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Sunday, February 17, 2013

बाबा साहब का रास्ता और बामसेफ का विचलन

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बाबा साहब का रास्ता और बामसेफ का विचलन

जय भीम और जय मूल निवासी कहने वाला हर शख्स यह जितनी जल्दी समझ ले कि आंबेडकर विचारधारा का मतलब सिर्फ जाति आधारित पहचान के तहत सत्ता में भागीदारी और मलाईदार तबके की भलाई और उन्हें भ्रष्टाचार और अकूत काला धन इकट्ठा करने की छूट नहीं है, वह बहुजन समाज के लिए ही नहीं, देश और दुनिया की सेहत के लिए भी बेहतर है। कोई भी आज़ादी और परिवर्तन लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से बाहर नहीं है।

 पलाश विश्वास

क्यों आगामी लोकसभा चुनाव के चुनाव से पहले बामसेफ के लोग जिन्हें भड़ुआ दलाल दोगला कहते नहीं थकते थे, उसी जमात में शामिल होने के लिये इसके विरोधी लोगों को ही भगोड़ा और दलाल कहा जा रहा है?

क्या यह सवाल करना असंवैधानिक है कि नये कानून के तहत एक-एक रुपए का गुल्लक चंदा के बजाय हजारों हजार करोड़ रुपयों के कॉरपोरेट चंदा हासिल करने और दूसरों की तरह वैधानिक तरीके से संसाधन जमा करने के रास्ते खोलने और  आय से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने की खुली छूट, काला धन के कारोबार के अलावा कौन सा मक़सद पूरा होना है और इससे राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन का एजेण्डा कैसे पूरा होता है?

फिर बहुजन समाज को मूल निवासी पहचान देने वाले अब यह बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के मुकाबले क्यों बहुजन विमुक्ति पार्टी (बीएमपी) बना रहे हैं? य़ह पार्टी आज़ादी के लिये है या बहुजन समाज पार्टी के मुकाबले राजनीति की मनुवादी व्यवस्था की नयी चाल ?

कृपया बताएं कि अपने ऐतिहासिक जाति उन्मूलन महासंग्राम, समता और सामाजिक न्याय के लिये जिहाद और मनुस्मृति व्यवस्था के पर्दाफाश के लिए प्रतिपक्ष के तीखे से तीखे हमले के बावजूद संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपनी विचारधारा कि मनुस्मृति व्यवस्था का नाश हो, समता और सामाजिक न्याय के आधार पर देश के मूलनिवासियों और बहुजनों को सही मायने में आजादी मिले, सबको समान अवसर और आत्म सम्मान का जीवन आजीविका मिले, प्राकृतिक संसाधनों पर मूल निवासियों को संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूचियों के तहत स्वायत्तता के तहत मालिकाना हक़ मिले- के लिए तानाशाही रवैया अपनाकर लोकतान्त्रिक मूल्यों का विसर्जन कर दिया? कब उन्होंने कहा कि राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन के लिए फण्डिंग सबसे ज्यादा जरूरी है और हमें भीड़ नहीं चाहिये, जो आन्दोलन के लिए नियमित चंदा और डोनेशन दे सकें, ऐसे प्रतिष्ठित लोग ही चाहियें? कब उन्होंने प्रतिपक्ष के विरुद्ध धर्मग्रंथों मनुस्मृति समेत के तार्किक विवेचन, खण्डन मण्डन और जाति उन्मूलन के लिए, बहिष्कृत मूक समाज के सामाजिक-आर्थिक-मानव-नागरिक अधिकारों के लिए अविराम संघर्ष के बावजूद घृणा अभियान, गाली गलौज का सहारा लिया ? क्या उन्होंने संगठन के नाम पर राष्ट्रव्यापी संगठन बनाकर देश के कायदे कानून के खिलाफ निजी संपत्ति बनायी?आयकर विभाग को कभी रिटर्न जमा नहीं किया ? संसाधन जमा करने के लिए कानून का उल्लंघन करते हुए ईसीएस मार्फत अंशदान के लिए बिना समुचित कानूनी आर्थिक प्रक्रिया के कोई काम किया? पन्द्रह-पन्द्रह वर्षों से सालाना करोड़ों रुपए की फंडिंग जमा करने वाले कार्यकर्ताओं को हिसाब माँगने पर, जैसा कि इस देश के आर्थिक प्रबंधन मसलन आयकर विभाग जैसी एजेंसियों को भी करना चाहिये कि संस्था के पंजीकरण के बाद अब तक आयकर रिटर्न दाखिल क्यों नहीं हुये- निकाल बाहर किया जाये?

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

ऐसा कोई मौका बतायें जब बाबा साहेब लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के बाहर गये हों, ब्राह्मणों को गाली देकर सामाजिक क्रान्ति का एकमात्र रास्ता बताया हो? समाज को रिटर्न के नाम पर अपने समुदाय के महज मलाईदार तबके को इकट्ठा करके उनके भयादोहन से निय़मित वसूली के लिए कैडर वाहिनी का निर्माण किया हो? संगठन में लोकतान्त्रिक ढंग से बात करने की किसी को इजाजत न दी हो? भिन्न मत रखने वालों को ब्राह्मणों का एजेन्ट, मनुवादी, कॉरपोरेट दलाल, भगोड़ा कहकर खारिज करते रहे हों? जिन गांधीजी को उन्होंने महात्मा कभी संबोधित न किया हो, उनका और मनुस्मृति व्यवस्था में शामिल दूसरे नेताओं से राष्ट्रीय मुद्दों पर विमर्श करने से इंकार किया हो? बहुजनों के हक़-हकूक के लिए लड़ते हुए कब उन्होंने कहा कि दूसरों का सामाजिक राजनीतिक बहिष्कार किया जाये या अपने लोगों को शासक जातियों से उन्हीं के अंदाज में अस्पृष्यता का व्यवहार करना चाहिये और चूँकि संवाद के माध्यमों में उन्हीं का कब्जा है, इसलिये वहाँ अपने हक़-हकूक की आवाज़ उठाने वाला भगोड़ा, दलाल और भड़ुआ माने जायेंगे?

याद करें कि जब कांशीराम जी ने बामसेफ की नींव पर बहुजन समाज पार्टी बनायी तो राजनीति में शामिल होने के बदले आज़ादी का आन्दोलन जारी रखने के लिए बामसेफ आन्दोलन की निरंतरता बनाये रखने के लिए किन-किन लोगों ने क्या-क्या कहा था? अब एकमात्र पंजीकरण के आधार पर कितने संगठन कितने नाम से बतौर कितने तानाशाहों की निजी जागीर के रुप में चल रहे हैं? हर साल लाखों का मजमा खड़ा किया जाता है, लेकिन वहाँ महज धर्म राष्ट्रवाद की तरह प्रवचन ही होते हैं। एकतरफा घृणा अभियान चलता है। खालिस गाली गलौज होता है। बन्द सम्मेलनों की इस क्रांति का कवरेज न हो ऐसा इंतजाम किया जाता है, जो भिन्नमत रखता हो, उसे बाहर किया जाता है। जो कार्यकर्ता, चाहे जितना बेहतरीन सूझ-बूझ वाला हो, सचमुच विचारधारा और मुक्ति के लिये जनान्दोलन  की बात करता हो, लेकिन फंडिंग के एकमात्र मिशन को नज़रअंदाज़ करता हो, उसे दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया जाता है। तमाम सामजिक शक्तियों के जनसंगठन का भी एकमात्र मकसद फंडिंग है। हिसाब-किताब माँगने वाले कार्यकर्ता या अनियमितता पर उँगली उठाने वाले कार्यकर्ता या नेतृत्व से सवाल पूछने वाले कार्यकर्ता तुरन्त बाहर कर ही नहीं दिये जाते बल्कि उनके विरुद्ध हमलावर तेवर अपनाते हुये उन्हें मनुवादी, ब्राह्मण या ब्राह्मण का रिश्तेदार, दोगला, दलाल, वगैरह वगैरह करार दिया जाता है।

हमें नहीं मालूम कि दुनिया भर के मुक्ति संग्राम में कोई भी जनान्दोलन तानाशाही से कैसे चलता है। हमें नहीं मालूम कि प्रश्न और प्रतिप्रश्न का सामना किये बिना कैसे लोकतन्त्र का कारोबार चलाया जाता है। हमें यह भी नहीं मालूम कि सड़क पर बुनियादी मुद्दों को लेकर लड़े बिना सिर्फ फंडिंग के लिए नेटवर्किंग और राष्ट्रीय मजमा खड़ा करने को कैसे जनान्दोलन कहा जाये?

समय़ इतना भयावह है और नरसंहार संस्कृति का अश्वमेध आयोजन इतना प्रबल है कि गली में खड़े होकर भीषण गाली-गलौज करके इसका मुकाबला हरगिज नहीं किया जा सकता। राष्ट्रव्यापी संयुक्त मोर्चा तमाम सामाजिक और उत्पादक शक्तियों का चाहिये।बहिष्कारवादी भाषा फंडिंग के लिये बहुत उपयुक्त है क्योंकि लोगों को दुश्मन जाति पहचान के आधार पर बहुत साफ़-साफ़ नज़र आते हैं और वे अपना सब कुछ दांव पर लगाकर अन्धे-मूक-बहरे अनुयायी यानी मानसिक गुलाम बन जाते हैंइस सेना से और जो कुछ हो, मुक्त बाजार की वैश्विक व्यवस्था जो महज ब्राह्मणवाद ही नहीं, एक मुकममल अर्थव्यवस्था है, के खिलाफ प्रतिरोध हो नहीं सकता।

अगर वामपन्थी और माओवादी आर्थिक सुधारों के बहाने नरसंहार अभियान के खिलाफ प्रतिरोध खड़ा न कर पाने का दोषी है, तो यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिये कि सामाजिक-भौगोलिक-आर्थिक- ग्लोबल नेटवर्किंग के बावजूद, गाँव-गाँव तक कैडर तैनात करने के बावजूद, बामसेफ के लोगों ने आज तक निजीकरण, ग्लोबलाइजेशन, विनियंत्रण और मुक्त बाज़ार व्यवस्था के खिलाफ, सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के विरुद्ध, जल-जंगल-जमीन और नागरिकता से डिजिटल बायोमीट्रिक नागरिकता के जरिये बेदखली के खिलाफ, कॉरपोरेट नीति निर्धारण के विरुद्ध, नागरिक और मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ कोई प्रतिरोध खड़ा करने की कोशिश ही क्यों नहीं की?
आदिवासियों के हित में पाँचवीं और छठी अनुसूचियों के तहत बाबा साहेब द्वारा दी गयी अधिकारों की गारन्टी को लागू करने की माँग और बहुजनों के हक़-हकूक के लिए भूमि सुधार की माँग पर कोई आन्दोलन क्यों नहीं हो पाया?

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