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Friday, August 27, 2010

“किसान का हथियार उठाना मानवता का प्रतीक है”

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"किसान का हथियार उठाना मानवता का प्रतीक है"

हंस की सालाना गोष्ठी में राम शरण जोशी अचानक मंच पर बुला लिए गए। लेकिन उन्होंने जिस अंदाज में भाषण दिया उससे लगा कि वो तैयारी के साथ पहुंचे थे। या फिर भाषण देते-देते इतना सध चुके हैं कि कहीं भी किसी भी मौके पर धारा प्रवाह बोलने में दिक्कत नहीं होती। उस पूरी सभा में बहुत से वक्ताओं ने अपनी राय रखी। लेकिन सबसे संतुलित बात राम शरण जोशी ने ही कही। उन्होंने कहा कि जब सत्ता में बैठे लोगों का गुनाह बड़ा हो तो सिर्फ और सिर्फ माओवादियों को दोषी ठहराना ग़लत है। सार्त्र के हवाले से उन्होंने कहा कि जब किसान हथियार उठाता है तो यह उसकी मानवता का प्रतीक है। आप यह भाषण पढ़िए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए। – मॉडरेटर

हिंसा कोई तटस्थ परिघटना नहीं है। हिंसा कॉज नहीं है। वो एक इफेक्ट यानी प्रतिक्रिया है। जब तक हम हिंसा की वजहों को समझने की कोशिश नहीं करेंगे, हम उसे सही ढंग से परिभाषित नहीं कर सकेंगे। आज राज्य हिंसा बनाम माओवादी हिंसा पर बात हो रही है तो पहला सवाल यह होना चाहिए कि आखिर ऐसी परिस्थितियां क्यों पैदा हुईं कि पांच राज्यों में माओवादी सक्रिय हो गए। क्या उन परिस्थितियों को समझने की जरूरत नहीं है? नक्सलवाद और माओवाद तो बहुत बाद की चीजें हैं। सच तो यह है कि इस प्रतिक्रिया के लिए स्थितियां वहां बहुत पहले से बन रही थीं।

अगर कोई यह कहता है कि राज्य की सापेक्षता नहीं होती है तो वो गलत है। राज्य सापेक्ष होता है। उसे चलाने वाले एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और मशीनरी का इस्तेमाल उस वर्ग का हित साधने में करते हैं। उदाहरण के लिए बस्तर को ही लें। 1950-55 से वहां कच्चा लोहा का दोहन हो रहा है। पंडित नेहरू के जमाने से इंडस्ट्री वहां पहुंच गई है। सन 60-61 से वहां पर मॉडर्न सिविलाइजेशन का अस्तित्व है। तो 1960 से 2010 यानी 50 साल में क्या कभी यह जानने की कोशिश हुई कि बैलाडिला, दंतेवाड़ा, भानुप्रतापपुर या बीजापुर में आदिवासियों के साथ क्या हुआ? आप बस्तर ही क्यों आप छोटा नागपुर ले लें। आप झारखंड, उड़ीसा कहीं भी जाएं। वहां क्या स्थिति हुई होगी। यह बात इसलिए उठा रहा हूं कि 74 में मैं खुद उन इलाकों में गया था। मैंने देखा 70-80 गांव पूरी तरह साफ हो चुके थे। जंगल बर्बाद हो चुका था। लोहे की फैक्टरियों से निकलने वाले लाल पानी ने इलाके की खेती तबाह कर दी थी।

75-76 में ट्राइबल सबप्लान बना था। आज प्लानिंग कमीशन कह रहा है कि 14 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब 75-76 में ये सारी बातें सामने आईं थीं, तभी उनको हल कर दिया गया होता तो क्या ये समस्या होती? हमें समझना होगा कि विकास के पैरामीटर क्या हैं? क्या आप आदिवासियों पर अपना विकास का मॉडल थोपना चाहते हैं। अगर आप आदिवासियों के बीच अपनी सभ्यता, सोच और संस्कृति लेकर जा रहे हैं और उसे थोप रहे हैं तो प्रतिरोध तो होगा ही। क्या आपने सोचने की कोशिश की, पूछने की कोशिश की कि उनको किस ढंग का विकास चाहिए? आपने एक ताकतवर सभ्यता उन पर थोप दी, तो असर तो पड़ेगा।

अगर आप शुरू से विकास का चेहरा मानवीय रखते, राज्य सोचता और हाशिए पर खड़े लोगों का भी प्रतिनिधित्व करता, उनकी बेहतरी चाहता तो स्थितियां कुछ और होतीं। भारतीय राज्य के दीमाग में यह बात कभी नहीं आई। अगर ऐसा होता तो मैं समझता हूं कि माओवाद ही नहीं पनपता। माओवाद एक रात में नहीं पनपा है। एक लंबी प्रक्रिया के कारण पनपा है। और उसके लिए हमने परिस्थितियां तैयार की हैं।

मैं माओवाद की तारीफ नहीं कर रहा और न ही समर्थन। मैं उन कारणों को समझने की कोशिश कर रहा हूं जिनकी वजह से माओवाद पनपा। अब चूंकि राज्य शक्तिशाली होता है उसके लोग ताकतवर होते हैं इसलिए उनकी हिंसा को सैंवाधानिक आधार जरूर मिल जाता है। यह बात सिर्फ भारत के संदर्भ में लागू नहीं होती। जब अमेरिका ने इराक पर हमला किया था तो तर्क दिया कि उसके पास विषैले हथियार हैं। इस तर्क से वो खुद को जस्टिफाई करता है। अफगानिस्तान में हिंसा को जस्टिफाई करता है। मैं पूछता हूं कि इसमें समस्त समाज की सहमति कहां है। मैं समझता हूं कि राज्य को कम से कम इस ओर तो ध्यान देना ही पड़ेगा कि आखिर वो किसका प्रतिनिधित्व करता है?

यहां एक बात औऱ समझने की है। चीजों को जनरलाइज करना आसान होता है। लेकिन क्या हमने कभी ये सोचने की कोशिश की कि आदिवासी इलाकों में क्या हुआ? अभी सुदंरगढ़ का केस देखिए। 20-22 साल पहले सुंदरगढ़ में आदिवासियों की जमीन ले ली गई। वो बेघर हो गए। 22 साल से उनको मुआवजा नहीं मिला। तो सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ को मजबूर हो कर कहना पड़ा कि ये कैसा विकास है आपका? कोर्ट ने भारत सरकार से पूछा कि आपका विकास कैसा है और किसके लिए है? 22 वर्षों में आपने क्या किया है? मित्रों जब ये सोचना सुप्रीम कोर्ट का है तो प्रतिरोध की शक्तियों को आप दोषी कैसे ठहरा सकते हैं?

आज राज्य बहुत ताकतवर है। उसकी दमन की ताकत कई हजारगुना बढ़ गई है। नेपाल में जो कुछ हुआ, वहां सामंती राज्य था। वहां पूंजीवाद नहीं था। इसलिए दुनियाभर की ताकतों ने वहां इंटरवीन (दखल) नहीं किया। मैं समझता हूं कि भारत में जीतना संभव नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले वर्ग की मनमानी को सह लिया जाए। जिस दिन वंचितों ने, जनता ने राज्य के आगे सरेंडर कर दिया तो राज्य किसी भी सीमा तक जा सकता है। इसलिए यह लड़ाई सिर्फ छत्तीसगढ़ और झारखंड के लोगों की नहीं है, बल्कि लड़ाई इस बात की है कि आखिर राज्य किसका है और किसके लिए है?

खुद सरकार कहती है कि 40 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। मतलब 45-50 करोड़ लोगों की आमदनी 20 रुपये प्रति दिन से कम है। वहीं 2004-2009 के बीच 300 से ज्यादा करोड़पति संसद में पहुंचते हैं। इस दौरान उनकी आय में कई सौ गुना और कई हजार गुना वृद्धि होती है। तो क्यों नहीं सरकार से पूछा जाए कि बीते पांच साल में औसत भारतीय की आमदनी कितनी बढ़ी है? क्या ये पूछने का हक़ नहीं है? अरे ये हक तो देना पड़ेगा? नहीं दीजिएगा तो लोग छीन लेंगे आपसे।

एक बार मनमोहन सिंह से मैंने विकास में हिस्सेदारी पर सवाल पूछा तो कहने लगे इकॉनोमिक ग्रोथ हुई है। हमने कहा कि चलिए मान लेते हैं। अब आप ये बता दीजिए कि इकॉनोमीगक ग्रोथ का डिस्ट्रीब्यूशन कितना हुआ है? अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ठीक ठीक जवाब नहीं दे पाए। कहते रहे कि गरीबी कम हुई है। अब जो ताजा आंकड़े आए हैं उनसे पता चल रहा है कि गरीबी बढ़ गई है। ये तमाम चीजें हैं जो तकलीफ देती हैं। दर्द देती हैं। जैसा की सार्त्र ने कहा कि जब एक किसान हथियार उठाता है तो यह उसकी मानवता का प्रतीक है।

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