Monday, 18 February 2013 11:07 |
रुचिरा गुप्ता चूंकि यह औपनिवेशिक अधिनियम हमारे देह व्यापार विरोधी कानून, यानी अनैतिक व्यापार रोकथाम अधिनियम- 1956 के लिए आधार बना, इसलिए यह भी उकसाने के आरोप में महिलाओं को दंड देता है और इसमें भी देह व्यापार या देह व्यापारी की परिभाषा नहीं दी गई है। यही नहीं, इसमें शोषकों के लिए बेहद मामूली सजा का उल्लेख है। अब देह व्यापार को पीड़ित-रहित अपराध नहीं कहा जाएगा, बल्कि इसमें इस बात को रेखांकित किया जाएगा कि वेश्यावृत्ति एक ऐसा धंधा है जिसमें निम्न वर्ग के लड़के-लड़कियों और महिलाओं को दलालों, वेश्यालय चलाने वालों और ग्राहकों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। प्रस्तावित संशोधन में देह व्यापारियों और पीड़ितों का शोषण करने वालों के लिए कहीं अधिक कड़ी और निश्चित सजा है, जिसमें एक से अधिक बार दोषी पाए जाने वाले अपराधियों के लिए उम्रकैद और पहली बार यह अपराध करने वालों के लिए अपेक्षाकृत अधिक अर्थदंड सुनिश्चित किया गया है। इसमें शोषण के इस धंधे में किसी भी रूप में लिप्त पाए जाने वाले पुलिस अधिकारियों जैसे लोक सेवकों के लिए आजीवन कारावास की सजा का भी प्रस्ताव है। इस कड़ी सजा के चलते वे वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, जिनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं, इन अपराधों को दबाने की कोशिश नहीं करेंगे जो अब तक खुद ही इन देह व्यापारियों से दलाली ले कर उन्हें बख्श देते थे, वेश्याओं का उपयोग करते थे या बेनामी वेश्यालय चलाते थे। कानूनी तौर पर देह व्यापारियों या शोषण करने वालों को अपराधी ठहराए जाने और इनके लिए कड़ी सजा का प्रावधान होने से इस कारोबार में लोगों की मांग भी कम हो जाएगी। दरअसल, इस तरह के प्रावधानों की जरूरत तो लंबे समय से महसूस की जा रही थी, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जनतांत्रिक होने का दावा करने वाली सरकारें इसकी अनदेखी क्यों करती रहीं। जबकि स्वीडन और नार्वे में इसी तरह के कानूनों में सेक्स खरीदने को अवैध करार दिया गया है और लैंगिक असमानता को ध्यान में रखते हुए पीड़ित महिलाओं को सेक्स बेचने के अपराध से पूरी तरह मुक्त रखा गया है। इन दोनों ही देशों में सेक्स के क्रय-विक्रय की मांग और देह व्यापार में भारी गिरावट दर्ज की गई है। समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अनेक कारकों और स्वरूपों की जड़ दरअसल पितृसत्तात्मक ढांचे में है। इसलिए समग्र नजरिया अपनाते हुए वर्मा समिति की सिफारिशों में बिल्कुल ठीक ही महिलाओं के बलात्कार और यौन शोषण के सभी रूपों का संज्ञान लिया गया है, चाहे वे व्यावसायिक हों या गैरव्यावसायिक। सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ी पहल के तौर पर इन सिफारिशों में इस किस्म के अपराध को महिलाओं की दैहिक स्वतंत्रता का हनन मानते हुए गरीब, निचली जातियों और हाशिये पर पड़ी महिलाओं के साथ बलात्कार को पूरी तरह अस्वीकार्य माना गया है, भले ही उसके लिए आर्थिक भुगतान क्यों न किया गया हो। इन सिफारिशों में वेश्यावृत्ति में झोंकी गई महिलाओं और बच्चों को पुरुष हिंसा का शिकार समझा गया है, जिन पर कोई कानूनी दंड नहीं लगाया जाएगा। बल्कि ये मानव तस्करी, बलात्कार और वेश्यावृत्ति से निजात पाने में सहायता के हकदार हैं। वर्मा समिति की सिफारिशें हमारे देश में सामयिक लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करती हैं जिसमें महिलाएं और लड़कियों का अपने शरीर पर हक हो और वे पुरुष हिंसा से मुक्त जीवन जी सकें। ये सिफारिशें उस संकट की पहचान करती हैं, जिसमें भारत में आधिकारिक तौर पर हर रोज सत्रह महिलाओं का बलात्कार होता है। इसके अलावा, यह एक ऐसे विधान के लिए मंच तैयार करती हैं, जिसमें यह समझा जाएगा कि जो भी समाज महिलाओं और लड़कियों के कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता के सिद्धांत की रक्षा का दावा करता है, उसे यह बात कतई गवारा नहीं होगी कि महिलाएं और लड़कियां कोई वस्तु हैं, जिन्हें खरीदा या बेचा जा सकता है या फिर जिन्हें यौन शोषण का शिकार बनाया जा सकता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो इसका अर्थ है कि महिलाओं खासतौर से आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई स्त्रियों और लड़कियों को एक अलग वर्ग में रखा जा रहा है, जो उनकी सुरक्षा के लिए उठाए जा रहे कदमों और साथ ही हमारे संविधान में उल्लिखित मानव गरिमा के सार्वभौमिक संरक्षण और पिछले साठ वर्षों के दौरान विकसित हुए अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार प्रपत्रों से बाहर हैं।
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Monday, February 18, 2013
यातना का कारोबार
यातना का कारोबार
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39090-2013-02-18-05-38-04
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