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Saturday, August 30, 2014

मेरी कल्पना का भारत: आनंद तेलतुंबड़े

मेरी कल्पना का भारत: आनंद तेलतुंबड़े

Posted by Reyaz-ul-haque on 8/22/2014 06:09:00 PM

आनंद तेलतुंबड़े

'…मेरा आदर्श समाज एक ऐसा समाज है जो आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो।'–बाबासाहेब आंबेडकर
यह एक अजीब विडंबना है कि अपने प्राकृतिक संसाधनों के मामले में भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश है लेकिन वही दुनिया के सबसे गरीब लोगों का घर है. एंगस मेडिसन के मुताबिक, सन 1600 के आसपास पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारत की हिस्सेदारी करीब एक चौथाई थी लेकिन इसके बाद उसमें गिरावट आने लगी. 1870 आते आते यह फिसल कर 12.2 फीसदी पर आ गई और आज दुनिया के जीडीपी में भारत की हिस्सेदारी महज 6 फीसदी पर आ पहुंची है. मेडिसन ने भारत के इस पतन के लिए, यहां औद्योगिक क्रांति के न होने को जिम्मेदार ठहराया. यह सही है, लेकिन अर्थव्यवस्था के सबसे बेहतर दिनों में भी, भारतीयों की बहुसंख्यक आबादी के हालात दूसरों के मुकाबले किसी भी तरह बेहतर नहीं रहे होते. क्योंकि उसे जाति व्यवस्था ने अनेक तरह से बहिष्कृत कर रखा था. अगर मेडिसन के अनुमान सही थे तो इससे सिर्फ इसी बात की पुष्टि होती है कि जीडीपी किसी देश के विकास का एक घटिया पैमाना है. 

जाति व्यवस्था भारत की सबसे नुकसानदेह बीमारी है, जो उसे संयोग से लगी लेकिन जिसे उसके कुलीन तबके ने पूरी तरह सोच-समझ कर बढ़ावा दिया. पुराने दिनों में देशों की फौजी ताकत सीधे-सीधे अपनी आबादी पर निर्भर करती थी, जिसे एक संभावित सेना के रूप में देखा जाता था. लेकिन भारत में जाति व्यवस्था ने सिर्फ क्षत्रियों की एक छोटी सी आबादी को ही सेना के रूप में संगठित होने की इजाजत दी, भले ही उनमें लड़ने की क्षमता या प्रेरणा हो या न हो. दूसरी तरफ इसने बाकी सारे लोगों के हथियार रखने पर पाबंदी लगा दी. इस तरह भारत बाहरी लोगों के लिए एक आसान शिकार बना रहा कि कोई भी यहां आए, और इसे गुलाम बना दे. शुक्रिया जाति व्यवस्था का कि भारत का दर्ज इतिहास पराजय और गुलामी का इतिहास रहा है. जाति व्यवस्था ने सिर्फ अपनी और अपनी जरूरतों की परवाह करने वाली उच्च जातियों के कुलीनों के स्वार्थी चरित्र को और मजबूत बनाया. समकालीन समय में पूंजीवादी तौर-तरीकों ने इसे और भी उभार दिया है. इस आत्म-केंद्रिकता ने लोकतांत्रिक राज व्यवस्था के तहत एक स्टेट्समैन की भूमिका निभाने की उनकी काबिलियत को पूरी तरह नष्ट किया. ब्रिटिशों से सत्ता हस्तांतरण के बाद, यही कुलीन तबका शासक वर्ग बनकर जनता के खिलाफ साजिश करने लगा और इसने ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का मौका गंवा दिया.

उन्होंने संविधान के बुनियादी औपनिवेशिक चरित्र को छुपाने के लिए उसे लोगों को अच्छी लगने वाली बातों से सजाया. संविधान की अगर कुछ अपनी पहचान है तो वह है उसका भाग चार, जिसमें राज्य के नीति निर्देशक तत्व दिए गए हैं. लेकिन उनको लागू करना अदालतों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. इसी वजह से ये अब तक अनुपयोगी बने हुए हैं. औपनिवेशिक शासन के आइपीसी जैसे सब संगठनों और क्रियागत ढांचे को बरकरार रखा गया. जातियों के मामले में संविधान ने अस्पृश्यता को गैरकानूनी करार दिया लेकिन औपनिवेशिक समय से ही चली आ रही अनुसूचित जातियों के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव की नीतियों के बहाने उसने जातियों को कानूनी शक्ल दे दी. असल में शासक वर्ग ने जाति के कीड़ों का एक पिटारा बनाया, ताकि जब वो चाहे, उसे खोला जा सके. हम देखते हैं कि यह पिटारा उन्होंने 1990 में खोल दिया. नए शासकों ने बड़े ही व्यवस्थित रूप में बुर्जुआ के हितों में नीतियां बनाईं और उन्हें बड़ी कुशलता से क्रांतिकारी लफ्फाजी में लपेट कर पेश किया. मिसाल के लिए, एक तरफ तो प्रधानमंत्री नेहरू ने सार्वजनिक रूप से भारत के अग्रणी पूंजीपतियों द्वारा तैयार किए गए बॉम्बे प्लान से अपने को अलग कर लिया था, लेकिन असल में जब उन्होंने पंचवर्षीय योजना का ऐलान किया, तो पहली तीन योजनाओं में इसी बॉम्बे प्लान के आंकड़ों को अपनाया. याद रहे यह योजना 15 वर्षीय निवेश की रूपरेखा थी. दुनिया को यह दर्शाया गया कि भारत समाजवादी रास्ते पर जा रहा है लेकिन असल में उसे पूंजीवाद के पक्ष में धकेला जा रहा था. इसी तरह जनता ने सबसे लंबे समय से जिस भूमि सुधार की उम्मीद लगा रखी थी, उसे बहुत सफाई से इस तरह लागू किया गया कि उससे केवल बड़ी आबादी वाली शूद्र जातियों के तबके से धनी किसानों का एक वर्ग तैयार हो सके. हरित क्रांति को अनाज की समस्या के समाधान के रूप अपनाया गया, लेकिन अनाज के अलावा उसने अमीर किसानों के इस वर्ग को मालामाल बनाया, पूंजीवादी रिश्तों का ग्रामीण भारत में प्रसार किया और दलितों को ग्रामीण सर्वहारा के स्तर पर गिरा दिया. बदकिस्मती से शासक अभिजात तबके की साजिशें बिना किसी रुकावट के अब भी जारी हैं.

पिछले दो दशकों से सरकार नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर चल रही है, जिसने बुनियादी तौर पर राज्य के कल्याणकारी मुखौटे को उतार फेंका है और सारी प्रचलित सामाजिक सेवाओं को बाजार की निजी पूंजी के हवाले कर दिया है. आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को नुकसान पहुंचाते हुए स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं का भारी पैमाने पर व्यावसायीकरण हुआ है. पूरा का पूरा ग्रामीण भारत, जहां हमारी 70 फीसदी आबादी रहती है, गुणवत्तापरक शिक्षा से पूरी तरह कट गया है. तथाकथित विकास केवल थोड़े से ऊपरी वर्ग को फायदा पहुंचा रहा है और इसे देख कर तेजी से बढ़ रहा मध्य वर्ग उत्तेजित हो रहा है. निम्न वर्ग तक नवउदारवाद के फर्जी सिद्धांतों के मुहावरे के मुताबिक बस कुछ बूंदें 'रिसते हुए' पहुंच रही हैं. जबकि सरकार हर साल अमीरों को हजारों करोड़ रुपए बांट देती है, वहीं वह जनता को महज 'कल्याणकारी' योजनाओं और नए अधिकारों के नाम पर बहलाए रखती है, जो असल में उनको अधिकारहीन और अधिक निर्धन बनाए रखता है. ऊपर से जाति और संप्रदाय की पहचान को भी बढ़ावा दिया जाता है, ताकि उन्हें और भी कमजोर किया जा सके.

एक ओर जबकि शहरी कुलीन तबके का इंडिया तेजी से अमेरिका बनता जा रहा है, जनता की व्यापक बहुसंख्या वाले भारत के हालात रसातल को छू रहे हैं.

पूरी की पूरी नवउदारवादी व्यवस्था अपनी कल्पना के भारत के लिए काम करती है, जिसको मीडिया में काफी जोर शोर से पेश किया जाता है. व्यापक जनता की नजर से भारत की कल्पना शायद ही कोई करे. व्यापक जनता के लिए, भारत की कल्पना को महज एक दिवास्वप्न या खयाली पुलाव नहीं होना चाहिए, वरना वे यह भरोसा खो देंगे कि इसको व्यवहार में लाया जा सकता है. इस कल्पना को ठोस और व्यापक जनता की जरूरतों के मुताबिक जमीनी होना होगा. आज भारत की कल्पना बाबासाहेब आंबेडकर के आदर्श समाज के रूप में करने का कोई फायदा नहीं है. उनकी बात राह दिखाने वाली रोशनी हो सकती है, एक आदर्श जो हकीकत से इतना दूर है कि उसकी कल्पना भी करना मुश्किल हो. 

मेरी कल्पना के भारत को अपने नजरिए में कुछ बदलाव करना होगा, जो वास्तव में आर्थिक वृद्धि और समृद्धि के मौजूदा लक्ष्यों का विरोधी नहीं है. मेरी कल्पना का भारत इस बात को समझेगा कि कंगाली और निर्धनता के दूर दूर तक फैले हुए समुद्र में इन लक्ष्यों पर बने रहना एक बिंदु के बाद नामुमकिन हो सकता है. इसलिए उस बिंदु तक पहुंचने से पहले इन बाधाओं को हटाना बेहद जरूरी है. इसलिए मेरी कल्पना का भारत लोगों को इस तरह बुनियादी रूप से सशक्त बनाने के लिए कदम उठाता कि वे नवउदारवाद की गाड़ी को उलट न दें, बल्कि वे इसे आगे धकेल सकें. इस बुनियादी सशक्तीकरण में निजी सशक्तीकरण, सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण, सामाजिक-राजनीतिक सशक्तीकरण और सामाजिक-सांस्कृतिक सशक्तीकरण शामिल हैं. इनको क्रमश: साध्य के लिए जरूरी कदम ये हैं: स्वास्थ्य तथा शिक्षा; भूमि सुधार और रोजगार; न्यूनतम लोकतंत्र की बहाली; तथा रूढ़िवाद पर अंकुश लगाने और आधुनिकता को बढ़ावा देने की नीतियां. अगर भारत इन चार में से पहले दो पर भी ध्यान दे तो भी उसकी पूरी कायापलट हो जाएगी.

स्वास्थ्य के मामले में मेरा भारत सार्वजनिक साफ सफाई रखेगा, सबको पीने का पानी प्राथमिकता के आधार पर मुहैया कराएगा और यह एक सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली स्थापित करेगा ताकि नियंत्रित मूल्यों पर अनाज तथा दूसरी खाद्य सामग्री की जरूरतें पूरी की जा सकें. इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में अपने आप में भारी कमी आएगी. स्वास्थ्य बुनियादी देखभाल सभी भारतीयों के लिए मुफ्त होगी, जिसे सभी इलाकों में स्वास्थ्य केंद्रों की एक श्रृंखला के जरिए मुहैया कराया जाएगा. इन केंद्रों के पास आपातकालीन एंबुलेंस भी होगी. जटिल बीमारियों के इलाज के लिए समुचित दूरी पर स्थापित अस्पताल होंगे जिनके पास जरूरी उपकरण होंगे. ये सभी का मुफ्त इलाज करेंगे, जिसे आसान किस्तों वाली एक स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत मुहैया कराया जाएगा. राज्य यह सचेत रूप से यकीनी बनाएगा कि किसी भी बच्चे पर अपने मां-बाप की अक्षमताओं का ठप्पा न रहे. यह सभी गर्भवती महिलाओं को पूरा पोषण और जन्म से पहले जरूरी सारी देखरेख मुहैया कराएगा, जिन्हें इसकी जरूरत है. यह सुनिश्चित करेगा कि सभी बच्चे स्वस्थ पैदा हों. वे अपने जन्म के बाद अठारह साल तक पड़ोस के स्कूलों में एक अनिवार्य, मानक शिक्षा की व्यवस्था के जरिए शिक्षा हासिल करेंगे, जिसे पूरी तरह राज्य चलाएगा. कथित 'शिक्षा का अधिकार' के तहत केजी से लेकर पीजी तक खड़े हुए, अनेक स्तरों वाले शिक्षा के बाजार को पूरी तरह बंद कर दिया जाएगा. उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को कायम रखा जाएगा और यह मुफ्त में दी जाएगी या फिर राज्य भारी रियायतों के साथ उचित मूल्य पर इसे उपलब्ध कराएगा.

लोगों के सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण के लिए सारी भूमि का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाएगा. एक तरफ जहां खेती योग्य जमीन को किसानों की सहकारी समितियों को दे दिया जाएगा जो वैज्ञानिक खेती के लिए जरूरी उपकरणों से लैस होंगी. दूसरी तरफ बाकी की जमीन को गैर खेतिहर आधारभूत संरचना तथा उद्योगों के विकास के काम में लाया जाएगा. स्थानीय लोगों की बुनियादी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए देश भर में सौर तथा पवन ऊर्जा जैसी कभी खत्म न होनेवाली ऊर्जा की व्यापक परियोजनाएं शुरू की जाएंगी. ग्रामीण बैंकिंग व्यवस्था के जरिए किसानों की सहकारी समितियों को उचित कर्जे मुहैया कराए जाएंगे. अपनी उपज से उपयोगी वस्तुएं बनाने के लिए इन समितियों को साथ मिल कर कृषि-आधारित और अन्य उद्योगों की स्थापना करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, जिनमें खेती की पैदावार के हर हिस्से से तरह तरह की उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन किया सके. इसमें गैर खेतिहर आबादी को रोजगार दिया जाएगा. निर्माण उद्योग को इस तरह विकसित किया जाएगा कि इसमें शिक्षा व्यवस्था से निकले नौजवानों को लाभकारी तरीके से रोजगार दिया जा सके. सेवा क्षेत्र जनता के जीवन स्तर के भीतर से ही, उससे जुड़ कर विकसित होना चाहिए.

एक बार जनता का बुनियादी सशक्तीकरण हो जाए और उसे अपनी लाभकारी गतिविधियों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा हासिल हो जाए तो जाति, वंश, धर्म, लिंग वगैरह के आधार पर होने वाले भेदभावों की ज्यादातर गुंजाइश खत्म हो जाएगी. इसी के साथ सकारात्मक भेदभाव की उस व्यवस्था का आधार भी खत्म हो जाएगा, जिसने केवल शासक वर्गों के हितों की ही सेवा की है और जनता को कमजोर किया है. खास तौर से जातियों को बनाए रखने वाले ढांचों और संस्थानों की व्यवस्थित रूप से पहचान करके उनको नष्ट करते हुए जातियों का पूरी तरह उन्मूलन किया जाएगा और जनता में प्रबोधन के लिए व्यापक शैक्षिक कार्यक्रम चलाए जाएंगे. जातियों को बरकरार रखने वाले मुख्य अपराधियों में से एक हमारी मौजूदा चुनावी व्यवस्था भी है, जिसमें सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाता है. यह व्यवस्था इन जातीय पहचानों पर बड़े पैमाने पर निर्भर करती है. जनता का प्रतिनिधित्व यकीनी बनाने के लिहाज से यह पूरी तरह बेकार साबित हुई है और इसलिए इसको हटा कर यहां की जरूरतों के मुताबिक बनाई गई आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को स्थापित किया जाएगा.

जनता का यह बुनियादी सशक्तीकरण भारत को विकास की एक दूसरी ही दुनिया में ले जाएगा जिसके बारे में हमारा अंधा शासक वर्ग कल्पना तक नहीं कर सकता. संसाधनों की कमी का हमेशा बनाया जानेवाला बहाना एक झूठ है. इसका इस्तेमाल करते हुए, हमारे शासक वर्ग ने साम्राज्यवादी हितों को पालने-पोसने वाली एक दलाल संस्कृति को बनाए रखा है. सरकार ने पिछले महज नौ सालों में 36 ट्रिलियन (36000000000000) रुपए कॉरपोरेट कंपनियों को बांटे हैं और उससे भी ज्यादा काला धन देश के बाहर जाने दिया है. भारत के पास सभी संसाधन हैं; कमी बस राजनीतिक इच्छा की है. उन्हें यह समझना चाहिए कि ये कदम कतई क्रांतिकारी नहीं है, बल्कि वे सब बुर्जुआ दायरे में ही आते हैं.

यह हमारी बदकिस्मती ही है कि भारत की यह साधारण सी कल्पना भी आज क्रांतिकारी लगती है जो किसी को भी माओवादी कह कर जेल भिजवा देने के लिए काफी हो.

(हिंदी अनुवाद आउटलुक साप्ताहिक में प्रकाशित. अनुवाद: रेयाज उल हक)

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