Sunday, 10 March 2013 12:03 |
कृष्णा सोबती स्त्री हो या पुरुष, उन्हें राष्ट्र के लोकतांत्रिक प्रतिमानों के प्रति अपना कर्तव्य निभाना होगा। नागरिक के रूप में हमें जो सुविधाएं-संपन्नताएं राष्ट्र से मिली हैं, उनका कर्तव्यपूर्ण ढंग से ऋण चुकाना होगा। परिवार की व्यवस्था एक दूसरे को दबाने-सताने और अपमानजनक वृत्तियों को हिंसात्मक प्रसंगों में परिवर्तित करने से नहीं- नए समय, नए मूल्यों के अनुरूप अपने को लोकतांत्रिक स्वभाव में ढालने से होगी। गृहस्थी में संबंधों की संवेदनात्मक बुनत अब मात्र संस्कारी अधिकारी और कर्मचारी की नातेगिरी की शक्ल में नहीं चलेगी। 'कोआॅपरेटिव बैंक' के शेयर होल्डरों को यकसां लाभान्वित करने से ही गृहस्थी की पूंजी को नया रूप दिया जा सकेगा। स्त्री सशक्तीकरण को रोकने का समय अब नहीं है। जब भी सामाजिक-नैतिक मूल्यों में परिवर्तन होता है, सतह के ऊपर और सतह के भीतर खलबलियां और विसंगतियां जरूर प्रकट होती हैं। सशक्तीकरण से भयभीत होने की इतनी जरूरत नहीं। वह एक ऐसा यथार्थ है, जिसका विरोध स्वयं हमारे परिवार-संस्थान के लिए कल्याणकारी न होगा। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40536-2013-03-10-06-38-55 |
Sunday, March 10, 2013
बराबरी की नई भाषा
बराबरी की नई भाषा
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