जो लोग बीजापुर में मारे गए हैं उनके परिवारों के हिस्से में क्या आने जा रहा है मिस्टर चिदंबरम ?
इस वर्ष जून मंे उत्तराखंड में रुद्रपुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश शमशेर अली ने उन आठ युवकों को सभी आरोपों से बरी करते हुए रिहा कर दिया जिन्हें अगस्त 2004 में माओवादी बताकर गिरफ्तार किया गया था। कोर्ट का कहना था कि पुलिस ने अभियुक्तों से बरामद जो सामग्री दिखायी है उनमें से कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है। पुलिस ने कोई ऐसा प्रमाण नहीं दिया जिससे पता चले कि ये सभी आरोपी किसी 'राष्ट्रविरोध्ी गतिविधि' में शामिल थे। पुलिस ने जिन गवाहों को पेश किया उनके बयानों में काफी विरोधभास था। इतना ही नहीं गिरफ्तारी के समय अभियुक्तों से बरामद दिखायी गयी सामग्री को पुलिस ने जिन दो अखबारों में लपेट कर 'सील' किया था वे दोनों अखबार घटना के करीब ढाई माह के बाद के थे। इन सारी बातों को आधार मानते हुए इन तथाकथित माओवादियों
को रिहा कर दिया गया। उत्तराखंड की इसी पुलिस ने पत्रकार प्रशांत राही को उन्हीं दिनांे देहरादून में उनके निवास के बाहर शाम को टहलते हुए गिरफ्तार किया था और अदालत में उन्हें एक माओवादी कमांडर के रूप में पेश करते हुए कहा था कि प्रशांत हंसपुर खत्ता के जंगलों में अपने छापामारों के साथ बैठक कर रहे थे। प्रशांत पिछले वर्ष जमानत पर रिहा हुए। महाराष्ट्र में नागपुर की एक जेल में अरुण फेरेरा लगभग तीन साल तक बंद रहे और बाद
में पता चला कि उन पर लगाए गए सारे आरोप गलत थे। उन्हें भी अभी कुछ माह पूर्व रिहा किया गया है। मुंबई की जेल में युवा दलित रंगकर्मी सुधीर ढवले अभी माओवादी होने के आरोप में बंद हैं और मंुबई के सांस्कृतिक जगत में इस बात को लेकर काफी चर्चा है कि सुधीर को उनके नाटकों और दलितों पर हो रहे दमन के खिलाफ लेखन के लिए बंद किया गया है। रायपुर की जेल में पत्रकार प्रफुल्ल झा को यह कहकर गिरफ्तार किया गया कि वे
माओवादियों की मदद कर रहे थे। प्रफुल्ल झा ने उन दिनों एक पुस्तिका प्रकाशित की थी जिसमें 'इकोनाॅमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली' में प्रकाशित कुछ लेखों का हिन्दी अनुवाद संकलित था और ये लेख नेपाल के माओवादी आंदोलन से संबंधित थे। प्रफुल्ल झा अभी भी जेल में बंद हैं। सीमा आजाद और विश्वविजय को इलाहाबाद में उस समय गिरफ्तार किया गया जब सीमा दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले से कुछ पुस्तकें खरीदकर लौट रही थीं
और उनके पति विश्वविजय इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर उन्हें लेने गए थे। दोनों को माओवादी बताकर गिरफ्तार किया गया और इनके थैले से 'प्रतिबंधित' साहित्य बरामद किया गया। ये दोनों लोग पिछले ढाई वर्ष से नैनी जेल में बंद हैं। सीमा आजाद 'दस्तक' नामक पत्रिका निकालती थीं और मायावती सरकार की एक्सप्रेस-वे परियोजना के अंतर्गत किसानों की उपजाउफ जमीन हड़पे जाने के खिलाफ उन्होंने व्यापक अध्ययन के बाद एक पुस्तिका प्रकाशित
की थी। इसके अलावा छत्तीसगढ़ में जारी आॅपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ लिखे गए कुछ लेखों का एक संकलन भी प्रकाशित किया था। इस तरह के सैकड़ों-हजारों लोग हैं जो देश की विभिन्न जेलों में सरकार द्वारा गढ़े गए फर्जी आरोपों की वजह से बंद पड़े हैं। ये वे लोग हैं जिनके नामों को साहित्य, संस्कृति अथवा पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय होने की वजह से एक हद तक जाना जाता है। इसके अलावा समाज के हाशिए पर पड़े ऐसे बेजुबान लोगों की संख्या लाखों में है जो विचाराधीन कैदी के रूप में वर्षों से और कभी-कभी तो कई दशकों से जेलों में बंद हंै। पहली श्रेणी के लोगों का अपराध यह है कि उन्होंने इन बेजुबान लोगों की जुबान बनने की 'हिमाकत' की। वैसे, यह जानना दिलचस्प होगा कि उत्तराखंड में जब एक पत्रकार ने सूचना के अधिकार के तहत राज्य सरकार से प्रतिबंधित साहित्य की सूची मांगी तो उसे जवाब मिला कि सरकार के पास ऐसी कोई सूची नहीं है। बावजूद इसके अभी भी प्रतिबंधित
साहित्य के नाम पर देश भर में गिरफ्तारियां जारी हैं।
उत्तराखंड के जिन आठ तथाकथित माओवादियों का जिक्र किया गया है उनमें से कुछ के परिवारों से अब से दो तीन वर्ष पूर्व हम लोग कुछ मानव अध्किार संगठनों की टीम बनाकर मिलने गए थे। इनमें से लगभग सभी निम्न अथवा मध्य वर्ग के थे और गिरफ्तारी के बाद से परिवार के लोगों को जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा उसका बयान करना मुश्किल है। घर वालों को न केवल भावनात्मक सदमा झेलना पड़ा था बल्कि सामाजिक और आर्थिक तौर पर भी उन्हें तरह-तरह की परेशानियों से गुजरना पड़ा जिसकी भरपाई नहीं हो सकती।
अभी इस देश में और इस देश की अपराध संहिता में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके तहत उस थानेदार को अथवा पुलिस अधिकारी को दंडित किया जा सके जिसने अपने अथवा राज्य के निहित स्वार्थाें की पूर्ति के लिए एक निरपराध व्यक्ति को वर्षों तक जेल में बंद रहने के लिए मजबूर किया। प्रशांत राही हों अथवा अरुण फेरेरा या देर-सवेर जेल से रिहा होने वाले विश्वविजय और सीमा आजाद-इन्होंने जेल प्रवास के दौरान जो क्षति उठायी उसकी पूर्ति का क्या तरीका हो सकता है यह एक गंभीर सवाल है। लेकिन इससे भी बड़ा सवाल अभी गृहमंत्री (तत्कालीन) पी.चिदंबरम के उस वक्तव्य से पैदा हुआ है जिसमें उन्होंने बीजापुर में मारे गए 17 लोगों के संदर्भ में कहा है कि अगर वे सचमुच निर्दोष थे तो 'आई फील साॅरी'। गृहमंत्राी ने पहले तो पुलिस और सुरक्षा बलों के इस कुकृत्य पर पर्दा डालने की कोशिश की और मारने वालों की ओर से ही मिले विवरण पर यकीन करते हुए बयान दे दिया कि जिन 17 लोगों की मौत हुई है वे सभी खूंखार माओवादी थे और वे मुठभेड़ में मारे गए। जब खुद उन्हीं की पार्टी के नेताओं और एक मंत्री ने बताया तथा मुठभेड़ में मारे गए लोगांे का ब्यौरा प्रकाशित हुआ तो सच्चाई सामने आयी। पता चला कि मारे जाने वालों में 11-12 साल के बच्चे भी थे और बूढ़े महिला और पुरुष भी थे जो रात में बीज बोने से संबंधित एक त्योहार 'बीजपोंडम' की तैयारी के लिए इकट्ठे
हुए थे। यह माओवादियों की कोई बैठक नहीं थी जैसा कि चिदंबरम ने दावा किया था। जो लोग मारे गए उनके पास से किसी तरह के हथियार बरामद नहीं हुए-यहां तक कि तीर-धनुष भी नहीं जो प्रायः आदिवासियों के पास होते हंै। वे रात्रि में भोजन आदि करने के बाद सोने से पहले अपनी सामाजिक बैठक कर रहे थे। इस घटना पर काफी हो-हल्ला होने के बाद चिदंबरम ने बयान दिया कि मारे गए लोग अगर निर्दोष हैं तो उन्हें अफसोस है। इससे ज्यादा क्रूर बयान कोई नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए कहा जाना चाहिए कि इन सबके बावजूद अभी तक गृहमंत्री इस बात के लिए तैयार नहीं हंै कि घटना की केन्द्र के स्तर पर जांच करायी जाए और उन दोषी अधिकारियों को दंडित किया जाय जिन्होंने महज आतंक फैलाने के लिए 17 निर्दोष लोगों की जानंे ले लीं।
सन 2000 में कश्मीर के छत्तीसिंगपुरा में एक हत्याकांड के बाद सुरक्षा बलों ने पांच लोगों को मुठभेड़ दिखाकर मार दिया और सरकारी तौर पर बयान आया कि वे सभी विदेशी मूल के ; अफगानी-पाकिस्तानी वगैरह आतंकवादी थे जिन्होंने सीमा पार कर घुसपैठ की थी और कुछ दिन पहले हुए सिखों के नरसंहार में उनका हाथ था। तत्कालीन मुख्य मंत्री फारुख अब्दुल्ला की सरकार ने भी इसी बयान की पुष्टि की। लेकिन गांव वालों को सच्चाई का पता था क्योंकि मारे जाने वाले उन्हीं के परिवारों से थे। काफी हंगामा हुआ और स्थिति इतनी विस्फोटक हुई कि पुलिस को फिर गोली चलानी पड़ी और इस बार फिर 5 लोग मारे गए। मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला को मजबूरन आदेश देना पड़ा कि जिन्हें आतंकवादी बताकर मारा गया है उनके शवों को कब्र से निकाला जाए और डीएनए जांच करायी जाए। इस सारी प्रक्रिया में दो वर्ष बीत गए क्योंकि अधिकारियों ने डीएनए जांच के लिए लैब में फर्जी नमूना भेज दिया था और इस मुद्दे पर श्रीनगर में विधानसभा की कार्रवाई कई दिन तक ठप रही। बहरहाल डीएनए जांच की रिपोर्ट से पता चला कि गांव वालों का कथन सही था और वे सभी निर्दोष ग्रामवासी थे जिन्हें सुरक्षा बलों ने जबरन अलग-अलग स्थानों से उठा लिया था और एक जगह ले जाकर उन्हें गोली मार दी थी। उनका अपराध यही था कि वे स्वस्थ और लंबे चैड़े थे ताकि उन्हें अफगानी आतंकवादी बताया जा सके।
सारा खुलासा होने के बाद चिदंबरम की ही तरह फारुख अब्दुल्ला ने 'साॅरी' बोल दिया। फारुख अब्दुल्ला की जिंदगी ऐश के साथ कटती रही और अभी प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद खाली हुए स्थान के कारण हो सकता है चिदंबरम को और भी मनोनुकूल पद प्राप्त हो जाय। लेकिन जो लोग बीजापुर में मारे गए हैं उनके परिवारों के हिस्से में क्या आने जा रहा है?
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