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Monday, May 4, 2015

मज़दूर वर्ग का नया शत्रु और पूँजीवाद का नया दलाल – अरविन्द केजरीवाल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के कुछ ज़रूरी राजनीतिक कार्यभार

मज़दूर वर्ग का नया शत्रु और पूँजीवाद का नया दलाल – अरविन्द केजरीवाल
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के कुछ ज़रूरी राजनीतिक कार्यभार

ArvindKejriwalहमने पिछले अंक में स्पष्ट किया था कि 'आम आदमी पार्टी' मज़दूरों की मित्र नहीं है। हमने यह नतीजा 'आम आदमी पार्टी' और उसके नेता अरविन्द केजरीवाल के चुनावी घोषणापत्रों और बयानों से निकाला था। तब अरविन्द केजरीवाल की सरकार को बने कुछ दिन ही हुए थे। तब अरविन्द केजरीवाल की सरकार की ठोस कार्रवाइयों के आधार पर यह नतीजा निकालना सम्भव नहीं था। लेकिन पूँजीवादी समाज के भीतर हर पार्टी, हर नेता, हर विचारक किसी न किसी वर्ग की विचारधारा की नुमाइन्दगी करता है और इस वर्ग विचारधारा के विश्लेषण के आधार पर हम उस व्यक्ति, दल, नेता या विचारक की वर्ग पक्षधरता के बारे में कुछ आम नतीजे निकाल सकते हैं। अरविन्द केजरीवाल और 'आम आदमी पार्टी' की राजनीति और विचारधारा की चीर-फाड़ करते हुए हमने पिछली बार स्पष्ट किया था कि 'आम आदमी-आम आदमी' की रट लगाने, 'सदाचार और ईमानदारी' का ढोल बजाने के बावज़ूद इस दल की विचारधारा और राजनीति विशेष तौर पर छोटे और मँझोले लेकिन साथ ही बड़े पूँजीपतियों, मालिकों, ठेकेदारों, दलालों, बिचौलियों, दुकानदारों और व्यापारियों की सेवा करती है। लेकिन बहुत से लोग विचारधारा और राजनीति के विश्लेषण से सन्तुष्ट नहीं होते और वे ठोस कार्रवाइयों के आधार पर फैसला करने का इन्तज़ार करते हैं। अब उन लोगों के लिए भी फैसला करना आसान हो गया है। वैसे तो अभी अरविन्द केजरीवाल सरकार को दो महीने पूरे हुए हैं, लेकिन जैसी कि कहावत है, 'पूत के पाँव पालने में नज़र आते हैं'।

केजरीवाल सरकार के दो महीनेः पूत के पाँव पालने में नज़र आ रहे हैं!

पिछले दो महीनों में अगर केजरीवाल सरकार के काम-काज की बात करें तो एक बात स्पष्ट हो जाती हैः बेशक इस सरकार ने काम किया है! सवाल यह है कि किसके लिए किया है? क्या केजरीवाल सरकार ने पिछले 2 माह में दिल्ली के मज़दूरों और आम मेहनतक़श आबादी के लिए कुछ किया है? अगर किया है तो क्या किया है? पिछले दो महीनों के दौरान केजरीवाल सरकार के कामकाज पर थोड़ा क़रीबी निगाह डालने पर वही नतीजे निकलते हैं जो कि 'आम आदमी पार्टी' की राजनीति और विचारधारा के विश्लेषण से पिछले सम्पादकीय अग्रलेख में हमने निकाले थे। इन्हें हम संक्षेप में हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।

केजरीवाल सरकार ने पिछले दो महीने में पूँजीपतियों, ठेकेदारों और दुकानदारों के लिए क्या किया?

1- पर्यावरण को तबाह करने की पूँजीपतियों को खुली छूट

पिछले दो माह में केजरीवाल अपनी पार्टी के भीतर मची भेड़ियाधँसान में फँसे होने की बजाय बड़ी मेहनत के साथ दिल्ली के मालिकों, ठेकेदारों और दलालों की सेवा में लगा रहा है। सरकार बनाते ही अरविन्द केजरीवाल ने अपने वायदे के मुताबिक दिल्ली के कारखाना मालिकों और धन्नासेठों के लिए 'धन्धा लगाना और चलाना आसान बना दिया।' पहला काम तो केजरीवाल सरकार ने यह किया कि दिल्ली के पूँजीपतियों के लिए कारखाना लगाने और चलाने की प्रक्रिया को आसान बना दिया। इसके लिए कुछ विशिष्ट कारखानों के लिए पर्यावरणीय क्लियरेंस लेने की पूर्वशर्त को अरविन्द केजरीवाल ने समाप्त कर दिया। इससे तमाम कारखाना मालिकों के लिए दिल्ली में बिना रोक-टोक कारखाना लगाना आसान हो गया। अभी हाल ही में पता चला है कि दिल्ली में प्रदूषण ख़तरे के स्तर से ऊपर चला गया है। बताने की आवश्यकता नहीं है कि बढ़ते प्रदूषण का असर सबसे ज़्यादा ग़रीब आबादी पर पड़ता है क्योंकि वह पर्यावरणीय तौर पर पूरी तरह से अरक्षित है। अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने पर्यावरणीय क्लियरेंस की शर्त को हटाकर कारखानेदारों को दिल्ली की आबो-हवा में खुलकर ज़हर घोलने की आज़ादी दे दी है।

2- 'ओ जी, मैं तो बनिया हूँ। धन्धा मेरे ख़ून में है।'

kejriwal baniyaचुनाव के पहले ये अरविन्द केजरीवाल की ही घोषणा थी! इसकी भावना पर अमल करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली के व्यापारियों के लिए वैट का सरलीकरण कर दिया है। इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा दिल्ली के व्यापारियों को पहुँचेगा। 2 फरवरी को व्यापारियों के कई समूह दिल्ली सचिवालय पहुँचे और केजरीवाल सरकार पूँछ हिलाते हुए उनसे मिलने आयी। इसके तुरन्त बाद केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के शहर के ऐसे व्यापारियों के लिए ऑडिट रिपोर्ट-1 जमा करने की पूर्वशर्त ख़त्म कर दी जिनकी साल की आमदनी रुपये 10 करोड़ से ज़्यादा है। इस ऑडिट रिपोर्ट का मक़सद होता है कर चोरी के लिए व्यापारियों द्वारा किये जाने वाले हेर-फेर पर रोक लगाना। अब दिल्ली के बड़े दुकानदार खुलकर इस हेरफेर को अंजाम देंगे। यानी कि व्यापारिक पूँजीपति वर्ग द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार से केजरीवाल को कोई दिक्कत नहीं है! हो भी कैसे! केजरीवाल ने ख़ुद ही कहा था, 'ओ जी मैं तो बनिया हूँ! मेरी तो रग-रग में धन्धा दौड़ रहा है!' इसके अलावा वैट के सरलीकरण का फ़ायदा अब दिल्ली के हर उस व्यापारी को होगा जो कि साल भर में 1 करोड़ रुपये कमाता है।

3- 'ईमानदार' केजरीवाल द्वारा व्यापारियों को भ्रष्टाचार और बेईमानी करने की पूरी आज़ादी

अरविन्द केजरीवाल ने कर चोरी करने वाले दुकानदारों, व्यापारियों और कारखाना-मालिकों पर सरकारी छापों पर रोक लगा दी है! यानी कि अब दिल्ली के कारखाना मालिक, दुकानदार और बड़े व्यापारी जी भर के कर-चोरी और भ्रष्टाचार कर सकते हैं! उन पर किसी भी प्रकार के छापे, रोक-टोक या सज़ा का ख़तरा नहीं होगा। सबसे मज़ेदार बात यह है कि केजरीवाल इसे अपनी एक उपलब्धि के रूप में ऐसे प्रचारित करता है मानो उसने कोई बहुत बड़ा सदाचार का काम किया हो! इससे एक बार फिर साफ़ हो गया कि केजरीवाल हर प्रकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ नहीं है। वह केवल एक प्रकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ है, यानी कि नेताओं और अफसरों द्वारा किया जाने वाला भ्रष्टाचार! अगर यह भ्रष्टाचार ख़त्म भी हो जाये (जो कि पूँजीवादी व्यवस्था के रहते असम्भव है) तो भी इससे आम मेहनतक़श जनता को बहुत फ़ायदा नहीं होने वाला है। इस भ्रष्टाचार में केजरीवाल के निशाने पर केवल वह भ्रष्टाचार है जिसके चलते दिल्ली के पूँजीपतियों, दुकानदारों, ठेकेदारों और व्यापारियों को अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा दिल्ली प्रशासन के अफसरों आदि को देना पड़ता है। यानी कि केजरीवाल केवल उस भ्रष्टाचार को ख़त्म करना चाहता है जिसका मक़सद है मज़दूरों और आम मेहनतक़श आबादी की मेहनत का शोषण करके लूटे गये मुनाफ़े में नेताशाही-नौकरशाही के उस हिस्से को कम करना जो कि उसे भ्रष्टाचार के ज़रिये प्राप्त होता है, जैसे कि तरह-तरह के लाइसेंस देने, इंस्पेक्शन आदि के काम में पूँजीपतियों, दुकानदारों आदि से वसूली जाने वाली रिश्वत। वास्तव में, ये नौकरशाह यह रिश्वत तभी माँग सकते हैं, जब कारखाना-मालिक, दुकानदार वग़ैरह किसी न किसी क़िस्म का भ्रष्टाचार करते हैं। केजरीवाल ने मालिक पूँजीपतियों, ठेकेदार पूँजीपतियों और दुकानदार पूँजीपतियों के भ्रष्टाचार को खुली छूट दे दी है और उनका "उत्पीड़न" करने वाले अफसरी भ्रष्टाचार पर रोक लगा दी है! यही कारण है कि केजरीवाल और उसकी पार्टी को दिल्ली के दुकानदारों, कारखाना मालिकों, उच्च मध्यवर्ग आदि ने जमकर चन्दा दिया, जिसके बूते पूरे शहर में केजरीवाल ने अपने झूठे वायदों से भरे पोस्टर और होर्डिंग टँगवा दिये।

4- केजरीवाल के राज में सिर्फ़ टुटपुँजिये मालिकों, ठेकेदारों और दलालों की ही नहीं, बड़े पूँजीपतियों की भी 'बल्ले-बल्ले'

अरविन्द केजरीवाल ने दो महीने के अपने शासन में ही इस बात के संकेत दे दिये हैं कि उनकी सरकार केवल छोटे पूँजीपतियों, दुकानदारों और ठेकेदारों की सेवा नहीं करेगी, बल्कि बड़ी पूँजी की भी तबीयत से सेवा करेगी। हाल ही में सीआईआई के दिल्ली में हुए एक स्थानीय सम्मेलन में केजरीवाल ने उद्योगपतियों को भरोसा दिलाया कि उसकी सरकार दिल्ली में जमकर निजीकरण करेगी। केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली में बसें चलाना सरकार का काम नहीं है और इस क्षेत्र का जल्द ही निजीकरण किया जायेगा, जिससे कि बसों के अभाव की समस्या दूर हो सके। यानी कि दिल्ली परिवहन निगम के निजीकरण का रास्ता केजरीवाल ने खोलने के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। हम सभी जानते हैं कि अगर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का निजीकरण होता है तो दिल्ली की बसों में किराया इस कदर बढ़ेगा कि उसमें आम ग़रीब आदमी का चलना मुश्किल हो जायेगा। दिल्ली की एक अच्छी-ख़ासी मेहनतक़श आबादी है जो कि रोज़़़ काम पर जाने के लिए दिल्ली मेट्रो रेल का इस्तेमाल नहीं कर सकती क्योंकि वह उसे काफ़ी महँगी पड़ती है। वह पूरी तरह से दिल्ली परिवहन निगम की बसों पर निर्भर है। सभी जानते हैं कि अगर निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ दिल्ली परिवहन निगम को हाथ में लेती हैं तो उनका मक़सद जनता की ज़रूरतों को पूरा करना या उनकी सेवा करना नहीं, बल्कि मुनाफ़ा कमाना होगा। ऐसे में, वह बसों के किराये को अधिकतम सम्भव बढ़ाएँगी, अपनी लागत को घटाने के लिए दिल्ली परिवहन निगम के कर्मचारियों में अधिकांश को ठेके पर रखने का और छँटनी करने का प्रयास करेंगी और हर प्रकार के सुरक्षा मानकों के साथ समझौते करेंगी। ऐसे में, दिल्ली परिवहन निगम की सेवाएँ न सिर्फ़ उपभोक्ताओं के लिए ज़्यादा महँगी हो जाएँगी बल्कि दिल्ली परिवहन निगम की बसें चलाने वाली हज़ारों मेहनतक़शों की आबादी का ठेकाकरण किया जायेगा और उन्हें आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा व अनिश्चितता के गड्ढे में धकेल दिया जायेगा। ज़ाहिर है कि इससे टाटा, अम्बानी, बिड़ला आदि जैसे बड़े पूँजीपतियों को काफ़ी फ़ायदा पहुँचेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे कि दिल्ली विद्युत बोर्ड के निजीकरण से टाटा और अम्बानी को फ़ायदा पहुँचा है।

5- पूँजीवाद का नया दलाल–केजरीवाल, केजरीवाल!

इसी तरह केजरीवाल सरकार ने आते ही पूँजीपतियों, ठेकेदारों और दुकानदारों के लिए अपने पलक-पाँवड़े बिछा दिये हैं। सही मायने में देखें तो थोड़े समय में केजरीवाल सरकार कांग्रेस या भाजपा से भी ज़्यादा नंगई से पूँजी की सेवा करेगी और वह भी 'आम आदमी-आम आदमी' का गाना गाकर! मेहनतकश जनता को लगातार बाज़ार की अन्धी ताक़तों के भरोसे छोड़ दिया जायेगा और सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम ज़्यादा खुले तौर पर करेगी। यह बात दीगर है कि 'आम आदमी पार्टी' और केजरीवाल जैसे भाँडों की राजनीति बहुत दिनों तक नहीं चल पाती है और एक उल्का पिण्ड की तरह उभरने के बाद वह उतनी ही तेज़ी से चारों खाने चित भी हो जाती है। लेकिन तात्कालिक तौर पर पूँजीपति वर्ग की दो सेवा वह कर जाती हैः एक, अन्य नंगी हो चुकी पार्टियों से जनता ऊबी होती है और जनता उन्हें शासन के लिए सहमति नहीं दे रही होती है, ऐसे में, 'सदाचार, ईमानदारी, पारदर्शिता' आदि का ढोल बजाते हुए इस प्रकार की पार्टियाँ आती हैं और पूँजीवादी व्यवस्था को ही पूर्णतः नंगा हो जाने से कम-से-कम कुछ समय के लिए बचा लेती हैं; इतने समय में, लोग कांग्रेस और भाजपा जैसी पुरानी पार्टियों के पापों को कुछ भूल चुके होते हैं और उन्हें माफ़ी देने का मन बना लेते हैं। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था की वैधता लोगों की निगाह में कहीं न कहीं बनी रह जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो लोगों की इस अमानवीय, मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था को बर्दाश्त करने की इच्छा और शक्ति बची रह जाती है। दूसरी सेवा 'आप' जैसी पार्टियाँ बिखरने या हाशिये पर जाने से पहले यह करती हैं कि वह आम आदमी की बात करते हुए तेज़ी से उदारीकरण और निजीकरण के वह कार्य कर जाती हैं जो कि भाजपा या कांग्रेस विश्वसनीयता के संकट के कारण और बड़ी पूँजी के खुले दलालों के तौर पर बेनक़ाब हो जाने के कारण उतनी सुगमता से करने की स्थिति में नहीं रहती है। मिसाल के तौर पर, अगर डी.टी.सी. के निजीकरण पर इस समय कांग्रेस या भाजपा के किसी मुख्यमन्त्री ने बयान दिया होता तो काफ़ी हल्ला मचा होता। लेकिन केजरीवाल इस तरह का बेशर्म बयान देने के बावजूद साफ़-साफ़ बच निकला क्योंकि अभी उसकी राजनीति सन्तृप्ति की मंज़ि‍ल तक नहीं पहुँची है और जनता का एक हिस्सा अभी भी उस पर कुछ यक़ीन करने या कुछ इन्तज़ार करने का हामी है। हालाँकि, यह हिस्सा हर बीतते दिन के साथ ज़्यादा कम होता जा रहा है क्योंकि केजरीवाल 'सदाचार, ईमानदारी, पारदर्शिता, परमार्थवाद' के जिन दावों के साथ लोगों को मूर्ख बनाते हुए सत्ता में आया था, वे दावे अब जनता में मज़ाक का विषय बनते जा रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि केजरीवाल का अपना व्यक्तिगत तानाशाहाना रवैया, सत्ता के प्रति उसकी नंगी भूख उसकी पार्टी के भीतर मचे हंगामे से भी काफ़ी हद तक बेनक़ाब हो गयी है। अब केजरीवाल में जनता को वह मिस्टर सुथरा नज़र नहीं आ रहा है, जिससे उसे काफ़ी उम्मीदें थीं। वे उच्च अपेक्षाएँ धराशायी हो चुकी हैं। लेकिन कई लोग अभी थोड़ा इन्तज़ार करने के मूड में हैं क्योंकि केजरीवाल का रिपोर्ट कार्ड वह भाजपा और कांग्रेस की तुलना में देख रहे हैं। जल्द ही ये बची-खुची अपेक्षाएँ और इन्तज़ार करने का मूड भी ख़त्म हो जायेगा। ऐसे में कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी अगर केजरीवाल सरकार के नेताओं और मन्त्रियों को जनता एक बार फिर से थप्पड़ मारने, मुँह काला करने और जूते मारने का काम करे। ऐसे में, केजरीवाल सरकार भी लगातार ज़्यादा से ज़्यादा तानाशाहाना रवैया अपनायेगी। ज़्यादा सम्भावना यही है कि दिल्ली में पाँच साल की सरकार के बाद केजरीवाल और 'आम आदमी पार्टी' का राजनीतिक कैरियर ही समाप्त हो जाये, वह विसर्जित हो जाये या फिर कोई हाशिये की पार्टी बन कर रह जाये। अब देखते हैं कि केजरीवाल सरकार ने बीते दो महीनों में दिल्ली के मेहनतक़शों के लिए क्या किया है।

केजरीवाल सरकार ने पिछले दो महीने में मज़दूरों और आम मेहनतक़श आबादी के लिए क्या किया?

केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के मज़दूरों और आम मेहनतक़श आबादी को दो महीने में ही बता दिया कि उनको जल्द से जल्द वे वायदे भूल जाने चाहिए जो कि केजरीवाल सरकार ने चुनाव से पहले किये थे। केजरीवाल सरकार ने जो दूसरा काम किया है, वह है मेहनतक़श जनता को कुछ लॉलीपॉप थमाने का। आइये देखें कि केजरीवाल ने जनता के साथ किस प्रकार धोखा किया है।

1- ठेका मज़दूरों के साथ केजरीवाल सरकार का धोखा

2015-03-25-Delhi-lathicharge-6चुनाव के पहले केजरीवाल ने अपने प्रचार में कहा था कि दिल्ली राज्य में नियमित कार्य करने वाले ठेका कर्मचारियों को स्थायी नौकरी दी जायेगी। चुनाव के बाद पहले तो केजरीवाल सरकार ने निजी क्षेत्र में नियमित काम करने वाले सभी ठेका मज़दूरों को स्थायी करने की बात बोलना ही छोड़ दिया। पिछले दो महीनों में केजरीवाल सरकार के किसी भी मन्त्री ने दिल्ली के कारखानों, होटलों, दुकानों आदि में नियमित काम करने वाले क़रीब 55 लाख से भी ज़्यादा ठेका मज़दूरों को नियमित/स्थायी करने की बात नहीं की है। सरकारी विभागों के ठेकाकर्मियों को भी स्थायी करने के लिए केजरीवाल सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है जिसमें 2 से 3 लाख ठेकाकर्मी काम कर रहे हैं। इनमें से अच्छा-ख़ासा हिस्सा सफ़ाईकर्मियों का है जो कि पहले से माँग करते आये हैं कि उन्हें पक्की नौकरी दी जाये। इन सरकारी विभागों के ठेकाकर्मियों के लिए केजरीवाल सरकार ने एक दिखावटी अन्तरिम आदेश जारी किया जिसमें यह निर्देश किया गया था कि 'अगले आदेश तक सरकारी विभाग के किसी ठेकाकर्मी को काम से निकाला नहीं जायेगा।' इसका क्या अर्थ है? सरकारी विभागों में नियमित काम करने वाले सभी कर्मचारियों को एक सप्ताह के भीतर स्थायी रोज़़गार दिया जा सकता है, लेकिन यह करने की बजाय केजरीवाल सरकार ने एक अन्तरिम आदेश दिया जिसके अन्तर्गत उन्हें फिलहाल नहीं निकाला जायेगा। मज़दूरों को अभी भी वेतन के सरकारी मानकों के अनुसार वेतन नहीं मिलेगा, उन्हें स्थायी मज़दूरों वाली अन्य सुविधाएँ नहीं मिलेंगी; उन्हें बस अभी न निकाले जाने का आश्वासन दिया गया और यह आश्वासन भी झूठा साबित हुआ क्योंकि इस अन्तरिम आदेश के कुछ ही दिनों बाद ठेके पर काम करने वाले क़रीब पाँच सौ होमगार्डों को दिल्ली सरकार ने नौकरी से निकाल दिया। यानी कि इस अन्तरिम आदेश का भी कोई मूल्य नहीं है क्योंकि दिल्ली सरकार इसे भी लागू नहीं करेगी! यानी कि निजी क्षेत्र के ठेका मज़दूरों के बारे में तो केजरीवाल सरकार ने साज़ि‍शाना चुप्पी साध ली है और उसके बारे में एक शब्द भी नहीं बोल रही है और सरकारी क्षेत्र के ठेका कर्मचारियों को अन्तरिम आदेश के तौर पर एक झूठे आश्वासन का लॉलीपॉप दे दिया है, जिसको स्वयं दिल्ली सरकार लागू नहीं कर रही है।

ठेका मज़दूरों ने भी केजरीवाल सरकार के वायदे को भूल जाने से इंकार कर दिया है। 25 मार्च को विशेष तौर पर हज़ारों ठेका मज़दूर और साथ ही झुग्गीवासी दिल्ली सचिवालय के बाहर 'वादा न तोड़ो अभियान' के तहत केजरीवाल सरकार को वायदों की याददिहानी के लिए एकत्र हुए। 2 फरवरी को जब कुछ दर्जन व्यापारी केजरीवाल से मिलने दिल्ली सचिवालय गये थे, तब केजरीवाल और उसके मन्त्री अद्भुत गति से पूँछ हिलाते हुए उनसे मिलने आये थे, लेकिन 25 मार्च को जब हज़ारों ठेका मज़दूर वायदों की याददिहानी के लिए दिल्ली सचिवालय गये तो खुद केजरीवाल के कार्यालय से दिल्ली पुलिस को मज़दूरों पर लाठी चार्ज करने का निर्देश आया। नतीजतन, 25 मार्च को पुलिस ने बर्बरतापूर्वक मज़दूरों और औरतों पर लाठी चार्ज किया और उनका माँगपत्रक तक स्वीकार नहीं किया। केजरीवाल सरकार ने इस घटना के बाद यह धुंध फैलाने का प्रयास किया कि दिल्ली पुलिस मुख्यमन्त्री के अन्तर्गत नहीं बल्कि केन्द्र सरकार के अन्तर्गत है। लेकिन यह भी सच है कि दिल्ली की रोज़़मर्रा की क़ानून-व्यवस्था के लिए मुख्यमन्त्री दिल्ली पुलिस को निर्देश देने की शक्ति रखता है और दिल्ली पुलिस तब तक उस निर्देश का पालन करने को बाध्य होती है, जब तक कि वह केन्द्रीय गृहमन्त्री के किसी निर्देश के विरोध में न हो। 25 मार्च की पूरी घटना की विस्तृत रिपोर्ट इस अंक में मौजूद है जिसे आप अवश्य पढ़ें, लेकिन 25 मार्च की घटना से एक बात साफ़ हो गयी हैः केजरीवाल का मज़दूरों को यह सन्देश है कि 'तुमसे हमें वोट चाहिए थे, सो हमें मिल गये। अब अगर तुम वायदों को याद दिलाओगे तो हम तुम पर लाठियाँ बरसायेंगे।' केजरीवाल सरकार को यह मुग़ालता है कि उसके इस कदम से दिल्ली के मेहनतक़श-मज़दूर डर जायेंगे और वायदों को पूरा करवाने की ज़ि‍द छोड़ देंगे। लेकिन यह बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है क्योंकि 25 मार्च के दमन की घटना के ठीक बाद वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र के हज़ारों मज़दूरों ने वहाँ के आम आदमी पार्टी विधायक राजेश गुप्ता का घेराव किया, केजरीवाल का पुतला फूँका और वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में तब तक 'आम आदमी पार्टी' का हर रूप में और आने वाले निगम चुनावों में बहिष्कार का ऐलान किया है। इसके कुछ ही दिनों बाद दिल्ली के खजूरी इलाक़े में केजरीवाल अपने पूरे मन्त्रिमण्डल और 40 विधायकों के साथ सभा करने आया तो इलाक़े के नौजवानों, मज़दूरों और औरतों ने सैकड़ों की संख्या में उसे काले झण्डे दिखाये और उसका पुतला दहन किया, हालाँकि केजरीवाल ने उन्हें गिरफ्तार करवाकर विरोध प्रदर्शन करने से रोकने की पूरी कोशिश की। केजरीवाल की सभा बुरी तरह असफल रही और उसमें बाहर से ट्रकों में भरकर लाये गये 500 लोगों के अलावा इलाक़े के मुश्किल से कुछ दर्जन लोगों ने शिरक़त की। नतीजतन, केजरीवाल 40 से 45 मिनट में ही इस बेइज़्ज़ती से बचने के लिए सभा से अपने मन्त्रियों और विधायकों को लेकर भाग खड़ा हुआ। दिल्ली के अन्य इलाक़ों में भी 25 मार्च की घटना को लेकर रोष व्याप्त है और मज़दूरों के अच्छे-ख़ासे हिस्से में 'आम आदमी पार्टी' का आधार ख़ासा कमज़ोर हुआ है। केजरीवाल सरकार के विरोध में सैकड़ों ठेका शिक्षक कई दिनों से दिल्ली सचिवालय के बाहर बैठे हुए हैं लेकिन केजरीवाल सरकार उनकी कोई सुध नहीं ले रही है। इन सभी घटनाओं ने केजरीवाल और उसके ईमानदारी के ढोल की हवा निकालनी शुरू कर दी है।

2- झुग्गीवासियों के साथ केजरीवाल सरकार का धोखा

केजरीवाल ने चुनावों से पहले कहा था कि 5 वर्षों के भीतर चरणबद्ध तरीके से दिल्ली के अलग-अलग क्षेत्र के झुग्गी-निवासियों को पक्के मकान दिये जायेंगे। ये पक्के मकान भरसक झुग्गी के स्थान पर ही दिये जायेंगे और अगर सम्भव नहीं होगा तो उसके निकट ही दिये जायेंगे। जब केजरीवाल से पूछा गया कि दिल्ली सरकार इसके लिए आवश्यक बजट कहाँ से लायेगी और क्या इसके लिए वह केन्द्र सरकार से अनुदान पर निर्भर नहीं है? तो केजरीवाल सरकार ने कहा कि दिल्ली के व्यापारी और कारखानेदार इसके लिए मदद करेंगे और दिल्ली में अगर भ्रष्टाचार से इन्हें मुक्ति दे दी जाय, तो जो पैसे ये रिश्वत या घूस में देते थे, वह पैसे ये दिल्ली सरकार को देंगे और इससे दिल्ली सरकार को कुछ हज़ार करोड़ रुपयों की आमदनी होगी। इसके आधार पर केजरीवाल ने यह दावा किया था कि दिल्ली सरकार के पास फण्ड की कोई कमी नहीं है और पाँच वर्षों के दौरान ये चरणबद्ध तरीक़े से झुग्गीवासियों को पक्के मकान दे देगी। ज़रा ग़ौर कीजिये कि 12 अप्रैल को केजरीवाल सरकार ने क्या कहा।

12 अप्रैल को केजरीवाल ने खजूरी की आम सभा में कहा कि उसकी सरकार झुग्गियों की जगह पक्के मकान नहीं दे सकती, अगर मोदी की केन्द्र सरकार उसे 10 हज़ार करोड़ रुपये नहीं देती क्योंकि दिल्ली सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह झुग्गीवासियों को पक्के मकान दे सके! केजरीवाल ने चुनाव के पहले कही अपनी बात पर एकदम बेशर्मी से 'यू-टर्न' मार दिया! यानी कि अब झुग्गीवासियों को केजरीवाल सरकार पक्के मकान देने के मामले में हाथ खड़े कर चुकी है और यह शर्त रख रही है कि मोदी सरकार उसे 10 हज़ार करोड़ रुपये देगी तभी वह पक्के मकान देगी! क्या केजरीवाल को यह बात चुनावों के पहले पता नहीं थी? अगर पता थी तो उसने झूठा वायदा क्यों किया? क्यांकि अब मोदी सरकार तो 10 हज़ार करोड़ रुपये देने से रही क्योंकि वह खुद ही बजट घाटे का रोना रो रही है और तमाम सरकारी सेक्टरों के निजीकरण के लिए भूमिका तैयार कर रही है। यानी कि न तो मोदी सरकार पैसा देगी और केजरीवाल सरकार भी, जो कि व्यापारियों को छूट दे-देकर पहले ही दिल्ली सरकार के ख़ज़ाने को खाली कर चुकी है, झुग्गीवासियों को पक्के मकान नहीं देगी! यानी कि झुग्गीवासियों के साथ, जिन्होंने आख़ि‍री चुनावों में मिलकर भारी पैमाने पर केजरीवाल को वोट दिया, एक भयंकर धोखा किया जा चुका है।

12 अप्रैल को ही केजरीवाल ने एक और बात कही। उसने कहा कि पक्के मकानों के लिए (जो कि अब वैसे ही नहीं मिलने वाले हैं!) लोग नयी झुग्गियाँ न बनाएँ! यानी कि अब दिल्ली के ग़रीब मेहनतक़श अगर कहीं मेहनत-मशक्कत करते हैं, कारखानों में अपना हाड़ गलाते हैं, तो वह दिल्ली में अपनी झुग्गी भी नहीं डाल सकते। अगर वे डालेंगे तो केजरीवाल सरकार ने उन पर कार्रवाई का संकेत दे दिया है। यानी कि न तो मज़दूरों की मेहनत निचोड़कर मुनाफ़ा पीटने वाले पूँजीपति मज़दूरों की रिहायश की ज़ि‍म्मेदारी लेंगे और न ही सरकार; और अगर मज़दूर स्वयं कहीं ख़ाली ज़मीन पर अपने काम की जगह के नज़दीक कोई झुग्गी बसाते हैं, तो केजरीवाल सरकार उन्हें ऐसा भी नहीं करने देगी। यानी कि अब मज़दूरों को दिल्ली के बाहर या फिर ग्रामीण दिल्ली के किनारे के इलाक़ों में जाकर रहने की व्यवस्था करनी होगी और लम्बी दूरियाँ तय करके काम पर आना होगा। आने वाले कुछ वर्षों में केजरीवाल सरकार का यह रवैया और खुलकर सामने आ जायेगा। अभी तो सिर्फ़ एक बयान आया है।

केजरीवाल सरकार ने सत्ता में आते ही कहा था कि दिल्ली में कहीं भी झुग्गियाँ तब तक तोड़ी नहीं जायेंगी जब तक कि सरकार उसके स्थान पर पक्के मकान की व्यवस्था न करे। लेकिन यह आदेश भी झूठा निकला क्योंकि इस आदेश के कुछ ही दिनों के बाद आज़ादपुर के जेलरबाग, बादली, बवाना से लेकर तमाम जगहों पर झुग्गियाँ तोड़ी गयीं। 25 मार्च को इन टूटी झुग्गियों के निवासी भी केजरीवाल सरकार के सामने अपनी माँगें लेकर गये थे, जिन पर केजरीवाल ने लाठियाँ बरसवायीं। नतीजतन, यह भी साफ़ हो गया कि झुग्गियों को न टूटने देने के मामले में भी केजरीवाल ने झुग्गीवासियों से झूठ बोला है और उन्हें धोखा दिया है।

3- दिल्ली की आम बेरोज़़गार आबादी से केजरीवाल सरकार का विश्वासघात

केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' ने चुनाव के पहले जारी किये गये अपने '70-प्वाइण्ट एक्शन प्लान' में कहा था कि दिल्ली सरकार में 55 हज़ार पद ख़ाली पड़े हैं जिनपर सत्ता में आने पर तत्काल नियुक्ति आरम्भ करवायी जायेंगी और इन पदों पर स्थायी कर्मचारी के तौर पर नियुक्तियाँ होंगी। साथ ही, यह भी कहा गया था कि सभी ठेका शिक्षकों को स्थायी करने के साथ 17 हज़ार नये शिक्षकों की स्थायी कर्मचारी के तौर पर भर्ती की जायेगी। इसके अलावा, दिल्ली में 5 वर्षों में 8 लाख नये रोज़़गार पैदा करने का वायदा भी केजरीवाल सरकार ने किया था। दिल्ली के लाखों निम्न मध्यवर्गीय और ग़रीब बेरोज़़गारों ने इन्हीं वायदों के आधार पर केजरीवाल को वोट दिया था। लेकिन केजरीवाल सरकार ने पिछले दो महीनों में इन वायदों पर एक शब्द भी नहीं बोला है। कारण यह है कि दिल्ली का और देश का पूँजीपति वर्ग नहीं चाहता है कि सरकारी क्षेत्रों में नयी नौकरियाँ पैदा की जायें; वह तो चाहता है कि तमाम सरकारी क्षेत्रों का भी निजीकरण करके उसे सौंप दिया जाये। और दिल्ली के दुकानदारों-व्यापारियों का सच्चा नुमाइन्दा केजरीवाल उनकी इच्छा की अनदेखी तो कर नहीं सकता है! ऐसे में, इन वायदों के बारे में भी आम आदमी पार्टी सरकार ने एक साज़ि‍शाना चुप्पी साध ली है। केजरीवाल सरकार ने पिछले दो महीने में जो बयान दिये हैं उसमें से 90 प्रतिशत पूँजीपतियों और व्यापारियों की माँगों को पूरा करने को लेकर दिये हैं। 25 मार्च को 'वादा न तोड़ो अभियान' के तहत दिल्ली के आम मेहनतक़शों ने 'दिल्ली राज्य शहरी रोज़़गार गारण्टी विधेयक' पारित करने की माँग भी केजरीवाल सरकार के सामने रखी थी, जिसे सुनने से केजरीवाल सरकार ने इंकार कर दिया था। स्पष्ट है कि यदि 5 वर्षों में सरकार को 8 लाख रोज़़गार पैदा करने हैं तो दो कार्य करने ही होंगेः पहला, दिल्ली में ग़रीबों के लिए ज़रूरी विकास कार्य की एक स्पष्ट योजना, जो कि केजरीवाल सरकार अभी तक नहीं बना पायी है; और दूसरा, जो कि सबसे ज़रूरी है, एक शहरी रोज़़गार गारण्टी विधेयक को पारित करना जिसके तहत इन तमाम विकास कार्यों में दिल्ली की विशाल बेरोज़़गार आबादी को गारण्टी के साथ पक्का काम मिल सके। लेकिन केजरीवाल सरकार ऐसे विधेयक की जगह 'कुशलता-विकास' का नारा दे रही है। इसका क्या अर्थ है? वही जो कि राजीव गाँधी स्वरोज़़गार योजना का था! यानी कि दिल्ली के ग़रीबों को पंचर साटना, बढ़ई का काम, प्लम्बर का काम सिखाया जायेगा और फिर उनसे कहा जायेगा कि 'अब जाओ! अपना धन्धा शुरू कर लो! इसके लिए बैंक से सूक्ष्म ऋण ले लो!' जैसा कि केजरीवाल का सपना हैः दिल्ली में हर कोई धन्धे वाला और पूँजीपति हो जायेगा! ज़ाहिर है यह जनता को मूर्ख बनाने का एक तरीका है। ज़रा सोचिये! अगर हर कोई पूँजीपति या धन्धेबाज़ हो जायेगा तो फिर मज़दूरी कौन करेगा? वास्तव में, केजरीवाल सरकार को 55 हज़ार भर्तियाँ, 18 हज़ार नये शिक्षकों की भर्तियाँ, नये सफाई कर्मचारियों की भर्तियाँ और 5 साल में 8 लाख नये रोज़़गार पैदा करने के वायदे को पूरा नहीं करना है और अब इसके लिए वह तरह-तरह से लच्छेदार बातें करके जनता को भरमाना चाहता है। ज़ाहिर है, ऐसे मंसूबे कामयाब नहीं हो पाते हैं।

4- बिजली और पानी के प्रश्न पर केजरीवाल सरकार द्वारा वायदे पूरा करने की असलियत

केजरीवाल सरकार ने अपनी डूबती नैया को बचाने के लिए दिल्ली भर में पोस्टर और होर्डिंग लगवा दिये हैं कि उसने बिजली के बिल आधे करने और 20 हज़ार लीटर तक पानी को निशुल्क करने का वायदा पूरा कर दिया है! आइये ज़रा इस दावे की असलियत की पड़ताल करें।

जहाँ तक बिजली के बिलों को आधा करने का प्रश्न है वहाँ तीन बातें ग़ौर करने वाली हैं। पहली बात यह कि अरविन्द केजरीवाल बिजली के बिल आधे करने के लिए नि‍जी वितरण कम्पनियों के मुनाफ़े में किसी कमी की बात नहीं कर रहा है, बल्कि दिल्ली सरकार के सरकारी ख़ज़ाने से सब्सिडी देकर बिजली के बिल आधे करने की बात कर रहा है। यह सरकारी ख़ज़ाना कहाँ से आता है? यह आता है दिल्ली की आम जनता द्वारा दिये गये करों, शुल्कों आदि के ज़रिये। ऐसे में, अगर दिल्ली की ही जनता की जेब से पैसे निकाल कर सब्सिडी दी जाती है, तो दिल्ली की जनता को क्या मिला? यानी कि सब्सिडी जनता को नहीं बल्कि बिजली वितरण कम्पनियों यानी कि टाटा और अम्बानी को दी जा रही है! इसके अलावा, अगर सरकारी ख़ज़ाने का इतना बड़ा हिस्सा बिजली कम्पनियों को सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है तो दिल्ली सरकार अपने अन्य ख़र्चों के लिए दिल्ली की जनता पर करों का बोझ बढ़ाने के लिए बाध्य होगी। उस सूरत में दिल्ली में महँगाई में बढ़ोत्तरी होगी। स्पष्ट है कि बिजली के बिलों को आधे करने के पीछे एक तुच्छ चार सौ बीसी छिपी हुई है।

दूसरी बात जो ग़ौर करने वाली है वह यह है कि दिल्ली सरकार के पास एक से दो महीने तक बिजली के बिलों पर सब्सिडी देने की धनराशि है। इसके बाद अगर वह बिजली के बिलों पर बिजली कम्पनियों को सब्सिडी देती है, तो वह अपने कर्मचारियों को वेतन देने की भी स्थिति में नहीं रहेगी। इस स्थिति से बचने के लिए केजरीवाल ने अपने चुनावी वायदे पर पलटी मारी और कहा कि सब्सिडी केवल 400 यूनिट तक ही दी जायेगी। सभी जानते हैं कि दिल्ली के एलआईजी मकान में रहने वाला एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार भी गर्मियों में 400 यूनिट से ज़्यादा बिजली खपत करता है। ऐसे में, दिल्ली की करीब 40 से 50 प्रतिशत आबादी तो वैसे ही सब्सिडी के दायरे से बाहर हो गयी। चुनावों के पहले अरविन्द केजरीवाल ने 400 यूनिट की कोई शर्त सब्सिडी देने के लिए नहीं रखी थी। लेकिन इस पलटी से भी केजरीवाल सरकार बचने वाली नहीं है। ऐसे में, वह दो महीने बाद कोई न कोई नयी पलटी मारेगी जिससे कि बिजली कम्पनियों को सब्सिडी देने का बोझ कम हो सके।

तीसरी बात जो ग़ौर करने वाली है वह यह है कि केजरीवाल सरकार ने चुनावों के बाद एक और पलटी मारी। उसने कहा कि बिजली के बिल आधे करने के लिए सब्सिडी केवल तब तक दी जायेगी जब तक कि एनडीपीएल और बीएसईएस जैसी बिजली वितरण कम्पनियों का कैग द्वारा ऑडिट (खाता-जाँच) नहीं हो जाता है। यदि ऑडिट में यह सामने आता है कि ये बिजली कम्पनियाँ कोई भ्रष्टाचार नहीं कर रही हैं या उनका मुनाफ़ा जायज़ है, तो फिर यह सब्सिडी वापस ले ली जायेगी! ज्ञात हो कि दिल्ली राज्य स्वयं बिजली नहीं पैदा करता है और उसे बाहर से बिजली ख़रीदनी पड़ती है। ऐसे में, दिल्ली राज्य की निजी कम्पनियों द्वारा वितरण में जो ख़र्च आता है, उसके आधार पर एनडीपीएल और बीएसईएस के मुनाफ़े को जायज़ ही ठहराया जायेगा। वैसे भी कैग का कोई भी ऑडिट आज तक कॉरपोरेट विरोधी नहीं हुआ है। अगर कैग बिजली वितरण की कीमत में कुछ कमी की बात करेगा भी तो भी वह कमी मामूली होगी। यानी कि कुछ माह बाद केजरीवाल सरकार सब्सिडी हटा देगी और फिर बिजली के बिलों में 5-7 प्रतिशत कमी करेगी। यानी कि 50 प्रतिशत कमी करने का दावा 5 प्रतिशत कमी पर आकर ख़त्म होगा, और वह भी तब जब कि सर्वश्रेष्ठ स्थिति हो। एक साल बाद नतीजा यह भी हो सकता है कि दिल्ली की जनता को उससे भी ज़्यादा दरों पर बिजली का बिल देना पड़े जितना कि वह शीला दीक्षित की सरकार के तहत दे रही थी। वास्तव में, दिल्ली में बिजली के भयंकर बिलों से राहत देने का केवल एक ही रास्ता है और वह रास्ता है बिजली वितरण के निजीकरण की समाप्ति। पिछली बार के चुनावों के पहले 2014 में केजरीवाल ने एक बार दबे स्वर से कहा था कि अगर बिजली के बिलों का बोझ कम करने के लिए सरकार को वितरण का काम अपने हाथ में लेना पड़ा तो वह लेगी। लेकिन 2015 के चुनावों में केजरीवाल इस बात से पलट गया। इस बार उसने कहा कि हम बिजली वितरण के क्षेत्र को खुली प्रतिस्पर्द्धा के लिए खोल देंगे। इस प्रतिस्पर्द्धा में जीतेगी वही कम्पनी जो कि कम-से-कम दाम पर बिजली दे। लेकिन जो कम्पनी भी यह ठेका जीतेगी, वह मुनाफ़ा कमाने के लिए ही ठेका लेगी, न कि दिल्ली की जनता की सेवा के लिए! ज़ाहिर है, इससे बिजली के बिलों में कोई विशेष कमी नहीं आयेगी और अगर थोड़ी भी कमी आयी तो गुणवत्ता पर स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में, केजरीवाल सरकार बिजली के बिल के अपने 'फ्रॉड' को भी कुछ ही दिनों तक चला पायेगी और उसके बाद उसके पास नंगे तौर पर अपने वायदे से मुकरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा। आिख़री बात यह कि केजरीवाल सरकार ने जो सब्सिडी देने का वायदा किया है वह भी जनता को नहीं मिल रही है और अधिकांश लोगों के बिल बढ़े हुए आये हैं। एनडीपीएल और बीएसईएस के कार्यालयों के आगे अपने बिल कम करवाने वाले लोगों की लाइनें लगी हुई हैं। यानी कि जो जूठन मिलने की सम्भावना थी, वह भी झूठी निकली!

जहाँ तक 20 हज़ार लीटर मुफ़्त पानी की बात है, तो उसमें भी कई बातें ग़ौर करने वाली हैं। चुनाव के पहले केजरीवाल सरकार ने यह नहीं बताया था कि जो घर 20 हज़ार लीटर प्रति माह से ज़्यादा पानी का उपभोग करता है, उस पर पहली यूनिट से शुल्क लगाया जायेगा। अभी भारी संख्या में दिल्ली के घर 20 हज़ार लीटर से ज़्यादा पानी का इस्तेमाल करते हैं, ऐसे में उन्हें सब्सिडी का कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। दूसरी बात यह है कि 25 लाख से ज़्यादा घरों के पास अभी पानी का कनेक्शन ही नहीं है। पहले कनेक्शन लेने का शुल्क लगभग रुपये 3400 मात्र था। लेकिन अब केजरीवाल सरकार ने यह शुल्क बढ़ाकर करीब रुपये 11000 कर दिया है। यानी कि पहले तो वे 25 लाख घर इस भारी रकम को देकर कनेक्शन के लिए आवेदन करें। उसके बाद पानी की लाइन उन तक कब तक पहुँचेगी उसकी भी कोई गारण्टी नहीं दी गयी है। यानी कि केजरीवाल ने एक पक्के टुच्चे दुकानदार की तरह दिल्ली की जनता के साथ डण्डी मारके धोखाधड़ी का रास्ता अपनाया है। जनता को मिलेगा कुछ नहीं, उल्टे उसे नये कनेक्शन के लिए बढ़ी हुई रकम ही देनी पड़ेगी! साथ ही, 20 हज़ार लीटर के ऊपर पहले लीटर से भी बिल देना पड़ेगा। ये बातें चुनाव के पहले तो नहीं बतायीं गयीं थीं। चुनाव के बाद वायदों से मुकरने का केजरीवाल सरकार ने एक नायाब तरीक़ा निकाला हैः हर वायदे के पीछे एक ऐसी पूर्वशर्त जोड़ दो जो पूरी न हो सके और इसके आधार पर वायदे से मुकर जाओ! ज़ाहिर है, यह तकनीक बहुत दिनों तक कारगर नहीं साबित होगी।

निष्कर्ष

हम देख सकते हैं कि नवउदारवाद और निजीकरण की मज़दूर-विरोधी नीतियों को लागू करने के मामले में केजरीवाल और आम आदमी पार्टी कहीं भी भाजपा और कांग्रेस से पीछे नहीं है। बल्कि, तात्कालिक तौर पर और कुछ समय के लिए केजरीवाल इस काम को ज़्यादा प्रभाविता से अंजाम दे सकता है। कारण यह कि वह अभी कांग्रेस और भाजपा जितना बेनक़ाब नहीं हुआ है, हालाँकि नंगे होने की उसकी रफ्तार या दर कहीं ज़्यादा है। दूसरा कारण यह है कि केजरीवाल की राजनीति जिस उच्च नैतिक भूमि से शुरू हुई थी, यानी कि जिस तरह वह 'ईमानदारी' का बाजा बजाते हुए आयी थी, उससे वह पूरी तरह से ज़मीन पर नहीं गिरी है। दिल्ली की टुटपुँजिया और निम्न मध्यवर्गीय आबादी के एक हिस्से में काफ़ी हद तक टूटने के बावजूद अभी भी कुछ उम्मीद है और कांग्रेस और भाजपा से तुलना करते हुए देखने की प्रवृत्ति के कारण उनमें यह मानसिकता भी है कि अभी केजरीवाल सरकार के वायदों की पूर्ति का थोड़ा और इन्तज़ार कर लिया जाये। लेकिन यह भ्रम जिस गति से टूट रहा है, हम कह सकते हैं कि इसकी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा एक साल है और ऐसा भी हो सकता है कि आने वाले छह-सात महीनों में ही दिल्ली में जगह-जगह आम आदमी पार्टी के नुमाइन्दों, नेताओं और मंत्रियों पर अण्डे-टमाटर फेंके जायें। कुछ मज़दूर इलाक़ों में यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इसका अन्य मज़दूर इलाक़ों और निम्न मध्यवर्गीय इलाक़ों तक पहुँचना भी वक़्त की बात है।

ज़ाहिर है, यह प्रक्रिया भी अपने आप नहीं घटित होगी। जनता के बीच वायदा-ख़िलाफ़ी के कारण जो गुस्सा पैदा होगा वह एक निष्क्रिय गुस्सा या निष्क्रिय असन्तोष होगा। इस गुस्से और असन्तोष को, जो कि वस्तुगत तौर पर वायदा-ख़िलाफ़ी से पैदा होगा, एक सक्रिय रूप देना क्रान्तिकारी शक्तियों का काम है, मज़दूर वर्ग की हिरावल ताक़त का काम है। इसके लिए, अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति और विचारधारा और साथ ही उसकी सरकार के मज़दूर-विरोधी चरित्र को हर क़दम पर बेनक़ाब करना होगा और स्पष्ट करना होगा कि अरविन्द केजरीवाल पूँजीवाद का नया दलाल है और मज़दूर वर्ग और आम मेहनतक़श जनता के साथ इसका कुछ भी साझा नहीं है। दिल्ली की मेहनतक़श जनता को बार-बार उसकी ठोस माँगों और 'आप' सरकार के वायदों की पूर्ति के प्रश्न पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। यह समझने की ज़रूरत है कि अरविन्द केजरीवाल और 'आम आदमी पार्टी' एक अलग तौर पर पूँजीवाद की आख़ि‍री सुरक्षा पंक्तियों में से एक है। आख़ि‍री पंक्ति की भूमिका में संसदीय वामपंथ देश के पैमाने पर अस्थायी रूप से थोड़ा अप्रासंगिक हो गया है। व्यवस्था को एक नयी सुरक्षा पंक्ति की ज़रूरत थी और 'आम आदमी पार्टी' ने कम-से-कम अस्थायी तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की इस ज़रूरत को पूरा किया है और जनता का भ्रम व्यवस्था में बनाये रखने का काम किया है। लेकिन इसके बेनक़ाब होने के साथ निश्चित तौर पर मेहनतक़श जनता की राजनीतिक चेतना एक नये स्तर पर जायेगी और ऐसा लगता है कि यह नया स्तर गुणात्मक रूप से भिन्न और उन्नत होगा। दिल्ली में और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मौजूद मज़दूर वर्ग के लिए तो यह बात ख़ास तौर पर लागू होती है। इसलिए मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हिरावल ताक़तों को 'आम आदमी पार्टी' के बेनक़ाब होने की प्रक्रिया को देखते हुए बैठकर आनन्द नहीं लेना चाहिए। इसका अर्थ एक बहुत बड़े अवसर से चूकना होगा। उन्हें इस प्रक्रिया में एक उत्प्रेरक और एक अभिकर्ता की भूमिका निभानी चाहिए; उन्हें इसकी प्रतिक्रिया में पैदा होने वाले जनअसन्तोष को एक रचनात्मक और क्रान्तिकारी दिशा देने के लिए सचेतन प्रयास करने चाहिए; उन्हें मज़दूर वर्ग और आम मेहनतक़श जनता को उसकी ठोस माँगों पर और सरकारी वायदों को पूरा करने के लिए बार-बार गोलबन्द करना चाहिए और बार-बार सड़कों पर संगठित तौर पर उतारना चाहिए। कम-से-कम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हिरावल का यह एक केन्‍द्रीय कार्यभार है। जैसा कि माओ ने कहा था, "आकाश के नीचे हर चीज़ अस्‍त व्‍यस्‍त है। एक शानदार स्थ्‍िाति है।"

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2015


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