Friday, 08 March 2013 10:53 |
केपी सिंह वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया की सबसे बड़ी पांच सौ कंपनियों (फारचून 500) में महिलाओं की भागीदारी को लेकर एक सर्वेक्षण कराया था। निष्कर्ष यह निकला था कि जिन कंपनियों के प्रबंधन में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व मिला था उनमें निवेशकों को तिरपन प्रतिशत अधिक लाभांश और चौबीस प्रतिशत अधिक बिक्री का फायदा मिला था। जाहिर है, महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके आर्थिक प्रगति की रफ्तार बढ़ाई जा सकती है। भारत सरकार महिला सशक्तीकरण के प्रति सदैव सकारात्मक रही है। वर्ष 2001 में महिला सशक्तीकरण से संबंधित राष्ट्रीय नीति की घोषणा की गई थी। इस बहुआयामी नीति में महिलाओं के विकास का वातावरण तैयार करने, समानता के साथ राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में भागीदारी सुनिश्चित करने, भेदभाव समाप्त करने, महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकने और सभी क्षेत्रों में विकास और भागीदारी के एक समान अवसर उपलब्ध कराने का आह्वान किया गया है। राष्ट्रीय नीति के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए वर्ष 2010 में महिला सशक्तीकरण राष्ट्रीय मिशन 'मिशन पूर्ण शक्ति' की स्थापना की गई थी। संयुक्त राष्ट्र ने भी महिला सशक्तीकरण के पांच-आयामी दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों में महिलाओं को राष्ट्रीय मुद्दों पर निर्णायक भूमिका निभाने, विकास के समान अवसरों की उपलब्धता, व्यक्तित्व की महत्ता और स्वेच्छा से जीवन के फैसले करने के अधिकार को अधिमान दिया गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिला सशक्तीकरण के नियामकों को सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में निर्धारित करने की जरूरत है। दो तिहाई मजदूरी के कार्यों को करने के बाद भी महिलाएं केवल दस प्रतिशत संपत्ति और संसाधनों की मालिक हैं। भूमि पर मालिकाना हक से संबंधित अधिकारों में महिलाओं के हक को जमीनी सतह पर स्थापित करने की आवश्यकता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन करके पुश्तैनी जमीन में लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार दे दिया गया है। पर लड़कियों को इस अधिकार की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इसके लिए एक सामाजिक क्रांति की जरूरत होगी। महिलाएं समाज के हाशिये पर ढकेल दिया गया वर्ग हैं, इसमें मतभेद नहीं। भारतीय संविधान में पीड़ित और शोषित वर्गों के लिए समानता के अधिकार से ऊपर उठ कर उनके पक्ष में सकारात्मक भेदभाव करने की अवधारणा को स्थापित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के अनुसार शिक्षण संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और प्रशासन में सभी उपेक्षित वर्गों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने की परिकल्पना की गई है। फिर यह समझ से बाहर है कि अभी तक किसी ने भी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण की मांग क्यों नहीं की है? राजनीति में अब भी एक तिहाई भागीदारी की मांग की जा रही है, जबकि महिलाएं राजनीति में भी आधे हिस्से की हकदार हैं। अपनी जिंदगी के बारे में सभी प्रकार के फैसले, जिनमें जीवन-साथी और व्यवसाय चुनने के फैसले महत्त्वपूर्ण हैं, करने की मुहिम को और गति देने की आवश्यकता है। श्रम और सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लैंगिक वर्गीकरण की दीवार को गिराने से ही महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को बल मिल सकता है। संपूर्ण विश्व में परंपरागत पुरुष-प्रधान समाज में एक और कटु सत्य को आत्मसात करने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के तीन सिद्धांतों पर टिकी वर्ष 1789 की 'फ्रांस की क्रांति' में महिलाओं की स्वतंत्रता और पुरुषों के साथ उनके बराबरी के अधिकार का कहीं भी जिक्र नहीं है। कार्ल मार्क्स का समानता का सिद्धांत भी पुरुष और स्त्री की बराबरी की जद्दोजहद का कभी साक्षी नहीं बन सका। आधुनिक युग में भी जब सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों के अधिकारों की वकालत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर की गई तो औरत के अधिकारों की पूरी वकालत नहीं हो पाई। शायद पुरुष वर्चस्व का उद्घोष इसमें आड़े आता रहा। पर महिला सशक्तीकरण के आंदोलन को पुरुषों के अधिकार छीनने की कवायद नहीं समझा जाना चाहिए। न ही इसे पुरुष बनाम स्त्री मुद्दा बनने देना चाहिए। महिला सशक्तीकरण का हामीदार बनने के लिए पुरुष विरोधी बनना कतई जरूरी नहीं है। सशक्तीकरण अधिकारों का बंटवारा नहीं, बल्कि परिस्थितियों और मापदंडों के सुधार का पर्यायवाची है। अगर महिलाओं की स्थिति में सुधार होता है तो पुरुष की स्थिति में भी सुधार होना स्वाभाविक है। शर-शैया पर लेटे हुए भीष्म ने पांडवों को राजनीति के पाठ पढ़ाते हुए नसीहत दी थी कि किसी राजा की कुशलता इस तथ्य की मोहताज होती है कि उसके राज्य में महिलाओं का सम्मान होता है या अपमान। इसलिए महिला सशक्तीकरण किसी भी राज-सत्ता की उपलब्धियों का सार्थक मापदंड होना चाहिए। अंत में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में सभी को समर्पित उद्गार- 'मैं औरत हूं/ आकाश मेरी बैसाखियों पर टिका है/ इंद्रधनुष मेरी आंखों का काजल है/ सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है/ बादलों में मेरे विचार घुमड़ते हैं/ पर अफसोस/ मेरी अभिव्यक्ति की बयार अभी आना बाकी है।' |
Saturday, March 9, 2013
महिला सशक्तीकरण के वास्ते
महिला सशक्तीकरण के वास्ते
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment