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Friday, March 8, 2013

मंदी और चुनाव से निपटने का एक और हिंसक प्रयास: बजट 2013

मंदी और चुनाव से निपटने का एक और हिंसक प्रयास: बजट 2013


अंजनी कुमार 

लगभग महीना भर पहले वित्त मंत्री चिदम्बरम का बयान छपा थाः 'आर्थिक वृद्धि राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है'। 28 फरवरी को उनके बजट की मुख्य चिंता बजट घाटे को कम करने पर थी। यह चिंता इतने तक सीमित रहती तब इसे बजट के गुत्थियों को हल करना इतना कठिन भी नहीं होता। मसलन, एक परिवार की कितनी आय है, कितना बचत और कितना खर्च करना है; यह उसके बजट के नफे-नुकसान से तय हो जाता है। उसी के अनुसार वह परिवार अपने खर्च और वितरण की योजना बना लेता है जिससे कि समस्याओं का निराकरण होता चले और परिवार के सभी सदस्य अपना भौतिक और आत्मिक विकास को हासिल करते हुए आगे बढ़ सकें। पर यहां तो मसला देश का है। बजट घाटे को कम करने के लिए किसकी जेब काटनी है, किसे छूना तक नहीं है और किसके लाभ को बनाये रखना है, बल्कि उसमें लगातार बढ़ोतरी करने का जुगाड़ भी करना है; इस सबका निपटारा संसद में बैठे 'चुने गए लोगों' द्वारा तय होता है। इन 'चुने हुए लोगों' को बहुत सारी ताकतें निर्देशित करती हैं। उन्हें साम्राज्यवादी पूंजी, उनके साथ काम कर रहे बड़ी पूंजी के मालिकों की पूंजी, वित्तीय संस्थानों की पूंजी, सट्टेबाजों की पूंजी, बड़े जोतदार व खाद्य पदार्थों के बड़े व्यापारियों की पूंजी के हितों का ध्यान रखना होता है। इसी तरह बजट प्रावधानों में ऐसे समूहों की जेब कुतरने का नियम भी बनाता है जिससे कि वे अपने तबाह हालात से निकलकर बाहर न आ सकें। प्रत्येक बजट के अंत में ऐसे तबाह लोगों की संख्या बढ़ती जाती है। मसलन, किसान-मजदूर, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और विभिन्न भाषाई व राष्ट्रीय समूह बजट के दायरे के सबसे कगार के लोग होते हैं। इस प्रक्रिया से बजट बनाने वाला समूह 'सामाजिक समरसता' को बनाए रखता है। इससे 'राष्ट्रीय सुरक्षा' बनी रहती है।

चिदंबरम ने बजट पेश करते हुए सकल घरेलू उत्पाद के वर्तमान 5.20 प्रतिशत घाटे को 4.80 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा है। इसके लिये तेल और खाद को दिए जा रहे सब्सिडी(?) में 27 हजार 853 करोड़ रुपए की कमी की गई है। जबकि दूसरी ओर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के नाम पर 10,000 करोड़ रुपए दिए गए। इस योजना के तहत सरकारी आंकड़ों के अनुसार 35 करोड़ लोग आते हैं। सार्वजनिक खाद्य वितरण योजना जिसके तहत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना भी चलती है, को 5000 करोड़ की अतिरिक्त सब्सिडी मिली है। कुल 90,000 हजार करोड़ वाली सब्सिडी पर चल रही इस योजना के तहत देश की लगभग आधी आबादी आती है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार खाद्य सुरक्षा के नाम पर इस बजट में वास्तविक बढ़ोत्तरी 10,000 करोड़ न होकर 5000 करोड़ ही है। तेल और कृषि लागत में बढ़ोत्तरी खाद्यान्न और जरूरी सामानों की कीमत व लागत में बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आएगा जबकि दूसरी ओर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कमजोर पड़ने की स्थिति में गरीब और तबाही झेल रहे लोगों के लिए और भी मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी।

दूसरी ओर रक्षा बजट में 14 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करते हुए इसे 2,03,672 करोड़ रुपए कर दिया गया। पिछले बजट से 25,169 करोड़ रुपए की बढ़ोत्तरी के साथ वित्त मंत्री चिदंबरम ने यह भी जोड़ दिया कि यदि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी हुआ तो अतिरिक्त फंड दिया जाएगा। इसके तहत आधुनिक हथियारों की खरीद, आधुनिक हवाई फाइटरों और तकनीकी अपग्रेडेशन की खरीद शामिल है। इसमें एयरक्राफ्ट की खरीद के लिए 33,776 करोड़ का प्रावधान है जो पिछले साल से 1000 करोड़ रुपए अधिक है। आण्विक उर्जा के लिए 9,232 करोड़ रुपए, स्पेस डिफेंस विभाग को 6,792 करोड़ रुपए और तकनीकी व विज्ञान मंत्रालय को 8,257 करोड़ रुपए दिए गए। उपरोक्त चारों क्षेत्र में शोध, खरीद-बिक्री पूरी तरह साम्राज्यवादी पूंजी, तकनीक और उत्पाद पर आधारित है। इस विशाल क्षेत्र में भ्रष्टाचार का एक छोटा सा नजारा पिछले दिनों सामने आया है। हथियारों की खरीद-बिक्री में घोटालों को देखना एक रोजमर्रा की बात हो गई है।

इस बजट में सड़क विस्तार पर जोर है। पिछले 15 सालों से सड़क परियोजनाओं पर हजारों करोड़ रुपए दिये जा रहे हैं। यह कुल जमा आटोमोबाइल क्षेत्र को विस्तारित करने का ही एक प्रयास है। मुफ्त की जमीन, श्रम के कम लागत पर अधिक उत्पाद हासिल करने के लिए भारत आटोमोबाइल कंपनियों के लिए एक विशाल बाजार बनता गया। मुनाफा बनाए रखने और बाजार को विस्तारित करने के लिए जवाहरलाल नेहरू ग्रामीण-शहरी विकास योजना में 14,983 करोड़ रुपए दिये गये जिससे कामर्शियल गाडि़यों की संख्या में वृद्धि हो। विदेशी गाडि़यों के आयात पर कर 13 प्रतिशत कर दिया गया। एसयूवी गाडि़यों के आयात पर कर में मात्र 3 प्रतिशत की वृद्धि की गई जबकि अन्य आयातित गाडि़यों पर किसी भी तरह का कोई कर नहीं बढ़ाया गया।

25 लाख तक होम लोन लेने वालों को टैक्स में एक लाख तक की छूट देने वाले चिदंबरम हाउसिंग व वित्तीय कंपनियों को सांस लेने की फुर्सत देना चाहते हैं। द इंडियन एक्सप्रेस- 1 मार्च 2013, दिल्ली के अनुसार 31 दिसम्बर, 2011 से 31 दिसम्बर, 2012 तक आते आते ग्रास नॉनपरफार्मिंग ऐसेट में 42.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। वित्तीय संस्थानों जिनमें बैंक के अतिरिक्त संस्थान भी शामिल हैं, को इस बजट में पैसा दिया गया है। सार्वजनिक बैंक को 14000 करोड़ रुपए और नेशनल हाउसिंग बैंक को 6000 करोड़ रुपए दिए गए। खेती के हिस्से 27,049 करोड़ रुपए आया। कृषि ऋण के लिए 7 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया। पूर्वोत्तर के राज्यों में हरित क्रांति के लिए 1000 करोड़ और खाद्य विविधता के लिए 500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है।

टैक्सटाइल, घरेलू उद्योग के लिए इस बजट में कोई नया प्रावधान नहीं किया गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण रोजगार व विकास की योजना के लिए कोई नयी सोच सामने नहीं रखी गई है। सार्वजनिक संस्थानों को बेचकर पैसे जुगाड़ने का पुराना तरीका जारी है। इस बजट में ऐसा कर 30,000 करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। गौरतलब है कि वर्तमान वित्तीय वर्ष में आयल इंडिया लिमिटेड, एनटीपीसी, एनएमडीसी, हिंदुस्तान कॉपर में अपनी हिस्सेदारी का कुछ भाग बेचकर सरकार ने 21,504 करोड़ रुपए जुटाये। यह लगभग तय है कि सरकार मार्च में सेल, नाल्को, एमएमटीसी और राष्ट्रीय केमिकल एंड फर्टिलाइजर जैसी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी का कुछ हिस्सा बेचेगी। वित्तीय संस्थानों को लंबी अवधि के बांड बाजार में बेचने की छूट दी गई है। विदेशी कंपनियों को आने-जाने की छूट पहले जैसी ही है। विदेशी कंपनियों के नाम पर या उसकी सहयोगी कंपनियों के आय पर कर थोड़ा बढ़ाया गया है। जिन 'सुपर धनिकों' पर टैक्स लगाने की बात की गई है, यदि उसकी पूरी वसूली दिए गए दर से की जाती है तो भी यह कुल राजस्व का बमुश्किल 0.8 प्रतिशत बनता है।

बजट प्रावधान और वास्तविक खर्च बजट का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। सुपर धनिकों, सुपर लक्जरी कार पर चंद प्रतिशत कर की बढ़ोत्तरी कर 18,000 करोड़ रुपए इकठ्ठा कर लेने का दावा करने वाले चिदंबरम एण्ड कंपनी को उस समय झटका जरूर लगा जब मॉरिशस से काम कर रही वित्तीय संस्थानों पर कर लगाने के अफवाह ने मुंबई शेयर बाजार को नीचे ला पटका। भारत का सकल घरेलू उत्पाद यूपीए के दूसरे कार्यकाल में लगातार 5 प्रतिशत के आसपास बना हुआ है जबकि मुद्रास्फीति दो अंकों तक पहुंच गया है। रुपए का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य गिरने के बावजूद निर्यात में कोई खास वृद्धि नहीं हो पा रही है। बने हुए माल का आवक पूरी तरह खुला हुआ है और जो रिटेल बाजार तक फैलता गया है।

इस सबके बावजूद वित्त मंत्री चिदंबरम की चिंता से 'राष्ट्रीय सुरक्षा' का सवाल नहीं निकला है। वह इसे बजट प्रावधान से हल करने का दावा कर रहे हैं। औद्योगिक और खेती के विकास में लगातार गिरावट और बढ़ती मंहगाई से आम जन के लिए जीना भी दुश्वार हो गया है। चिदंबरम इन तीनों ही मोर्चों पर साम्राज्यवाद आधारित पूंजी और बाजार आधारित विकास के मॉडल को पेश कर रहे हैं। बजट में इस बार बड़े व्यापारियों और लाखों खर्च कर मकान खरीदने ने वालों के लिए ऋण की व्यवस्था है। नौकरशाहों, सेनाधिकारियों, मंत्री-नेताओं के लिए लूट-खसोट की व्यवस्था है। बडे व्यापरियों और विदेशी पूंजी के साथ गठजोड़ कर देश को विदेशी मॉल से पाट देने वालों को छूट दी गई है। बैंकों को अपने बांड जारी कर बाजार से पैसा बनाने की छूट है। अधिसंरचना विकसित करने और ऑटोमोबाइल क्षेत्र को विस्तार करने के नाम पर देशी-विदेशी पूंजी को श्रम व जमीन लूट करने की छूट है। निवेश के लिए किसी भी क्षेत्र में उतरने के लिए साम्राज्यवादी पूंजी को छूट है। चिदंबरम के विकास का यही मॉडल है जिसकी तपिश यहां का आमजन झेल रहा है। मनमोहन सिंह और चिदंबरम अपने-अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं। इस बजट की प्रस्तुति के साथ 'माओवाद' से निपटने के लिए ओडि़सा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड रक्षा व गृहमंत्रालय की सहमति से एकीकृत कमांड में काम करेंगे और साथ ही जमीन पर वे केंद्रीय कोऑर्डिनेशन बनाकर काम करेंगे। विकास का यह मॉडल सुरक्षा के बजट के साथ आया है।

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