अशोक वाजपेयी
आशीष नंदी की दुर्व्याख्या
t/
article/38086-2013-02-03-07-43-06
आशीष नंदी की दुर्व्याख्या
समाजचिंतक आशीष नंदी को बरसों से जानता हूं: हमारे समय और समाज की अनेक सचाइयों को वे जिस तीखी नजर से देखते रहे हैं उनसे प्रभावित भी बहुत हुआ हूं। हमारे यहां हर समय कुछ मुद्दों पर, जैसे कि धर्मनिरपेक्षता, जातिवाद, वंशवाद आदि को लेकर, जैसा मतैक्य-सा होता रहा है उसे नंदी हमेशा प्रश्नांकित करते रहे हैं। उनकी नजर दूसरी नजर है- कइयों को वह टेढ़ी लगती रही है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उसका टेढ़ापन सचाई को समझने में हमारी मदद करता है। वे उन बुद्धिजीवियों में से नहीं हैं, जिन्हें सहमति का ऐश्वर्य दरकार है: वे असहमति के नरक में, जो उनके और मेरे अनुसार भी स्वर्ग ही है, रहते आए हैं।
उन्होंने जयपुर साहित्य समारोह के एक सत्र में, जिसमें 'विचारों के गणतंत्र' पर बहस हो रही थी, शिरकत हुए जो कहा उसे वहां मौजूद मैंने भी सुना। उनकी गहरी व्यंगोक्ति मेरे समझे उतनी ही गहरी पीड़ा से उपजी थी। जो व्यक्ति यह कह रहा था कि 'हमारा भ्रष्टाचार उतना भ्रष्ट नहीं लगता, जितना कि उनका'; जिसने थोड़ी देर पहले यह भी कहा था कि 'भारतीय समाज में सिर्फ चार क्षेत्र हैं जहां सच्ची प्रतिभा को मान्यता मिलती है' और 'वे हैं: दर्शक खेलकूद, मनोरंजन, अपराध और राजनीति'। उन्होंने यह भी कहा कि 'यह कहने से आपको सदमा पहुंच सकता है और मेरा यह कहना बहुत ही अभद्र होगा और लगभग फूहड़ और अश्लील होगा' और फिर वह कहा जिसे लेकर हंगामा हो रहा है। उसे सारे संदर्भ से काट कर देखना अनैतिक है। उनके खिलाफ एक नहीं दो मामले दर्ज किए गए हैं।
जो लोकतंत्र व्यंग नहीं समझ सकता, उसको सह नहीं सकता वह अधिक दिनों तक लोकतंत्र यानी एक खुली व्यवस्था नहीं रह जाएगा। नंदी का लंबा कैरियर है जो उनके एक, भले ही विवादास्पद, वक्तव्य से भुलाया या मिटाया नहीं जा सकता। वे दशकों से अल्पसंख्यकों, दलितों आदि के पक्षधर रहे हैं और उनके वक्तव्य का जो आशय, मीडिया की मेहरबानी और दुष्टता के कारण, लगाया और फैलाया जा रहा है, वह दुराशय है, जानबूझ कर एक बुद्धिजीवी के गंभीर मत का अबौद्धिक या बुद्धिहीन अवमूल्यन है। उन्होंने जयपुर में जो कुछ कहा उसका अर्थ यह कतई नहीं था कि वे पिछड़ी और अनुसूचित जनजातियों में फैल रहे भ्रष्टाचार को, जो इसी मीडिया की मेहरबानी से बहुत दृश्य हो चुका है, ऊंची जातियों में व्याप्त भ्रष्टाचार से अधिक बता रहे थे। यह बहुत दयनीय है कि जो चिंतक दरअसल ऊंची जातियों के अधिकतर अदृश्य भ्रष्टाचार को सामने ला रहा था, उसके विरुद्ध पिछड़ी जातियों के नेता और प्रवक्ता लामबंद हो रहे हैं।
नंदी-प्रवाद, 'विश्वरूपम' पर दोबारा रोक और सलमान रुश्दी के कोलकाता आने पर रोक आदि घटनाएं लोकतंत्र की वर्षगांठ के आसपास होना खतरे की नई घंटियां हैं, जो देश के कई कोनों में बज रही हैं। असहमति पर ये दबाव और बंदिशें हमारे लोकतंत्र को नीचा और ओछा बना रही हैं।
समाजचिंतक आशीष नंदी को बरसों से जानता हूं: हमारे समय और समाज की अनेक सचाइयों को वे जिस तीखी नजर से देखते रहे हैं उनसे प्रभावित भी बहुत हुआ हूं। हमारे यहां हर समय कुछ मुद्दों पर, जैसे कि धर्मनिरपेक्षता, जातिवाद, वंशवाद आदि को लेकर, जैसा मतैक्य-सा होता रहा है उसे नंदी हमेशा प्रश्नांकित करते रहे हैं। उनकी नजर दूसरी नजर है- कइयों को वह टेढ़ी लगती रही है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उसका टेढ़ापन सचाई को समझने में हमारी मदद करता है। वे उन बुद्धिजीवियों में से नहीं हैं, जिन्हें सहमति का ऐश्वर्य दरकार है: वे असहमति के नरक में, जो उनके और मेरे अनुसार भी स्वर्ग ही है, रहते आए हैं।
उन्होंने जयपुर साहित्य समारोह के एक सत्र में, जिसमें 'विचारों के गणतंत्र' पर बहस हो रही थी, शिरकत हुए जो कहा उसे वहां मौजूद मैंने भी सुना। उनकी गहरी व्यंगोक्ति मेरे समझे उतनी ही गहरी पीड़ा से उपजी थी। जो व्यक्ति यह कह रहा था कि 'हमारा भ्रष्टाचार उतना भ्रष्ट नहीं लगता, जितना कि उनका'; जिसने थोड़ी देर पहले यह भी कहा था कि 'भारतीय समाज में सिर्फ चार क्षेत्र हैं जहां सच्ची प्रतिभा को मान्यता मिलती है' और 'वे हैं: दर्शक खेलकूद, मनोरंजन, अपराध और राजनीति'। उन्होंने यह भी कहा कि 'यह कहने से आपको सदमा पहुंच सकता है और मेरा यह कहना बहुत ही अभद्र होगा और लगभग फूहड़ और अश्लील होगा' और फिर वह कहा जिसे लेकर हंगामा हो रहा है। उसे सारे संदर्भ से काट कर देखना अनैतिक है। उनके खिलाफ एक नहीं दो मामले दर्ज किए गए हैं।
जो लोकतंत्र व्यंग नहीं समझ सकता, उसको सह नहीं सकता वह अधिक दिनों तक लोकतंत्र यानी एक खुली व्यवस्था नहीं रह जाएगा। नंदी का लंबा कैरियर है जो उनके एक, भले ही विवादास्पद, वक्तव्य से भुलाया या मिटाया नहीं जा सकता। वे दशकों से अल्पसंख्यकों, दलितों आदि के पक्षधर रहे हैं और उनके वक्तव्य का जो आशय, मीडिया की मेहरबानी और दुष्टता के कारण, लगाया और फैलाया जा रहा है, वह दुराशय है, जानबूझ कर एक बुद्धिजीवी के गंभीर मत का अबौद्धिक या बुद्धिहीन अवमूल्यन है। उन्होंने जयपुर में जो कुछ कहा उसका अर्थ यह कतई नहीं था कि वे पिछड़ी और अनुसूचित जनजातियों में फैल रहे भ्रष्टाचार को, जो इसी मीडिया की मेहरबानी से बहुत दृश्य हो चुका है, ऊंची जातियों में व्याप्त भ्रष्टाचार से अधिक बता रहे थे। यह बहुत दयनीय है कि जो चिंतक दरअसल ऊंची जातियों के अधिकतर अदृश्य भ्रष्टाचार को सामने ला रहा था, उसके विरुद्ध पिछड़ी जातियों के नेता और प्रवक्ता लामबंद हो रहे हैं।
नंदी-प्रवाद, 'विश्वरूपम' पर दोबारा रोक और सलमान रुश्दी के कोलकाता आने पर रोक आदि घटनाएं लोकतंत्र की वर्षगांठ के आसपास होना खतरे की नई घंटियां हैं, जो देश के कई कोनों में बज रही हैं। असहमति पर ये दबाव और बंदिशें हमारे लोकतंत्र को नीचा और ओछा बना रही हैं।
No comments:
Post a Comment