্ধ করে দিল, মানুষের সিডি কেনা বা রেকর্ড শোনার আগ্রহই চলে গেল। তার পরে গানের চোদ্দোটা বাজিয়ে দিল আপনাদের এই কম্পিউটার। যে যেমন খুশি গান ডাউনলোড করছে, অ্যালবাম কপি করছে। আরে! শিল্পীদের কোনও সম্মানই নেই? সফটওয়্যার সুর, লয় বসিয়ে দিচ্ছে। কিন্তু বোধটা কেমন করে আনবে?

কম্পিউটারের ওপর আপনার এত রাগ?

শুনুন, যখন থেকে এই যন্ত্রটা আমার, আপনার জীবনের মধ্যে ঢুকেছে, তখন থেকে মানুষের ভাবনা, কিছু সৃষ্টি করার ইচ্ছে সবই বন্ধ হয়ে গেছে। না কোনও কবিতা লেখা হচ্ছে, না ভাল গান তৈরি হচ্ছে, না কলম থেকে শব্দ ঝরছে! এই যে আগামী প্রজন্ম, তারা আর কিচ্ছু করবে না। মিলিয়ে নেবেন আমার কথা। শুধুমাত্র কম্পিউটারের সঙ্গে জীবন কাটিয়ে দেবে এরা। আপনাকে যদি জিজ্ঞেস করা হয় আপনার ফোন নাম্বার কী? আপনি হোঁচট খাবেন। কারণ ওটা আপনার ফোনে আছে। আমাদের মস্তিষ্ক কাজ করা বন্ধ করে দিয়েছে। শুধু কম্পিউটারের ইশারায় আমরা উঠি বসি। বাচ্চারা মাঠের গন্ধই চিনল না। খেলছে তো কেবল কম্পিউটার। নামতা শিখছে কম্পিউটারে। ওদের কল্পনাশক্তিকে তো আমরাই মেরে ফেলছি।

আর রিয়্যালিটি শো? সেখানে যোগদান করেও কি কিশোর কিশোরীরা নিজেদের সম্ভাবনাকে নষ্ট করছে?

রিয়্যালিটি শো-এ বাচ্চারা যখন গান করে তখন স্ক্রিনে নিজেদের দেখতে দেখতে ওরা ভাবে যে আমরা স্টার হয়ে গেলাম। স্টার ওই ভাবে তৈরি হয় না। রিয়্যালিটি শোয়ের প্রতিযোগীরা অন্যের গান রেকর্ড থেকে তুলে গায়। যেদিন ওরা নিজেদের গান গাইবে, শাস্ত্রীয় সঙ্গীতে ইম্প্রোভাইজ করতে পারবে সেদিন ওরা স্টার হতে পারবে। সেটা দীর্ঘদিনের সাধনার ফলেই সম্ভব। সবাইকেই যে প্লে ব্যাক করতে হবে এমনটাও বলতে চাইছি না। কিন্তু স্টেজ-এ পারফর্ম করার সময় যেন একটা ছাপ রাখতে পারে। রিয়্যালিটি শো-এর অ্যাচিভারদের কাছে আমি এটা আশা করি। রিয়্যালিটি শো স্টার হওয়ার সম্ভাবনাকে কেবলমাত্র জাগিয়ে দেয়। সেদিক থেকে সঙ্গীতের ক্ষেত্রে এর গুরুত্ব আছে।

সেই গুরুত্বের কারণেই আপনি কলকাতায়? কোন রিয়্যালিটি শো-এর জন্য আপনি এসেছেন?

আমি জি-বাংলার 'সারেগামাপা'-র জন্য কলকাতায় এসেছি। ১২ জুন থেকে আপনারা সকলে আমাকে জি বাংলার 'সারেগামাপা'-র 'মাস্টারক্লাস উইথ আশাজি'-র এপিসোডে দেখতে পাবেন। আমি মাসে দু'বার 'সারেগামাপা'-‍র বিচারক হয়ে আসব। আগের বার 'সারেগামাপা'-র ফাইনালে একদিনের জন্য এসেছিলাম। খুব ভাল লেগেছিল। ভাল গান শুনতে পেয়েছিলাম। এ বার তো মনে হচ্ছে আরও অনেক অনেক বার আসতে হবে আমায়। আসলে কলকাতায় আসার অজুহাত খুঁজতে থাকি আমি।

কেন, কলকাতা আপনাকে টানে?

শরত্‌চন্দ্র চট্টোপাধ্যায় আমায় কলকাতাকে, বাংলা আর বাঙালিকে প্রথম চিনিয়েছেন। কী অনায়াস ওঁর লেখা। আজও চোখে জল এসে যায়। আমার বাড়িতে ওঁর সব লেখা আছে। ওঁর লেখা পড়েই তো মুড়ি যে এমন লোভনীয় খাবার আমি জানতে পারি। তার পরে তো বর্মন সাব ওঁর স্কুল, কলেজ, কলকাতার রাস্তা চেনাতে চেনাতে, কলকাতায় গান বাঁধতে বাঁধতে, কলকাতাকে আমার নিজের জায়গা করে দিয়ে চলে গেলেন। সেই স্মৃতির তরতাজা গন্ধ আজও কলকাতা এলে আমি পাই।

বাংলার টানেই কি বড় ছেলের নাম রেখেছিলেন হেমন্ত?

বাংলা আর হেমন্ত মুখোপাধ্যায়ের প্রতি শ্রদ্ধায়, ভালবাসায়। সে সব কবেকার কথা! কলকাতা আসলে 'আর্টিস্ট হাব'। যেখানে আশাপূর্ণা দেবীর মতো লেখিকাও আছেন, আছেন অবশ্যই রবীন্দ্রনাথ। ওঁর 'গোরা' আমার খুব প্রিয়।

রবীন্দ্রনাথের গানের অ্যালবাম করার ইচ্ছে নেই? শ্রোতারা আজও আপনার কণ্ঠে 'জগতে আনন্দযজ্ঞে' শুনে মুগ্ধ হন।

আজই প্রথম প্রকাশ্যে বলছি, নতুন প্রজন্মের জন্য রবীন্দ্রনাথের গান নিয়ে অ্যালবাম করব ভাবছি।

নতুন প্রজন্মের জন্য যখন, তখন নিশ্চয়ই কোনও এক্সপেরিমেন্ট করবেন?

কথা, সুর সব কিছু এক রেখে অর্কেস্ট্রেশন করার কথা ভাবছি।     

                                            

লতাজি আপনার রিয়্যালিটি শোয়ের এই এপিসোড দেখবেন?

হ্যাঁ। ওখানে বাংলা চ্যানেল এলে নিশ্চয়ই দেখবেন।

উনি কোনও রিয়্যালিটি শো-এ আসেন না কেন?

লতাদিদি অসুস্থ। ওঁর পক্ষে দৌড়ঝাঁপ করা সম্ভব না।

এখন লতাজির সঙ্গে আপনার সম্পর্ক কেমন?

এখন বলতে?

আসলে শোনা যায় আপনাদের সম্পর্ক না কি ভাল ছিল না...

আজও, এত দিন পরেও আপনারা বস্তাপচা গসিপ নিয়ে বসে আছেন? শুনুন তা হলে, লতাদিদি আমার মায়ের মতো। মা চলে যাওয়ার আগে আমায় বলে গিয়েছিলেন লতাদিদিই আমাদের সকলের মা। বাড়ির সকলেই ওঁকে আমরা অসম্ভব শ্রদ্ধা করি।

নতুন প্রজন্মের মেয়েরা যাঁরা সঙ্গীতশিল্পী হিসেবে প্রতিষ্ঠা পেতে চাইছেন, তাঁদের কেরিয়ার না বিয়ে কোনটা বেছে নেওয়া উচিত?

আমাদের সময় আলাদা ছিল। আজকে যাঁরা সঙ্গীতশিল্পী হিসেবে প্রতিষ্ঠা পেতে চাইছেন তাঁদের কেরিয়ারকেই গুরুত্ব দেওয়া উচিত। বিয়ে করে আবেগে ভেসে গেলে চলবে না।


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