महबूबा था कैसे लिखूं : सत्ता-राजनीति, पुलिस और कविता
Author: समयांतर डैस्क Edition : December 2012
पंकज चतुर्वेदी
लातिन अमेरिका के, स्पेनिश भाषा के प्रतिष्ठित लेखक एडुआर्डो गेलिआनो की एक कहानी 'स्वीकारोक्ति' में दो महिलाओं की हत्या की अभियुक्त एक स्त्री अलमा द अगोस्तो जेल में सजा काट रही है। उसने अपना जुर्म कबूल कर लिया है। कहानीकार ने लिखा है, "जैसा कि रिवाज है, पुलिस ने उसके साथ बलात्कार किया था और उसे यातनाएं भी दी थीं। महीने-भर प्रताडऩाएं देकर पुलिस ने उससे कई अपराध भी कबूल करवा लिए थे। …बिजली के कोड़े की मार किसी को भी विलक्षण किस्सागो बना देती है। उस विलक्षण किस्सागो ने भी ओलंपिक एथलीट की फुरती, ताकतवर उडऩपरी की तेजी और पेशेवर हत्यारे की दक्षता दिखाई। …अभियुक्त ने अपने कपड़े, हाव-भाव, इर्द-गिर्द के बारे में, अपनी स्थिति के बारे में… बारीक-से-बारीक जानकारी भी दी।" एडुआर्डो गेलिआनो की इस छोटी-सी कहानी की आखिरी पंक्ति पूरी कहानी की पृष्ठभूमि को एक बहुत अप्रत्याशित, मगर वास्तविक और विचलित कर देनेवाली रोशनी में रख देती है, "वैसे अलमा द अगोस्तो अंधी थी।"
मशहूर अंग्रेजी लेखिका अरुंधति रॉय की यह प्रिय कहानी है। उन्होंने अपनी पसंदगी की वजह बताते हुए जो कहा है, वह बेहद महत्त्वपूर्ण है, "यह कहानी मुझे पसंद है, क्योंकि यह पुलिसिया बर्बरता को पूरी तरह उघाड़ देती है। मैं लगातार कश्मीर जाती रही हूं। वर्षों से तो नहीं, लेकिन तीन-चार साल तो मुझे वहां जाते हुए हो ही गए हैं और वहां से मुझे जो जानकारियां मिली हैं, मानव-अधिकारों के हनन की, बर्बरता की, पुलिस और सरकार के अत्याचार की, तो यह कहानी मुझे हर बार याद आती रही है और ऐसा नहीं है कि यह अत्याचार, बर्बरता सिर्फ कश्मीर तक सीमित है। ऐसी स्थिति पूरे देश की है। …इस कहानी की पात्र अलमा द अगोस्तो मुझे अपने देश की जेल में हजारों-हजार की संख्या में बंद उन अभियुक्तों की तरह लगती है, जिन्होंने अपना 'अपराध कबूल' कर लिया है, जो उन्होंने कभी किया ही नहीं है।"
भारतीय लोकतंत्र और कविता के संबंध पर विचार करते समय आजादी के बाद की सबसे अहम कुछ घटनाएं याद आती है। इनमें-से पहली है, तेलंगाना किसान आंदोलन का हिंसक दमन, जो नेहरू के शासन-काल में किया गया। इसके बाद नक्सलबाड़ी से उपजे सशस्त्र किसान विद्रोह के प्रति बड़े पैमाने पर सरकार का अभूतपूर्व अत्याचार। फिर 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी का लागू किया जाना। 1984 में भोपाल गैस ट्रेजेडी। 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस, जिसकी चरम परिणति 2002 में गुजरात के सांप्रदायिक कत्लेआम में हुई। बिलकुल आज के दौर की विडंबना सबसे सघन रूप में देखनी हो, तो पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में भूख, गरीबी और ऋणग्रस्तता से मजबूर होकर तकरीबन ढाई लाख किसानों की आत्महत्याओं की हकीकत में इसे देख सकते हैं। …और इन सबसे बढ़कर है छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में सरकार द्वारा गुपचुप ढंग से चलाया जा रहा 'ऑपरेशन ग्रीन हंट', यानी नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर विपन्न और निरीह आदिवासी जनता को जल-जंगल-जमीन के उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाना और इस बेदखली से इनकार करने पर नौकरशाही और पुलिस के जरिए उसकी हत्याओं का इंतिजाम। इस पर भी विरोध न थमे, तो सेना के इस्तेमाल की तैयारी। कश्मीर के ताजा हालात में सरकार के इस 'विचार' की झलक मिलती है कि सेना के सहारे अवाम को काबू में रखा जा सकता है। मगर इतनी सरकारी हिंसा, अन्याय, दमन और उसका दिन-ब-दिन बढ़ता जाता प्रयोग क्यों? इसलिए कि देश को अखंड रखा जाए! इसलिए कि असहमति को जाहिर करने का किसी को हक न हो! इसलिए कि गरीब के दुख-दर्द की कोई सुनवाई न रह जाए! आज के समय की पूर्व-कल्पना रघुवीर सहाय ने मानो आज से चालीस बरस पहले ही कर ली थी:
कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी
और चीख न होगी
हम इस मुकाम तक जिस प्रक्रिया से पहुंचे, उसकी छानबीन के लिए जरा एक नजर 1947 से निर्मित होने वाले भारतीय लोकतंत्र के इतिहास—खासकर उसके चरित्र—को देखें। आजादी के स्वर्ण जयंती वर्ष 1997 में राजनीतिक विचारक विनोद मिश्र ने इस दारुण सचाई की ओर हमारा ध्यान खींचा था,
"आजादी के साथ-ही-साथ गांधी अप्रासंगिक हो गए। यह अजीब विडंबना है, एक अजीब सवाल है लोगों के सोचने के लिए कि जिसे राष्ट्र का प्रतीक माना गया, वह देश के आजाद होने पर अप्रासंगिक हो जाता है। दरअसल गांधी जिस आर्थिक दर्शन के प्रवक्ता थे, आजाद हिंदुस्तान के लिए उसकी प्रासंगिकता खत्म हो चुकी थी। गांधी जिस राजनीतिक पार्टी के सर्वेसर्वा थे, उसे भंग करने की बात उन्होंने ही कही। तो हमारे देश की शुरुआत ही ऐसे होती है—देश दो टुकड़ों में बंटा हुआ, उसका राष्ट्रपिता अप्रासंगिक।"
प्रसंगवश गांधी ने आजाद होते ही कांग्रेस पार्टी को भंग करने की बात क्यों कही, इसका जवाब हमें कविता में मिलता है। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनकी चिता की राख का एक हिस्सा हिमालय पर, एक गंगा नदी में और एक उन खेतों में डाल दिया जाए, जहां भारत के किसान खेती करते हैं। उनकी इस आखिरी इच्छा के पूरा कर दिए जाने के बाद नागार्जुन ने अपनी कविता 'तुमने कहा था' की मार्फत व्यंग्य किया था:
लेकिन, अब इस वक्त
एक बात उठ रही है मन के अंदर
किससे कहूं?
देगा जवाब कौन?…
राख वाली जमीन में
निश्चित ही उपजेंगे प्रचुर अन्न…
लेकिन, टिड्डों का हमला रुकेगा कैसे?
राख वाली नदी का जल
निश्चित ही अधिक निर्मल होगा…
लेकिन, मगर कहां जाएंगे?"
साफ है कि 1947 के पहले से ये टिड्डे और मगर कांग्रेस के अंदर ही थे, जिन्हें गांधी ने पहचान लिया था और जिनकी तादाद धीरे-धीरे बढ़ती रही और वे देश को भीतर-ही-भीतर विकृत तथा नष्ट करते रहे। नौबत यह गुजरी कि आजादी की सुख-सुविधा, संपत्ति और सत्ता आम जनता के नहीं, इसी वर्ग के हाथ आई। बकौल नागार्जुन:
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वो ही सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पंद्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी हैं, बाकी सब पस्त हैं…
साठ के दशक के अंतिम वर्षों में जब पूरे देश में आंदोलन होने शुरू हो गए, सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस से लोगों का मोहभंग होने लगा, उसका एकाधिकार टूटा; तब इंदिरा गांधी ने तरह-तरह से सत्ता के संकेंद्रण की जबरदस्त कोशिशें कीं, जिनमें वे कामयाब भी हुईं; पर इसका खामयाजा राष्ट्रीय राजनीति की प्रगतिकामी सकारात्मक धारा को भुगतना पड़ा। विनोद मिश्र ने इस परिघटना की सही शिनाख्त की है—
"…वह (इंदिरा गांधी) बांग्लादेश युद्ध को अपनी राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण के लिए बखूबी इस्तेमाल करती हैं। लेकिन इससे एक विकृति पैदा होती है, हमारी राष्ट्रीय एकता में डिस्टॉर्शन पैदा होता है। हमारी पूरी-की-पूरी राष्ट्रीय एकता की धारा किसी साम्राज्यवाद के खिलाफ नहीं, धीरे-धीरे पाकिस्तान के खिलाफ बदल जाती है। हम पाकिस्तान के खिलाफ अपनी राष्ट्रीय एकता बना रहे होते हैं और वहीं से हमारी राष्ट्रीय एकता का झुकाव राजनीतिक रूप से हिंदूवाद की ओर शुरू होता है। …इस तरह से राष्ट्रीय एकता के नाम पर एक धार्मिक कट्टरपंथ सिर उठाता है।"
रघुवीर सहाय की एक कविता बहुत खूबसूरती से बताती है कि कैसे अपने वर्चस्व की खातिर राजनीतिक सत्ता-तंत्र जनता में दूसरे, खासकर पड़ोसी मुल्कों के अवाम के प्रति संदेह और नफरत की मानसिकता बनाए रखता है:
राष्ट्रीय गौरव रह गया है अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में/ मोहरा बनकर
पड़ोसी को हराने में, यह गर्व मिटता है
यदि पड़ोसी और हमारी जनता की दोस्ती बढ़ती है
बड़े देशों की राजनीति करने के लिए अपनी जनता को/ तनाव में रखना पड़ता है।
बहरहाल, इंदिरा गांधी ने भारत के संविधान की प्रस्तावना में बयालीसवां संशोधन करके लिखवाया कि यह एक संपूर्ण प्रभुतासंपन्न, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र है। आज ज्यादातर प्रमुख राजनीतिक दलों में अंतर्व्याप्त सांप्रदायिकता की बढ़ी-चढ़ी प्रवृत्ति और उसके समांतर नौकरशाही, पुलिस यहां तक कि कई मामलों में मीडिया और न्यायपालिका की भूमिका के मद्देनजर यह कहना मुश्किल है कि भारत ठीक-ठीक एक धर्मनिरपेक्ष राज्य रह गया है। रही बात समाजवाद की, तो सरकारी नीतियों को देखते हुए उसका नाम लेना भी निरर्थक हो गया है। सरकार ने अपनी आर्थिक संप्रभुता को विश्व व्यापार संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के हाथों गिरवी रख दिया है और नव-उदार अमेरिकी आर्थिक तथा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक दिए हैं। इस परिस्थिति में भारत का शासक-वर्ग अगर साम्राज्यवादी ताकतों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विराट तंत्र की इकहरी, तो यहां की जनता उसकी दोहरी गुलामी की शिकार है। रघुवीर सहाय ने इस विडंबना को उजागर करते हुए लिखा था कि जनता को यह बताना ही बचा है:
अपनों की गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है
और विदेशियों की गुलामी वे अपने करते हों
जिनकी गुलामी तुम करते हो तो वह भी क्या बुरी है
तुम्हें तो रोटी मिल रही है एक जून।
'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' जैसे विशेषणों के संदिग्ध हो जाने के बाद लोकतांत्रिक बने रहना प्राय: नामुमकिन है; क्योंकि ये अलग-अलग नहीं, एक-दूसरे से अविभाज्य तौर पर, द्वंद्वात्मक ढंग से संश्लिष्ट सचाइयां हैं। अगर आप समता नहीं ला सकते, तो लोगों के लिए स्वतंत्रता और न्याय भी सुनिश्चित नहीं कर सकते। कोई अचरज नहीं कि पहले तेलंगाना, नक्सलबाड़ी से जुड़े दमन, इमरजेंसी और अब अघोषित किस्म के 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' के जरिए देश में बचे-खुचे लोकतंत्र पर सरकार सशस्त्र हमलों की रणनीति को अंजाम दे रही है। महज संयोग नहीं कि आजादी के बाद के दो सबसे महत्त्वपूर्ण कवि नागार्जुन और रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में लगातार सरकार द्वारा पुलिस के बढ़ते जाते इस्तेमाल पर बेहद चिंतित और परेशान दिखाई पड़ते हैं। रघुवीर सहाय एक कविता में कहते हैं:
"मैं सब जानता हूं पर बोलता नहीं /मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है/ पुलिस के दिमाग में वह रहस्य रहने दो।"
मगर क्यों? इसलिए कि वे महसूस करते हैं कि जनता और सत्ता के बीच संबंधों में जो सहजता आजादी के कुछ वर्षों बाद तक थी, वह अब मर गई है। शासक भीतर-ही-भीतर असुरक्षित और भयभीत हैं, इसलिए हमलावर हैं। उनके चेहरों से मुस्कानें गायब हो गईं और उनकी जगह "एक दृढ़ निश्चय" ने ले ली है। आलम यह है कि राष्ट्रपति "अपने सिपाहियों से ही मुस्काते" हैं। एक और कविता में कवि 'सिपाहियों की निगाह में अजनबी' हो गया है, क्योंकि उसका और सेनाधिपति का रिश्ता वक्त के साथ कमजोर पड़ गया है। लेकिन वह पहले के मुकाबले—जब सिपाही उसका और अपने मालिक दोनों का कुछ लिहाज करते थे—सिपाहियों के चरित्र में एक बदलाव भी लक्ष्य करता है:
"अब जो हैं इतने उजड्ड हैं कि मैं/सेनाधिपति के लिए चिंतित हूं।"
कहीं-न-कहीं यह एक इशारा है कि आम जनता—जिसके पिछड़े और दमित तबकों में-से ही चुनकर सिपाहियों की नियुक्ति की जाती है—के भीतर की कुंठा, असंतोष और वैचारिक दिशाहीनता अंतत: मौजूदा सत्ता-तंत्र के लिए घातक साबित हो सकती है। यह कविता 1974 के आस-पास की है और भुलाया नहीं जा सकता कि कैसे 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। ऐसे कुछ अपवाद मिलते हैं, पर नियम फिर भी यही है कि तथाकथित लोकतंत्र में प्रभु-वर्ग अपनी हुकूमत को जारी रखने के वास्ते मामूली लोगों की उपेक्षा, अपमान, यहां तक कि उनकी नियोजित किस्म की हत्याएं करने में हिचकता नहीं। अंग्रेज चले गए, मगर भारतीय पुलिस अपनी जेहनियत में अंग्रेज ही है। उसकी भूमिका से कैसी-कैसी विडंबनाएं सामने आती हैं, इसके लिए द्रष्टव्य हैं रघुवीर सहाय की कुछ कविताएं—
आमने-सामने बैठे थे
रामदास मनुष्य और मानवेंद्र मंत्री
रामदास बोले आप लोगों को मार क्यों रहे हैं?
मानवेंद्र भौंचक सुनते रहे
थोड़ी देर बाद रामदास को लगा
कि मंत्री कुछ समझ नहीं पा रहे हैं
और उसने निडर होकर कहा
आप जनता की जान नहीं ले सकते
सहसा बहुत से सिपाही वहां आ गए।
* * *
अपने ही देश के सिपाहियों से
यहां की भीड़ का कत्लेआम
देखकर विश्वास नहीं होता अभी तक
पढ़ा था कि दूसरे देशों में ऐसा करते हैं
* * *
अब कोई मरता है तो लोकतंत्र में वह
दरअसल हत्या होती है
राजा अब कहीं अधिक रक्षित है…
अपने से बहुत दूर जनता के बहुत पास
एक घनी बस्ती में चुनकर गरीब लोग
मार दिए जाते हैं राजा को बनाए रखने के लिए।
* * *
बंदूकें मकानों की तरफ मकानों में लोग
सड़क पर एक एंबुलेंस एक लाश गाड़ी
और एक पुलिस वैन।
प्रसंगवश इमरजेंसी लगाए जाने के ठीक पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर किए गए लाठीचार्ज की बाबत 1974 में नागार्जुन ने लिखा था:
एक और गांधी की हत्या होगी अब क्या?
बर्बरता के भोग चढ़ेगा योगी अब क्या?
पोल खुल गई शासक दल के महामंत्र की।
जयप्रकाश पर पड़ीं लाठियां लोकतंत्र की!
उस लोकतंत्र की भयावहता की कल्पना की जा सकती है, जिसमें वैचारिक असहमति को बर्दाश्त करने का विवेक न हो और जो लाठियों के बल पर चलाया जाता हो। एक और चीज जो इसे चलाती है, वह अथाह पूंजी का अवैध लेन-देन है, जिसे बड़े-बड़े पूंजीपति घराने सरकारें बनाने और गिराने के मौकों पर राजनीतिक दलों को मुहैया कराते हैं। सूटकेसों में भरकर कथित जन-प्रतिनिधियों के घर रुपए भिजवाए जाते हैं। विनोद मिश्र ने ठीक कहा था—
"सरकारें जिस प्रक्रिया में बनती हैं, पूंजी का खेल चलता है। लोग प्रतिनिधि चुनकर भेजते जरूर हैं, लेकिन इसके बाद उन प्रतिनिधियों के जरिए किसकी सरकार बनेगी, किसकी नहीं बनेगी—ये फैसले पूंजीपतियों के जरिए किए जाते हैं।"
आज कोई गरीब आदमी चुनाव लडऩे की कल्पना नहीं कर सकता और कर भी ले, तो पूंजीपतियों की अपार धन-राशि के मोटे चंदे के बगैर चुनाव जीत नहीं सकता। समाज की घोर आर्थिक विषमता इस तरह लोकतंत्र की बुनियाद बनती है, तो बदले में यह लोकतंत्र इस विषमता को अन्याय की चरम सीमा तक पहुंचाता चला जाता है। इसी व्यवस्था में यह संभव है कि मुकेश अंबानी जैसा आदमी झोपड़पट्टियों के बीचोबीच समुद्र-तट पर पचास अरब रुपयों की सत्ताईस-मंजिला स्वप्निल इमारत निहायत निजी विलास और सुख-भोग के वास्ते खड़ी करता है। किसी को उस पर एतिराज नहीं है। उसके खिलाफ कोई कानून नहीं है। दरअसल उसने सबको खरीद लिया है और अपने संभावित विरोध को नष्ट कर दिया है। यह यों ही नहीं है कि कोई भी पूंजीपति अब किसी भी समय किसी भी पार्टी से राज्यसभा की सांसदी 'खरीद' लेता है। इसलिए सारे कानून असंख्य दबे-कुचले आम लोगों, स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, छात्रों, किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के उत्पीडऩ और शोषण के लिए हैं। एक मीडिया, जिससे इस लोकतंत्र में आखिरी उम्मीद लगाई जाती थी, वह भी मुकेश अंबानी जैसे लोगों की ताकत के सामने चकित, सम्मोहित और विनत है। पूरे समाज में गैर-बराबरी की धाक जमी है, जैसी पहले शायद कभी न थी।
वीरेन डंगवाल की एक कविता की पंक्तियां याद आती हैं—
"अब तो डब्बे भी पांच एसी के/ पांच में ठुंसा हुआ बाकी वतन।"
अगर पूंजीपतियों की स्वेच्छाचारिता के खिलाफ कोई आंदोलन छिड़े, तो यह निश्चित है कि लोकतंत्र की लाठियां 'बाकी वतन' पर ही पड़ेंगी। आज के समय में राजनीति प्रबंधन के कौशल में 'रिड्यूस' होकर रह गई है। भ्रष्टाचार का कितना ही बड़ा कांड खुल जाए, कितनी ही बड़ी दुर्घटना हो, अत्याचार हो—पिछले लगभग बीस वर्षों से इसने एक नई संस्कृति विकसित की है—इस्तीफा न देने और सरकारें न गिराने की संस्कृति। यानी त्याग और जोखिम के दो सबसे अहम तत्त्व इस राजनीति ने बिसरा दिए हैं, जिनके बिना कोई भी न्याय, पारदर्शिता या परिवर्तन संभव नहीं है। लगता है, पूरे देश में सरकार ही सरकार है, कोई विपक्ष नहीं है और है भी तो अपने धर्म से वियथित है। इस्तीफा दिया जाएगा तो मजबूरी में, किसी नैतिकता के वशीभूत होकर नहीं। सरकार गिराई जाएगी, तो चुनाव जीतने का वक्त और सुभीता देखकर, किसी परिवर्तनकामी विचार के तकाजे से नहीं। जन-साधारण से इस राजनीति का कोई सच्चा लगाव, संवाद या हमदर्दी नहीं है। पूरी राजनीति ही मानो 'जनता के विपक्ष' में बदल गई है। जनता से एकात्म सच्चा कवि ही हो पाता है या गांधी और लोहिया और माओ सरीखा कोई कवि-हृदय नेता। 1953 में निराला को संबोधित करते हुए नागार्जुन ने अपनी एक दुर्लभ कविता में कवि और शासक के बीच के फर्क को को रेखांकित किया था:
नए हिंद का नया ढंग है, नीति निराली
मुट्ठी-भर लोगों के चेहरों पर है लाली…
हे कवि-कुल-गुरु, हे महिमामय, हे संन्यासी।
तुम्हें समझता है साधारण भारतवासी
राज्यपाल या राष्ट्रप्रमुख क्या समझें तुमको
कुचल रहीं जिनकी संगीनें कुसुम-कुसुम को
जो सरकारें जन-प्रतिरोध को कुचलती हैं, उनका प्रत्याख्यान करना कविता एवं साहित्य का प्राथमिक कर्तव्य है। अन्यथा कविता अपने होने का नैतिक औचित्य साबित नहीं कर सकती। लेकिन जब लेखक सरकार की आलोचना करता है, तो सरकारी प्रचार-तंत्र पूरी शक्ति से यह जताने में लग जाता है कि सरकार ही देश है, इसलिए उसका कोई भी विरोध देशद्रोह के बराबर है। यही वजह है कि इमरजेंसी के दौरान तमाम कवि-लेखक जेल में डाल दिए गए थे। सच तो यह है कि साहित्य में स्वतंत्रता की आकांक्षा, प्रश्नाकुलता की अभिव्यक्ति और आलोचना के बिना व्यवस्था में हम कोई मूलगामी बदलाव लाने की कोशिश ही नहीं कर सकते। अगर वह देशद्रोह है, तो नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक मारिओ वर्गास लोसा के मुताबिक वह महान् साहित्य की अनिवार्य विशेषता है:
"राष्ट्रों के जीवन में साहित्य को महत्त्वपूर्ण स्थान इसलिए दिया जाना चाहिए कि बगैर उसके आलोचनात्मक मानस का—जो राजनीतिक परिवर्तन का यंत्र और जो स्वतंत्रता का सबसे बड़ा पक्षधर होता है—इस कदर ह्रास हो जाएगा कि उसका उपचार नहीं किया जा सकेगा। यह इसलिए कि सभी अच्छा साहित्य उस दुनिया के बारे में, जिसमें हम रहते हैं, रैडिकल प्रश्न पूछता है। हर महान् साहित्यिक कृति, प्राय: बिना कृतिकार की इच्छा के, राजद्रोह की ओर प्रवृत्त होती है।"
कवि विद्रोह करेगा, तो उसका स्वाभाविक नतीजा मुक्तिबोध के शब्दों में यह होगा:
"हाय, हाय! मैंने उन्हें देख लिया नंगा/ इसकी मुझे और सजा मिलेगी।"
इस पृष्ठभूमि में कोई अचरज नहीं कि भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने वर्ष 2010 में उन सभी स्वतंत्र बुद्धिजीवियों, समाज-सेवकों, लेखकों वगैरह को, जो नक्सलवाद का नैतिक-वैचारिक समर्थन करें, दस साल की कैद दिए जाने का कानून बनाने की धमकी दी थी। छत्तीसगढ़ में गांधीवादी समाज-सेवक हिमांशु कुमार का आश्रम उजाड़ दिया गया, डॉक्टर बिनायक सेन को अनेक वर्ष बिना किसी अपराध के जेल में रखा गया और उसके बाद उन्हें रिहा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि डॉक्टर सेन निर्दोष हैं। इस मसले पर अपने अभिमत को आसन्न अतीत में और साफ करते हुए उसने यह विधिक व्यवस्था दी है कि नक्सलवाद या किसी किस्म की विचारधारात्मक राजनीति का समर्थन अगर नैतिक-वैचारिक स्तर पर ही कोई कर रहा है, तो वह अपराध नहीं माना जा सकता। लेकिन यह फैसला आने के पहले आंध्र प्रदेश में नक्सली नेता आजाद को पुलिस ने जिस फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था, उसमें उनके साथ-साथ एक पत्रकार हेमचंद्र पाण्डेय की भी निर्मम हत्या की थी, जिनकी सशस्त्र नक्सली संघर्ष में कोई हिस्सेदारी नहीं थी। लगता है कि इस समूचे पुलिसिया आतंक और दमन के खास किस्म के चरित्र की रघुवीर सहाय को बिलकुल सटीक पहचान थी। तभी एक कविता 'अंधी पिस्तौल' में उन्होंने पुलिस के नए सिपाहियों के बारे में लिखा था:
ये वरदी नहीं पहने हैं सिर्फ कमीज पतलून
उसके नीचे वे सौ फीसदी हिंदुस्तानी हैं
उन्हें वरदी पहनाई गई होती तो अच्छा रहता
अब जब वे पिस्तौल निकालेंगे कितना अचरज होगा
और किस पर दागेंगे यह देखकर तो
और भी ज्यादा।
हाल में भारतीय संविधान और राष्ट्रीय प्रतीक-चिह्नों की आत्मा तथा मौजूदा सत्तापरक राजनीति के भ्रष्ट आचरण के बीच कलह से जन्मी विडंबना पर कार्टून बनाने के लिए महाराष्ट्र पुलिस ने असीम त्रिवेदी को 'देशद्रोह के जुर्म में' बंदी बना लिया था। यह और बात है कि मीडिया, न्यायपालिका, बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक संगठनों आदि के हस्तक्षेप के व्यापक जन-प्रतिरोध में बदलने की आशंका से डरी हुई सरकार ने अंग्रेजों के बनाए हुए कानून की धारा को उन पर से आखिरकार हटा लिया। आज भारतीय लोकतंत्र की हालत यह है कि अगर आप एक मृतात्मा की तरह जीवित रहना चाहते हैं, तो व्यवस्था को आपसे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन अगर आपमें कुछ आत्मा बची है, अन्याय के प्रतिकार का कोई हौसला बचा है; तो आप किसी भी मोड़ पर, कहीं भी और कभी भी मारे जा सकते हैं। रघुवीर सहाय की महान् और कालजयी कविता 'हैं' में संस्कृति मंत्री से राजा कहता है:
यह समाज मर रहा है इसका मरना पहचानो मंत्री…
……………………………………..
यह समाज मर रहा है :…
………………………………………
यह नहीं कि वह सिर्फ कृतित्वहीन है
बल्कि उन कम होते हुए लोगों को भी अधिकाधिक
बड़ा शत्रु मानता जा रहा है जो अब भी अपनी आग से रचते हैं
और अपने लिए रचते हैं अपनी आग…
और कहा उन कम होते हुए लोगों को संस्कृति मंत्रालय भी
अपना शत्रु माने सब समाज के साथ
इसी कविता में बाद में राजा का वक्तव्य है—
"जो अधमरे आदमी हैं वे जिंदा हैं… वही देश के दुश्मन हैं।"
कविता के अंत में संस्कृति मंत्री का बयान है:
जो लोग कम होते जा रहे हैं 'शत्रु हैं' संस्कृति मंत्री ने मन ही मन दुहराया
जो लोग जो लोग जो लोग
कम होते कम होते कम होते
जा रहे जा रहे जा रहे
अंत में उसने कहा हैं हैं हैं
अगर विचार नहीं रह जाते और विचारों को स्वीकारने, समझने और सहने की लोकतांत्रिक 'स्पिरिट' भी नहीं; तो 'हैं हैं हैं' की संस्कृति ही बचती है। यही सत्ता की संस्कृति है। सवाल है कि इस दृष्टिहीनता और पुलिस-मशीनरी के क्रूर, निरंकुश तथा आततायी इस्तेमाल से क्या भारत की अखंडता सलामत रखी जा सकती है? आज देश का संघीय ढांचा खतरे में है। कश्मीर संकटग्रस्त है, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की विशाल आदिवासी जनता संकट में है। संविधान की प्रस्तावना में राज्य के जिस स्वरूप का वादा किया गया है, वह स्वरूप ही संदिग्ध और प्रश्नांकित हो चला है। महज संयोग नहीं कि 1974 में नागार्जुन और रघुवीर सहाय, दोनों ही कवियों ने महसूस किया था कि बाहर से एक दिखने वाला भारत भीतर से कहीं टूट-बिखर और बंट गया है—
भटक गया है देश दलों के बीहड़ वन में
कदम-कदम पर संशय ही उगता है मन में
नेता क्या हैं, निज-निज गुट के महापात्र हैं।
राष्ट्र कहां है शेष, शेष बस 'राज्य' मात्र हैं।
ये नागार्जुन की पंक्तियां हैं और रघुवीर सहाय की एक कविता 'अतुकांत चंद्रकांत' तो जैसे आजाद भारत में लोकतंत्र के इतिहास की समूची विडंबना, उसकी संपूर्ण विसंगति या 'एब्सर्डिटी' को साकार कर देती है। यों तो यह छोटी-सी कविता है, पर वजन में इस अंतर्वस्तु पर केंद्रित कई-कई लेखों पर भारी है:
चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था
सरसठ में लोहिया था और… और क्यूबा था
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था
हर जगह एक सूबेदार था हर जगह सूबा था
* * *
अब बचा महबूबा पर महबूबा था कैसे लिखूं।
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