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Saturday, May 31, 2008

वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज

वाममोर्चा नहीं, बंगाल में ब्राह्मण मोर्चा का राज

पलाश विश्वास

राजनीतिक आरक्षण बेमतलब। पब्लिक को उल्लू बनाकर वोट बैंक की राजनीति में समानता मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। मीना - गुर्जर विवाद हो या फिर महिला आरक्षण विधायक, हिन्दूराष्ड्र हो या गांधीवाद समाजवाद या मार्क्सवाद माओवाद सत्तावर्ग का रंग बदलता है, चेहरा नहीं। विचारधाराएं अब धर्म की तरह अफीम है और सामाजिक संरचना जस का तस।



पिछले वर्षों में बंगाल में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक परीक्षाओं में हिन्दुत्ववादी सवर्ण वर्चस्व वाले वाममोर्चा का वर्चस्व टूटा है। कोलकाता का बोलबाला भी खत्म। जिलों और दूरदराज के गरीब पिछड़े बच्चे आगे आ रहे हैं। इसे वामपंथ की प्रगतिशील विचारधारा की धारावाहिकता बताने से अघा नहीं रहे थे लोग। पर सारा प्रगतिवाद, उदारता और विचारधारा की पोल इसबार खुल गयी ,जबकि उच्चमाध्यमिक परीक्षाओं में सवर्ण वर्टस्व अटूट रहने के बाद माध्यमिक परीक्षाओं में प्रथम तीनों स्थान पर अनुसूचित जातियों के बच्चे काबिज हो गए। पहला स्थान हासिल करने वाली रनिता जाना को कुल आठ सौ अंकों मे ७९८ अंक मिले। तो दूसरे स्थान पर रहने वाले उद्ध्वालक मंडल और नीलांजन दास को ७९७अंक। तीसरे स्थान पर समरजीत चक्रवर्ती को ७९६ अंक मिले। पहले दस स्थानों पर मुसलमान और अनुसूचित छात्रों के वर्चस्व के मद्देनजर सवर्ण सहिष्णुता के परखच्चे उड़ गये। अब इसे पंचायत चुनाव में धक्का खाने वाले वाममोज्ञचा का ुनावी पैंतरा बताया जा रहा है। पिछले तेरह सालों में पहली बार कोई लड़की ने टाप किया है, इस तथ्य को नजर अंदाज करके माध्यमिक परीक्षाओं के स्तर पर सवालिया निशान लगाया जा रहा है। बहसें हो रही हैं। आरोप है कि मूल्यांकन में उदारता बरती गयी है। पिछले छह दशकों में जब चटर्जी, बनर्जी मुखर्जी, दासगुप्त, सेनगुप्त बसु, चक्रवर्ती उपाधियों का बोलबाला था और रामकृष्ण मिशन के ब्राह्ममण बच्चे टाप कर रहे थे, ऐसे सवाल कभी नहीं उछे। आरक्षण के खिलाफ मेधा का का तर्क देने वालो को मुंहतोड़ जवाब मिलने के बाद ही ये मुद्दे उठ रहे हैं प्रगतिशील मार्क्सवादी बंगील में।



ये दावा करते रहे हैं की अस्पृश्यता अब अतीत की बात है। जात पांत और साम्प्रदायिकता , फासीवाद का केंद्र है नवजागरण से वंचित उत्तर भारत। इनका दावा था कि बंगाल में दलित आन्दोलन की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहां समाज तो पहले ही बदल गया है।

दरअसल कुछ भी नहीं बदला है। प्रगतिवाद और उदारता के बहाने मूलनिवासियों को गुलाम बनाकर ब्राह्मण तंत्र जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज है। बंगाल और केरल वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद की चपेट में हैं।



बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।



बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज २.८ प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज ३.४ प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३.६ प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। २.८ प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३.६ फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का ५.६ प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।



अनुसूचित जातियों, जनजातियों के विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की क्या औकात है, इसे नीतिगत मामलों और विधायी कार्यवाहियों में समझा जासकता है। बंगाल में सारे महत्वपूर्ण विभाग या तो ब्राह्मणों के पास हैं या फिर कायस के पास। बाकी सिर्फ कोटा। ज्योति बसु मंत्रिमंडल और पिछली सरकार में शिक्षा मंत्री कान्ति विश्वास अनुसूचित जातियों के बड़े नेता हैं। उन्हें प्राथमिक शिक्षा मंत्रालय मिला हुआ था। जबकि उच्च शिक्षा मंत्रालय सत्य साधन चकत्रवर्ती के पास। नयी सरकार में कांति बाबू का पत्ता साफ हो गया। अनूसूचित चार मंत्रियों के पास गौरतलब कोई मंत्रालय नहीं है। इसीतरह उपेन किस्कू और विलासीबाला सहिस के हटाए जाने के बाद आदिवासी कोटे से बने दो राज्यंत्रियों का होना न होना बराबर है। रेज्जाक अली मोल्ला के पास भूमि राजस्व दफ्तर जैसा महत्वपूर्ण महकमा है। वे अपने इलाके में मुसलमान किसानों को तो बचा ही नहीं पाये, जबकि नन्दीग्राम में मुसलमान बहुल इलाके में माकपाई कहर के बबावजूद खामोश बने रहे। शहरी करण और औद्यौगीकरण के बहाने मुसलमाल किसानों का सर्वनाश रोकने के लिए वे अपनी जुबान तक खोलने की जुर्रत नहीं करते। दरअसल सवर्ण मंत्रियों विधायकों के अलावा बाकी तमाम तथाकथित जनप्रतिनिधियों की भूमिका हाथ उठाने के सिवाय कुछ भी नहीं है।



ऐसे में राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वोट के अलावा और क्या हासिल हो सकता है?



शरद यादव और राम विलास पासवान जैसे लोग उदाहरण हैं कि राजनीतिक आरक्षण का हश्र अंतत क्या होता है। १९७७ के बाद से हर रंग की सरकार में ये दोनों कोई न कोई सिद्धान्त बघारकर चिरकुट की तरह चिपक जाते हैं।



बंगाल के किसी सांसद या विधायक नें पूर्वी बंगाल के मूलनिवासी पुनवार्सित शरणार्थियों के देश निकाले के लिए तैयार नये नागरिकता कानून का विरोध नहीं किया है। हजारों लोग जेलों में सड़ रहे हैं। किसी ने खबर नहीं ली।



अब क्या फर्क पड़ता है कि है कि मुख्यमंत्री बुद्धबाबू रहे या फिर ममता बनर्जी? बंगाल के सत्ता समीकरण या सामाजिक संरचना में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने जा रहा है। जो नागरिक समाज और बुद्धिजीवी आज वामपंथ के खिलाफ खड़े हैं और नन्दीग्राम सिंगुर जनविद्रोह के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं, वे भी ब्राह्मण हितों के विरुद्ध एक लफ्ज नहीं बोलते। महाश्वेता देवी मूलनिवासी दलित शरणार्थियों के पक्ष में एक शब्द नहीं लिखती। हालांकि वे भी नन्दीग्राम जनविद्रोह को दलित आंदोलन बताती हैं। मीडिया में मुलनिवासी हक हकूक के लिए एक इंच जगह नहीं मिलती।



अस्पृश्यता को ही लीजिए। बंगाल में कोई जात नहीं पूछता। सफल गैरबंगालियों को सर माथे उठा लेने क रिवाज भी है। मां बाप का श्राद्ध न करने की वजह से नासितक धर्म विरोधी माकपाइयों के कहर की चर्चा होती रही है। मंत्री सुभाष चक्रवर्ती के तारापीठ दर्श न पर हुआ बवाल भी याद होगा। दुर्गा पूजा काली पूजा कमिटियों में वामपंथियों की सक्रिय भूमिका से शायद ही कोई अनजान होगा। मंदिर प्रवेश के लिए मेदिनीपुर में अछूत महिला की सजा की कथा भी पुरानी है। स्कूलों में मिड डे मिल खाने से सवर्ण बच्चों के इनकार का किस्सा भी मालूम होगा। वाममोर्चा चेयरमैन व माकपा राज्य सचिव के सामाजिक समरसता अभियान के तहत सामूहिक भोज भी बहुप्रचारित है। विमान बसु मतुआ सम्मेलन में प्रमुख अतिथि बनकर माकपाई वोट बैंक को मजबूत करते रहे हैं। पर इसबार नदिया और उत्तर दक्षिण चौबीस परगना के मतुआ बिदक गये। ठाकुरनगर ठाकुर बाड़ी के इशारे पर हरिचांद ठाकुर और गुरू चांद ठाकुर के अनुयायियों ने इसबार पंचायत चुनाव में तृणमुल कांग्रेस को समर्थन दिया। गौरतलब है कि इसी ठाकुर बाड़ी के प्रमथनाथ ठाकुर जो गुरू चांद ठाकुर के पुत्र हैं, को आगे करके बंगाल के सवर्णों ने भारतीय मूलनिवासी आंदोलन के प्रमुख नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल को स्वतंत्र भारत में कोई चुनाव जीतने नहीं दिया। वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में बाबा साहेब अंबेडकर सवर्ण साजिश से कोई चुनाव जीत नहीं पाये।



हरिचांद ठाकुर का अश्पृश्यता मोचन आन्दोलन की वजह से १९२२ में बाबासाहेब के आन्दोलन से काफी पहले बंगाल में अंग्रेजों ने अस्पृश्यता निषिद्ध कर दी। बंगाल के किसान मूलनिवासी आंदोलन के खिलाफसवर्ण समाज और नवजागरण के तमाम मसीहा लगातार अंग्रेजों का साथ देते रहे। बैरकपुर से १८५७ को महाविद्रोह की शुरुआत पर गर्व जताने वाले बंगाल के सत्तावर्ग ने तब अंग्रेजों का ही साथ दिया था। गुरूचांद ठाकुर ने कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के महात्मा गांधी की अपील को यह कहकर ठुकरा दिया था कि पहले सवर्ण अछूतों को अपना भाई मानकर गले तो लगा ले। आजादी से पहले बंगाल में बनी तीनों सरकारों के प्रधानमंत्री मुसलमान थे और मंत्रमंडल में श्यामा हक मंत्रीसभा को छोड़कर दलित ही थे। बंगाल अविभाजित होता तो सत्ता में आना तो दूर, ज्योति बसु, बुद्धदेव, विधान राय , सिद्धा्र्थ शंकर राय या ममता बनर्जी का कोई राजनीतिक वजूद ही नहीं होता। इसीलिए सवर्ण सत्ता के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा थी कि भारत का विभाजन हो या न हो, पर बंगाल का विभाजन होकर रहेगा। क्योंकि हम हिंदू समाज के धर्मांतरित तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं कर सकते। बंगाल से शुरू हुआ थ राष्ट्रीय दलित आन्दोलन , जिसके नेता अंबेडकर और जोगेन्द्र नाथ मंडल थे। बंगाल के अछूत मानते थे कि गोरों से सत्ता का हस्तान्तरण ब्राह्ममों को हुआ तो उनका सर्वनाश। मंडल ने साफ साफ कहा था कि स्वतन्त्र भारत में अछूतों का कोई भविष्य नहींहै। बंगाल का विभाजन हुआ। और पूर्वी बंगाल के दलित देश भर में बिखेर दिये गये। बंगाल से बाहर वे फिर भी बेहतर हालत में हैं। हालिए नागरिकता कानून पास होने के बाद ब्राह्मण प्रणव बुद्ध की अगुवाई में उनके विरुद्ध देश निकाला अभियान से पहले भारत के दूसरे राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों ने कभी किसी किस्म के भेदभाव की शिकायत नहीं की।



पर बंगाल में मूलनिवासी तमाम लोग अलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं।



अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।



अभी अभी खास कोलकाता के मेडिकल कालेज हास्टल में नीची जातियों के पेयजल लेने से रोक दिया सवर्णर छात्रों ने। ऐसा तब हुआ जबकि वाममोर्चा को जोरदार धक्का देने का जश्न मना रही है आम जनता। पर यह निर्वाचनी परिवर्तन कितना बेमतलब है, कोलकाता मेडिकल कालेज के वाकये ने साफ साफ बता दिया। कुछ अरसा पहले बांकुड़ा में नीची जातियों की महिलाओं का पकाया मिड डे मिल खाने से सवर्ण बच्चों के इनकार के बाद विमान बोस ने हस्तक्षेप किया था। इसबार वे क्या करते हैं. यह देखना बाकी है।



आरोप है कि कोलकाता मेडिकल कालेज में अस्पृश्य और नीची जातियों के छात्रो के साथ न सिर्फ छुआछूत चाल है, बल्कि ऐसे छात्रों को शारीरिक व मानसिक तौ पर उत्पीड़ित भी किया जाता है। जब खास कोलकाते में ऐसा हो रहा है तो अन्यत्र क्या होगा। मालूम हो कि आरक्षण विरोधी आंदोलन भी माकपाई शासन में बाकी देश से कतई कमजोर नहीं रहा। यहां मेडिकल, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट स्कूलों में आरक्षण विवाद की वजह से पहले से नीची जातियों के छात्रों पर सवर्ण छात्रों की नाराजगी चरम पर है। जब नयी नियुक्तिया बंद हैं। निजीकरण और विनिवेश जोरों पर है तो आरक्षण से किसको क्या फायदा या नुकसान हो सकता है। पर चूंकि मूलनिवाियों को कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई मौका नहीं देना है, इसलिए आरक्षण विरोध के नाम पर खुल्लमखुल्ला अस्पृश्यता जारी है। मेधा सवर्णों में होती है , यह तथ्य तो माध्यमिक परीक्षा परिणामों से साफ हो ही गया है। मौका मिलने पर मूलनिवासी किसी से कम नही हैं। पर ब्राह्मणराज उन्हें किसी किस्म का मौका देना तो दूर, उनके सफाये के लिए विकास के बहाने नरमेध यज्ञ का आयोजन कर रखा है।



बांग्लादेश गणतन्त्र (बांग्ला: গণপ্রজাতন্ত্রী বাংলাদেশ गॉणोप्रोजातोन्त्री बाङ्लादेश्) दक्षिण जंबूद्वीप का एक राष्ट्र है। देश की उत्तर, पूर्व और पश्चिम सीमाएँ भारत और दक्षिणपूर्व सीमा म्यान्मार देशों से मिलती है; दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है। बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल एक बांग्लाभाषी अंचल, बंगाल हैं, जिसका ऐतिहासिक नाम “বঙ্গ” बॉङ्गो या “বাংলা” बांग्ला है। इसकी सीमारेखा उस समय निर्धारित हुई जब 1947 में भारत के विभाजन के समय इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से पाकिस्तान का पूर्वी भाग घोषित किया गया। पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान के मध्य लगभग 1600 किमी (1000 माइल)। की भौगोलिक दूरी थी। पाकिस्तान के दोनो भागों की जनता का धर्म (इस्लाम) एक था, पर उनके बीच जाति और भाषागत काफ़ी दूरियाँ थीं। पश्चिम पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार के अन्याय के विरुद्ध 1971 में भारत के सहयोग से एक रक्तरंजित युद्ध के बाद स्वाधीन राष्ट्र बांग्लादेश का उदभव हुआ। स्वाधीनता के बाद बांग्लादेश के कुछ प्रारंभिक वर्ष राजनैतिक अस्थिरता से परिपूर्ण थे, देश मे 13 राष्ट्रशासक बदले गए और 4 सैन्य बगावतें हुई। विश्व के सबसे जनबहुल देशों में बांग्लादेश का स्थान आठवां है। किन्तु क्षेत्रफल की दृष्टि से बांग्लादेश विश्व में 93वाँ है। फलस्वरूप बांग्लादेश विश्व की सबसे घनी आबादी वाले देशों में से एक है। मुसलमान- सघन जनसंख्या वाले देशों में बांग्लादेश का स्थान 4था है, जबकि बांग्लादेश के मुसलमानों की संख्या भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों की संख्या से कम है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर स्थित यह देश, प्रतिवर्ष मौसमी उत्पात का शिकार होता है, और चक्रवात भी बहुत सामान्य हैं। बांग्लादेश दक्षिण एशियाई आंचलिक सहयोग संस्था, सार्क और बिम्सटेक का प्रतिष्ठित सदस्य है। यहओआइसी और डी-8 का भी सदस्य है।



बांग्लादेश में सभ्यता का इतिहास काफी पुराना रहा है. आज के भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था. बौद्ध ग्रंथो के अनुसार इस क्षेत्र में आधुनिक सभ्यता की शुरुआत ७०० इसवी इसा पू. में आरंभ हुआ माना जाता है. यहाँ की प्रारंभिक सभ्यता पर बौद्ध और हिन्दू धर्म का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है. उत्तरी बांग्लादेश में स्थापत्य के ऐसे हजारों अवशेष अभी भी मौज़ूद हैं जिन्हें मंदिर या मठ कहा जा सकता है.

बंगाल का इस्लामीकरण मुगल साम्राज्य के व्यापारियों द्वारा १३ वीं शताब्दी में शुरु हुआ और १६ वीं शताब्दी तक बंगाल एशिया के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र के रुप में उभरा. युरोप के व्यापारियों का आगमन इस क्षेत्र में १५ वीं शताब्दी में हुआ और अंततः १६वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उनका प्रभाव बढना शुरु हुआ. १८ वीं शताब्दी आते आते इस क्षेत्र का नियंत्रण पूरी तरह उनके हाथों में आ गया जो धीरे धीरे पूरे भारत में फैल गया. जब स्वाधीनता आंदोलन के फलस्वरुप १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ तब राजनैतिक कारणों से भारत को हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पािकस्तान में विभाजित करना पड़ा.

भारत का विभाजन होने के फलस्वरुप बंगाल भी दो हिस्सों में बँट गया. इसका हिन्दु बहुल इलाका भारत के साथ रहा और पश्चिम बंगाल के नाम से जाना गया तथा मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना जो पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया. जमींदारी प्रथा ने इस क्षेत्र को बुरी तरह झकझोर रखा था जिसके खिलाफ १९५० में एक बड़ा आंदोलन शुरु हुआ और १९५२ के बांग्ला भाषा आंदोलन के साथ जुड़कर यह बांग्लादेशी गणतंत्र की दिशा में एक बड़ा आंदोलन बन गया. इस आंदोलन के फलस्वरुप बांग्ला भाषियों को उनका भाषाई अधिकार मिला. १९५५ में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया. पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की उपेक्षा और दमन की शुरुआत यहीं से हो गई. और तनाव स्त्तर का दशक आते आते अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया. पाकिस्तानी शासक याहया खाँ द्वारा लोकप्रिय अवामी लीग और उनके नेताओं को प्रताड़ित किया जाने लगा. जिसके फलस्वरुप बंगबंधु शेख मुजीवु्ररहमान की अगुआई में बांग्लादेशा का स्वाधीनता आंदोलन शुरु हुआ. बांग्लादेश में खून की नदियाँ बही. लाखों बंगाली मारे गये तथा १९७१ के खूनी संघर्ष में दस लाख से ज्यादा बांग्लादेशी शरणार्थी को पड़ोसी देश भारत में शरण लेनी पड़ी. भारत इस समस्या से जूझने में उस समय काफी परेशानियों का सामना कर रहा था और भारत को बांग्लादेशियों के अनुरोध पर इस सम्स्या में हस्तक्षेप करना पड़ा जिसके फलस्वरुप १९७१ का भारत पाकिस्तान युद्ध शुरु हुआ. बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन हुआ जिसके ज्यादातर सदस्य बांग्लादेश का बौद्धिक वर्ग और छात्र समुदाय था, इन्होंने भारतीय सेना की मदद गुप्तचर सूचनायें देकर तथा गुरिल्ला युद्ध पद्ध्ति से की. पाकिस्तानी सेना ने अंतत: १६ दिसंबर १९७१ को भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. लगभग ९३००० युद्ध बंदी बनाये गये जिन्हें भारत में विभिन्न कैम्पों मे रखा गया ताकि वे बांग्लादेशी क्रोध के शिकार न बनें. बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क बना और मुजीबुर्र रहमान इसके प्रथम प्रधानमंत्री बने.



कोलकाता मेडिकल कालेज के मेन हास्टल के पहले और दूसरे वर्ष के सत्रह छात्रों ने डीन प्रवीर कुमार दासगुप्त और सुपर ्नूप राय को अस्पृश्यता की लिखित शिकायत की है।



पश्चिम बंगाल में जिला पंचायतों के चुनाव में राज्य में सत्तारूढ़ वाममोर्चा को पिछले तीन दशक में पहली बार कुल 17 जिलों में से चार जिलों में हार का सामना करना पड़ा जबकि उसने 13 जिलों में जीत हासिल की है।

पंचायत चुनाव के लिए आज हो रही मतगणना के अनुसार पूर्व मिदनापुर और पश्चिमी 24 परगना जिला परिषद सीटों पर तृणमूल कांग्रेस ने तथा उत्तरी दिनाजपुर और माल्दा जिले में कांग्रेस ने जीत हासिल की है।

नंदीग्राम-सिंगूर में वाम मोर्चा पराजित

इसी के साथ वाममोर्चा ने उत्तरी 24 परगना, हावड़ा, पश्चिम मिदनापुर, हुगली, नादिया, मुर्शिदाबाद, बर्धमान, बीरभूम, पुरुलिया, बांकुरा, पश्चिमी दिनाजपुर और कूच बिहार में जिला परिषद के चुनाव जीते हैं।

उल्लेखनीय है कि करीब डेढ़ साल तक भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर नंदीग्राम में हिंसा के चलते वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का जनाधार खिसकता रहा। सिंगूर में भी टाटा की छोटी कार परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर व्यापक हिंसा हुई।

गौरतलब है कि वर्ष 2003 के पंचायत चुनाव में मोर्चा 17 में 15 जिलों में जिला परिषदों पर काबिज हुआ था जबकि मालदा और मुर्शिदाबाद जिले कांग्रेस की झोली में गए थे।




पंचायत चुनाव में वाममोर्चा को मिले झटकों से छोटे घटक दलों के दिन बदलने वाले हैं। चुनाव से पहले घटक दलाें को ताक पर रखने वाली वाममोर्चा की सबसे बड़ी पार्टी माकपा अब उन्हें तरजीह देने लगी है। इसका पता मंगलवार को यहां हुई राज्य वाममोर्चा की बैठक के बाद चला। नतीजों के बाद वाममोर्चा की पहली बैठक में औद्योगीकरण पर फूंक फूंक कर कदम रखने पर सहमति बनी। माकपा प्रवक्तञ श्यामल चक्रवर्ती ने बताया-हम बैठक में इन पंचायत चुनावों के दौरान उठी समस्याओं पर विस्तृत चर्चा करेंगे। उन्होंने बताया कि माकपा बैठक से पहले ही अपने सभी सदस्यों से भी मिल चुकी है।



वाममोर्चा

के घटक दलों में पंचायत चुनाव की सीटों पर जारी मतभेद से माकपा के वरिष्ठ नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु काफी चितिंत हैं। बसु ने वाम दलों में मतभेद को खत्म करने के लिए माकपा के त्याग करने की ब्ाात भी कही है। पार्टी मुखपत्र में जाहिर किए गए अपने विचार में बसु ने कहा कि उन्हें मतभेदों ने थोड़ा चितिंत जरूर किया है। पिछले चुनावों में भी वाममोर्चा के घटक दल आरएसपी के साथ सीटाें पर समझौता नहीं हो पाया था। ...



वाममोर्चा

सरकार नंदीग्राम चुनाव से शिक्षा ले। नंदीग्राम के लोगों ने जमीन अधिग्रहण में बुलेट का जवाब बैलेट से दिया है। ये बातें मंगलवार को समाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर ने नंदीग्राम के दौरे के दौरान संवाददाताओं से बातचीत के दौरान कहीं। पाटेकर ने नंदीग्राम में पंचायत चुनाव के बाद हिंसा प्रभावित इलाके का दौरा किया। पाटेकर पहले नंदीग्राम ब्लॉक-एक के महेशपुर गई। हाल में चुनाव के दौरान इसी ब्लॉक में सबसे अधिक हिंसा हुई थी ...



डॉ. अम्बेडकर ने साइमन कमीशन के सामने अतिशोषित दलितों की समस्याओं को रखा और उससे प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत ने डॉ. अम्बेडकर को अपना पक्ष रखने की लंदन की गोलमेज सभा में आमत्रिंत किया. इंग्लैंड के उस समय के प्रधानमंत्री रैमजे मेग्डोनाल्ड ने मुसलमानों और दलितों को पृथक मताधिकार का अधिकार दिया, जिस पर गांधी जी असहमत हुए और पूना की यरवदा जेल में 22 दिन तक अनशन पर बैठे रहे. उनका मानना था कि दलित हिंदू समाज का हिस्सा हैं इसलिए इनको पृथक मताधिकार देने का मतलब होगा कि समाज से अलग करना. गांधी जी की अहिंसा का हथियार हिंसा से भी ज्यादा मजबूर कर देने वाला होता है. इन्हीं परिस्थितियों में डॉ. अम्बेडकर ने गांधीजी से पूनापैक्ट किया और आरक्षण पर सहमति बनी. सविंधान समिति बनाते समय गांधीजी ने डॉ. अम्बेडकर का नाम प्रस्तावित किया.

डॉ. अम्बेडकर दलितों, शोषितों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के लिए तमाम प्रावधान सविंधान में रखने में सफल रहे. कुछ और क्रातिंकारी प्रावधान होने चाहिए थे जो न हो सके. दूसरों की सहमति पर भी बहुत बातें आधारित थीं. भारत के सविंधान की धारा-17 में अस्पृश्यता निवारण मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया. इसके स्थान पर यदि जाति उन्मूलन को मौलिक अधिकार बनाया गया होता तो आज जात-पांत का इतना प्रभाव न दिखता. डॉ. अम्बेडकर जब कानून मंत्री थे तो प्रधानमंत्री, जवाहर लाल नेहरू से मशविरा लेकर हिंदू कोड बिल पेश किया जिसमें महिलाओं को घर की संपत्ति में अधिकार सहित तमाम और क्षेत्रों में उनको बराबरी का हक शामिल था. संसद में विधेयक पेश होने पर संसद के अंदर कट्टरवादी सांसद एवं मंत्री इसका विरोध करने लगे.

डॉ. अम्बेडकर को गहरा धक्का लगा और उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देते हुए कहा कि यदि आज भी हिंदू समाज महिलाओं को बराबर का अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं तो यह बहुत ही ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है. इसके बाद डॉ. अम्बेडकर अपना राजनैतिक दल बनाने में जुट गए और भारत को बौद्धमय भी. 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर की धरती पर लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म धारण करके विशेष तौर से दलितों के उत्थान, मान-सम्मान एवं समाज में जात-पांत की समाप्ति का मार्ग प्रशस्त किया. इससे महाराष्ट्र में सांस्कृतिक क्रातिं का कारवां आगे बढ़ा और उसके प्रभाव से जितनी जागरुकता और प्रगति महाराष्ट्र के दलितों में आई उतनी अन्य स्थानों पर देखने को नहीं मिलती.

डॉ. अम्बेडकर, डॉ. राम मनोहर लोहिया एवं पेरियार मिलकर एक नई राजनैतिक भूमि की तलाश करने ही वाले थे कि डॉ. अम्बेडकर का 6 दिसम्बर, 1956 को परिनिर्वाण हो गया. इनके आंदोलन की वारिस रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया बनी और कुछ हद तक 1960 के दशक में सफलता भी प्राप्त की. गुटबाजी के कारण रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इडिंया कुछ खास कामयाबी नहीं हासिल कर सकी. डॉ. अम्बेडकर को केवल दलितों के मसीहा के रूप में देखना ही जात-पांत है. सविंधान की धारा 25 से लेकर 30 तक जो अधिकार एवं सुविधाएं अल्पसंख्यकों को दी हैं, दुनिया में शायद ही किसी और देश में हों. महिलाओं के बारे में उल्लेख किया जा चुका है. डॉ. अम्बेडकर जमीन का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे और सरकार का बड़े उद्योगों में एकाधिकार.

भारत के कम्युनिस्टों से आर्थिक मामले में ये कहीं अधिक प्रगतिशील थे. दुर्भाग्य से इनके योगदान को पूरा श्रेय नहीं मिला लेकिन जैसे-जैसे लोग जागृत होते जा रहे हैं, मृत डॉ. अम्बेडकर जिंदा से ज्यादा प्रभावशाली होते जा रहे हैं. रिपब्लिक पार्टी ऑफ इडिंया की गुटबाजी के कारण डॉ. अम्बेडकर के कारवां को धक्का लगा. उसे पूरा करने का वायदा लेकर कांशीराम जी भारतीय समाज के पटल पर आए. कांशीराम ने हजारों वर्षों से बंटे समाज के अंतर्विरोध को समझा और उसका इस्तेमाल करके राजनैतिक सफलता हासिल करने में सफल रहे. डॉ. अम्बेडकर का मूल सिद्धांत जाति उन्मूलन था. तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक तथा गुजरात से लेकर बंगाल तक डॉ. अम्बेडकर के विचारों पर आधारित तमाम संगठन बने और आज भी हैं.



अस्पृश्यता चरम विन्दु है मानव अधिकार हनन का
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संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा करते समय उसकी उद्देशिका लिखने के बाद उसके अनुच्छेद ४ में लिखा था---किसी भी व्यक्ति को दास या गुलाम बनाकर नही रखा जाएगा, सभी प्रकार की दासता और दास व्यापार निषिद्ध होगा,१ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ऐसा उदघोषित कर मानव जाति में शताब्दियों से चली आ रही एक बडी बुराई के विरुद्ध जंग छेड़ी है । दरसल दास प्रथा में मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण एवं उत्पीडन होता है तथा दास व्यापार में मनुष्य द्वारा मनुष्य पर भारी अत्याचार होता है । उपरोक्त महासभा ने इस् रक्षा उपाय मे यह चेतावनी भी दी थी कि यदि मनुष्य के इन अधिकारों की कानूनों के माध्यम से प्राप्ति नही कराई गई तो इसके भयावह परिणाम हो सकते है ।
महासभा ने इन "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" की उद्देशिका मे लिखा है ---यदि मनुष्य के अत्याचार और उत्पीडन अंतिम अस्त्र के रूप मे विद्रोह का अवलंब लेने के लिए विवस नही किया जाना है तो यह आवश्यक है की मानव अधिकारों का संरक्षण विधि सम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए २ । इसके साथ ही महासभा ने मानव अधिकार अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा मे अपने संकल्प को अंगीकृत करते हुए तथा उसमे आथिक-सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का उपबंध जोड़ते हुए उसकी उद्देशिका मे इसका तर्क बताया था कि इस् प्रसंविदा के पक्षकार राज्य यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अन्तरनिहित गरिमा से व्युत्पन्न है ३ । इन अनुच्छेदों का करार करते है । देखा जा सकता है कि "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" के अनुच्छेद ४ के नजदीक भारत के संविधान मूल अधिकार वाले अध्याय के अनुच्छेद २३ (१) में इसी प्रकार का प्रावधान रखा गया है--मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस् उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।
हुआ यों था कि तबतक दास प्रथा और दास व्यापार विश्व की समस्या बन चुके थे । विश्व की कई मानव नस्लें और राष्ट्र दास प्रथा के विरोध मे लड़ रहे थे अमेरिका मे इस् प्रथा को समाप्त करने के लिए गृहयुद्ध लड़ा जा चुका था । इस पृष्ठभूमि और उसकी जानकारी के कारण मानव समाज का यह एक खास मुद्दा था । लेकिन भारतीय समाज मे एक इससे भी ज्यादा घिनौनी प्रथा कायम थी, परन्तु उसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नही हो सकी थी । यहाँ जो स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चला रहे थे वह अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए था, उस समय तक विश्व समुदाय को यही पता था कि भारत ब्रिटेन से अपनी आजादी की लडाई लड़ रहा है उस समय के मानव चिंतकों को यह पता नही था कि भारत में ब्रिटेन की गुलामी से स्वतंत्र होने के बाद भी एक और सामाजिक गुलामी बची रह सकती है जो दास प्रथा अथवा दास व्यापर से भी ज्यादा खतरनाक एवं भयावह है ।
तत्कालीन भारतीय हिंदू राजनीतिक और वेदांत के दार्शनिक विद्वान् विदेशी मंचों पर अपनी इस् भयावह बुराई को छिपाया करते थे वे विदेशों में अपनी स्वतंत्रता की लडाई पर क्रांतिकारी एवं गंभीर भाषण दिया करते लेकिन मन में इस बात से डरे रहते थे कि कोई उनसे हिन्दुओं में फैली अस्पृश्यता के बारे में सवाल न पूछ बैठे । इस सवाल के पूछे जाने पर उन्हें बेहद बेचैनी महसूस होती थी क्योंकि इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था एक केवल डा० आम्बेडकर थे जिन्होंने अवसर मिलने पर इस समस्या को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाया था । संयोग से उन्हें १९४२ में इंस्टीट्यूट आफ पैसिफिक रिलेशन के चेयरमैन के तरफ़ से भारत के अछूतों की समस्या पर कनाडा के क्यूबेक के मांट ट्रमबलेंट में होने वाली कांफ्रेंस में एक पेपर पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया था । बाद में उन्होंने अपना यह पेपर "मिस्टर गाँधी एंड द एमोंसिपेशन आफ द अनटचेबल्स" शीर्षक से पुस्तिका के रूप में अलग से छपवाया था । इसमे डा अम्बेडकर ने विश्व समुदाय को बताया था कि भारत में अछूतों की मुसीबतें विश्व में अन्यत्र नीग्रो और यहूदियों की मुसीबतों से कम कठिन नहीं है उन्होंने चाहा था कि साम्राज्यवाद और नस्लवाद से लड़ते समय विश्व के चिन्तक अस्पृश्यता से लड़ना न भूलें ।५ इधर डा अम्बेडकर ने भारत में भी अस्पृश्यता की इस समस्या को पूरे राजनीतिक स्तर पर उठा दिया था उन्होंने एक तरह से अस्पृश्यता के खिलाफ पूरी शक्ति से आवाज उठाई थी । उनकी आवाज दबाने के लिए उस समय के कट्टरपंथी एवं उदारवादी हिन्दुओं के दोनों वर्गों ने पूरी कोशिश की थी लेकिन डा अम्बेडकर ने अपने काम में सफलता हासिल कर ली । उनके इसी दबाव के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद १७ में "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" से अधिक और अलग तथा उसमे एक नया आयाम जोड़ते हुए लिखा गया कि-"अस्पृश्यता" का अंत किया जाता है । आगे जारी.........


यह ठीक-ठीक एक युद्ध है और हर पक्ष अपने हथियार चुन रहा है : अरुंधति राय
Aphttp://guzarish.wordpress.com/2007/04/05/%E0%A4%AF%E0%A4%B9-%E0%A4%A0%E0%A5%80%E0%A4%95-%E0%A4%A0%E0%A5%80%E0%A4%95-%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%B0-2/ril 5, 2007

प्रख्यात लेखिका और समाजकर्मी अरुंधति राय ने लगातार बदलते वैश्विक परिदृश्य और घटनाक्रम के साथ जिस तरह अपने को मोडिफ़ाइ किया है, और अपने सोच को विकसित किया है, उसका उदाहरण है यह बातचीत. इसमें अरुंधति ने अपने पहले के कई नज़रियों पर नये सिरे से विचार किया है और ज़रूरत पड़ने पर उनको एक दूसरी दिशा भी दी है. जैसे कि उनमें पहले अहिंसक प्रतिरोध की का व्यापक आग्रह दिखता था. वे मानतीं थीं कि प्रतिरोध हिंसक होने से उसकी सुंदरता नष्ट होती है. मगर इस बार वे सरकार द्वारा अहिंसक प्रतिरोधों को नज़रअंदाज़ किये जाने और उनको अपमानित किये जाने से काफ़ी क्षुब्ध दिखती हैं. उनमे अब अहिंसक प्रतिरोध का वह आग्रह नहीं दिखता और वे काफ़ी हद तक देश में चल रहे सशस्त्र आंदोलनों के पक्ष में बोलती दिखती हैं. उनका यह बदलाव उन जड़ बुद्धि महामानवों, इसी युग के, के लिए एक नज़ीर है, जिन्होंने एक बार एक ढेरी चुन ली तो जीवन भर उस पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं, उसकी गर्द साफ़ करने को भी उससे नहीं डोलते. अंगरेज़ी साप्ताहिक तहलका में छपी यह बातचीत हिंदी में जन विकल्प के अप्रैल अंक में प्रकाशित हुई है. यहां इसकी साभार प्रस्तुति.

अनुवाद : रेयाज-उल-हक
शोमा चौधरी : पूरे देश में बढ़ती हुई हिंसा का माहौल है. आप संकेतों को किस तरह ले रही हैं? इन्हें किस परिप्रेक्ष्य में लेना चाहिए?
अरुंधति राय : आप उतने प्रतिभासंपन्न नहीं हो सकते कि आप संकेतों को पढ़ सकें. हमारे पास उग्र उपभोक्तावाद और आक्रामक लिप्सा पर पलता हुआ एक बढ़ता मध्यवर्ग है. पश्चिमी देशों के औद्योगीकरण के विपरीत, जिनके पास उनके उपनिवेश थे, जहां से वे संसाधन लूटते थे और इस प्रक्रिया की खुराक के लिए दास मजदूर पैदा करते थे, हमने खुद को ही, अपने निम्नतम हिस्सों को, अपना उपनिवेश बना लिया है. हमने अपने अंगों को ही खाना शुरू कर दिया है. लालच, जो पैदा हो रही है (और जो एक मूल्य की तरह राष्ट्रवाद के साथ घालमेल करते हुए बेची जा रही है ) केवल अशक्त लोगों से भूमि, जल और संसाधनों की लूट से ही शांत हो सकती है. हम जिसे देख रहे हैं वह स्वतंत्र भारत में लड़ा गया सबसे सफल अलगाववादी संघर्ष है-मध्यवर्ग और उच्चवर्ग का बाकी देश से अलगाव. यह एक स्पष्ट अलगाव है न कि छुपा हुआ. वे इस धरती पर मौजूद दुनिया के अभिजात के साथ मिल जाने के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. वे सेनापति और संसाधनों का प्रबंध कर चुके हैं, कोयला, खनिज, बक्साइट, पानी और बिजली. अब वे अधिक जमीन चाहते हैं, अधिक कारें, अधिक बम, अधिक माइंस-नयी महाशक्ति के नये महानागरिकों के लिए महाखिलौने-बनाने के लिए. इसलिए यह ठीक-ठीक युद्ध है और दोनों तरफ के लोग अपने हथियार चुन रहे हैं. सरकार और निगम संरचनागत समायोजन के लिए पहुंच गये हैं, विश्वबैंक, एडीबी, एफडीआइ, दोस्ताना अदालती आदेश, दोस्ताना नीति निर्माता, कार्पोरेट मीडिया और पुलिस बल की दोस्ताना मदद इन सब को गरीब आदमियों के गले में बांध देंगे. जो इस प्रक्रिया का विरोध करना चाहते हैं, अब तक धरना, भूख हड़ताल, सत्याग्रह, अदालत और दोस्ताना मीडिया का सहारा लेते रहे हैं, मगर अब अधिक-से-अधिक लोग बंदूकों के साथ जा रहे हैं. क्या हिंसा बढ़ेगी? जी हां, यदि ‘वृद्धि दर` और सेंसेक्स सरकार द्वारा प्रगति और लोगों की बेहतरी मापने के बैरोमीटर बने रहेंगे तब निस्संदेह, यह होगा. मैं संकेतों को कैसे पढ़ती हूं? आकाश पर लिखी चीज पढ़ना मुश्किल नहीं है. वहां जो वाक्य बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित है, वह यह है कि मल जाकर पंखे से चिपक गया है (गरीब लोग सिर चढ़ गये हैं - अनु.).

शोमा चौधरी : आपने एक बार टिप्पणी की थी कि आप खुद हालांकि हिंसा का आश्रय नहीं लेंगी, आप सोचती हैं कि देश की वर्तमान परिस्थतियों में इसकी निंदा करना अनैतिक हो गया है. क्या आप अपने इस नजरिये को विस्तृत कर सकती हैं?
अरुंधति राय : एक गुरिल्ले के रूप में मैं बोझ भर रह जाऊंगी. मुझे संदेह है कि मैंने शब्द ‘अनैतिक` का प्रयोग किया होगा-नैतिकता एक भ्रामक विचार है, मौसम की तरह बदलनेवाला. जो मैं महसूस करती हूं वह यह है कि अहिंसक आंदोलन दशकों से देश की प्रत्येक
लोकतांत्रिक संस्था का दरवाजा खटखटा चुके हैं और ठुकराये और अपमानित हो चुके हैं. भोपाल गैस कांड के पीड़ितों और नर्मदा बचाओ आंदोलन को देखिए. एनबीए के पास क्या नहीं है? बहुचर्चित नेतृत्व, मीडिया कवरेज, किसी भी दूसरे जनांदोलन से अधिक संसाधन. क्या गलती हुई? लोग अपनी रणनीति पर फिर से सोचने को बाध्य किये जा रहे हैं. जब सोनिया गांधी दाओस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम से सत्याग्रह को प्रोत्साहित करने की शुरुआत करती हैं, यह हमारे लिए बैठ कर सोचने का समय होता है. जैसे कि क्या आम सिविल नाफरमानी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य की संरचना के अंतर्गत संभव है? क्या यह गलत सूचनाओं और कारपोरेट नियंत्रित मास मीडिया के युग में संभव है? क्या भूख हड़तालों की नाभिनाल सेलिब्रिटी पॉलिटिक्स से जुड़ी हुई है? क्या कोई परवाह करेगा यदि नागला माछी या भट्टी माइंस के लोग भूख हड़ताल पर चले जायें? इरोम शर्मिला पिछले छह वर्षों से भूख हड़ताल पर है. यह हमलोगों में से कइयों के लिए एक सबक होना चाहिए. मैंने हमेशा महसूस किया है कि यह एक मजाक ही है कि भूख हड़ताल को ऐसी जगह में एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाये, जहां अधिकतर लोग किसी-न-किसी तरीके से भूखे रहते हों. हमलोग एक भिन्न समय और स्थान में हैं. हमारे सामने एक भिन्न, अधिक जटिल शत्रु है. हम एनजीओ युग में दाखिल हो चुके हैं- या क्या मुझे कहना चाहिए पालतू शेरों के युग में-जिसमें जन कार्रवाई एक जोखिमभरा (अविश्वसनीय) काम हो गया है. प्रदर्शन अब फंडेड होते हैं, धरना और सोशल फोरम प्रायोजित होते हैं, जो तेवर तो काफी उग्र दिखाते हैं मगर जो वे उपदेश देते हैं, उन पर कभी चलते नहीं. हमारे यहां ‘वर्चुअल` प्रतिरोध की तमाम किस्में मौजूद हैं. सेज के खिलाफ मीटिंग सेज के सबसे बड़े प्रमोटर द्वारा प्रायोजित होती है. पर्यावरण एक्टिविज्म और सामुदायिक कार्रवाइयों को सम्मान और अनुदान उन कारपोरेशनों द्वारा दिये जाते हैं जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र की तबाही के लिए जिम्मेवार हैं. ओड़िशा के जंगलों में बक्साइट की खुदाई करनेवाली एक कंपनी, वेदांत, अब एक यूनिवर्सिटी खोलना चाहती है. टाटा के पास दो दाता ट्रस्ट हैं, जो सीधे या छुपे तौर पर देश भर के एक्टिविस्टों और जनांदोलनों को धन देते हैं। क्या यही वजह नहीं है कि सिंगुर में नंदीग्राम के मुकाबले कम आकर्षण है? निस्संदेह टाटाओं और बिड़लाओं ने गांधी तक को धन दिया-शायद वह हमारा पहला एनजीओ था. मगर अब हमारे पास ऐसे एनजीओ हैं, जो खूब शोर मचाते हैं, खूब रिपोर्टें लिखते हैं, मगर जिनके साथ सरकार अधिक राहत महसूस करती है. कैसे हम इन सब को उचित ठहरा सकते हैं? असली राजनीतिक कार्रवाइयों को मटियामेट करनेवाले सर्वत्र किलबिला रहे हैं. ‘वर्चुअल` प्रतिरोध अब बोझ बन गये हैं.
एक समय था जब जनांदोलन न्याय के लिए अदालतों की ओर देखते थे. अदालतों ने ऐसे फैसलों की झड़ी लगा दी, जो इतने अन्यायपूर्ण, इतने अपमानजनक थे, गरीबों के लिए उनके द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली भाषा इतनी अपमानजनक थी कि सुन कर सांस रुक-सी जाती है. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले, जिसमें वसंत कुंज मॉल को कंस्ट्रक्शन पुन: शुरू करने की अनुमति दी गयी है और जिसमें जरूरी स्पष्टता नहीं है, में बार-बार कहा गया है कि कार्पोरेशंस की अपराध में लिप्तता का सवाल ही नहीं उठता. कार्पोरेट ग्लोबलाइजेशन के दौर में, कार्पोरेट भूमि लूट, एनरॉन, मोनसेंटो, हेलीबर्टन और बेकटेल के दौर में ऐसा कहने का गहरा अर्थ है. यह इस देश में सर्वोच्च शक्तिशाली संस्थानों के वैचारिक मानस को उजागर करता है. न्यायपालिका, कार्पोरेट प्रेस के साथ अब उदारवादी परियोजना की धुरी की कील लगने लगी है. इस तरह की परिस्थिति में जब लोग महसूस करते हैं कि वे हार रहे हैं, अंतत: केवल अपमानित होने के लिए इन बेहद लंबी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में थका दिये जा रहे हैं, तब उनसे क्या आशा की जा सकती है? निस्संदेह, क्या यह ऐसा नहीं है मानो रास्ते हां या ना में हों-हिंसा बनाम अहिंसा. कई राजनीतिक दल हैं जो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखते हैं, पर अपनी समग्र राजनीतिक रणनीति के एक हिस्से के रूप में. इन संघर्षों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ क्रूर व्यवहार होता है, उनकी हत्या कर दी जाती है, वे पीटे जाते हैं, झूठे आरोपों में कैद कर लिये जाते हैं. लोग इस बात से पूरी तरह अवगत हैं कि हथियार उठाने मतलब है भारतीय राजसत्ता की हर तरह की हिंसा को न्योता देना. जिस पल हथियारबंद लड़ाई एक रणनीति बन जाती है, आपकी पूरी दुनिया सिकुड़ जाती है और रंग फीके पड़ कर काले और सफेद में बदल जाते हैं. लेकिन जब लोग ऐसा कदम उठाने का फैसला करते हैं, क्योंकि हरेक दूसरा रास्ता निराशा में बंद हो चुका हो, तो क्या हमें इसकी निंदा करनी चाहिए? क्या कोई यकीन करेगा कि नंदीग्राम के लोग धरना पर बैठ जाते और गीत गाते तो पश्चिम बंगाल सरकार पीछे हट जाती? हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब निष्प्रभावी रहने का मतलब है -यथास्थिति का समर्थन करना (जो बेशक हममें से कइयों के अनुकूल है). और प्रभावी होना एक भयावह कीमत पर होता है. मैं उनकी निंदा करना कठिन समझती हूं, जो ये कीमत चुकाने को तैयार हैं.

शोमा चौधरी : आपने विभिन्न जगहों के दौरे किये हैं. क्या आपने जिन समस्याओं को पाया उनके अनुभव हमें बता सकती हैं? क्या आप इन जगहों में लड़ी जानेवाली लड़ाइयों का खाका खींच सकती हैं?
अरुंधति राय : बड़ा सवाल है-मैं क्या कह सकती हूं? कश्मीर में सैन्य कब्जा, गुजरात में नव फासीवाद, छत्तीसगढ़ में गृह युद्ध, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ओड़िशा का बलात्कार, नर्मदा घाटी में सैकड़ों गांवों को जलमग्न कर दिया जाना, भुखमरी के कगार पर जीते लोग, वन भूमि का विध्वंस, भोपाल गैस कांड पीड़ितों का पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नंदीग्राम में यूनियन कार्बाइड, जो अब खुद को दाउ केमिकल्स कहती है, की फिर से चिरौरी करते देखने के लिए जीवित रहना. मैं हाल में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र नहीं गयी हूं, मगर हम जानते हैं कि सैकड़ों-हजारों किसानों ने खुद को मार डाला. इनमें से प्रत्येक जगह का अपना इतिहास रहा है, अर्थव्यवस्था रही है, पारिस्थितिक तंत्र रहा है. किसी की भी सरलीकृत ढंग से व्याख्या नहीं की जा सकती. और कुछ जुड़े हुए तार हैं, बड़े अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक और आर्थिक दबाव हैं, जो उन पर डाले जा रहे हैं. मैं कैसे हिंदुत्व परियोजना के बारे में बात नहीं कर सकती जो एक बार फिर फूट पड़ने की प्रतीक्षा में निरंतर अपना जहर फैला रही है? मैं कहूंगी कि हमारा सबसे बड़ा दोष यही है कि हम अब भी एक देश हैं, संस्कृति हैं, एक समाज हैं, जो लगातार अस्पृश्यता की धारणा को पोषित करता है और व्यवहार में लाता है. जब हमारे अर्थशात्री आंकड़ों की जुगाली करते हैं और वृद्धि दर के बारे में डींग हांकते हैं, दस लाख लोग-मैला ढोनेवाले-अपनी जीविका चलाते हैं-रोज अपने सिर पर दूसरों का कई किलो मल ढोकर. और अगर वे अपने सर पर पाखाना न ढोयें तो वे भूखे मर जायेंगे.

शोमा चौधरी : बंगाल में हालिया सरकारी और पुलिसिया हिंसा को कैसे देखा जाये?
अरुंधति राय : कहीं भी पुलिस और सरकारी हिंसा में कोई फर्क नहीं होता, दोगलेपन और दोमुंहेपन का मुद्दा भी इसमें शामिल है, जिन्हें सभी राजनीतिक दल, मुख्यधारा के वामपंथ सहित सभी, व्यवहार में लाते हैं. क्या एक कम्यूनिस्ट गोली पूंजीवादी गोली से अलग होती है? अजीब घटनाएं घट रही हैं. सऊदी अरब में बर्फ पड़ी. उल्लू दिन के उजाले में बाहर आये. चीनी सरकार ने निजी संपत्ति को मंजूरी देनेवाला बिल स्वीकृत किया. मैं कुछ नहीं जानती यदि इन सबका लेना-देना जलवायु परिवर्तन से है. चीनी कम्यूनिस्ट 21 वीं सदी के सबसे बड़े पूंजीवादी बनने की ओर अग्रसर हैं. हमें क्यों अपने यहां के संसदीय वामपंथ से कुछ अलग होने की उम्मीद करनी चाहिए? नंदीग्राम और सिंगुर स्पष्ट संकेत हैं. यह आपको आश्चर्य में डाल देगा-क्या हरेक क्रांति का अंतिम पड़ाव पूंजीवाद को और आगे बढ़ा देता है? इसके बारे में सोचें-फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रांति, वियतनाम युद्ध, रंगभेदविरोधी संघर्ष, और मान लेते हैं कि भारत में गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम, किस अंतिम पड़ाव पर वे पहुंचे? क्या यह कल्पना का अंत है?

शोमा चौधरी : बीजापुर में माओवादी हमला- ५५ पुलिसकर्मियों की मौत. क्या विद्रोही राजसत्ता के ही दूसरे पहलू हैं?
अरुंधति राय : विद्रोही कैसे राज्य के दूसरे पहलू हो सकते हैं? क्या कोई कह सकता है कि जो रंगभेद के विरुद्ध लड़े-फिर भी उनके तरीके क्रूर थे-राज्य के दूसरे पहलू थे? उनके बारे में क्या जो अल्जीरिया में फ्रांस से लड़े? या वे जो नाजियों से लडे? या वे जो औपनिवेशिक शासन से लड़े? या वे जो इराक पर अमेरिकी कब्जे से लड़ रहे हैं? क्या ये राज्य के दूसरे पहलू हैं? यह सतही, नव खबरचालित `मानवाधिकार` विमर्श है, यह निरर्थक निंदा खेल, जिसे खेलने के लिए हम बाध्य किये जा रहे हैं, हमें राजनीतिज्ञ बनाता है और सही राजनीति को हमसे छीनता है. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रायोजित और निर्मित गृहयुद्ध चल रहा है, जो खुलेआम बुश डॉक्ट्रिन का हिमायती है-अगर आप हमारे साथ नहीं हैं तो आप आतंकवादियों के साथ हैं. इस युद्ध की धुरी की कील औपचारिक सुरक्षा बलों के अतिरिक्त सलवा जुडूम है, उन आम लोगों की सरकार पोषित मिलिशिया, जो हथियार उठाने और विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बनने को बाध्य कर दिये गये. भारतीय राजसत्ता इसे कश्मीर, मणिपुर, नागालैंड में आजमा चुकी है. दसियों हजार मारे जा चुके हैं, हजारों ने यातनाएं सही हैं, हजारों गायब कर दिये गये हैं. कोई भी बनाना रिपब्लिक इन तथ्यों पर गर्व करेगा. अब सरकार इन विफल रणनीतियों को देश के हृदयस्थल में उठा कर ले आयी है. हजारों आदिवासी अपनी खनिज संपन्न जमीन से पुलिस कैंपों में जबरन भेज दिये गये. सैकड़ों गांव जबरन उजाड़ दिये गये. यह भूमि लौह अयस्क से भरपूर है, जिस पर टाटा और एस्सार जैसे कार्पोरेशनों की आंख गड़ी हुई है. एमओयू पर हस्ताक्षर किये जा चुके हैं, पर कोई नहीं जानता कि उनमें क्या है. भूमि अधिग्रहण शुरू हो चुका है. जिन देशों में ऐसी घटनाएं घटी हैं, जैसे कि कोलंबिया, वे दुनिया के सबसे तबाह देशों में से हैं. जब हरेक की नजर सरकार पोषित मिलिशिया और गुरिल्ला दस्तों की निरंतर हिंसा पर लगी थी, बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन बड़ी खामोशी से खनिज संपदा चुरा कर भाग रहे थे. यह उस नाटक का एक छोटा-सा हिस्सा है, जो छत्तीसगढ़ में हमारे लिए रचा गया है.
बेशक यह भयावह है कि 55 पुलिसकर्मी मार दिये गये. मगर वे उसी तरह सरकारी नीतियों के शिकार हुए जैसा दूसरा कोई होता है. सरकार और कार्पोरेशनों के लिए वे तोप का चारा भर हैं- जहां से वे आये थे, वहां इसकी भरमार है. घड़ियाली आंसू बहाये जायेंगे, प्राइम टीवी एंकर हम पर रोब जमायेंगे और तब चारे की और अधिक सप्लाई का इंतजाम कर लिया जायेगा. माओवादी गुरिल्लों के लिए, पुलिस और एसपीओ, जिनको उन्होंने मारा, भारतीय राजसत्ता के सशस्त्र आदमी थे, दमन, यातना, हिरासती हत्याओं और झूठे मुकदमों के मुख्य कर्ताधर्ता थे. कल्पना के किसी भी विस्तार में वे निर्दोष नागरिक, अगर ऐसी कोई चीज होती हो, नहीं थे. मुझे कोई संदेह नहीं कि माओवादी आतंक, और जबरदस्ती के भी, वाहक हो सकते हैं. मुझे कोई संदेह नहीं कि वे अवर्णनीय अत्याचारों के भी आरोपित हैं. मुझे कोई संदेह नहीं कि वे स्थानीय जनता के निर्विवाद समर्थन का दावा नहीं कर सकते, पर कौन कर सकता है? फिर भी कोई गुरिल्ला आर्मी बिना स्थानीय समर्थन के नहीं टिक सकती. यह असंभव है. आज माओवादियों के प्रति समर्थन बढ़ रहा है, न कि घट रहा है. वे कुछ कहते हैं, लोगों के पास रास्ता नहीं है, लेकिन वे उस तरफ हो जाते हैं, जिसे वे कम खराब समझते हैं.
लेकिन तीव्र अन्याय से जूझते प्रतिरोध आंदोलन की तुलना सरकार से करना, जो अन्याय थोपती है, बेतुका है. सरकार ने अहिंसक प्रतिरोध की हरेक कोशिश के सामने दरवाजा भिड़ा दिया है. जब लोग हथियार ले लेते हैं, हर तरह की हिंसा शुरू हो जाती है-क्रांतिकारी, लंपट और एकदम आपराधिक भी. सरकार इस डरावनी स्थिति के लिए खुद जिम्मेवार है.

शोमा चौधरी : ‘नक्सल`, ‘माओवादी, ‘बाहरी`, ये वे शब्द हैं जो इन दिनों व्यापकता से प्रयुक्त हो रहे हैं.
अरुंधति राय : ‘बाहरी` एक आम अभियोग था, जिसका उपयोग सरकारें दमन के शुरुआती दिनों में करती थीं, जो अपनी लोकप्रियता में यकीन रखती थीं और यह कल्पना नहीं कर सकती थीं कि उनके अपने लोग उनके खिलाफ उठ खड़े होंगे. इस समय बंगाल में सीपीएम की यही स्थिति है, हालांकि कुछ लोग कहेंगे कि बंगाल में दमन नया नहीं है, यह केवल चरम पर पहुंच गया है. किसी मामले में ‘बाहरी` क्या होता है? सीमाएं कौन तय करेगा? क्या वे गांव की सीमाएं हैं? तहसील? प्रखंड? जिला? राज्य? क्या संकीर्ण क्षेत्रीय और जातिवादी राजनीति नया कम्यूनिस्ट मंत्र है? नक्सलियों और माओवादियों के बारे में-अच्छा… भारत लगभग एक पुलिस स्टेट बन गया है, जिसमें हरेक, जो वर्तमान हालात से असहमत है, आतंकवादी होने का जोखिम उठाता है. इसलामी आतंकवादियों को इसलामी होना होगा-अत: यह हम सबको अपने में समेटने के लिए बेहतर नहीं है. वे एक बड़ा कैचमेंट एरिया चाहते हैं. इसलिए परिभाषाओं को ढीला, अपरिभाषित, छोड़ना प्रभावी रणनीति है, क्योंकि वह समय दूर नहीं जब हम सभी माओवादी या नक्सलवादी, आतंकवादी या आतंकवादियों के हमदर्द कहे जायें और लोगों द्वारा मार दिये जायें, जो ये वास्तव में नहीं जानते या परवाह करते कि कौन माओवादी या नक्सलवादी है. गांवों में, निस्संदेह, यह सब शुरू हो चुका है, देश भर में हजारों लोग जेलों में बंद पड़े हैं, सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश करनेवाले आतंकवादी होने के ढीले-ढाले आरोपों के तहत. असली माओवादी या नक्सलवादी कौन है? मेरा इस विषय पर बहुत अधिकार नहीं है, लेकिन यह एक बेहद प्राथमिक इतिहास है.
भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी-भाकपा, 1925 में बनी थी. भाकपा (मार्क्सवादी), जिसे हम सीपीएम कहते हैं, 1964 में भाकपा से टूटी थी और एक नयी पार्टी बनी थी. दोनों निस्संदेह, संसदीय राजनीतिक दल थे. 1967 में सीपीएम कांग्रेस से अलग हुए एक समूह के साथ बंगाल में शासन में आयी. उस समय देहातों में भारी भुखमरी चल रही थी. स्थानीय सीपीएम नेताओं, कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने नक्सलबाड़ी जिले में किसान विद्रोह का नेतृत्व किया, जहां से नक्सलवादी शब्द आया है. 1969 में सरकार गिर गयी और कांग्रेस सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में सत्ता में आयी. नक्सली उभार निर्दयता से कुचल दिया गया. महाश्वेता देवी ने इस दौर पर सशक्त ढंग से लिखा है. 1969 में सीपीआइ (एमएल)-मार्क्सवादी लेनिनवादी सीपीएम से टूटी. कुछ समय बाद, 1971 के आसपास, सीपीआइ (एमएल) अनेक पार्टियों में विभक्त हो गयी; मुख्यत: बिहार में केंद्रित सीपीआइ-एमएल (लिबरेशन), आंध्रप्रदेश और बिहार के अधिकतर हिस्सों में कार्यरत सीपीआइ-एमएल (न्यू डेमोक्रेसी) और मुख्यत: बंगाल में सीपीआइ-एमएल (क्लास स्ट्रगल). ये पार्टियां सामान्यत: नक्सलाइट कही गयीं. वे खुद को मार्क्सवादी लेनिनवादी के तौर पर देखती रहीं, न कि माओवादी के रूप में. वे चुनाव, जन कार्रवाई-और जब उन्हें विवश किया गया या उन पर हमला किया गया-तो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखती हैं. तब मुख्यत: बिहार में सक्रिय एमसीसी-माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर 1968 में बना था. हाल में, 2004 में, एमसीसी और पीपुल्स वार ने आपस में विलय कर सीपीआइ- माओवादी का गठन किया. वे एकदम सशस्त्र संघर्ष और राजसत्ता को उखाड़ फेंकने में यकीन रखते हैं. वे चुनाव में भाग नहीं लेते. यह वह पार्टी है जो बिहार, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में गुरिल्ला युद्ध चला रही है.

शोमा चौधरी : भारतीय राजसत्ता और मीडिया समान्यत: माओवादियों को एक ‘आंतरिक सुरक्षा’ के खतरे के रूप में देखते हैं. क्या उन्हें देखने का यह तरीका है?
अरुंधति राय : मैं इसको लेकर निश्चित हूं कि माओवादी खुद को इस तरीके से देखे जाने से खुश ही होंगे.

शोमा चौधरी : माओवादी राजसत्ता को गिराना चाहते हैं. इन निरंकुश सिद्धांतों से, जिनसे वे प्रेरणा लेते हैं, वे क्या विकल्प बना पायेंगें? क्या उनका शासन उत्पीड़क, निरंकुश, अहिंसक नहीं होगा? क्या उनकी कार्रवाई पहले से ही आम जनता की उत्पीड़क नहीं है?
अरुंधति राय : मैं सोचती हूं कि यह जानना हमारे लिए महत्वपूर्ण है कि माओ और स्टालिन दोनों हत्यारे अतीत के संदिग्ध नायक रहे हैं. करोड़ों लोग उनके शासनकाल में मारे गये. जो चीन और सोवियत संघ में हुआ उसके अलावा, पोलपोट ने चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी के समर्थन से (जब पश्चिम जान-बूझ कर दूसरी ओर देख रहा था) 20 लाख लोगों को कंबोडिया से भगा दिया और लाखों लोगों को बीमारियों और भुखमरी से विलुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया. क्या हम यह दावा कर सकते हैं कि सांस्कृतिक क्रांति नहीं हुई होती. अथवा सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के लाखों लोग लेबर कैंपों, यातना कक्षों, जासूसों और मुखबिरों के जाल और खुफिया पुलिस के शिकर न हुए होते. इन शासनकालों का इतिहास उतना ही काला है, जितना कि पश्चिमी साम्राज्यवाद का इतिहास, अपवाद स्वरूप यह तथ्य है कि उनका जीवनकाल बेहद छोटा रहा है. हम इराक, फलस्तीन और कश्मीर पर कब्जे की निंदा नहीं कर सकते हैं, यदि हम तिब्बत और चेचेन्या के बारे में चुपी साधे रहें. मैं माओवादियों-नक्सलवादियों-के लिए कल्पना करूंगी, उसी तरह जैसे मुख्यधारा के वामपंथ के लिए, अपने अतीत के प्रति ईमानदार होने की, जो कि लोगों में भविष्य के प्रति विश्वास को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण है. हम उम्मीद कर सकते हैं कि इतिहास दोहराया नहीं जायेगा, लेकिन यह दावा करना कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं, आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद नहीं करेगा. इस पर भी नेपाल में माओवादियों ने राजशाही के खिलाफ एक बहादुराना और सफल लड़ाई लड़ी. अभी भारत में माओवादी और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह तीव्र अन्याय के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं. वे केवल राजसत्ता से ही नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि सामंती जमींदारों और उनकी सशस्त्र सेना से भी. वे अकेले लोग हैं जो कुछ सार्थक कर रहे हैं. और मैं इसकी प्रशंसक हूं. यह हो सकता है कि जब वे सत्ता में आयें, जैसा आप कह रही हैं, वे निर्दयी, अन्यायी और निरंकुश हो जायें, या वर्तमान सरकार से भी बदतर हो जायें. हो सकता है, मगर मैं इसे इतना पहले से मान लेने को तैयार नहीं हूं. यदि वे वैसा हुए तो हम उनके खिलाफ लड़ेंगे. और यह ज्यादा संभव है कि मेरे जैसा ही कोई वह पहला आदमी होगा, जिसे वे नजदीक के पेड़ पर लटकायेंगे. लेकिन फिर भी, यह जानना महत्वपूर्ण है कि वे प्रतिरोध के अग्रिम मोरचे का आवेग झेल रहे हैं. हममें से अनेक ऐसी स्थिति में हैं, जहां हम खुद को उनकी तरफ खिंचते हुए पाते हैं, जिनके धर्म में या विचारधारात्मक परिकल्पना में हमारे लिए कोई जगह नहीं है. यह सही है कि हरेक आदमी तेजी से बदलता है, जब वह सत्ता में आता है-मंडेला की एएनसी को देखिए. भ्रष्ट, पूंजीवादी, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सामने दंडवत, गरीबों को उनके घरों खदेड़नेवाले, लाखों कम्यूनिस्टों के हत्यारे सुहार्तो को दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से सम्मानित करती है. किसने सोचा था कि ऐसा हो सकता है? लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि दक्षिण अफ्रीकियों को रंगभेद के खिलाफ संघर्ष से पीछे हट जाना चाहिए था? या उन्हें इस पर पछताना चाहिए? क्या इसका मतलब यह है कि अल्जीरिया को फ्रांसीसी उपनिवेश बने रहना चाहिए था, कि कश्मीरियों, इराकियों और फलस्तीनियों को सैन्य कब्जा स्वीकार कर लेना चाहिए? उन लोगों को, जिनकी गरिमा अपमानित हुई हो, लड़ना चाहिए, क्योंकि वे लड़ाई में नेतृत्व के लिए संतों को नहीं पा सकते.

शोमा चौधरी : क्या हमारे समाज में परस्पर संवाद भंग हुआ है?
अरुंधति राय : हां.



वर्धा शिबिर में महात्मा
http://www.golwalkarguruji.org/thoughts-72

गांधी ने अनुभव किया कि सभी शिबिरार्थी एक समान धारातल पर हैं। अस्पृश्य-स्पृश्य ऐसा कोई भाव उनमें नहीं है। पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में महामानव डॉ. बाबासाहब अंबेडकरजी को भी इसी सत्य का अनुभव आया। संघ शाखा से संस्कारित हिंदू केवल हिंदूभाव जानता है, उसे अपने जन्मजाति का विस्मरण हो जाता है। संघ में न आनेवाले, संघ के बाहर जो विशाल हिंदू समाज है उसके मन को कैसे साफ किया जाय यह समस्या है। श्री गुरुजी का चिंतन इस प्रकार है।

''अस्पृश्यता रोग की जड़ जनसामान्य के इस विश्वास में निहित है कि यह धर्म का अंग है और इसका उल्लंघन महापाप होगा। यह विकृत धारणा ही वह मूल कारण है, जिससे शताब्दियों से अनेक समाज-सुधारकों एवं धर्म-धुरंधारों के समर्पित प्रयासों के बाद भी यह घातक परंपरा जनसामान्य के मन में आज भी घर किए बैठी है।''
जनसामान्य के मन में घर किए बैठी इस घातक परंपरा को निकालने का काम धर्माचार्यों का है।

विश्व हिंदू परिषद का माध्यम श्री गुरुजी ने इसके लिए उपयुक्त समझकर अस्पृश्यता का कलंक मिटाने का प्रयास किया। इस संदर्भ में प्रयाग (1966) उडुपी (1969) सम्मेलन का काफी महत्त्व है। प्रयाग के सम्मेलन में परधर्म में गए हिंदुओं के घर वापसी का प्रस्ताव पारित किया गया और ''न हिन्दू: पतितो भवेत्'' की उद्धोषणा की गई। उडुपी का सम्मेलन 'अस्पृश्यता धर्म सम्मत नहीं - 'हिंदव: सोदरा: सर्वे' उद्धोषणा से विख्यात है।

उडुपी के ऐतिहासिक सम्मेलन के बारे में श्री गुरुजी के विचार इस प्रकार हैं- ''इस दिशा में 1969 में विश्व हिंदू परिषद के उडुपी सम्मेलन में एक सही शुरुआत की गई। इसमें शैव, वीरशैव, मधव, वैष्णव, जैन, बौध्द आदि समस्त हिंदू संप्रदायों का प्रतिनिधित्व हुआ था। सम्मेलन में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर संपूर्ण हिंदू जगत् का आह्वान किया गया कि वे श्रध्देय व धार्मगुरुओं के निर्देशानुसार अपने समस्त धार्मिक व सामाजिक अनुष्ठानों से अस्पृश्यता को निकाल बाहर करें।''
''पूज्य धर्माचार्यों का ऐतिहासिक निर्देश इस प्रकार है, समस्त हिंदू समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संगठित करने एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विश्वभर के हिंदुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं समानता की भावना को बराबर रखना चाहिए।'' इस प्रस्ताव का महत्त्व विशद करते हुए श्री गुरुजी का मन्तव्य इस प्रकार है, ''नि:संदेह उस प्रस्ताव की स्वीकृति हिंदू समाज के इतिहास में क्रांतिकारी महत्त्व का कदम माना जा सकता है। यह एक विकृत परंपरा पर सच्ची धर्म-भावना की विजय का स्वर्णिम क्षण था''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 337-338)

अस्पृश्यता निर्मूलन के लिए बड़ा संघर्ष डॉ. बाबासाहब अंबेडकरजी ने किया था। महाड सत्याग्रह तथा नासिक कालाराम मंदिर सत्याग्रह में उनकी धारणा यही थी कि अस्पृश्यता धर्ममान्य नहीं है और हिंदू धर्माचार्य खुलकर सामने आए और वैसा कहे भी। दुर्भाग्यवश यह हो नहीं पाया। डॉ. बाबासाहब का अधूरा कार्य श्री गुरुजी ने उडुपी में कर दिखाया।

उडुपी सम्मेलन का एक प्रसंग ऐतिहासिक है। इस सम्मेलन में श्री. आर. भरनैय्या सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी तथा कर्नाटक पब्लिक सर्विस कमिशन के सदस्य उपस्थित थे। वे खुद अस्पृश्य कहलाने वाले जाति के थे। उन्हीं की अध्यक्षता में संपन्न सत्र में ''हिंदव: सोदरा: सर्वे'' का प्रस्ताव पारित हुआ। उस पर विविध भाषण हुए। सभी प्रमुख धर्माचार्यों ने अपने मत प्रगट किए। कार्यक्रम समाप्ति के बाद मंच से उतरते ही श्री. भरनैय्याजी ने श्री गुरुजी को दृढ़ आलिंगन दिया। उनकी ऑंखों से ऑंसू निकल रहे थे। गद्गद् होकर वे बोले - ''आप हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़े। इस उदात्त कार्य को आपने हाथ में लिया है, आप हमारे पीछे खड़े हो गए यह आपका श्रेष्ठ भाव है।''
(राष्ट्र-ऋषि श्रीगुरुजी खंड 2, पृष्ठ 64)

महात्मा गांधीजी ने अस्पृश्यों के लिए 'हरिजन' शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द पर कड़ी आपत्ति डॉ. भीमराव अंबेडकरजी ने उठाई थी। अलग शब्द से पृथकता बढ़ेगी, मन का भाव नहीं बदलेगा ऐसा उनका कहना था। श्री गुरुजी ने भी हरिजन शब्द प्रयोग पर आपत्ति उठाई थी। ''एक बार गांधीजी से भेंट होने पर मैंने यह आशंका व्यक्त की कि 'हरिजन' शब्द चाहे जितना भी पवित्र क्यों न हो किंतु इसका नवीन प्रचलन भी अलगाववादी चेतना को जन्म देगा और सामाजिक एकता के लिए घातक राजनीतिक स्वार्थसमूहों का निर्माण करेगा। किंतु गांधीजी इससे आशंकित नहीं दिखे। दुर्भाग्यवश तब से यह खाई पटने के बजाय वर्ष-प्रतिवर्ष और चौड़ी होती जा रही है।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 337-339)

अस्पृश्यता मिटाने के कुछ उपायों की भी चर्चा श्री गुरुजी ने की है -

प्रश्न : अस्पृश्यता की समस्या कैसे हल होगी?
श्रीगुरुजी : अस्पृश्यता की समस्या अत्यंत विकट हो गई है, किंतु वह स्वयमेव सुलझने के मार्ग पर है। वह जितना शीघ्र सुलझे, उतना ही उत्तम होगा। तथापि 'अस्पृश्यता निवारण अभियान' का ढिंढोरा पीटते हुए कदम उठाने से 'निवारण' के बजाय 'संघर्ष' ही बढ़ता है और दुराग्रह निर्माण होकर इष्ट हेतु साध्य होने के स्थान पर समस्या और भी अधिक जटिल हो जाती है। इसलिए हमारा यह प्रयास है कि अस्पृश्य माने जानेवालों का शुध्दीकरण करने से भी अत्यंत सरल कोई विधि तैयार की जाए। धर्मगुरुओं द्वारा यह विधि बनाई गई और उसे स्वीकृति दे दी गई, तो उस विधि के पीछे प्रत्यक्ष धर्म की ही शक्ति खड़ी हो जाएगी और विरोधकों का विरोध ढीला पड़ जाएगा।

प्रश्न : क्या आपको लगता है कि यह विधि इतनी आसान होगी?
उत्तर : इतनी सरल कि गले में माला डालकर प्रणाम और नामस्मरण कर लेना मात्र पर्याप्त होगा।
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 9, पृष्ठ 169-170)

श्री गुरुजी द्वारा सुझाए मार्ग पर पुणे स्थित एक गणमान्य महानुभाव श्री शिरूभाऊ लिमये ने आपत्ति उठाई और प्रश्न किया -
लिमये : अस्पृश्यता समाप्त करने का सरल मार्ग आपने सुझाया है, ऐसा आप कहते हैं। पर अस्पृश्य कौन है? यह मेरी धारणा है कि अस्पृश्यों को शुध्द करने का अधिकार इन धार्माचार्यों को किसने दिया? हम इन्हें धर्माचार्य नहीं मानते।
श्री गुरुजी : कुछ बातों पर हमें विशेष ध्यान देना होगा। अस्पृश्यता केवल अस्पृश्यों का ही प्रश्न नहीं है। कौन कहाँ जन्म लेता है यह किसी के वश की बात नहीं है। मैं इसी कुल में जन्म लूँगा यह कोई नहीं कह सकता। अत: अस्पृश्यता, सवर्णों के संकुचित मनोभावना का नामकरण है। अतएव अस्पृश्यता समाप्त करना इसका तात्पर्य उस संकुचित भावना को समाप्त करना है। इसी प्रकार आप या मैं धर्माचार्यों को मानता हूँ या नहीं, इससे कोई संबंध नहीं है। जो अस्पृश्यता मानते हैं वे धर्माचार्यों को मानते हैं। अतएव धर्माचार्यों के माध्यम से इस प्रश्न को सुलझाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विगत कई वर्षोंसे मेरे अनेक धर्माचार्यों एवं शंकराचार्यों से निकट के संबंध रहे हैं। जिससे मैं यह कह सकता हूँ कि धर्माचार्य यह कार्य अवश्य करेंगे। अर्थात् अस्पृश्यता समाप्त करने का कार्य अनेकों ने किया है। महात्मा गांधी का इसमें गुरुतर सहयोग है। अस्पृश्यता निवारण में जो पचासों प्रयोग हो रहे हैं, उसमें मेरा भी एक योगदान है। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि अपना देश इंग्लैंड या अमरीका जैसा संवैधानिक विचारधारावाला (constitution-minded) नहीं है। अपितु वह धर्मानुरूप व्यवहार करनेवाला है। हम प्राय: देखते हैं कि अनेक स्थानों पर घरों में भूमिपूजन, वास्तुशांति अथवा गृहप्रवेशादि अवसरों पर धार्मिक कार्य किए जाते हैं। इस प्रकार धार्मिक कार्यों द्वारा सारे संकटों का, अनिष्टों का परिमार्जन होता है, ऐसी धारणा रूढ़ है। विवाहादि में भी यही देखा जाता है। स्त्री-पुरुष एकत्र आने पर उनके संसार नहीं चलेंगे अथवा संतान नहीं होगी ऐसी कोई बात नहीं है। परंतु समाज इसे स्वीकार नहीं करता। किंतु यदि समाज को ज्ञात हो जाए कि उनका विवाह हुआ है, उन पर धार्मिक संस्कार हुए हैं, तब समाज उन्हें सहज स्वीकार कर लेता है। अपने राज्य में भी यहाँ के समाजवादी मुख्यमंत्री ने कोयना बाँध निर्माण कार्य के पूर्व नाव से कोयना नदी की मुख्य जलधारा में खड़े होकर उसकी सौभाग्य द्रव्यों से विधिवत् अर्चना की। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? जब किसी महत्वपूर्ण कार्य को सामाजिक मान्यता मिल जाती है तब वह शंकातीत हो जाता है तथा यह धार्मिक मान्यता सर्वसामान्य समाज को संतुष्ट करती है। दूसरा यह कि मैंने सुझाए गए उपाय में यह कहा है कि तथाकथित अस्पृश्य बंधुओं ने रामनाम का उच्चारण करना चाहिए एवं हिंदू धर्माचार्यों ने उन्हें माला पहनानी चाहिए। यद्यपि राज्य संविधान के अनुसार अस्पृश्यता समाप्त हो गई है, ऐसा हम मान भी लें, तब भी अनेकों के मन में आशंका या ऐंठ बनी रहे, तब धर्माचार्यों की इस कृति से इन अस्पृश्यों के पीछे धर्म की मान्यता ढाल बन कर खड़ी है, यह धारणा बनती है। यदि इक्का-दुक्का इस आशंका या ऐंठ से ग्रसित हो तब चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 9, पृष्ठ 179-181)

श्री गुरुजी के जीवनदर्शन का सबसे बड़ा वैशिष्टय यह था कि वे जैसा बोलते थे वैसा ही व्यवहार किया करते थे। तत्त्वचर्चा में जातिभेद - अस्पृश्यता का खंडन और व्यवहार में उसका आचरण ऐसी बात उनके जीवन में नहीं थी। दो उदाहरण यहाँ पर्याप्त होंगे। बिहार की एक उपेक्षित बस्ती में श्री गुरुजी गए थे। बस्ती के लोगों ने उनका स्वागत किया, गपशप हुई, चायपान हुआ और वे गाड़ी से आगे निकल पड़े। थोड़े ही समय के बाद गाड़ी के (ड्रायवर को) चालक को मिचली-सी आ गई और उल्टी हुई, थोड़ी देर बाद एक-एक कर के अन्य चार लोगों को भी उल्टी हो गई। सारे लोग श्री गुरुजी को उल्टी होने की राह देखने लगे और चायपान के संबंध में बातें करते रहे। श्री गुरुजी पर इस बात का कोई असर न हुआ और उन्हें उल्टी भी न हुई। उनके सहकारियों ने उनकी पचनशक्ति के बारे में पूछा, तब श्रीगुरुजी ने कहा, आप लोगों का ध्यान बस्ती की अस्वच्छता, गंदगी पर रहा, उस की जगह उन लोगों के आतिथ्य, अकृत्रिम स्नेह की तरफ आप लोग ध्यान देते तो आपको चाय हजम हो जाती। आपने वहाँ की गंदगी पी डाली और मैंने वहाँ का प्यार, स्नेह। उसी अमृत पर तो मैं जी रहा हूँ। उसी से मेरा पोषण होता है, तो ऐसे स्नेह से मिचली कैसे हो?
(तेजाची आरती, ले. ह. वि. दात्ये, पृ. 169-170)

1950 के पुणे के संघ-शिक्षा-वर्ग का प्रसंग है। 1300 के आस-पास स्वयंसेवक थे। भोजन के समय जलेबी भी बनाई गई थी। उसके वितरण के लिए अधिकारीवर्ग की देखरेख में योजना बनी। श्री मोरोपंत पिंगले, श्री सीतारामपंत अभ्यंकर आदि अन्य अधिकारी निरीक्षण कर रहे थे। श्री गुरुजी उनके पीछे-पीछे थे। कई स्वयंसेवकों का नाम लेकर आग्रहपूर्वक उन्हें खिला रहे थे। दूसरी पंक्ति में अधिकारी वर्ग भोजन के लिए बैठा। आठ- नौ स्वयंसेवकों को वितरण के लिए कहा गया। एक स्वयंसेवक वितरण न करके, वैसे ही बैठा रहा। श्री गुरुजी का ध्यान उसकी तरफ गया। भोजन शुरू होने के पूर्व ही वे उसके पास गए और कहा - तू कैसे बैठा है? वितरण कर। उस स्वयंसेवक को बहुत संकोच हो रहा था। वह नारायण 'चर्मकार' था, इसलिए संकोच कर रहा था। जब उसने श्री गुरुजी को बताया तो श्री गुरुजी को बहुत खराब लगा। श्रीगुरुजी ने उसका हाथ पकड़ करके जलेबी की थाली उसके हाथ में दी। सर्वप्रथम अपनी थाली में परोसने को श्री गुरुजी ने कहा, फिर सब स्वयंसेवकों को देने के लिए कहा। यह प्रसंग है छोटा परंतु जीवन भर याद रहेगा, एक अत्यंत कठिन समस्या का अत्यंत सरल उत्तर अपने आचरण से देने वाला।
(श्रीगुरुजी जीवन-प्रसंग: भाग 2, पृष्ठ 160-161)

अस्पृश्य बंधुओं ने खुद को अस्पृश्य या हीन-दीन नहीं समझना चाहिए, ऐसी श्री गुरुजी की धारणा थी। एक स्वयंसेवक ने श्री गुरुजी से प्रश्न किया ''मैं पिछड़ी जाति का हूँ। संघ में केवल सवर्ण ही नजर आते हैं। पिछड़ी एवं अनुसूचित जाति के लोगों का यथोचित प्रतिनिधित्व नहीं दिखाई देता है। इस प्रकार विषमता का व्यवहार क्यों रखा गया है? श्री गुरुजी का उत्तर इस प्रकार था -
श्री गुरुजी - किसी जाति के या पिछड़ी - सवर्ण जैसी पृथकता मैंने तो संघ में कभी भी अनुभव नहीं की है। पिछड़ी जाति के या अनुसूचित जाति के लोग अपने को पिछड़े या अनुसूचित क्यों समझ बैठे हैं, किसी की समझ में आना कठिन है। अपनी जाति या गुट का ही विचार उनके दिमाग पर सवार रहना ठीक नहीं है। दिल और दिमाग पर हावी हुआ यह विचार इसलिए अब तक चलता आ रहा है, क्योंकि कुछ लोग इससे फायदा उठाना चाहते हैं और इस प्रवृत्ति को राजनीति खेलनेवाले नेता प्रोत्साहित करते रहते हैं। ऐसे विकृत विचारों से संघ दूर है। जाति, भाषा या अन्य तथाकथित भेदों का विचार छोड़कर हम अपने हिंदू समाज को संगठित करना चाहते हैं। प्रत्येक स्थान पर संघ का काम बंधुवत आपसी स्नेहभाव को वृध्दिंगत करने पर ही आधारित है। किसी एक या दूसरे जाति विशेष के लिए नहीं, अपितु संपूर्ण समाजजीवन सुसंगठित करने का हम प्रयत्न करते हैं। अस्पृश्यता निवारण (निर्मूलन) के लिए समाज में संघर्ष करना चाहिए, आंदोलन करना चाहिए, कोई ठोस प्रोग्राम देना चाहिए ऐसी धारणा अनेक लोगों की है। संघर्ष या आंदोलन से अस्पृश्यता समाप्त होगी इस पर श्री गुरुजी का विश्वास नहीं था। आंदोलन तथा संघर्ष से केवल पृथकता ही बढ़ेगी, एकात्मता, समरसता निर्माण नहीं होगी, ऐसा उनका पक्का विश्वास था। इस संदर्भ में श्री गुरुजी की सोच इस प्रकार की थी।
(1972 में ठाणे में अखिल भारतीय वर्ग हुआ। इस वर्ग में हुए प्रश्नोत्तार में से एक प्रश्नोत्तर)

प्रश्न - संघ में अस्पृश्यता नहीं मानते, परंतु समाज में उसका निवारण करने के लिए और भी कोई प्रोग्राम लेने का हम सोच सकते हैं क्या?
उत्तर - उसका कोई प्रोग्राम लेने से काम बनेगा क्या? महात्माजी ने अस्पृश्यता निवारण को कांग्रेस के कार्यक्रम में सम्मिलित करवाया और उसके लिए बड़े प्रयत्न किए। उसका परिणाम है कि हरिजन दूर गए। अलग नाम देने से पृथक्ता की भावना बढ़ी। गांधीजी ने तो यह नाम इसलिए दिया था कि पुराने नामों के साथ जो सहचारी भाव है, उसके कारण जो भाव मन में उत्पन्न होते हैं, वे 'हरिजन' नाम के साथ उत्पन्न नहीं होंगे। उन्होंने सोचा तो ठीक था, परंतु वह भाव दूर नहीं हुआ।

एक हरिजन नेता से डॉक्टर हेडगेवारजी का और मेरा, हम दोनों का संबंध था। वे कहते थे संघकार्य बहुत अच्छा है परंतु संघ हमारा सच्चा शत्रु है। क्योंकि बाकी सब हमारा पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं। हमारे पृथक् अधिकार की बातें करते हैं, परंतु संघ में जाकर हमारी पृथक्ता समाप्त हो जाएगी और हम केवल हिंदू रह जाएँगे। फिर विशेषाधिकार कैसे मिलेंगे? पृथक्ता का भाव उनमें कटुता तक पहुँच गया था। इसी कटुता और पृथक्ता के भाव के कारण उनके मनमें यह विचार आया कि यदि हिंदू समाज में डूब गए तो हमारा क्या होगा? 1941 में एक महार लड़का मुझसे मिलने आया। उसने पूछा कि संघ में आने से हमें क्या लाभ होगा? मैंने कहा कि तुम अपने को पृथक मानते हो और दूसरे तुमको पृथक मानते हैं, यह पृथकता की दीवार ढह जाएगी। यह लाभ है या नहीं? पृथकता का पोषण न करते हुए उनकी व्यथाएँ दूर होगी ऐसा यदि कुछ सोच सकते हैं, तो सोचना होगा। अन्यथा समस्याएँ खड़ी होंगी। छुआछूत का भाव बहुत गहरा पहुँचा हुआ है। ब्राह्मणों में भी छोटी बड़ी जातियाँ हैं। जिसमें एक दूसरे के हाथ का पानी नहीं पीते थे। अब तो सब ठीक हो गया है, परंतु पहले यह छुआछूत भावना होती थी। हरिजनों में भी एक दूसरे की छाया तक सहन न करनेवाले लोग हैं। ''प्रॉब्लेम इज कोलोसल''। अस्पृश्यता, केवल ब्राह्मण आदि ही पालन करते हैं, इतना कहना पर्याप्त नहीं है। इसमें बहुत परिश्रम करना पड़ेगा बहुत शिक्षा देनी होगी। पुराने संस्कार धोने होंगे, नए देने होंगे। बहुत वर्षों से अंदर घुसी हुई ऐसी ये विचित्र भावनाएँ हैं, जिन्हें बल से दूर करने से काम नहीं चलेगा। इससे पृथकता बढ़ेगी। इस संबंध में बहुत सोचना पड़ेगा। जिन्हें अस्पृश्य कहा गया उनके बारे में तनिक-सा भी हीन भाव श्री गुरुजी के व्यवहार में नहीं था। अपने बंधुओं के बारे में अत्यंत गौरवपूर्ण शब्दों में वे कहते हैं-यह कहना कि ये तथाकथित अस्पृश्य जातियाँ मन-मस्तिष्क संबंधी गुणों में आनुवांशिक रूप से ही अक्षम हैं और वे आनेवाले दीर्घ काल तक शेष समाज के स्तर तक नहीं पहुँच सकती, उनका अपमान ही नहीं, बल्कि तथ्यों का विडंबनापूर्ण उपहास भी है। इतिहास साक्षी है कि गत एक हजार वर्षों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में ये तथाकथित अस्पृश्य ही अग्रणी रहे हैं। महाराणा प्रताप, गुरुगोविंदसिंह और छत्रपति शिवाजी की सेनाओं के सर्वाधिक पराक्रमी व कट्टर योध्दाओं में यही लोग रहे हैं। दिल्ली तथा बीजापूर की विद्रोही शक्तियों के विरुध्द छत्रपति शिवाजी के कुछ अति महत्तवपूर्ण युध्दों में हमारे इन्हीं शूरवीर और साहसी बंधुओं ने मानव आपूर्ति एवं नेतृत्व प्रदान किया था।
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 341)

अपने आध्यात्मिक जगत् में अपने इन बंधुओं का योगदान भी अतीव श्रेष्ठ है। उत्तर में रैदास, महाराष्ट्र में चोखामेला, इतना ही नहीं तो रामायण और महाभारत के रचयिता भी उच्च जाति के नहीं थे। ऐसे श्रेष्ठ महापुरुष निर्माण करने वाली इन जातियों की अवहेलना करना पाप है। श्री गुरुजी का मन्तव्य ऐसा है - ''इन जातियों में ऐसे असंख्य साधु संन्यासियों ने जन्म लिया है, जिन्होंने हमारे समाज के सभी वर्गों की असीम श्रध्दा-भक्ति प्राप्त की है। इन भाइयों में हमारे धर्म के प्रति अटूट श्रध्दा तथा विश्वास, संपूर्ण समाज-हेतु सदैव प्रेरणादायक रहा है। धर्म के नाम पर शेष समाज के हाथों सभी प्रकार का अपमान तथा उत्पीड़न सहकर भी इन बंधुओं ने धर्म-परिवर्तन के प्रलोभनों का दृढ़ता से प्रतिकार किया है। देश-विभाजन के दौर में बंगाल के लाखों नामशूद्रों-अछूतों - ने इस्लाम ग्रहण कर अपने प्राण बचाने के स्थान पर अवर्णनीय कष्ट सहन करना अधिक पसंद किया। बाद में इन्हें भारत के सीमा-क्षेत्रों में ही हिंदू के रूप में अप्रवासी (निर्वासित) बनना पड़ा।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 341)

आज समाज में चातुरर्वण्य, जातिव्यवस्था, अस्पृश्यता का जो चित्र दिखता है वह सामाजिक समरसता के लिए अत्यंत बाधक है। श्री गुरुजी इस सामाजिक रोग का जड़ से निर्मूलन चाहते थे। इस संदर्भ में उनकी सोच ऊपर-ऊपर की नहीं थी। 'ऑपरेशन सक्सेसफुल, पेशंट इज डेड' जैसी उपाय-योजना वे नहीं चाहते थे। इसलिए चातुरर्वण्य क्या है, जातिव्यवस्था क्या थी इसकी वे शास्त्रीय चिकित्सा करते हैं। आज उसकी कोई उपयुक्तता नहीं रही यह भी बताते हैं । आज सर्व प्राथमिक आवश्यकता समाज में एकात्म भाव जगाने की है। इसी भाव- जागरण से समाज में समरसता निर्माण होगी ऐसा उनका विश्वास था। श्रीगुरुजी का मार्ग अन्य सभी मार्गों से अलग था। जो लोग सामाजिक संघर्ष के रास्ते पर चल रहे थे, या जो लोग हरिजन उध्दार के रास्ते पर चल रहे थे उन्होंने या तो श्री गुरुजी को समझा नहीं या जानबूझकर उनके बारे में गलत-फहमियाँ निर्माण की। इससे श्री गुरुजी नामक व्यक्ति का कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन सामाजिक समस्याएँ और विकराल बनती चली जा रही हैं। इतिहास जब निरपेक्ष भाव से जाति निर्मूलन अभियान का लेखा-जोखा लेगा तब उसे यह मान्य करना पड़ेगा कि श्री गुरुजी की भूमिका समाज के सार्वत्रिक और सार्वकालिक कल्याण की थी।



वर्णव्यवस्था
http://www.golwalkarguruji.org/thoughts-70

श्री गुरुजी के संदर्भ में जानबूझकर एक गलत अवधारणा फैलाई गई है कि श्री गुरुजी विषमतामूलक चातुरर्वण्य के पक्षधर थे। चातुरर्वण्य व्यवस्था को फिर से हिंदू समाज में क्रियान्वित करना यही उनका हेतु था। समाज चार वर्णों में तथा हजारों जातियों में बँटा रहे यही उनकी मनीषा थी। वास्तविकता इससे बिल्कुल उलटी है। इसीलिए वास्तविकता को समझना नितांत आवश्यक है। समाज एक जीवमान संकल्पना है, ऐसी श्री गुरुजी की मान्यता थी। वे खुद विज्ञान के छात्र थे, इसीलिए 'अमिबा' नामक एक- पेशीय जीव का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे बताते हैं कि जिस प्रकार एक- पेशीय अमिबा का विकास होते जाता है, 'वैसे-वैसे जीवों की जातियाँ बनने लगती हैं, बढ़ती हुई क्रियाओं को पूर्ण करने के लिए उनके विविध अंग होते हैं, अंत में मनुष्य शरीर बनता है जो अनेक अंगों से संघटित एक अत्यंत संश्लिष्ट यंत्र है।'
(अ.भा. जिला प्रचारक वर्ग, सिंदी, विदर्भ - 1954)

मानव शरीर में विविध अवयव होते हैं, उनके आकार और कार्य भी अलग- अलग होते हैं। लेकिन कोई भी अवयव शरीर की बुराई के लिए काम नहीं करता। परस्परपूरक तथा परस्पर-अनुकूल व्यवहार उनका होते रहता है। शरीर रचना और उनके विभिन्न अंगों में विद्यमान सामरस्य भाव समाज में भी उत्पन्न हो सकता है, ऐसी श्री गुरुजी की मान्यता थी।

श्री गुरुजी का कहना है कि 'समाज एक जीवित वस्तु है (और) मानव-शरीर रचना जीवन के विकास का सर्वोत्तम रूप है और इसलिए यदि किसी जीवमान स्वरूप की रचना करनी हो, तो वह उसके ही अनुरूप होनी चाहिए। समाज रचना भी यदि जीवमान मानव के अनुरूप ही की, तो वह निसर्ग के अनुकूल होने के कारण अधिक उपयुक्त होगी।'
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 2, पृष्ठ 125)

जीवमान मानव के अनुरूप समाज की रचना कैसी बनाई जा सकती है, यह एक जटिल प्रश्न है। मनुष्य तो एक अकेला होता है, उसके जीवमान स्वरूप को हम देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं। समाज तो मानवों का समूह रहता है। समाजपुरुष नाम से किसी एक जीवमान इकाई को देखना, अनुभव करना इतना आसान काम नहीं है। ऐसी सारी समस्या रहते हुए भी समाज को एक जीवमान स्वरूप में खड़ा करने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने किया था। इस संदर्भ में श्री गुरुजी कहते हैं, ''अपने पूर्वजों ने यह भी सोचा कि समाज जीवन की रचना ऐसी करनी है, जहाँ समान गुण एवं समान अंत:करणवाले व्यक्ति एकत्र आ कर, विकास करते हुए, जीवनयापन करने के लिए, जिस मार्ग से वे अधिक उपयोगी सिध्द हो सकें, उसके अनुसार चल सकें।''

जीवमान मानव के अनुसार समाज की भी जीवमान रचना करने का प्रयास याने चातुरर्वण्य है। श्री गुरुजी इसे अपने समाज रचना की विशेषता मानते थे। आज चातुरर्वण्य के विषय में निंदाजनक बोलना-लिखना एक फैशन-सा बन गया है। श्रीगुरुजी ने इस populist मार्ग को स्वीकार नहीं किया। विषय की शास्त्रीय चिकित्सा करते समय वे कभी भी apologetic नहीं रहे। चातुरर्वण्य के आज के भेदभावजनक रूप के भी वे कड़े आलोचक रहे हैं। उनका कथन इसप्रकार है, ''अपने मूल रूप में उस समाजव्यवस्था में घटकों के मध्य बड़े-छोटे अथवा ऊँच-नीच की भावना का कोई स्थान नहीं था। समाज के संबंध में यह भावना रखी गई कि वह उस सर्व शक्तिमान परमात्मा का चतुर्दिक अभिव्यक्त स्वरूप है जो सभी के लिए अपनी - अपनी क्षमता एवं पध्दतियों से पूजनीय है। यदि ब्राह्मण विद्यादान के द्वारा बड़ा हो जाता है, तो शत्रुओं का नाश करने से क्षत्रिय भी समान प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। वैश्य भी कम महत्त्व का नहीं जो कृषि और व्यापार के द्वारा समाज को सुस्थिर रखता है अथवा शूद्र भी कम नहीं है जो अपने कलाकौशल से समाज की सेवा करता है। इन सबके परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहने तथा साथ-साथ परस्पर के 'तादात्म्य भाव से उस पूर्वकालीन समाजव्यवस्था का निर्माण हुआ था।''
(विचार नवनीत, पृष्ठ 109)

हिंदू समाज में जातिप्रथा का उदय कैसे हुआ इसके बारे में श्रेष्ठ विचारकों ने कई सिध्दांत रखे हैं। जिनको आक्रमक आर्य सिध्दांत मान्य हैं वे कहते हैं कि बाहर से आए आक्रामक आर्योंने स्थानीय लोगों को दास बनाकर उनको जातियों में बाँट दिया। इस सिध्दांत के अनुसार आक्रामक आर्य तो यूरोप-रशिया में भी गए, फिर वहाँ के लोगों को उन्होंने जातियों में क्यों नहीं बाँटा? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं। आजकल की आम धारणा यह है कि मनुस्मृति के रचयिता मनु ने जातिभेदों का निर्माण किया है। महामानव डॉ. भीमराव अंबेडकरजी के अनुसार मनु ने जातिप्रथा का निर्माण नहीं किया। जातिप्रथा एक जटिल रचना है और कोई भी व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, ऐसी जटिल व्यवस्था का निर्माण उसके बस की बात नहीं है।

श्री गुरुजी इस प्रकार के किसी सिध्दांत की चर्चा नहीं करते। जातिप्रथा का धीरे-धीरे विकास होता चला गया। अपने पूर्वजों ने मानवी जीवन की रचना चतुर्विधा पुरुषार्थ में की। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गए। मनुष्य जीवन का अंतिम साध्य मोक्ष माना गया। मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य भोग नहीं है। मोक्ष याने शाश्वत सुख की खोज यही उसके जीवन का अंतिम पड़ाव है। अपने भीतर का सुख खोजने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कई विषयों से चिंतामुक्त रहना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिक चिंता जीवन चलाने की होती है, पेट भरने की होती है। अन्न, वस्त्र, आवास ये तीन उसकी प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। उनको पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करने के लिए कष्ट करने पड़ते हैं। दौड़-धूप करनी पड़ती है। अपनी सभी प्रकार की सुरक्षा की भी चिंता प्रत्येक व्यक्ति को रहती है। अगर आदमी चौबीसों घंटे इसी चिंता में व्यस्त रहे, तो उसका पूर्ण विकास कैसे होगा? मानसिक, बौध्दिक, आत्मिक सुख की प्राप्ति उसे कैसे संभव होगी? श्री गुरुजी इन प्रश्नों का उत्तर देते हैं, वे कहते हैं, ''अपने पूर्वज बड़े व्यावहारिक थे। सामान्य मनुष्य की कामना, वासना आदि का विचार करके उसको अंतिम लक्ष्य तक पहुँचाने की कल्पना उनके सामने थी। इसलिए सामान्य मनुष्य को ऐहिक उदर-भरण के बाद उपासना के लिए निश्चित अवकाश मिलना चाहिए, यह उन्होंने समझा और ऐसी व्यवस्था की कि जन्म पाते ही मनुष्य की रोजी बिल्कुल निश्चित हो जाए। उसके लिए व्यक्ति को परंपरा से प्राप्त व्यवसाय के लिए योग्य बनना और परिवार का पोषण करना इतना ही आवश्यक था। ऐसे भिन्न-भिन्न व्यवसाय के लोगों को उन्होंने एकत्र किया और जातिव्यवस्था के रूप में मानो 'नेशनल इंस्योरेन्स स्कीम विदाउट गव्हर्नमेंट इंटरफिअरेन्स (शासकीय हस्तक्षेप बिना राष्ट्रीय बीमा योजना) निर्माण की। अपने जन्मसिध्द व्यवसाय से परिवार का पोषण करना और आनंद से शांतचित्त होकर परम-तत्त्व का चिंतन और सद्गुणों का आह्वान करना यह हो सकता था।
(अ.भ. जिला प्रचारक वर्ग, सिंदी, विदर्भ- 1954)

समाज एक जीवमान संकल्पना होने के कारण हम सब समाज के अंग हैं, एक ही समाज चैतन्य हममें विद्यमान है। उस चैतन्य भव से हम सब समान हैं, परस्पर पूरक हैं, एक दूसरे के साथ समरस हैं ऐसी श्री गुरुजी की धारणा थी। ''इस धारणा के अनुसार एकात्मता का साक्षात्कार करें, सेतुहिमालय सारे राष्ट्र को महान, श्रेष्ठ, दैवी चैतन्यमय व्यक्तित्व के रूप में देखें और उसके अंग होने के नाते अपने को एक समझें, सब अंगों की पवित्रता पर विश्वास करें।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड2, पृष्ठ 102)

मानवी समाज जीवन में निसर्गत: जो असमानता होती है उसे हावी नहीं होने देना यही बुध्दिमानी है। इस असमानता को व्यवसाय निश्चिती, उदरभरण के साधन की निश्चिती, परस्पर सहयोग द्वारा दूर किया जा सकता है। 'मानव प्राणी को उच्चतम सामंजस्य में रहने की योग्यता प्राप्त' करनी पड़ेगी। 'यह एक लंगड़े और अंधे के सहयोग के समान है। लंगडे आदमी को टांग मिली है और अंधे को ऑंख। सहयोग की भावना असमानता की कटुता दूर कर देती है। व्यक्ति और समाज के संबंध का हमारा दृष्टिकोण संघर्ष का न होकर सभी व्यक्तियों में उस एक सत्य का विराजमान होने के बोध से उत्पन्न सामंजस्य और सहयोग का रहा है।'' (विचार नवनीत, पृष्ठ 26-27)

श्री गुरुजी ने 'वर्णव्यवस्था' और 'जातिव्यवस्था' ऐसे शब्द प्रयोग किए हैं। 'वर्णभेद' और 'जातिभेद' ये आज के शब्द हैं। आज का इसका स्वरूप 'अधोमुखी विपर्यस्त' है, ऐसी श्रीगुरुजी की मान्यता थी। वर्णव्यवस्था तथा जातिव्यवस्था के कारण हमारा सब प्रकार का पतन हुआ और पारतंत्र्य में चले गए यह कथन श्री गुरुजी को स्वीकार्य नहीं है। यह कथन 'इतिहास शुध्द' नहीं है। श्री गुरुजी का तर्क इस प्रकार है -
''गत सहस्र वर्षों में जब हमारा राष्ट्र विदेशियों के आक्रमण का शिकार बना, एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता, जिससे यह सिध्द हो सके कि हमारे राष्ट्र की जिस फूट ने विदेशी आक्रांताओं को सहायता की उसके मूल में यह जातिभेद थे। मुहम्मद घोरी के द्वारा दिल्ली के हिंदू राजा पृथ्वीराज की पराजय का कारण जयचंद था, जो उसका जातिबंधु था। जिस व्यक्ति ने जंगलों में राणा प्रताप का पीछा किया, वह मानसिंह भी उनकी जाति का ही व्यक्ति था। शिवाजी महाराज का भी विरोधा उनकी जाति के लोगों द्वारा हुआ। जाति भेद कभी भी इसका कारण नहीं रहा।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 116)
(यही सारे उदाहरण संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकरजी के संविधान सभा में 25 नव. 1949 को दिए हुए आखिरी भाषण में मिलते हैं।)

आगे श्री गुरुजी का तर्क है - ''यदि जातिव्यवस्था ही हमारे दौर्बल्य का मूल कारण होती तो हमारा समाज उन समाजों की भाँति, अति सरलता से विदेशी आक्रमणों के समक्ष पराभूत हो गया होता, जिनमें जातियाँ नहीं थीं।'' मुस्लिम आक्रमकों ने 'अनेकों साम्राज्य - ईरान, मिस्र, रोम, यूरोप तथा चीन तक सभी - जो भी उनके मार्ग में आए उनको पैरों के नीचे कुचल दिया। उन देशों के लोगों में जातियाँ और उपजातियों के भेद नहीं थे। हमारे लोगों ने उन भीषण आक्रमणों का दृढ़ता एवं वीरता से सतत एक हजार वर्ष तक सामना किया और उसके द्वारा विनष्ट होने के स्थान पर अंत में हम शत्रु की समस्त शक्तियों को कुचल कर उसे पूर्ण रूप से नष्ट करने में सफल हुए।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 116-117)

इसका यह अर्थ निकालना कि आज जिस अवस्था में वर्णभेद, जातिभेद है उसे बनाए रखना चाहिए, समाज के लिए आवश्यक है, बिल्कुल गलत होगा। श्री गुरुजी की यह अवधारणा नहीं थी। आज तो केवल विकृति ही बची है। इसलिए उसे समाप्त करना ही उचित होगा। श्री गुरुजी के शब्दों में, ''निस्संदेह आज जाति-व्यवस्था सभी प्रकार से भ्रष्ट हो गई है। मैंने एक बार किसी से कहा था कि नया मकान बनाने के लिए पुराना मकान कई बार तोड़ना पड़ता है। आज जो विकृत बनी हुई समाजरचना है उसको यहाँ से वहाँ तक तोड़-मरोड़ कर सारा ढेर लगा देंगे। उसमें से आगे चलकर जो विशुध्द रूप बनेगा सो बनेगा। आज तो सब का एकरस ऐसा समूह बना कर, अपने विशुध्द राष्ट्रीयत्व का संपूर्ण स्मरण हृदय में रखकर, राष्ट्र के नित्य चैतन्यमय व सूत्रबध्द सामर्थ्य की आकांक्षा अंत:करण में जागृत रखनेवाला समाज खड़ा करना है।''
(इंदौर वर्ग, श्रीगुरुजी समग्र दर्शन खंड 4, पृष्ठ 32/33(पुराना)

अनेकों बार कई कार्यकर्ताओं ने श्री गुरुजी से वर्ण तथा जातिव्यवस्था के बारे में प्रश्न पूछे हैं। इन प्रश्नों के उत्तर में श्रीगुरुजी का वर्ण तथा जातिव्यवस्था के बारे में दृष्टिकोण बिल्कुल साफ हो जाता है। उदाहरण के लिए कुछ प्रश्न और श्री गुरुजी द्वारा दिए गए उनके उत्तर इस प्रकार हैं:-

प्रश्न : यह हिंदू राष्ट्र है इस सिध्दांत पर जो आपत्ति करते हैं वे समझते हैं कि पुराने जमाने में जाति और वर्ण-व्यवस्था थी उसी को लाकर, उसके आधार पर छुआछूत बढ़ाकर ब्राह्मणों का वर्चस्व प्रस्थापित किया जाएगा। ऐसे विकृत विचारों और विपरीत अर्थ का वे हम पर आरोप करते हैं। और कहते हैं कि यह विचार देश के लिए संकटकारी और घातक है।
उत्तर : अपने यहाँ कहा गया है कि इस कलियुग में सब वर्ण समाप्त होकर एक ही वर्ण रहेगा। इसको मानो। वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था का नाम सुनते ही अपने मन में हिचकिचाहट उत्पन्न होकर हम 'अपोलोजेटिक' हो जाते हैं। हम दृढ़तापूर्वक कहें कि एक समय ऐसी व्यवस्था थी। उसने समाज पर उस समय उपकार किया। आज उपकार नहीं दिखता, तो हम उसको तोड़कर नई व्यवस्था बनाएंगे। जीवशास्त्र में विकास बिल्कुल सादी रचना से जटिलता की ओर होता है। जीव की सब से प्राथमिक अवस्था में हाथ, पैर कुछ नहीं होते। मांस का लोथ रहता है। उसी से खाना, पीना, निकालना आदि सब काम वह करता है। जैसे-जैसे उसका विकास होता है, वैसे-वैसे 'फंक्शनल ऑर्गन्स' प्रकट होने लगते हैं। यह 'इव्होल्युशनरी प्रोसेस' सामाजिक जीवन में है। जिन में ऐसा नहीं है वे प्रिमिटिव सोसायटीज हैं । केवल मारक अस्त्र बना लेना विकास नहीं। हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं। उसका कोई अंग अछूत नहीं, हेय नहीं। एक-एक अंग पवित्र है यह हमारी धारणा है। इसमें तर तम भाव अंगों के बारे में उत्पन्न नहीं हो सकता। हम इस धारणा पर समाज बनाएंगे। भूतकाल के बारे में ऍपोलॉजेटिक होने की कोई बात नहीं। दूसरों से कहें कि तुम क्या हो? मानव सभ्यता की शताब्दियों लंबे कालखंड में तुम्हारा योगदान कितना रहा? आज भी तुम्हारे प्रयोगों में मानव-कल्याण की कोई गारंटी नहीं। तुम हमें क्या उपदेश देते हो? यह हमारा समाज है। अपना समाज हम एकरस बनाएँगे। उसका अनेक प्रकार का कर्तृत्व, उसकी बुध्दिमत्ता सामने लाएँगे, उसका विकास करेंगे।

प्रश्न : जाति के विषय में आपका निश्चित दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर : संघ किसी जाति को मान्यता नहीं देता। उसके समक्ष प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है। जाति अपने समय में एक महान संस्था थी, किंतु आज वह देश-कालबाह्य है। जो लचीला न हो वह शीघ्र ही प्रस्तरित (विपस) वस्तु बन जाता है। मैं चाहता हूँ कि अस्पृश्यता कानूनी रूप से ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से भी समाप्त हो। इस दृष्टि से मेरी बहुत इच्छा है कि धार्मिक नेता अस्पृश्यता-निवारण को धार्मिक मान्यता प्रदान करें। मेरा यह भी मत है कि मनुष्य का सच्चा धर्म यही है कि उसका जो भी कर्तव्य हो, उसे बिना ऊँच-नीच का विचार किए, उसकी श्रेष्ठतम योग्यता के साथ वहन करें। सभी कार्य पूजास्वरूप हैं और उन्हें पूजा की भावना से ही करना चाहिए। मैं जाति को प्राचीन कवच के रूप में देखता हूँ। अपने समय में उसने अपना कर्तव्य किया, किंतु आज वह असंगत है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में पश्चिम पंजाब व पूर्व बंगाल में जाति-व्यवस्था दुर्बल थी, यही कारण है कि ये क्षेत्र इस्लाम के सामने परास्त हुए। यह स्वार्थी लोगों द्वारा थोपी गई अनिष्ट बात है कि जाति-व्यवस्था के कारण हम पराभूत हुए। ऐसी अज्ञानमूलक निर्भत्सना के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। अपने समय में वह एक महान संस्था थी तथा जिस समय चारों ओर अन्य सभ कुछ ढहता-सा दिखाई दे रहा था, उस समय वह समाज को संगठित रखने में लाभप्रद सिध्द हुई।

प्रश्न : क्या हिंदू संस्कृति के संवर्धन में वर्णव्यवस्था की पुन: स्थापना निहित है?
उत्तर : नहीं। हम न जातिप्रथा के पक्ष में हैं और न ही उसके विरोधक हैं। उसके बारे में हम इतना ही जानते हैं कि संकट के कालखंड में वह बहुत उपयोगी सिध्द हुई थी और यदि आज समाज उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करता, तो वह स्वयं समाप्त हो जाएगी। उसके लिए किसी को दुखी होने का कारण भी नहीं।

प्रश्न : क्या वर्णव्यवस्था हिंदू समाज के लिए अनिवार्य नहीं है?
उत्तर : वह समाज की अवस्था या उसका आधार नहीं है। वह केवल व्यवस्था या एक पध्दति है। वह उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है अथवा नहीं, इस आधार पर उसे बनाए रख सकते हैं अथवा समाप्त कर सकते हैं।



गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ (७) : अफ़लातून
April 23, 2008 by अफ़लातून

http://samatavadi.wordpress.com/

गांधी बनाम अम्बेडकर की बहस में गांधी जी की धारा के दो प्रमुख उत्तराधिकारियों - डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों में सामाजिक परिवर्तन के कार्यक्रमों को नजरअन्दाज करने पर बहस अपूर्ण रहेगी । संपूर्ण क्रांति के आन्दोलन के बीच लोकनायक जयप्रकाश की उपस्थिति में तोड़ी गयी जनेऊ का ढेर लग जाता था तथा हजारों नवयुवकों ने जातिसूचक चिह्न त्याग दिये थे । समाजिक विभाजन कम से कम हो इसलिए डॉ. लोहिया ने ‘साठ संकड़ा’ के सिद्धान्त में औरत , आदिवासी , दलित और पिछड़ों को एक ही राजनैतिक परिभाषा में संगठित करने के प्रयास किए । उनकी पार्टी में हर स्तर साठ सैंकड़ा का सिद्धान्त लागू होने के कारण दलितों और पिचड़ों का नेतृत्व भी पैदा हुआ ।

यह निश्चित तौर पर स्पष्त रहना चाहिए कि इस बहस में गांधी जी की पैरवी में मुखर हो रहे धार्मिक सहिष्णुता विरोधी दल तथा नव-साम्राज्यवाद का बंदनवार सजा कर स्वागत करने वाले दल के कंधे से कंधा मिलाना जयप्रकाश , विनोबा तथा लोहिया के अनुगामियों के लिए संभव नहीं है । इसे प्रकार अम्बेडकरवादी स्मूहों को भी नयी आर्थिक नीति के सन्दर्भ में एक स्पष्ट सोच प्रकट करनी होगी ।

गांधी बनाम अम्बेडकर की बहस में हिस्सा लेने वालों के लिए गांधी जी की यह सलाह सर्वथा उचित है - ” हम बड़ों के बल का अनुसरण करें , उनकी कमजोरी का कभी नहीं । बड़ों की लाल आँखों में अमृत देखें , उनके लाड़ से दूर भागें , मोहमयी दया के वश होकर वे बहुत कुछ करने की इजाजत दें , बहुत कुछ करने को कहें , तब लोहे जैसे सख्त बनकर उससे इनकार करें । मैं एक बार यदि कहूँ कि हरगिज झूठ न बोलना , मगर मुश्किल में पड़कर झूठ के सामने आँखें बन्द कर लूँ , तब मेरी आँखों की पलकों को पकड़कर जोर से खोल देने में तुम्हारी भक्त होगी , मेरे इस दोष को दरगुजर करने में द्रोह होगा । ” ( पत्र - मगनभाई देसाई को, महादेवभाई की डायरी , खण्ड तीन, पृ. ११२ ) *



गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ(६) : क्या ‘हरिजन’ शब्द शाश्वत रहे?
April 22, 2008 by अफ़लातून

‘हरिजन’ शब्द शाश्वत रहे , यह गांधी जी नहीं चाहते थे । ‘अछूत’ शब्द के प्रति उनका विरोध था , इसीलिए वे यहाँ तक मानते थे कि ‘ स्वराज्य में दफ़ा १२४ राजद्रोह के लिए नहीं होगी , परन्तु हरिजनों को अछूत कहने वाले के विरुद्ध होगी।’ ( महादेवभाई की डायरी , खण्ड दो , पृ. १९४ )

हरिजन शब्द के प्रति अपने लगाव के बावजूद दलितों की इस शब्द के प्रति आपत्ति को वे तरजीह देते थे । मद्रास के शंकर नामक एक कार्यकर्ता ने वहाँ के दलितों के लिए हरिजन शब्द के बारे में आपत्ति की बाबत गांधी जी को लिखा कि वे हरिजन कैसे कहलाए ? हम तो हरजन हैं हरिजन नहीं । शंकर ने लिखा था ,इन लोगों को यदि हिन्दू कहें , तो इन्हें अच्छा लगेगा । आप इजाजत दीजिए ।’ उसे गांधी जी ने लिखा ,’ हरिजन नाम पर आपत्ति होने पर के लिए मुझ अफ़सोस होता है । तुम्हारे मित्रों को जो नाम पसन्द हो , वह इस्तेमाल कर सकते हो । मगर उन्हें यह समझाना कि मेरे मन में विष्णु य शिव का जरा भी ख्याल न था । मेरे लिए तो इसका अर्थ ‘भगवान का आदमी’ ही होता है । विष्णु , शिव या ब्रह्मा में मैं कोई भेद नहीं मानता । सभी ईश्वर के नाम हैं ।मगर इस मामले में उनके निर्णय पर अमल करना चाहिए ।’ ( वही , पृ. १३७ )

२९ अक्टूबर , १९३२ को एक बंगाली सज्जन का पत्र गांधी जी को मिला, ‘आप ‘हरिजन’ नाम देकर अछूतों का दूसरा नाम कायम करना चाहते हैं । इन्हें नाम देने की बात ही क्यों न छोड़ दी जाए ? उसके जवाब में गांधी जी ने लिखा- ‘हरिजन’ शब्द अछूत भाइयों को ध्यान में रखकर हमेशा के लिए इस्तेमाल करना हो , तो आपका ऐतराज ठीक हैओ ।मगर अभी तो उन्हें अलग करके दिखलाए बिना काम नहीं चल सकता ।साथ ही मुझे यह लगता है कि ‘अछूत’ या उससे मिलते-जुलते देशी भाषाओं में काम में लिए जाने वाले दूसरे शब्द उनके लिए इस्तेमाल करना अब उचित नहीं है।’ ( वही, पृ. १५५ )

गांधी जी ने सवर्णों के लिए भी एक नाम दिया था । अहमदाबाद में सवर्णों की एक सभा में उनके भाषण में यह नाम आया है । ‘ मेरे लिए अछूत , यदि हम अपने से (सवर्णों से ) तुअलना करें , तो हर्जन है - भगवान का आदमी और हम दुर्जन हैं ।अछूतों ने सारे श्रम करके , शोणित सुखाकर तथा अपने हाथ गंदे करके हमें आराम और सफाई से रहने की सुविधा दी है । —– यदि हम चाहें तो अब से भी खुद हरिजन बन सकते हैं , लेकिन इसके लिए हमें उनके प्रति किये गये पापों का प्रायश्चित करना पड़ेगा ।’ (महात्मा गांधी ,अहमदाबाद के सवर्णों को , यंग इण्डिया ,६ अगस्त ,१९३१,पृ. २०३ )

समतावादी नेता किशन पटनायक का ‘हरिजन बनाम दलित’ , नाम की इस बहस के सन्दर्भ में ठोश सुझाव है कि ‘हरिजन’ शब्द अछूतों के लिए था । जिस हद तक अछूत नहीं रह गये हैं उस हद तक हरिजन शब्द भी हटाना चाहिए और अगर प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से सवर्ण जातियाँ अस्पृश्यता को चलाए रखना चाहती हैं तो गांधी के द्वारा प्रयुक्त दूसरे शब्द का इतेमाल व्यापक होना चाहिए और सभी उच्च जातियों को दुर्जन जातियाँ कह कर पुकारना चाहिए ।—-’दलित’ शब्द की विशेषता यह है कि स्वत: स्फूर्त ढंग से शिक्षित , सचेत हरिजन समूह इस शब्द के साथ जुड़ रहे हैं ।’ ( हरिजन बनाम दलित,सं राजकिशोर ) यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि इस वर्ग के बड़ी संख्या में साधारण ग्रामीण आज भी अपनी जाति का नाम न बता कर खुद को हरिजन कहते हैं । क्या इसका यह कारण है कि ग्रामीण समाज में अस्पृश्यता समाप्त नहीं हुई है और इस कारण गांधी जी द्वारा दिया गया नाम सवर्णों से बताने में एक तरह की सुरक्षा का भाव छिपा होता है ?



गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ (५) : अफ़लातून
April 21, 2008 by अफ़लातून

गांधी जी और कांग्रेस ने दूसरी गोलमेज वार्ता के बाद पहली बार डॉ. अम्बेडकर को दलितों के प्रतिनिधियों के रूप में मान्यता दी । इसी लिए पूना करार में डॉ. अम्बेडकर को एक पक्ष बनाया गया । ये दोनों विभूतियाँ दलित समस्या के प्रति एक दूसरे के दृष्टिकोण से अच्छी तरह वाकिफ़ थीं । यरवदा जेल में कार्यकर्ताओं से बातचीत में गांधी जी ने स्पष्ट शब्दों में इन मतभेदों को प्रकट किया है । ‘ प्रधानमन्त्री के खिलाफ यह लड़ाई ( पृथक निर्वाचन के विरुद्ध उपवास ) न की होती , तो हिन्दू धर्म का खात्मा हो जाता । अलबत्ता , अभी तक हम लोगों की आपसी लड़ाई तो खड़ी ही है । आज अम्बेदकर चार करोड़ लोगों के लिए नहीं बोलते । मगर जब इन चार करोड़ में शक्ति आयेगी , तब वे सोच विचार नहीं करेंगे । इन चार लोगों का मन भगवान पल भर में बदल सकता है और वे मुसलमान भी बन सकते हैं । लेकिन ऐसा न हो तो वे चुन - चुन कर हिन्दुओं को मारेंगे । यह चीज मुझे अच्छी नहीं लगेगी , पर मैं इतना जरूर कहूँगा कि सवर्ण हिन्दू इसी लायक थे । ‘ गांधीजी की मान्यता थी कि सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर उनके द्वारा लिए जा रहे कार्यक्रम का विकल्प दलितों को राजनैतिक सत्ता दिलाकर वैधानिक परिवर्तन कराना नहीं हो सकता । मंदिर प्रवेश और सहभोज के कार्यक्रमों में डॉ. अम्बेडकर की दिलचस्पी कम थी , लेकिन गांधी जी इन कार्यक्रमों को करोड़ों आस्तिक दलितों की दृष्टि से और हिन्दू समाज की एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते थे । डॉ. अम्बेडकर की नीति तथा उनके स्वतंत्र नेतृत्व का गांधी जी पर दबाव था । इसी प्रकार गांधी जी के नेतृत्व का डॉ. अम्बेडकर पर दबाव था । गांधी जी ने पूना करार के बाद एक बार कहा था , ‘ मैं हरिजनों का कम छोड़ दूँ ,तो अम्बेडकर ही मुझ पर टूट पड़ें ? और जो करोड़ों बेजुबान हरिजन हैं , उनका क्या हो ? ” पूना करार के लिए डॉ. अम्बेडकर और गांधी जी की वार्ताओं के जो दौर चले थे उसका डॉ. अम्बेदकर ने अपनी पुस्तक में विवरण बिलकुल नहीं दिया है , लेकिन महादेवभाई की डायरी ने उस दौर के इतिहास को दस्तावेज का रूप दिया है । इन वार्ताओं के दरमियान डॉ. अम्बेडकर ने गांधी जी से कहा था , ‘ मगर आप के साथ मेरा एक ही झगड़ा है , आप केवल हमारे लिए नहीं , वरन कथित राष्ट्रीय हित के लिए काम करते हैं । आप सिर्फ़ हमारे लिए काम करें , तो आप हमारे लाड़ले वीर ( हीरो ) बन जाँए । ‘ ( महदेवभाई की डायरी , खण्ड दो , पृष्ठ ६० ) पूना करार पर सहमति के तुरन्त पश्चात डॉ. अम्बेडकर गांधी जी से जेल में मिलने आये , तब जो संवाद हुए वे इस प्रकार हैं-

ठक्कर बापा - ‘अम्बेडकर का परिवर्तन हो गया ‘

बापू बोले - ‘ यह तो आप कहते हैं । अम्बेडकर कहाँ कहते हैं ? “

अम्बेडकर - ‘ हाँ, महात्मा हो गया । आपने मेरी बहुत मदद की । आपके आदमियों ने मुझे समझने का जितना प्रयत्न किया , उसके बनिस्पत आपने मुझे समझने का अधिक प्रयत्न किया । मुझे लगता है कि इन लोगों की अपेक्षा आपमें और मुझमें अधिक साम्य है । ‘

सब खिलखिलाकर हँस पड़े । बापू ने कहा , ‘ हाँ ‘ । इन्हीं दिनों बापू ने भी कहा था कि , ‘ मैं भी एक तरह का अम्बेदकर ही तो हूँ ? कट्टरता के अर्थ में । ‘ ( वही , पृ. ७१ )

पूना करार के बाद के दिनों में इन दोनों विभूतियों के निकट आने की कफ़ी संभावना थी । गांधी जी की प्रेरणा से बने अस्पृश्यता निवारण मंडल की केन्द्रीय समिति में अम्बेडकर ने रहना मंजूर किया था । इस संस्था के उद्देश्य निर्धारित करने के संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर द्वारा समाज व्यवस्था की बाबत अपनी पैनी समझदारी प्रकट करने वाले सुझाव दिए । बाद में जब उक्त मंडल के व्यवस्थापन में दलितों की भागीदारी की बात आयी तब गांधी जी ने कहा कि प्रायश्चित करने वाले सवर्ण ही इस मंडल में कर्ज चुकाने की भावना से रहेंगे । कर्जदार को समझना चाहिए , कि उसे अपना ऋण कैसे चुकाना है । डॉ. अम्बेडकर के मन पर इन रवैए का प्रतिकूल असर पड़ा ।



‘चरखा’ वाले अमन के ‘जज्बात’ की कद्र करें
May 30, 2008 by अफ़लातून

दस वर्षों तक चरखा फीचर सेवा के सम्पादक रह चुके अमन नम्र ने अपने जज्बात इसी नाम के चिट्ठे पर प्रकट करना शुरु किया है । हिन्दी चिट्ठाजगत के लिए यह अत्यन्त लाभकारी सिद्ध होगा , मुझे पूरा यक़ीन है । अमन नम्र की भाषा , पकड़ और सरोकार आकर्षक हैं । आप सब से अपील है कि जज्बात पर जाँए , सुन्दर लेखों को पढ़ें और इस नई विधा को अपनाने वाले इसे मंजे हुए युवा लेखक / विचारक / पत्रकार को प्रोत्साहित करें ।

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पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य
May 23, 2008 by अफ़लातून

१. पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य है ? : महादेव देसाई

२. पत्रकारिता दुधारी तलवार

३. खबरों की शुद्धता

४. ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”

५. ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘

६. हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ?

७. समाचारपत्रों में गन्दगी

८. क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?

९. समाचार : व्यापक दृष्टि में

१०. रिपोर्टिंग

११. तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन

१२. विशिष्ट विषयों पर लेखन

१३. अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा

१४. अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व

१५ . अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक

१५. कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८)





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गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ (७) : अफ़लातून
April 23, 2008 by अफ़लातून

गांधी बनाम अम्बेडकर की बहस में गांधी जी की धारा के दो प्रमुख उत्तराधिकारियों - डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों में सामाजिक परिवर्तन के कार्यक्रमों को नजरअन्दाज करने पर बहस अपूर्ण रहेगी । संपूर्ण क्रांति के आन्दोलन के बीच लोकनायक जयप्रकाश की उपस्थिति में तोड़ी गयी जनेऊ का ढेर लग जाता था तथा हजारों नवयुवकों ने जातिसूचक चिह्न त्याग दिये थे । समाजिक विभाजन कम से कम हो इसलिए डॉ. लोहिया ने ‘साठ संकड़ा’ के सिद्धान्त में औरत , आदिवासी , दलित और पिछड़ों को एक ही राजनैतिक परिभाषा में संगठित करने के प्रयास किए । उनकी पार्टी में हर स्तर साठ सैंकड़ा का सिद्धान्त लागू होने के कारण दलितों और पिचड़ों का नेतृत्व भी पैदा हुआ ।

यह निश्चित तौर पर स्पष्त रहना चाहिए कि इस बहस में गांधी जी की पैरवी में मुखर हो रहे धार्मिक सहिष्णुता विरोधी दल तथा नव-साम्राज्यवाद का बंदनवार सजा कर स्वागत करने वाले दल के कंधे से कंधा मिलाना जयप्रकाश , विनोबा तथा लोहिया के अनुगामियों के लिए संभव नहीं है । इसे प्रकार अम्बेडकरवादी स्मूहों को भी नयी आर्थिक नीति के सन्दर्भ में एक स्पष्ट सोच प्रकट करनी होगी ।

गांधी बनाम अम्बेडकर की बहस में हिस्सा लेने वालों के लिए गांधी जी की यह सलाह सर्वथा उचित है - ” हम बड़ों के बल का अनुसरण करें , उनकी कमजोरी का कभी नहीं । बड़ों की लाल आँखों में अमृत देखें , उनके लाड़ से दूर भागें , मोहमयी दया के वश होकर वे बहुत कुछ करने की इजाजत दें , बहुत कुछ करने को कहें , तब लोहे जैसे सख्त बनकर उससे इनकार करें । मैं एक बार यदि कहूँ कि हरगिज झूठ न बोलना , मगर मुश्किल में पड़कर झूठ के सामने आँखें बन्द कर लूँ , तब मेरी आँखों की पलकों को पकड़कर जोर से खोल देने में तुम्हारी भक्त होगी , मेरे इस दोष को दरगुजर करने में द्रोह होगा । ” ( पत्र - मगनभाई देसाई को, महादेवभाई की डायरी , खण्ड तीन, पृ. ११२ ) *



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गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ(६) : क्या ‘हरिजन’ शब्द शाश्वत रहे?
April 22, 2008 by अफ़लातून

‘हरिजन’ शब्द शाश्वत रहे , यह गांधी जी नहीं चाहते थे । ‘अछूत’ शब्द के प्रति उनका विरोध था , इसीलिए वे यहाँ तक मानते थे कि ‘ स्वराज्य में दफ़ा १२४ राजद्रोह के लिए नहीं होगी , परन्तु हरिजनों को अछूत कहने वाले के विरुद्ध होगी।’ ( महादेवभाई की डायरी , खण्ड दो , पृ. १९४ )

हरिजन शब्द के प्रति अपने लगाव के बावजूद दलितों की इस शब्द के प्रति आपत्ति को वे तरजीह देते थे । मद्रास के शंकर नामक एक कार्यकर्ता ने वहाँ के दलितों के लिए हरिजन शब्द के बारे में आपत्ति की बाबत गांधी जी को लिखा कि वे हरिजन कैसे कहलाए ? हम तो हरजन हैं हरिजन नहीं । शंकर ने लिखा था ,इन लोगों को यदि हिन्दू कहें , तो इन्हें अच्छा लगेगा । आप इजाजत दीजिए ।’ उसे गांधी जी ने लिखा ,’ हरिजन नाम पर आपत्ति होने पर के लिए मुझ अफ़सोस होता है । तुम्हारे मित्रों को जो नाम पसन्द हो , वह इस्तेमाल कर सकते हो । मगर उन्हें यह समझाना कि मेरे मन में विष्णु य शिव का जरा भी ख्याल न था । मेरे लिए तो इसका अर्थ ‘भगवान का आदमी’ ही होता है । विष्णु , शिव या ब्रह्मा में मैं कोई भेद नहीं मानता । सभी ईश्वर के नाम हैं ।मगर इस मामले में उनके निर्णय पर अमल करना चाहिए ।’ ( वही , पृ. १३७ )

२९ अक्टूबर , १९३२ को एक बंगाली सज्जन का पत्र गांधी जी को मिला, ‘आप ‘हरिजन’ नाम देकर अछूतों का दूसरा नाम कायम करना चाहते हैं । इन्हें नाम देने की बात ही क्यों न छोड़ दी जाए ? उसके जवाब में गांधी जी ने लिखा- ‘हरिजन’ शब्द अछूत भाइयों को ध्यान में रखकर हमेशा के लिए इस्तेमाल करना हो , तो आपका ऐतराज ठीक हैओ ।मगर अभी तो उन्हें अलग करके दिखलाए बिना काम नहीं चल सकता ।साथ ही मुझे यह लगता है कि ‘अछूत’ या उससे मिलते-जुलते देशी भाषाओं में काम में लिए जाने वाले दूसरे शब्द उनके लिए इस्तेमाल करना अब उचित नहीं है।’ ( वही, पृ. १५५ )

गांधी जी ने सवर्णों के लिए भी एक नाम दिया था । अहमदाबाद में सवर्णों की एक सभा में उनके भाषण में यह नाम आया है । ‘ मेरे लिए अछूत , यदि हम अपने से (सवर्णों से ) तुअलना करें , तो हर्जन है - भगवान का आदमी और हम दुर्जन हैं ।अछूतों ने सारे श्रम करके , शोणित सुखाकर तथा अपने हाथ गंदे करके हमें आराम और सफाई से रहने की सुविधा दी है । —– यदि हम चाहें तो अब से भी खुद हरिजन बन सकते हैं , लेकिन इसके लिए हमें उनके प्रति किये गये पापों का प्रायश्चित करना पड़ेगा ।’ (महात्मा गांधी ,अहमदाबाद के सवर्णों को , यंग इण्डिया ,६ अगस्त ,१९३१,पृ. २०३ )

समतावादी नेता किशन पटनायक का ‘हरिजन बनाम दलित’ , नाम की इस बहस के सन्दर्भ में ठोश सुझाव है कि ‘हरिजन’ शब्द अछूतों के लिए था । जिस हद तक अछूत नहीं रह गये हैं उस हद तक हरिजन शब्द भी हटाना चाहिए और अगर प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से सवर्ण जातियाँ अस्पृश्यता को चलाए रखना चाहती हैं तो गांधी के द्वारा प्रयुक्त दूसरे शब्द का इतेमाल व्यापक होना चाहिए और सभी उच्च जातियों को दुर्जन जातियाँ कह कर पुकारना चाहिए ।—-’दलित’ शब्द की विशेषता यह है कि स्वत: स्फूर्त ढंग से शिक्षित , सचेत हरिजन समूह इस शब्द के साथ जुड़ रहे हैं ।’ ( हरिजन बनाम दलित,सं राजकिशोर ) यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि इस वर्ग के बड़ी संख्या में साधारण ग्रामीण आज भी अपनी जाति का नाम न बता कर खुद को हरिजन कहते हैं । क्या इसका यह कारण है कि ग्रामीण समाज में अस्पृश्यता समाप्त नहीं हुई है और इस कारण गांधी जी द्वारा दिया गया नाम सवर्णों से बताने में एक तरह की सुरक्षा का भाव छिपा होता है ?



[ जारी ]

भाग १

भाग २

भाग ३

भाग ४

भाग ५



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गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ (५) : अफ़लातून
April 21, 2008 by अफ़लातून

गांधी जी और कांग्रेस ने दूसरी गोलमेज वार्ता के बाद पहली बार डॉ. अम्बेडकर को दलितों के प्रतिनिधियों के रूप में मान्यता दी । इसी लिए पूना करार में डॉ. अम्बेडकर को एक पक्ष बनाया गया । ये दोनों विभूतियाँ दलित समस्या के प्रति एक दूसरे के दृष्टिकोण से अच्छी तरह वाकिफ़ थीं । यरवदा जेल में कार्यकर्ताओं से बातचीत में गांधी जी ने स्पष्ट शब्दों में इन मतभेदों को प्रकट किया है । ‘ प्रधानमन्त्री के खिलाफ यह लड़ाई ( पृथक निर्वाचन के विरुद्ध उपवास ) न की होती , तो हिन्दू धर्म का खात्मा हो जाता । अलबत्ता , अभी तक हम लोगों की आपसी लड़ाई तो खड़ी ही है । आज अम्बेदकर चार करोड़ लोगों के लिए नहीं बोलते । मगर जब इन चार करोड़ में शक्ति आयेगी , तब वे सोच विचार नहीं करेंगे । इन चार लोगों का मन भगवान पल भर में बदल सकता है और वे मुसलमान भी बन सकते हैं । लेकिन ऐसा न हो तो वे चुन - चुन कर हिन्दुओं को मारेंगे । यह चीज मुझे अच्छी नहीं लगेगी , पर मैं इतना जरूर कहूँगा कि सवर्ण हिन्दू इसी लायक थे । ‘ गांधीजी की मान्यता थी कि सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर उनके द्वारा लिए जा रहे कार्यक्रम का विकल्प दलितों को राजनैतिक सत्ता दिलाकर वैधानिक परिवर्तन कराना नहीं हो सकता । मंदिर प्रवेश और सहभोज के कार्यक्रमों में डॉ. अम्बेडकर की दिलचस्पी कम थी , लेकिन गांधी जी इन कार्यक्रमों को करोड़ों आस्तिक दलितों की दृष्टि से और हिन्दू समाज की एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते थे । डॉ. अम्बेडकर की नीति तथा उनके स्वतंत्र नेतृत्व का गांधी जी पर दबाव था । इसी प्रकार गांधी जी के नेतृत्व का डॉ. अम्बेडकर पर दबाव था । गांधी जी ने पूना करार के बाद एक बार कहा था , ‘ मैं हरिजनों का कम छोड़ दूँ ,तो अम्बेडकर ही मुझ पर टूट पड़ें ? और जो करोड़ों बेजुबान हरिजन हैं , उनका क्या हो ? ” पूना करार के लिए डॉ. अम्बेडकर और गांधी जी की वार्ताओं के जो दौर चले थे उसका डॉ. अम्बेदकर ने अपनी पुस्तक में विवरण बिलकुल नहीं दिया है , लेकिन महादेवभाई की डायरी ने उस दौर के इतिहास को दस्तावेज का रूप दिया है । इन वार्ताओं के दरमियान डॉ. अम्बेडकर ने गांधी जी से कहा था , ‘ मगर आप के साथ मेरा एक ही झगड़ा है , आप केवल हमारे लिए नहीं , वरन कथित राष्ट्रीय हित के लिए काम करते हैं । आप सिर्फ़ हमारे लिए काम करें , तो आप हमारे लाड़ले वीर ( हीरो ) बन जाँए । ‘ ( महदेवभाई की डायरी , खण्ड दो , पृष्ठ ६० ) पूना करार पर सहमति के तुरन्त पश्चात डॉ. अम्बेडकर गांधी जी से जेल में मिलने आये , तब जो संवाद हुए वे इस प्रकार हैं-

ठक्कर बापा - ‘अम्बेडकर का परिवर्तन हो गया ‘

बापू बोले - ‘ यह तो आप कहते हैं । अम्बेडकर कहाँ कहते हैं ? “

अम्बेडकर - ‘ हाँ, महात्मा हो गया । आपने मेरी बहुत मदद की । आपके आदमियों ने मुझे समझने का जितना प्रयत्न किया , उसके बनिस्पत आपने मुझे समझने का अधिक प्रयत्न किया । मुझे लगता है कि इन लोगों की अपेक्षा आपमें और मुझमें अधिक साम्य है । ‘

सब खिलखिलाकर हँस पड़े । बापू ने कहा , ‘ हाँ ‘ । इन्हीं दिनों बापू ने भी कहा था कि , ‘ मैं भी एक तरह का अम्बेदकर ही तो हूँ ? कट्टरता के अर्थ में । ‘ ( वही , पृ. ७१ )

पूना करार के बाद के दिनों में इन दोनों विभूतियों के निकट आने की कफ़ी संभावना थी । गांधी जी की प्रेरणा से बने अस्पृश्यता निवारण मंडल की केन्द्रीय समिति में अम्बेडकर ने रहना मंजूर किया था । इस संस्था के उद्देश्य निर्धारित करने के संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर द्वारा समाज व्यवस्था की बाबत अपनी पैनी समझदारी प्रकट करने वाले सुझाव दिए । बाद में जब उक्त मंडल के व्यवस्थापन में दलितों की भागीदारी की बात आयी तब गांधी जी ने कहा कि प्रायश्चित करने वाले सवर्ण ही इस मंडल में कर्ज चुकाने की भावना से रहेंगे । कर्जदार को समझना चाहिए , कि उसे अपना ऋण कैसे चुकाना है । डॉ. अम्बेडकर के मन पर इन रवैए का प्रतिकूल असर पड़ा ।

[ जारी ]

भाग १

भाग २

भाग ३

भाग ४





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गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ (4 ): मनु स्मृति , गीता आदि:अफ़लातून
April 19, 2008 by अफ़लातून

जहाँ तक मनुस्मृति , गीता आदि ग्रन्थों के दलित विरोध को पुष्ट करने का प्रश्न है , गांधी जी का दृष्टिकोण स्पष्ट है ।उन्हें यह विश्वास था कि वे हिन्दू धर्म का एक सुधरा स्वरूप भारतीय समाज से ग्रहण करवा लेंगे । उनके दृष्टिकोण को प्रकट करने वाला निम्नलिखित पत्र अलीगढ़ विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रोफेसर हबीबुर रहमान को लिखा गया है । इस पत्र में उन्होंने लिखा , ” हिन्दू धर्म की खसूसियत यह है कि उसमें काफी विचार स्वातंत्र्य है । और उसमें हर एक धर्म के प्रति उदार भाव होने के कारण उसमें जो कुछ अच्छी बातें रहतीं हैं , उनको हिन्दूधर्मी मान सकता है । इतना ही नहीं , परन्तु मानने का उसका कर्तव्य है ।ऐसा होने के कारण धर्म ग्रन्थों के अर्थ का दिन-प्रतिदिन विकास होता रहा है । हिन्दू धर्म के नाम से प्रचलित ग्रन्थों में जो कुछ लिखा गया है , वह सबके सब धर्मवचन हैं , ऐसा नहीं है । वेदपाठ सुननेवाले शूद्र के कान में गरम सीसा डालने की बात अगर ऐतिहासिक मानी जाए , तो मैं उस धर्म को मानने के लिए हरगिज तैयार नहीं हूँ और ऐसे असंख्य हिन्दू हैं ,जो उसे धर्म वचन नहीं मानते हैं । हिन्दू धर्म के लिए एक कसौटी रखी गयी है , जिसको एक बालक भी समझ सकता है । जो बुद्धिग्राह्य वस्तु नहीं है और बुद्धि से विपरीत है , वह कभी धर्म नहीं हो सकती है । और जो सत्य और अहिंसा के विपरीत है , वह भी धर्म नहीं हो सकती ।” ( महादेवभाई की डायरी , खण्ड दो , पृ. १७३ - १७४ )

यरवदा जेल में मथुरादास नामक कार्यकर्ता को समझाते हुए गांधी जी ने कहा , “ गुलामों से बदतर - इन लोगों को जानवर बनाया और इनका हमने यह धर्म बना दिया कि ये लोग अपने कर्मों का कुफल भोगते हैं । यह तो धर्म का राक्षसी स्वरूप है । हिन्दू धर्म का अगर यह अर्थ हो तो मैं भी गीता , मनुस्मृति सबको जला डालूँ । ( महादेवभाई की डायरी , खण्ड तीन , पृ. २६९ )

अस्पृश्यता को पाप का फल माननेवाले लोग कर्म मार्ग का सबसे बद़्आ अनर्थ करते हैं , ऐसा गांधी जी मानते थे । २५ जुलाई १९३४ को लखनऊ में एक आम सभा में गांधी जी ने कहा , ” धर्म के नाम पर दुनिया भर में अस्पृश्यता नहीं देखी है । अमरीका और दक्षिण अफ़्रीका में गोरे काले के बीच इस प्रकार का तिरस्कार और घृणा है लेकिन उसे वे धर्म कार्य नहीं कहते । हिन्दुओं ने ठेका ले रखा है । चाहे जैसा शौचाचार का पालन करने वाले छह करोड़ लोगों के साथ अस्पृश्यता और घृणा का बर्ताव किया जाता है , जैसे डॉ. अम्बेडकर ।सवर्ण अकिंचन का जो स्थान समाज में है वह अम्बेदकर का नहीं है । सवर्णों के बुद्धिमान के साथ अम्बेडकर बैठ सकते हैं । वे बुद्धि से इतने तीव्र हैं कि किसी से कम नहीं । हरिजन सेवा के लिए उनमें त्याग और बहादुरी भी है । इतना आपको सुनाना चाहता हूँ कि हमारे बीच इस सेवाकार्य में मतभेद होने पर भी उनकी बुद्धि , त्याग व बहादुरी के बारे में मुझे कोई शंका नहीं है । उनके विषय में कहना कि उनका पापी योनि में जन्म है ? चाहे जितना प्रायश्चित करें वे अस्पृश्य रहेंगे , पाप धुलेंगे नहीं ? इससे बड़ा कोई पाप नहीं है , कर्ममार्ग का इससे बड़ा अनर्थ मेरी नजर में कोई नहीं है । ” ( महादेवभाई की डायरी (गुजराती),खण्ड-२०, पृ ६३-६४ ) ।

डॉ . अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच दलितों के नेतृत्व को लेकर संघर्ष था । फरवरी १९३७ में हुए प्रान्तीय विधान सभाओं के निर्वाचन परिणामों के फलस्वरूप डॉ. अम्बेडकर ने ” कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया ” नामक पुस्तक दलित और विदेशी पाठकों के लिए लिखी । इन चुनावों में अनुसूचित जाति के लिए निर्धारित १५१ सीटों में से कांग्रेस ने ७३ सीटें जीतीं ।इन ७३ सीटों में से अनुसूचित जाति के बहुमत से जीती गयीं ३८ सीटें थीं । डॉ. अम्बे्डकर ने चुनाव के कुछ माह पूर्व ही इन्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी का गठन किया था । इस पार्टी ने सिर्फ महाराष्ट्र में चुनाव लड़ा जहाँ १५ सुरक्षित सीटों में से १३ पर उसकी जीत हुई तथा २ सामान्य सीटें भी इसने हासिल कीं थीं । सिवा एक गाली के इस पुस्तक के निष्कर्षों को ही सुश्री मायावती दोहरा रही हैं ।” जाति तोड़ो : समाज जोड़ो ” का “आन्दोलन ” चला रहे श्री कांशीराम जाति तोड़ने के डॉ. अम्बेदकर द्वारा सुझाये गये चार कार्यक्रमों के सन्दर्भ में क्या कर पाए हैं ? यह उन्हें बताना चाहिए । डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जाति-प्रथा के नाश के लिए १. अन्तर्जातीय विवाह - सवर्ण-अवर्ण ,२. धर्म की चिकित्सा ( विषमता बढ़ाने वाले तत्वों की आलोचना) ,धर्मान्तरण तथा ४. दलितों की सामाजिक-आर्थिक उन्नति - ये चार कार्यक्रम बताये गए थे ।



गांधी , अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ (२) : अफ़लातून
April 17, 2008 by अफ़लातून





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भाग एक

गांधीजी पर कांशीराम ने कानपुर में हुए एक पिछड़ी जाति सम्मेलन में एक आरोप लगाया था कि उन्होंने सरदार पटेल की उपेक्षा करके पंडित जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमन्त्री की कुर्सी दिलवाई थी । इस आरोप की छानबीन करना गैरजरूरी है लेकिन इस आरोप के पीछे जो मक़सद छिपा है उसे जान लेना जरूरी है । इससे ब्राह्मणवाद की बसपाई समझ और सोच का पता चलता है । उत्तर प्रदेश और बिहार के कुर्मी सरदार पटेल को स्वजातीय मानते हैं । कुर्मी समाज के लोग सरदार पटेल के नाम से शिक्षण संस्थाएं चलाते हैं । उन्हें यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य होता है कि गुजरात में पिछड़ों के लिए आरक्षण के विरोध की कमान पटेलों के हाथ में ही थी ।(यहाँ, मण्डल लागू होने के पूर्व गुजरात के बक्षी-आयोग की संस्तुतियों के विरोध का सन्दर्भ है ।) ‘ महात्मा गांधी और कांग्रेस ने अछूतों के साथ क्या किया ‘ डॉ. अम्बेडकर ने अपनी इस चर्चित पुस्तक में सरदार पटेल के ‘सत्ताधारी वर्ग’ का होने के ‘ब्राह्मणवादी गुमान’ का वर्णन किया है । ( पृ. २०९ , डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस , खण्ड-१,प्रकाशक : शिक्षा विभाग , महाराष्ट्र शासन)।

लेकिन कांशीराम ऐसे उद्धरण देने की मूर्खता क्यों करें ? बाबा साहब के विचारों को ऐसे चालाक संशोधनों के साथ न ग्रहण करने पर घाटा हो जाएगा , इसलिए बसपा के प्रशिक्षण शिविरों में गांधी-नेहरू-पटेल पर ये नये ‘तथ्य’ धड़ल्ले से चलाये जाते हैं ।

गांधी जी के राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद कांग्रेस एक अभिजात समूह से सर्वसाधारण का जन संगठन बनी । डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में इस बात का पूरा श्रेय गांधी जी को दिया है ( वही , पृ. १९ , १६२ ) । दलितों के प्रश्न के सन्दर्भ में गांधी जी के आगमन के बाद जो तब्दीली आई , वह गौरतलब है । दलितों के बीच बड़प्पन दिखा कर नसीहत देने की वृत्ति गांधी जी के गले नहीं उतरती थी और उन्होंने कांग्रेस की इस कार्यशैली को बदला। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन की चर्चा गांधी जी ने सरदार पटेल और महादेव देसाई से यरवदा जेल में इस प्रकार की थी , ‘ आज इस प्रश्न ने जो स्वरूप ग्रहण किया है , उस के लिए शुरु से ही इस विषय की वृत्ति जिम्मेदार है । जब १९१५ में गोखले गुजर गये और मैं पूना के सर्वेन्ट ऑफ इण्डिया सोसाइटी के हॉल में रहा था, तभी मैंने यह देख लिया था ।वह प्रसंग मुझे अच्छी तरह याद है । मैंने देवधर से उनकी प्रवृत्तियों का संक्षिप्त विवरण मांगा , जिससे मुझे पता चले कि मुझे क्या काम हाथ में लेना है : इस विवरण में यह था कि ‘उनके पास जाकर भाषण देना , उन पर कैसे अन्याय होते हैं इस बारे में उनमें जागृति लाना वगैरा’ ।मैंने देवधर से कह दिया था कि मैंने मांगी रोटी और उसके बदले पत्थर मिलता है । इस ढंग से अस्पृश्यों का काम कैसे हो सकता है ? यह सेवा नहीं है । यह तो हमारा मुरब्बीपन है। अछूतों का उद्धार करने वाले हम कौन हैं? हमें तो इन लोगों के प्रति किये पाप का प्रायश्चित करना है , कर्ज लौटाना है । यह काम इन लोगों को अपनाने से होगा,इनके सामने भाषण करने से नहीं होगा। शास्त्री घबराये और बोले , ‘ मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि आप इस तरह न्यायासन पर बैठ कर बात करेंगे ।’ हरिनारायण आपटे भी बहुत चिढ़े । हरिनारायण को मैंने कहा - ‘ मालूम होता है आप लोग तो समाज में विद्रोह करायेंगे।’…….इस तरह बड़ी बहस हुई थी । मैंने दूसरे दिन शास्त्री , देवधर , आपटे सबसे कह दिया - ‘ मुझे कल्पना नहीं थी कि मैं आपको दुख दूंगा।’ मैंने माफी मांगी और इन लोगों पर अच्छा असर पड़ा।बाद में तो हम लोगों की बन गयी। ‘

वल्लभ भाई - ” आपकी तो सभी के साथ बन जाती है ।आपको क्या है ? बनिये की मूँछ नीची।’

बापू बोले - ‘ देखो इसलिए मैं काट डालता हूँ न ?’



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गांधी - अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ : अफ़लातून
April 16, 2008 by अफ़लातून

[ मेरे नेता किशन पटनायक ने मुझसे ' गांधी - अम्बेडकर ' पर गहराई से अध्ययन करने के लिए कहा था। फलस्वरूप मैंने 'गांधी - अम्बेडकर और मिट्टी की पट्टियाँ' शीर्षक से लम्बा लेख लिखा । दल की पत्रिका 'सामयिक वार्ता' में यह अक्टूबर १९९४ में प्रकाशित हुआ तथा अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ । मुझे यकीन है कि चिट्ठालोक के पाठक इसे पढ़ेंगे । - अफ़लातून ]

‘ टाइम्स ‘ के संवाददाता मैक्रे और गांधीजी की ६ फरवरी १९३३ को यरवदा जेल में एक अच्छी भेंटवार्ता हुई । गांधीजी के सिर पर लगी हुई मिट्टी की पट्टी के बारे में उसने पूछा । ‘ रिटर्न टू नेचर ‘ नामक पुस्तक पढ़कर सन १९०५ में सिर पर पट्टी बाँधना कैसे शुरु किया था , और उसके बाद सैंकड़ों मौकों पर किस तरह उस पर अमल किया , यह बापू ने उसे बताया । किसी अच्छी चीज को पढ़कर तुरन्त उस पर अमल करने की बात गांधीजी के मन में कैसे आती है इसका उदाहरण रस्किन की ‘ अन टू दिस लास्ट ‘ नामक पुस्तिका थी जिसे पढ़कर उन्होंने जीवन परिवर्तन किया । गांधीजी ने यह बातें सरल ढंग से मैक्रे को सुनाई । उसे मजेदार तो लगीं , लेकिन ये बातें ‘ टाइम्स ‘ को भेजे तो वह क्यों उन्हें छापेगा ? इसलिए उसने धीरे से पूछा - ” पर अम्बेदकर के लिए आपके पास कोई मिट्टी की पट्टियाँ हैं ? “

बापू बोले - मुझे मालूम नहीं । पर हमारे मतभेदों से दोनों के सिर चढ़ जांए तो जरूर मट्टी की पट्टियाँ ढूँढनी पडेंगी। मेरे और उनके बीच ज्यादा मतभेद की गुंजाइश नहीं है क्योंकि अधिकतर मामलों में ऐक्य है । मतभेद की मुझे परवाह नहीं है । मेरे पास सवर्णों से कर्ज अदा करवाने के सिवाय दूसरा काम नहीं है । ( महादेवभाई की डायरी ,खस्ण्ड तीन , पृ.१२८ ) ।

मायावती - कांशीराम द्वारा छेड़ी गयी बहस गांधीजी के कथित पैरवीकारों तथा डॉ. अम्बेडकर के तथाकथित उत्तराधिकारियों के सिर पर चढ़ती नजर आ रही है इसलिए मिट्टी की कुछ पट्टियाँ ढूँढ़ने का प्रयास जरूरी है ।स्वेच्छा से अछूत बनने का असाधारण दावा करनेवाले महात्मा गांधी डॉ. अम्बेडकर से विनम्रतापूर्वक यह कह सकते थे , ‘ आप मेरे लिए कोई अपमानजनक या क्रोधजनक शब्द काम में लेते हैं , तब मैं अपने दिल से यही कहता हूँ कि तू इसी लायक है। आप मेरे मुंह पर थूकें , तो भी मैं गुस्सा नहीं करूँगा । यह मैं ईश्वर को साक्षी रखकर कहता हूँ इसीलिए कि मैं जानता हूँ कि आपको जीवन में बहुत कड़वे अनुभव हुए हैं । ‘ ( महादेवभाई की डायरी , खण्द दो, पृ. ६१ ) मायावती की टिप्पणियों और गालियों के प्रति गांधीजी के पैरवीकार क्या इतने साफ़ दिल का परिचय दे रहे हैं ? इष्टदेव की प्रतिमा को विधर्मी द्वारा स्पर्श कर लेने पर भक्तगणों के हाहाकार मचाने की छवि इस मसले के साथ उभर आई है । अस्पृश्यता निवारण , सामाजिक न्याय और जातिप्रथा उन्मूलन के लक्ष्यों से वर्तमान में सरोकार न रखकर भी हम डॉ. अमेडकर या गांधीजी की पैरवी किए जा रहे हैं । एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के मुख्य सम्पादक और साहित्यकार अस्पृश्यता को पराकाष्ठा तक अपनाये हुए हैं । ‘पंक्ति-पावन’ होने के लिए खुद के बरतन लेकर चलते हैं मानो स्वयं को ‘अस्पृश्य’ बना लिया हो । इलाहाबाद के दौना गाँव की दलित महिला शिवपती को निर्वस्त्र करनेवाले दबंग पिछड़ों का बचाव इसी जाति का बसपा विधायक खुले आम करता है । शरीर श्रम की अप्रतिष्ठा दिलों में भर कर मंदल विरोधी छात्र सड़कों पर जूता-पॉलिश करने ,कपड़े धोने और सब्जी बेचने को ‘अहिंसक प्रतिकार पद्धतियों में शामिल करा चुके हैं । मौजूदा परिस्थिति की इन दुखद झलकियों को धुंधला करके इस विषय पर बहस करना बेमानी है और बेईमानी भी ।

[ जारी ]







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बाबा साहब डॉ . भीमराव अम्बेडकर की चेताने वाली कथा (२) : ले. महादेव देसाई
April 15, 2008 by अफ़लातून

पिछला हिस्सा

” आप कहेंगे यह कहानी तो पुरानी है । पन्द्रह दिन पहले की घटना बताऊँ ? सोपाला में हमारा एक सम्मेलन था । हमने एक टैक्सीवाले को रोका था , उसे पेशगी भी दी थी । उसने पैसे हजम कर लिए और दर्शन ही नहीं दिए । टांगे वालों की खुशामद की लेकिन कोई सुन ही नहीं रहा था । हम सब का बहिष्कार किया जा रहा था । बचपन में हजाम नहीं मिला था , यह तो मैं आप को बता चुका हूँ , परन्तु आज भी हम लोगों को सिवा मुसलमान के अन्य हजाम मिलते हैं क्या ? कोई अन्य नहीं होते इसलिए मुसलमान हजाम मनमाना वसूलते हैं । क्या कोई होटल हमारे लिए खुला है ?

” इस प्रकार जहां घुट - घुट कर रहना पड़ता है ,वहां रहने का लाभ ही क्या है ? बडौदा में मुझ पर जो बीती उसकी याद में आँखें भर आती हैं । बडौदा छोड़ते वक्त तो मैं जार जार रोया ही था। महाराज साहेब ने मेरे लिए जितना बन पड़ा किया । मैं इनका कृतज्ञ हूँ , लेकिन दर-दर दुतकारा जाना किसे भाता है । “

जमनालालजी , वालचन्द भाई और मैं इन बातों को सुन रहे थे । हमने उनसे कहा कि इन बातों से हम शर्मिन्दा हैं , हमें दुख है , परन्तु परिस्थिति बदली है और तेजी से बदलती जा रही है । आप दुखित हुए तो उतना ही दुखी होने के लिए कथित सवर्ण तैयार हैं , कई सनातनी सवर्ण भयंकर त्रासदी अनुभव त्रासदी कर रहे हैं । आज आपको सैकड़ों हिन्दू घरों में आवभगत न मिले क्या यह संभव है ?”

” मैं कोई परिवर्तन नहीं देख पा रहा हूँ । महाड़ में क्या हुआ?(महाड़ में एक सार्वजनिक तालाब में दलितों के इस्तेमाल के लिए बाबासाहब के नेतृत्व में हुए सत्याग्रह पर हमला हुआ था।) आप हमारे साथ दुखी होंगे उसमें हमारा क्या भला हुआ ? जमनालालजी ने उन पर बीती बातें सुनाई लेकिन उसका मुझ पर उल्टा असर पड़ा। मुझे लगा कि जब आप लोगों को इतना कष्ट सहना पड़ रहा है , तब हमारा बेड़ा पार तो कभी होगा हे नहीं । “

डॉ . अम्बेडकर के साथ इन बातों पर बहस नहीं होती है । संकट सहन कर दूसरे का दिल पलटने की नीति उन्हें पसन्द नहीं है। उन्होंने कहा हमारे पक्ष में कितने हिन्दू हैं ? मुझे सम्मान मिले तो उससे क्या फरक पड़ता है ? बाकी लोगों की क्या स्थिति होगी ? मुट्ठी भर सुधारकों की कौन सुनता है ? आपको परिवर्तन दीख रहा है, आप आशावादी लगते हैं । लेकिन आशावादी की व्याख्या जानते हैं , न ? खुद के दुख को तो नहीं लेकिन दूसरे के दुख को सुख मानने वाला आशावादी होता है । “

इस अंतिम वाक्य में उनकी कडुवाहट प्रकट हो रही थी । इस कडुवाहट के सामने दलील काम नहीं करती , कडुवाहट ही कडुवाहट की काट तो नहीं होती। हम अधिक आत्म शुद्धि करें, कडुवाहट के बावजूद मीठेपन से जीतने के प्रयत्न जारी रक्खें, अधिक से अधिक हरिजनों को अपनाते जाएँ , यही उपाय है । आत्मशुद्धि और प्रेममय सेवा , हमारे लिए यही आज के घुटन भरे अंधकार में ध्रुव तारे के समान है ।

[ 'हरिजनबन्धु' में प्रकाशित यह लेख श्री म्हादेव देसाई जन्मशताब्दी समिति,गांधी स्मारक संग्रहालय,हरिजन आश्रम ,अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित स्मारक ग्रन्थ 'शुक्रतारक समा : महादेवभाई' में संकलित है( पृ. ३३०-३३२ )। ]

मूल गुजराती से अनुवाद : अफ़लातून.

सेज के लिए लेंगे जनता का भरोसा
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_4496391/



May 30, 02:04 am

नई

दिल्ली [टी. ब्रजेश]। पंचायत चुनाव में मुंह की खाने के बावजूद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य राज्य में औद्योगीकरण की रफ्तार बनाए रखने के हक में हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में वामदलों को लगे झटके से माकपा केंद्रीय नेतृत्व ने सबक सीख लिया है। पार्टी की केंद्रीय समिति ने बंगाल खेमे के दबाव को दरकिनार कर दिया है। समिति ने साफ कहा है कि जनता को भरोसे में लिए बिना भूमि अधिग्रहण कतई नहीं होना चाहिए। चाहे वह सलीम ग्रुप के लिए हो या किसी और के लिए।

दिल्ली

स्थित गोपालन भवन में गुरुवार से शुरू हुई माकपा केंद्रीय समिति पंचायत चुनाव में वाममोर्चा के खराब प्रदर्शन की वजह तलाश रही थी। विचार-विमर्श के दौरान बुद्धदेव की औद्योगिक नीति निशाने पर आ गई। माकपा महासचिव प्रकाश करात समेत कई कामरेडों ने दो टूक कहा कि पहले खेती मजदूरी से जुड़े लोगों को विश्वास में लिया जाए। लोगों को विश्वास में लिए बिना किसी परियोजना पर काम आगे बढ़ाने से राज्य सरकार को बाज आना चाहिए। उनका कहना था कि इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए चाहे प्रोजेक्ट सलीम ग्रुप का हो या किसी और का।

केंद्रीय

समिति की इस दो टूक राय का असर पश्चिम बंगाल के उद्योग मंत्री निरूपम सेन की टिप्पणी में साफ तौर पर मिला। पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि सलीम ग्रुप समेत सभी लंबित प्रोजेक्ट पर आगे बढ़ने से पहले ग्रामीणों को भरोसे में लिया जाएगा। बैठक से बाहर आते हुए सेन ने केंद्रीय नेतृत्व को भी संदेश देने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर में पंचायत चुनाव नतीजे वाममोर्चा के पक्ष में न होने का यह मतलब नहीं है कि औद्योगीकरण रोक दिया जाएगा।

सूत्रों

के अनुसार समिति में औद्योगीकरण पर सेन की रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान आला नेताओं और बंगाल इकाई के पदाधिकारियों के बीच जमकर बहस हुई। सूत्रों से पता चला है कि बुद्धदेव तो ज्यादातर चुप ही रहे लेकिन पश्चिम बंगाल के सचिव बिमान बोस ने उनकी तरफ से मोर्चा संभाला। निरूपम सेन और बिमान ने औद्योगीकरण की जमकर वकालत की। उन्होंने पंचायत चुनाव परिणाम का ठीकरा वाममोर्चा में एकजुटता के अभाव पर फोड़ने की कोशिश की। लेकिन दोनों की यह दलील करात के गले कतई नहीं उतरी। उन्होंने तत्काल बिमान को कठघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि वाममोर्चा के संयोजक होने के नाते वामदलों को एकजुट रखने का जिम्मा भी उनका ही था। उन्होंने कहा कि औद्योगीकरण को लेकर राज्य सरकार के सावधानी नहीं बरतने की वजह से भी वाममोर्चा में दरार पड़ी।

सूत्रों

के अनुसार इस चर्चा के दौरान भी सलीम ग्रुप की बात उठी। केंद्रीय नेतृत्व में प्रभाव रखने वाले कामरेडों ने बंगाल खेमे पर हमला किया। उन्होंने कहा कि सलीम ग्रुप के केमिकल हब प्रोजेक्ट पर अमल करने से ही नंदीग्राम में हिंसात्मक हालात पैदा हुए। अब नयाचार में इस प्रोजेक्ट को ले जाने के फैसले पर फिर भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक अंगुली उठाने लगे हैं। ऐसे में सभी वर्ग को भरोसे में लिए बिना एकतरफा फैसला नहीं होना चाहिए।



http://www.tehelkahindi.com/InDinon/264.html



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औघट घाट

बिन उत्सव आनंद बिना
खुला मंच

मृत्युदंड को मृत्युदंड
चक्र सुदर्शन

बदले पुलिस बयान
कांव कांव

लव @ पेट्रोल डाट काम
कालजयी लेखन

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
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किस्सा कैडर का
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विचारधारा के लिए लड़ने वाले सिपाही या राजनीतिक गुंडे? पश्चिम बंगाल में पिछले तीन दशक से सीपीएम के अबाध राज का राज़ कैडर ही रहे हैं. कैसे कैडर सीपीएम की मदद करते हैं और इसमें उनका क्या फायदा है बता रहे हैं शांतनु गुहा रे...

भास्वती सरकार कार्ल मार्क्स के केवल नाम से ही परिचित हैं, मगर मार्क्स के सिद्धांत क्या हैं ये जानने के लिए उन्होंने उनकी किताबों को कभी नहीं खंगाला. 34 वर्षीय ये स्कूल शिक्षिका अपने पति(राज्य परिवहन निगम में क्लर्क) के साथ कोलकाता के दक्षिणी इलाके में रहती हैं. समर्पित सीपीएम कैडरों की तरह ये दोनों पति-पत्नी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) की गढ़िया से निकलने वाली रैलियों का एक अभिन्न हिस्सा होते हैं. सरकार पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन पर बात तो करती हैं लेकिन अपनी तस्वीर छपवाने के सवाल पर पीछे हट जाती हैं. हालांकि उनके पड़ोसी बताते हैं कि सरकार को रैलियों में नारे लगाने के बदले पैसे मिलते हैं, लेकिन वो इस बारे में कुछ भी कहने को तैयार नहीं.

गौरतलब है कि ये महिला कैडर, पार्टी में और पांच साल बिताने के बाद नेता के रूप में अपनी पदोन्नति का सपना संजोए हुए है. सरकार का पार्टी से जुड़ाव छात्र जीवन में ही हो गया था. तब वो स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया(एसएफआई) की एक सामान्य सदस्य थीं और उसी दौरान उन्होंने पहली बार सीपीएम की रैली में भी हिस्सा लिया था. कैडर सत्ता का उतना आनंद नहीं ले पाते. लिहाजा सरकार सहित राज्य के लाखों कैडर राज्य के शीर्ष पार्टी नेताओं के संपर्क में आने की अपनी बारी के इंतजार में हैं. पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के लिए नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है. पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है.

अब जरा ये देखें कि पार्टी के प्रति इस अंधभक्ति के फलस्वरूप सरकार जैसे लोगों को मिलता क्या है.

पहले राज्य में सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया राज्य सरकार के हाथ में होती थी और इनमें से 90 प्रतिशत तक नौकरियां प. बंगाल में सीपीएम कैडरों की झोली में ही जाती थीं. नौकरियों से योग्यता का कोई लेना-देना नहीं था और वामपंथ से थोड़ा-सा जुड़ाव ही पर्याप्त योग्यता मानी जाती थी. कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया को कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) के जिम्मे कर दिया मगर अब भी सैकड़ों अस्थाई नियुक्तियां स्थानीय नेताओं के निर्देशों पर ही होती हैं. चाहे सरकारी नौकरी हो, नगर परिषद् की या फिर किसी निजी संस्थान की - पार्टी का संदेश स्पष्ट हैः यदि आप हमारे साथ हैं, तो हम भी आपका ध्यान रखेंगे.

बहरहाल, कैडर के सवाल पर सरकार कहती हैं, “मैं एक कैडर हूं और पार्टी के लिए काम करती हूं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कोई गुंडा-बदमाश हूं.” वो एक सीधा-सा सिद्धांत जानती हैं - पार्टी के प्रति अंधभक्ति कैडर के जीवन और उसकी प्रगति की अनिवार्य शर्त है. यानी कैडर को हर हाल में पार्टी के पक्ष में खड़ा होना है, पार्टी के बचाव का रास्ता तलाशना है. वह इसे पलटवार का सिद्धांत कहती हैं. उनका मानना है कि विरोधी हर कदम पर पार्टी पर कीचड़ उछालते रहते हैं, लिहाजा कैडरों को उसके जवाब के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता है.

उदाहरण के तौर पर जिस दिन फिल्मकार अपर्णा सेन ने नंदीग्राम विरोधी रैली में हिस्सा लेने का निर्णय किया, कैडर पहले से तैयार थे कि मीडिया में उन्हें क्या कहना है. सेन के इस कदम पर कैडरों ने ये प्रचारित करना शुरू किया कि कोलकाता में हाल में संपन्न हुए फिल्म समारोह में अध्यक्ष न बनाए जाने को लेकर वो सरकार से नाराज थीं. जिन तक ये कहानी नहीं पहुंच पाई थी, उन्होंने दूसरा कारण गढ़ा: सेन इसलिए नाराज थीं क्योंकि राज्य सरकार ने सेन की अगली फिल्म को वित्तीय सहायता देने से इनकार कर दिया था.

पश्चिम बंगाल में यदि आप एक कैडर हैं, तो आपको न केवल इस सिद्धांत में विश्वास करना होगा, बल्कि इसे प्रचारित-प्रसारित भी करना होगा. यानी जमीनी स्तर पर व्यावहारिक मार्क्सवादी सिद्धांत यही है.

स्थानीय न्यूज चैनल तारा बंगला की संपादक सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है. गली के नुक्कड़ पर होने वाली सभा में वक्ता के रूप में कोई प्राध्यापक भी हो सकता है. किसी सार्वजनिक सभा में भीड़ जुटाने वाला संयोजक हो सकता है. पास-पड़ोस के तलाक, किराएदारी, असफल प्रेम प्रसंग जैसे मामलों को सुलझाने के प्रयास करता कोई कार्यकर्ता भी हो सकता है और विरोधियों के खिलाफ क्रूर कार्रवाई करने वाला कोई क्षेत्रीय गुंडा भी हो सकता है, जिसे सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त होता है.”

चट्टोपाध्याय अपने स्टूडियो में घटी एक घटना का उदाहरण देती हैं. एक प्राइमटाइम शो के खत्म होने के बाद उन्होंने स्टूडियो में मौजूद और सत्ताधारी पार्टी से निकटता रखने वाले गार्डन रीच इलाके के डॉन झुनू अंसारी से पूछा कि क्या उन्होंने अपने आदमियों को नंदीग्राम में जवाबी कार्रवाई के लिए भेजा था. अंसारी ने ऐसा करने से तो इनकार किया लेकिन ये जरूर बताया कि ज्यादातर कैडर बंगाल के बाहर से आए थे. सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है.

जानकार बताते हैं कि ज्यादातर माकपाई कैडर बेरोजगार हैं और सीपीएम से उनके जुड़ाव के कई कारण हैं. एक तो इससे उनकी कुछ आमदनी की गारंटी हो जाती है, दूसरे, उनका एक सामाजिक स्तर बन जाता है और साथ ही प्रसिद्धि की राह पर पहला कदम भी पड़ जाता है.

सीपीआई(एमएल) के वरिष्ठ नेता अरिंदम पाल स्वीकारते हैं कि “पार्टी के कई कार्यकर्ता मुश्किलें खड़ी कर देने वाले हैं. शीर्ष कामरेड इसे महसूस भी करते हैं लेकिन उन्हें पता है कि राजनीति में आपको बुद्धिजीवियों की नहीं, ऐसे ही तत्वों की जरूरत पड़ती है.” उन्होंने हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर घटी घटना का हवाला दिया, जहां कैडरों ने एयरपोर्ट यूनियन के चुनाव प्रचार के दौरान एक तरह से इस पर कब्जा कर लिया था. इस उपद्रव के कारण एयरपोर्ट्स अथॉरिटी के लगभग 55 प्रतिशत कर्मचारी काम पर आए ही नहीं. हॉवड़ा स्टेशन पर होने वाले रेलवे इम्प्लाइज यूनियन के चुनाव में भी इसी नजारे की उम्मीदें लगाई जा रही है. “ये तो राष्ट्रीय चुनाव है, और मुंबई व दिल्ली के मतदाता भी वोट देने आएंगे. लेकिन मुंबई में विक्टोरिया टर्मिनस के पोस्टरों से पटे होने और कामकाज ठप्प होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. दरअसल, ये सब सिर्फ बंगाल में ही संभव है, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी इस तरह के चुनावों को अपने जनाधार से जुड़ाव का आदर्श रास्ता मानती है. यही दरअसल कैडर हैं”, कहते हैं सीपीआई(एमएल) के ही कार्तिक सेन.

शहर के जादवपुर विश्वविद्यालय में इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान छात्रा सोहिनी मजुमदार कहती हैं, “सभी पार्टियों की तरह वाम मोर्चे में और सीपीएम में भी इस तरह के लोग इसलिए हैं, क्योंकि आप खुद इस तरह के लोगों का समर्थन चाहते हैं. लेकिन उनके बारे में नकारात्मक सोच इसलिए बन गई है क्योंकि ज्यादातर घटनाओं में उनके बुरे पक्ष को ही सामने लाया जाता है.” इस तरह की शुरुआती घटनाओं में से एक 1990 में उत्तरी कोलकाता के विधानसभा चुनाव में हुई थी जहां स्थानीय डॉन नंदा के नेतृत्व में अपराधियों ने सुबह 10 बजे ही बूथ पर कब्जा कर लिया था. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया से सक्रिय रूप से जुड़ी मजुमदार स्वीकारती हैं, “वहां नंदा का खुलेआम रिवाल्वर लहराना निश्चितरूप से परेशान करने वाली बात थी.” लेकिन वो ये भी कहती हैं कि अब परिस्थिति बदल रही है और हाल ही में पार्टी ने इस तरह के 12 हजार लोगों को पार्टी से निकाल बाहर कर दिया है.

प्रेसीडेंसी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य अमाल मुखर्जी कहते हैं, “कैडर ब्रिगेड, कार्यकर्ता बनने के लिए मौका देख कर सुविधानुसार अपने रंग बदलता है. चूंकि उनके पास आरएसएस की शाखा की तरह कोई नियमित अड्डा नहीं होता और उन्हें रोज सुबह परेड नहीं करनी पड़ती, लिहाजा उन्हें पहचानना मुश्किल होता है.”

पास के ही सरकारी स्कूल में पार्टी की स्थानीय शाखा की एक बैठक चल रही है जहां कार्ल मार्क्स, लेनिन, प्रमोद दासगुप्ता व ज्योति बसु जैसे नेताओं के कटआउट लगे हुए हैं. पूछे जाने पर सभा के आयोजक अनिरबन रॉय चौधरी कहते हैं, “यहां ऐसी कोई गलत चीजें नहीं है. किसी के पास कोई गोली-बंदूक नहीं होती. ये तो पश्चिम बंगाल के बारे में मीडिया की अपनी कपोल कल्पना है. कैडर तो अनुशासित कार्यकर्ता मात्र होते हैं जो पार्टी हित में जमीनी जनाधार जुटाने का काम करते हैं.”

वामपंथी विचारधारा के कट्टर समर्थक, केंद्रीय कर्मचारी उत्पल मित्रा कहते हैं, “कोई राजनीतिक पार्टी किसी राज्य में तीन दशक तक सिर्फ इस वजह से सत्ता में नहीं रह सकती, क्योंकि उसके पास कैडर के रूप में असामाजिक तत्व हैं.” मित्रा नंदीग्राम के प्रेत को दफन करने के लिए शहर भर में निकाली जा रही रैलियों का नियमित हिस्सा होते हैं. वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है.

अब सवाल ये उठता है कि राज्य भर में कैडरों की वृद्धि को आखिर प्रोत्साहित किसने किया है और उनकी संख्या इतनी कैसे हो गई जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है? विश्लेषक कहते हैं कि शुरुआत 1977 में सीपीएम के सत्ता में आने के साथ हुई. पश्चिम बंगाल में रीयल एस्टेट कारोबार में तेजी की शुरुआत ही हुई थी. इससे जुड़े हर तरह के फायदे पार्टी से जुड़े लोगों को दिए जाने लगे. देखादेखी और लोग भी बहती गंगा में हाथ धोने को सीपीएम से जुड़ने लगे. भूमि सुधारों ने भी लोगों की पार्टी के प्रति अंधस्वामिभक्ति सुनिश्चित की.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता निरबेद रे कहते हैं, “वास्तव में सीपीएम में कैडरों की भीड़ 1990 में आनी शुरू हुई और ये आज तक जारी है.” रे आगे जोड़ते हैं, “इन कैडरों ने राज्य के मतदाताओं का विस्तृत डाटाबेस तैयार किया, जो चुनावों के दौरान पार्टी के काम आया और क्षेत्र पर पकड़ बनाने में उनकी मदद की. कैडरों के पास अपने पास-पड़ोस के बारे में जो सूक्ष्म जानकारी होती है, वो अन्य पार्टियों के पास नहीं होती और ये जानकारी उन्हें बड़ी मदद पहुंचाती है.” रे की मानें तो वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है. “लेकिन आज अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों व नव उदारवादी नीतियों का समर्थन, बाहुबलियों पर भरोसा और अपने सहयोगियों के प्रति उपेक्षापूर्ण बरताव वामपंथी राजनीति का शगल बन गया है.” रे आगे कहते हैं, “आज तो कैडर नंदीग्राम में लोगों को धमकाने, उन्हें वहां से बेदखल करने या फिर उन्हें अपने प्रभाव में लेने संबंधी पार्टी के अभियान का एक अहम हिस्सा बन गए हैं.”

कैडरों की क्रूरता की पहली घटना 1978 में तब सामने आई थी जब उन्होंने बीरभूमि जिले के मारिचझापी में असहाय बांग्लादेशी शरणार्थियों पर फायरिंग में पुलिस का साथ दिया था. रे कहते हैं कि “उसके बाद तो इस तरह की घटनाओं का सिलसिला सा चल पड़ा. शहर के एक पुल से गुजर रहे 17 आनंदमार्गियों की सरेआम हत्या इसी तरह की एक जघन्य घटना थी, लेकिन नंदीग्राम आज इन सभी घटनाओं को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष पर पहुंच गया है क्योंकि सभी को ऐसा लग रहा है कि हथियारबंद कैडरों की वहां उपस्थिति व उनके द्वारा की गई हिंसा को पार्टी खुद ही जायज ठहरा रही है.”

वरिष्ट स्तंभकार प्रभाष जोशी भी सच की पड़ताल में एक दल के साथ नंदीग्राम गए थे. उनका कहना है कि कैडर नजर न आने वाली ऐसी इकाई है जिसमें अनवरत बढ़ोतरी हो रही है. “ये तो आप भाग्यशाली थे जो नंदीग्राम में इनमें से कुछ को देख पाए, वरना ग्रामीण इलाकों में जिन कैडरों को बाइक वाहिनी के रूप में जाना जाता है, उनके बारे में तो शायद ही किसी को पता हो.”

राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एस.एन. भार्गव कहते हैं कि कैडर एक ऐसी विध्वंशक सेना हैं जिसकी ताकत पुलिस की मिलीभगत से बनती है. भार्गव कहते हैं, “नंदीग्राम के कैडर पश्चिमी मिदनापुर, बांकुरा व 24-परगना जिलों से आए थे और वे स्वचालित आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल में पूर्ण प्रशिक्षित थे.”

कुछ भी हो कैडर तो इन सब चर्चाओं से बेखबर अपनी प्राथमिकता वाले कामों में आज भी व्यस्त हैं. और ये काम हैं--नंदीग्राम की हिंसा की लीपापोती और सरकारी तंत्र के पार्टी हितों के आगे घुटने टेकने के आरोपों को खारिज करना.

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