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Thursday, June 14, 2012

एजंडा शंघाई में थीम सांग रिफार्म, खुला बाजार और वर्चस्व के लिए राष्ट्रपति चुनाव अब रियेलिटी शो! एकमेव जज सोनिया गांधी!क्या वाम समर्थन से बनेगा बाजार का राष्ट्रपति?


एजंडा शंघाई में थीम सांग रिफार्म, खुला बाजार और वर्चस्व के लिए राष्ट्रपति चुनाव अब रियेलिटी शो! एकमेव जज सोनिया गांधी!क्या वाम समर्थन से बनेगा बाजार का राष्ट्रपति?

पलाश विश्वास

एजंडा शंघाई में थीम सांग रिफार्म, खुला बाजार और वर्चस्व के लिए राष्ट्रपति चुनाव अब रियेलिटी शो! एकमेव जज सोनिया गांधी!क्या वाम समर्थन से बनेगा बाजार का राष्ट्रपति?राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मचा सियासी घमासान और उग्र हो गया है। कांग्रेस ने पहली बार यह साफ कर दिया है कि मनमोहन सिंह 2014 तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे। पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने ममता बनर्जी पर मर्यादा तोड़ने का आरोप लगाते हुए ममता और मुलायम द्वारा सुझाए गए तीनों नाम खारिज कर दिए।राष्ट्रपति चुनाव को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के दिल्ली आने के बाद से शुरू हुआ सियासी घमासान चरम पर पहुंच गया है। कांग्रेस ने पहली बार इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से अपनी चुप्पी तोड़ी है। पार्टी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी दोपहर करीब 12 बजे पत्रकारों के सामने आए और उन्होंने ममता और मुलायम के द्वारा सुझाए गए तीनों नाम खारिज कर दिए।तृणमूल कांग्रेस-सपा गठबंधन द्वारा सुझाए गए तीन नामों के प्रस्ताव को खारिज करते हुए कांग्रेस गुरुवार या शुक्रवार को संप्रग उम्मीदवार के नाम की घोषणा कर सकती है। पार्टी के शीर्ष सूत्रों ने कहा कि कांग्रेस कोर समिति की बैठक के बाद आज शाम या कल घोषणा हो सकती है। तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने कल कहा था कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी कांग्रेस के पहले और दूसरे पसंद हैं।

सत्यमेव जयते!आपको याद होगा कि दिल्ली की नौटंकी का परदा उठने से काफी पहले हमने राष्ट्रपति डा. राधा कृष्णण को मौजूदा राष्ट्रपति के कार्यकाल के प्रसंग में याद किया था।गणतंत्र की स्थापना के साथ संकल्प लिये गये थे, वह सपने अब भी कहीं ठिठके हुये आम जन के मन में, आंखों में तैर रहे है। हो सकें तो उसे दोबारा पढ़ लें।भारत में अंग्रेजी हुकूमत के अवसान के बाद जबसे सत्तावर्ग को सत्ता हस्तांतरण हुआ और बहिष्कार, वर्चस्व व नरसंहार की संस्कृति चालू है,यानी १९४७ से अब तक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था में ग्लोबल समीकरण के मुताबिक तीन महत्वपूर्ण अवसर आये, जब सरकार, नीति निर्धारण, संसदीय​ ​ राजनीति, मीडिया , न्यायपालिका, जन सरोकार, जनांदोलन, प्रतिरोध, समाज और संस्कृति एक मुश्त संक्रमणकाल के जद में आ गये। १९६९ का राष्ट्रपति चुनाव, १९९१ में उदारवादी नरसंहराव का अवतरण और बतौर खुले बाजार के जनक डा. मनमोहन सिंह का भारतीय राजनीति में बतौर​ ​ वाशिंगटन के नुमाइंदा पूरी टीम के साथ बाहैसियत अर्थमंत्री भारतीय संसदीय लोकतंत्र में आविर्भाव। और मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव का शंघाई​ ​ एजंडा।उदारीकरण का यह दूसरा दौर है जहाँ पहुँचकर देश की नियति खासकर गरीब-गुरबों के भाग्य ऐसी कम्पनियों के हाथों सौंप दिया गया हैं जिनके लिए मुनाफा कमाना चाहे जिस कीमत पर संभव हों, एकमात्र लक्ष्य हैं। तीनों मुहूर्त के फिलमांकन में कामन चेहरा प्रणव मुखर्जी का है, जो सर्वत्रे विद्यमान!इसी दरम्यान इंदिरा गांधी के दूरदर्शन अभियान और राजीव गांधी की तकनीक सूचना क्रांति के मध्य सैम पित्रोदा, मंटेक सिंह आहलूवालिया जैसे गैरसंवैधानिक गैर संसदीय चरित्रों का वर्चस्व नीति निर्धारण और अर्थव्यवस्था में निर्णायक बनते जाना भारत के इमर्जिंग मार्केट में समाहित हो जाने की हरिकथा अनंत है।

ताजा खबरों के मुताबिक अब राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम फाइनल होने से पहले कांग्रेस और तृणमूल आमने-सामने हो गए हैं।राष्ट्रपति पद के लिए मची दौड़ में एक और ट्विस्ट आता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस सूत्रों से खबर आ रही है कि राष्ट्रपति पद के लिए तृणमूल कांग्रेस चीफ ममता बनर्जी और समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की ओर से सुझाए गए नामों को स्वीकार नहीं किया जाएगा।कांग्रेस सूत्रों ने बताया कि कलाम पहली पसंद नहीं बन सकते और प्रणब मुखर्जी के नाम को हटाया नहीं जा सकता। दूसरी ओर पीएमओ ने भी राष्ट्रपति पद के लिए प्रधानमंत्री की संभावित उम्मीदवारी की खबर को खारिज कर दिया है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए आम सहमति बनाने के उद्देश्य से यूपीए जल्द ही एक इमरजेंसी मीटिंग बुला सकता है। सूत्रों ने बताया कि यूपीए में किसी एक नाम पर एकमत होने की कोशिश की जाएगी। इसके बाद यूपीए की ओर से किसी एक आधिकारिक नाम की घोषणा भी की जा सकती है। इस बीच खबर है कि प्रणब अब भी कांग्रेस की लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। ममता-मुलायम के ट्विस्ट के बाद कांग्रेस के पास भी चिंतित होने के अपने कारण हैं। यदि यूपीए उम्मीदवार की राष्ट्रपति चुनाव में हार होती है तो सरकार जल्द गिर भी सकती है जिससे आम चुनाव होने की संभावना बढ़ जाएगी। ममता और मुलायम ने साथ आकर राज्यों का एक तीसरा फ्रंट जैसी अटकलों को भी तेज कर दिया है।इन सबके बीच सोनिया गांधी की विश्वसनीयता दांव पर लगी हुई है। कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार को चुनाव के लिए नामांकन कराना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती बनने वाली है। साथ ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए भी यह एक चिंता का विषय है जब सहयोगी उनपर पीएम से अधिक राष्ट्रपति बनने को लेकर विश्वास जता रहे हों।

कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उम्मीदवारी खारिज करते हुए कहा है कि वे उन्हें नहीं छोड़ सकती।

कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी ने संवाददाताओं से कहा, "मनमोहन सिंह 2014 तक प्रधानमंत्री रहेंगे।" उन्होंने कहा, "हम डॉ. मनमोहन सिंह को छोड़ने की स्थिति में नहीं हैं।"

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने राष्ट्रपति पद के लिये अभी तक अपना प्रत्याशी घोषित नहीं किया है, लेकिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा भारतीय जनता पार्टी की सांसद मेनका गांधी की राष्ट्रपति पद के लिए पसंद केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी हैं।उन्होंने कहा कि मुखर्जी एक सुलझे हुए राजनीतिज्ञ हैं तथा वे उन्हें पिछले तीस साल से जानती हैं।श्रीमती मेनका गांधी ने पार्टी नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिये सामने आने को अच्छा कदम बताया और कहा कि वे अच्छे प्रधानमंत्री साबित होंगे। हालांकि इस बारे में कोई भी निर्णय पार्टी को ही लेना है। उन्होंने इस पद के लिये मोदी और पार्टी के अन्य नेताओं के बीच किसी भी विवाद से इन्कार किया।

वित्तमंत्री एवं राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि कांग्रेस नीत यूपीए शीर्ष पद के लिए अपने उम्मीदवार के नाम की जल्द घोषणा करेगी। उन्होंने मंत्रिमंडल की एक बैठक के बाद संवाददाताओं से कहा, कांग्रेस और यूपीए को राष्ट्रपति पद के लिए एक उम्मीदवार निर्धारित करना होगा। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कौन होगा, इस पर जल्द फैसला किया जाएगा।राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर कांग्रेस ने ममता बनर्जी पर विश्वासघात का आरोप लगाया है और लेफ्ट से समर्थन जुटाने की कोशिश में बिमान बोस और बुद्धदेब भट्टाचार्य से संपर्क साधा है। सूत्रों के मुताबिक वित्तमंत्री और राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल प्रणब मुखर्जी ने दोनों नेताओं से फोन पर बातचीत की है।ममता बनर्जी द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम राष्ट्रपति पद के लिए सुझाए जाने के बाद बृहस्पतिवार को शाम होते-होते देश के सर्वोच्च पद का चुनाव और दिलचस्प हो चला है। खबर है कि कांग्रेस द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम खारिज किए जाने के बाद टीएमसी नेता ममता बनर्जी आज शाम 6 बजे फिर से सपा नेता मुलायम सिंह से मुलाकात करेंगी।सोनिया गांधी की तरफ से राष्‍ट्रपति पद के उम्‍मीदवार के तौर पर प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी का नाम पेश करने के बाद मुलायम और ममता ने कलाम, मनमोहन और सोमनाथ का नाम आगे कर दिया। इस पर कांग्रेस ने तृणमूल के खिलाफ हमला बोल दिया है। सूत्र यह भी बता रहे हैं कि कांग्रेस ने प्रणब की उम्‍मीदवार को अपनी इज्‍जत का सवाल बना लिया है और वह वित्‍त मंत्री को रायसीना हिल भेजने के लिए कोई भी जोखिम उठाने को तैयार है। कांग्रेस को राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव से भी साथ मिलता दिख रहा है। लालू ने सोनिया के उम्‍मीदवार को अपना पूरा समर्थन देने का वादा किया है। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस और सपा के बीच पर्दे के पीछे बातचीत जारी है। मुलायम सिंह आज सोनिया गांधी से मिल सकते हैं।दूसरी ओर, कलाम की उम्‍मीदवारी को लेकर एनडीए में मतभेद के संकेत हैं। जद(यू) ने कलाम के नाम पर कोई भरोसा देने से इनकार किया है जबकि शिवसेना ने कलाम को समर्थन देने का वादा किया है। बीजेपी अभी इस बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं बोल रही है। पार्टी का कहना है कि कांग्रेस की ओर से उम्‍मीदवार के नाम का औपचारिक ऐलान होने के बाद ही वह अपनी राय और रणनीति सामने रखेगी। कलाम ने ममता-मुलायम को कहा है कि यदि उन्‍हें 60 फीसदी वोट मिलने की गारंटी मिले तो ही वह राष्‍ट्रपति चुनाव के मैदान में उतरेंगे।

सोनिया की पसंद को नापसंद करके ममता और मुलायम ने कांग्रेस के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है। अब उसके सामने बड़ी समस्या है वोटों की। अगर कांग्रेस प्रणब के नाम पर अड़ती है, तो बिना ममता और मुलायम के वोटों का अंकगणित पूरा होता नहीं दिखता। ममता और मुलायम की इस गुगली के बाद कांग्रेस का राष्ट्रपति चुनाव का गणित बदल गया है।ममता और मुलायम की इस गुगली ने कांग्रेस के होश फाख्ता कर दिए हैं। सोनिया गांधी की पसंद को ममता और मुलायम ने सीधे तौर पर खारिज कर दिया। यही नहीं, पहली बार प्रधानमंत्री का नाम राष्ट्रपति पद की रेस में ला खड़ा किया गया। जाहिर है ऐसे में सवाल उठने लगा है कि अब कैसे बनेगा यूपीए की पसंद का राष्ट्रपति?

प्रतिभा पाटिल का कार्यकाल 25 जुलाई 2012 को खत्म हो रहा है। इससे पहले नए राष्ट्रपति का चुनाव होना है। 19 जुलाई को मतदान होगा और 22 को वोटों की गिनती। राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष मतदान से होता है। जनता की जगह जनता के चुने हुए प्रतिनिधि एक निर्वाचन मंडल या इलेक्टोरल कॉलेज के जरिए राष्ट्रपति को चुनते हैं।

राष्ट्रपति चुनाव में करीब 11 लाख वोट हैं। बहुमत के लिए लगभग 5.5 लाख वोट चाहिए, जबकि कांग्रेस के पास करीब 3.30 लाख वोट है। यूपीए के पास 4.59 लाख वोट है, जिसमें टीएमसी के पास 46 हजार वोट हैं। एनडीए के पास 3.05 लाख वोट हैं।

अन्य के पास 2.64 लाख वोट हैं, जिसमें समाजवादी पार्टी के पास 66 हजार वोटऔर बीएसपी के पास 45 हजार वोट हैं।

पहले कांग्रेस को लग रहा था कि ममता को वह मना लेगी। समाजवादी पार्टी और बीएसपी के समर्थन का उसे पूरा भरोसा था। पहले कांग्रेस की नजर में जो आंकड़ें थे वो ये हैं,  यूपीए+एसपी+बीएसपी= 5.72 लाख यानी बहुमत। क्योंकि बहुमत के लिए चाहिए 5.5 लाख वोट।
अब नए समीकरण के मुताबिक यूपीए के वोट में से टीएमसी के वोट को घटाना होगा यानी यूपीए-टीएमसी=4.14 लाख वोट जो कि बहुमत का आंकड़ा नहीं है। अब अगर इसमें से समाजवादी को भी हटा दें तो आंकड़ा बनता है। यूपीए = (टीएमसी+एसपी)= 3.48 लाख वोट यानी बहुमत नहीं। अब अगर टीएमसी को घटा करके यूपीए के आंकड़े में बीएसपी को जोड़ें तो भी बहुमत का आंकड़ा नहीं आता, क्योंकि बहुमत के लिए चाहिए 5.5 लाख वोट। साफ है ऐसे में कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह ममता और मुलायम दोनों को मनाए।

अगर मान लीजिए कि कांग्रेस यूपीए की अपनी सहयोगी ममता बनर्जी और अपने दोस्त मुलायम को अपनी पसंद पर नहीं मना पाई तो फिर उसे या तो दूसरे दलों का समर्थन लेना होगा या दूसरे दलों में उसे सीपीएम और जेडीयू से प्रणब के नाम पर समर्थन मिल सकता है। जेडीयू के पास 40 हजार वोट हैं। सीपीएम के पास 36 हजार वोट हैं। अगर इन्हें यूपीए-टीएमसी में जोड़ें तो नया आंकड़ा बनता है।

यूपीए-टीएमसी+सीपीएम+जेडीयू= 5.35 लाख जो कि बहुमत के आंकड़े 5.5 लाख से कम है। इन आंकड़ों से साफ है कि अगर ममता और मुलायम कांग्रेस से छिटक गए तो उसकी मुश्किल सुलझने वाली नहीं है। फिर या तो उसे एनडीए की पसंद के साथ जाना होगा या फिर ममता और मुलायम की बात माननी होगी।

भारत अमेरिकी परमाणु संधि, इजराइल के साथ सैन्य गठबंधन,ग्लोबल हिंदुत्व और अंध राष्ट्रवाद ने वर्चस्व की अर्थव्यवस्था को नरसंहार की संसकृति में तब्दील कर दिया जहां राजनीतिक दल और विचारधाराएं गैरप्रसंगिक हो गयीं। विकास, शहरीकरण, औद्यौगीकरण, इंफ्रास्ट्रक्चर, परमामाणु संयंत्र, बड़े​ ​ बांध, शापिंग माल, टौल टैक्स वाले राजमार्ग . सेज, एफडीआई. विनिवेश और निजीकरण, बंदुआ खेती, ठेके पर नौकरी, बेदखली, जनता के ​​विरुद्ध युद्ध, सेऩ्य विशेष अधिकार कानून, आर्थिक सुधार, बहिष्कृत बहुजनों के सफाये और देश निकाला अभियान में सर्वदलीय सहयोग और सहमति ही अब संसदीय राजनीति है, जिसके लिए संविधान और लोकतंत्र की हत्या, कृषि, देहात, उत्पादन प्रणाली, आजीविका, जल जंगल जमीन से बेदखली और निरंकुश बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज अंतिम सत्य है, गांधी, लोहिया, अंबेडकर या मार्क्स के सिद्धांत नहीं। न विचारधाराएं और न चुनाव घोषणापत्रों के ​​उदात्त उद्घोष।तानाशाह हिटलर के प्रचार मंत्री गोबाल्स का एक सूत्र वाक्य है ''आप बिना संकोच झूठ बोलते जाइए तो एक दिन वह झूठ ही सत्य के स्थान पर प्रतिष्ठित हो जाएगा''। तमाम कमजोरियों के बाद भी गरीबी हटाने के सफेद झूठ की चादर लपेटे खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के पैरोकार पूंजी को ग्रहों की जगह प्रतिष्ठित करके भूमंडलीयकरण, उदारीकरण और निजीकरण को गरीबी हटाने का एकमात्र नुस्खा बताकर इस देश की भोली जनता को न केवल गुमराह कर रहे हैं बल्कि देश के साथ दगाबाजी करने में सबसे आगे हैं। उनका दावा है कि विकास होगा, वृद्धि होगी, पूंजी बढ़ेगी तो गरीबी अपने आप घट जाएगी इसलिए आर्थिक सुधारों की दूसरी किश्त इस देश में गरीबी हटाने के नाम पर शुरू कर दिया है। यह सबसे बड़ा धोखा है जिस पर यकीन दिलाने के लिए बड़ी बेशरमी से भूमंडलीयकरण की दुहाई दी जा रही हैं। इसके साथ खड़े है हमारे देश के राजनेता (कुछ गिने-चुने अपवादों को छोड़कर)। तथा पूंजीवादी ताकतों द्वारा पालित-पोषित 'अर्थशास्त्री व हवार्ड में पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी जिन्होंने देश को आधुनिक बनाने का ठेका ले रखा है। अबाध पूंजी प्रवाह के नाम पर कालाधन का मनोरंजक आईपीएल, अछूत भूगोल और जनसमूह के खिलाफ चांदमारी, शेयर बाजार  से जुड़ी अर्थ व्यवस्था, अनुमोदक न्यायपालिका और चीयरलीडर मीडिया दिशाओं में व्याप्त अनंत परिदृश्य है।सत्ता में चाहे जो कोई हो, सत्तावर्ग का एजंडा ही ​​लागू होना है। तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, ओड़ीशा, बंगाल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, नगालैंड, तमिलनाडु, गुजरात, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश की गैरकांग्रेसी सरकारों के एजंडा क्या खुला बाजार के एजंडा से अलग है? क्या वामराज में नदीग्राम,सिंगुर और लालगढ़ कांड नहीं हुए और क्या ममताराज में उसकी निरंतरता की निरंतर अभिव्यक्ति नहीं है?

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव पर संकट के समाधान के लिए गुरुवार को केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी सहित अपनी पार्टी के अन्य नेताओं व द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के टी.आर. बालू से मुलाकात की।

तृणमूल कांग्रेस व समाजवादी पार्टी (सपा) द्वारा कांग्रेस की राष्ट्रपति पद के लिए पसंद को लगभग अस्वीकार कर दिए जाने के एक दिन बाद सोनिया ने अपने 10, जनपथ आवास पर प्रणब, केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम, रक्षा मंत्री ए. के. एंटनी व बालू से मुलाकात की।

बालू ने संवाददाताओं को बताया, "मैंने सोनिया को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की अपनी पसंद बताई। मैं अभी और कुछ खुलासा नहीं कर सकता। सोनिया की ओर से एक-दो दिन में नाम की घोषणा की जाएगी।"

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने बुधवार को प्रणब को राष्ट्रपति व हामिद अंसारी को उप राष्ट्रपति बनाए जाने के सोनिया के फैसले को अस्वीकार कर दिया था।

ममता व मुलायम ने राष्ट्रपति पद के अपने उम्मीदवार के रूप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का नाम सुझाया है।

पार्टी सूत्रों ने बताया कि इस संकट से उबरने का रास्ता निकालने के लिए गुरुवार शाम 5.30 बजे कांग्रेस कोर समूह की बैठक हो सकती है।

उधर इस मामले में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी एआईएडीएमके नेता और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता से मुलाकात करेंगे।

उधर एनसीपी नेता शरद पवार के घर में मुलाकात करेंगे जिसमें राष्ट्रपति के मुद्दे पर बात होगी।
जदयू के नेता भी अपने नेताओं को जमाकर इस मुद्दे पर बात करनेवाली है। जदयू ने भी अब तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं।

राष्ट्रपति चुनाव में जो सर्वदलीय सहमति का आलम है, वह न तो शरीकी राजनीति, राज्यों के शासकदलों और क्षत्रपों की निर्म सौदेबाजी और न ही य़ूपीए और एनडीए के अंतर्कलह का परिसर है, जैसा कि दिखाया जा रहा है, बल्कि यह कारपोरेट लाबिइंग, बाजार, कारपोरेट साम्राज्यवाद युद्ध गृहयुद्ध पोछित वैश्विक पूंजी के सामूहिक दबाव का असर है। १९९१ के बाद से जारी उदारीकरण का पहला दौर वैश्विक मंदी और अमेरिकी युद्धक अर्थवयवस्था के साथ पूरा हो चुका है। मध्यपूर्व से युद्धक्षेत्र अब दक्षिण एशिया में स्थांतरित है क्योंकि वैश्विक पूंजी की जीजिविषा भारत और चीन को फतह करने के बिना दम तोड़ने की हालत में है।। चीन की अर्थव्यवस्था में खुलापन और पारदर्शिता नहीं है। यूरोप सकट में है, जैसा ग्रीस, आयरलैंड और पुर्तगाल की समस्याओं में दिखता है। भारत में सामाजिक स्थिरता नहीं है। रूस खंडित हो चुका है।गरीबी हटाने के लिए आज से पहले भी बड़े-बड़े जतन किए गए हैं। आज से 40 साल पहले गरीबी हटाने के नाम पर तथा तेजी से विकास के लिए ही इन्दिरा गाँधी ने समाजवादी सोच के साथ राज्य की ताकत को बढ़ाया था। पर उससे न समाजवाद आया न राज्य ही सर्वहारा का हितचिन्तक हुआ। अब तक के प्रयासों को छोड़ भी दें तो भूमंडलीयकरण के पिछले अनुभव पूंजीवादी अनुभव ही कहाँ सुखद रहे हैं? पूंजीवादी राष्ट्र ही भूमंडलीयकरण के जरिए कहां स्वर्ग बन गए हैं? भारत को तो मात्र 20 साल का अनुभव हैं पर कम्युनिस्ट देशों के अलावा बाकी संसार इस दौर में पहले से ही शामिल रहा है पर उनकी हकीकत क्या है। संसार में निर्धनतम 20 प्रतिशत लोगों और अमीर बीस प्रतिशत लोगों की आमदनी में आखिर भूमंडलीयकरण ने ही तो एक और चैहतर का फर्क कायम किया हुआ है। सन् 1960 में सह असमानता बारह गुनी थीं, सन् 1990 में यह अठारह गुनी हो गई और अब यह बढ़कर चैहतर गुना पहुँच गया है। गरीबी हटाने के लिए उदारीकरण की आवश्यकता का यह सब दावा खोखला करने के लिए काफी नहीं हैं कि भूमंडलीयकरण ने गरीबी अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के कारण जागतिक व्यापार के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन हुआ है। दुनिया के राजनैतिक और आर्थिक प्रबंध का बड़े पैमाने पर केन्द्रीकरण इसका एक मुख्य पहलू है। वैश्वीकरण का उद्देश्य है पृथ्वी के सब देशों की आर्थिक प्रवृत्तियों को एक ही सूत्र में बाँधकर, एक ही दिशा में मोड़कर विकास की मौजूदा अवधारणा के काम में लगाना। अपेक्षा यह है कि संस्कृति और परम्परा की दृष्टि से एक-दूसरे से इतने भिन्न जितने भारत, स्वीडन, थाईलैंड, ब्राजील, फ्रांस या भूटान हैं-ये सब एक से ही जीवन मूल्य, एक सी ही जीवनशैली और विकास के एक से ही पैमाने अपनायें। सब देशों के लोग बहुराष्ट्रीय या वैश्विक व्यापारी, निगमों, 'फास्ट-फूड' रेस्तराओं, रेडीमेड कपड़े के विक्रेताओं , टेलीवीजन और फिल्मों पर निर्भर हो जायें। इससे बिना भिन्न-भिन्न स्थानीय संस्कृतियों या पसंदगी की चिन्ता किये उन विशालाकाय व्यापारी निगमों की मुनाफे की हवस पूरी होगी, वे नये-नये बाजारों में अपना पाँव फैला सकेंगें।

मजे की बात यह है कि इसी वैश्विक पूंजी की जीजिविषा से जुड़ी है भारतीय सत्तावर्ग की वर्चस्व और बहिष्कार की राजनीति और भारतीय अर्थ व्यवस्ता, बहुसंख्यक जनसमुदाय से नहीं और न ही संसद, जनता और लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह है यह।हमारे शेयर बाजार में आ रहे उछाल का भी वैश्विक आधार है। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद हमारी कंपनियों को खुली सास लेने का मौका मिला है। स्वदेशी जागरण मच एव वाम पार्टियों के विरोध के कारण काग्रेस एव भाजपा सरकारें विदेशी कंपनियों को ताबड़तोड़ प्रवेश की छूट नहीं दे सकीं थीं। इससे भारतीय कंपनियों को वैश्विक कार्यप्रणाली, क्वालिटी कंट्रोल तथा तकनीकों को हासिल करने का अवसर मिल गया था। आज भारतीय कंपनिया भारी लाभ कमा रही हैं, जबकि अमेरिकी कंपनिया सकट में हैं। हमारे पास सस्ते श्रम और उच्च तकनीकों का विजयी सयोग उपलब्ध है।भारतीय श्रमिकों के वेतन में विशेष बढ़त होने की संभावना भी कम ही है। चुनिदा बड़े शहरों में श्रम की माग बढ़ने से सामान्य वेतन नहीं बढ़ता है। विकसित देशों की तुलना में हमारे श्रमिकों का वेतन लंबे समय तक कम रहेगा। इसलिए हमारा माल सस्ता पड़ता रहेगा और हमारी कंपनिया भारी लाभ कमाती रहेंगी। मूल बात है कि अमेरिकी डालर के टूटने से सुरक्षा चाहने वाले निवेशक सोना-चादी खरीद रहे हैं और इनका दाम बढ़ रहा है। निवेशक भारतीय कंपनियों के शेयर खरीद रहे हैं और हमारा शेयर बाजार उछल रहा है। यह सुखद परिस्थिति टिकेगी। एकमात्र खतरा आतरिक विस्फोट का है। सस्ते श्रम और बढ़ती अमीरी से गरीब का मन उद्वेलित होता है। आने वाले समय में नक्सलवाद सरीखे आंदोलन जोर पकड़ सकते हैं। इससे हमारी अंतरराष्ट्रीय साख पर आच आएगी और हमारा शेयर बाजार टूट सकता है।


इसीलिए आर्थिक सुधारों के जरिए सत्तावर्ग, वर्चस्व व्यवस्था और वैश्वक पूंजी के हितों को सुनिस्चत करने के लिए कानून के शासन का कायाकल्प करना जरूरी है। पर आरथिक सुधार की गति में तेजी लाने में , वित्तीय कानूनो को पास कराने में मनमोहन प्रणव की जोड़ी सत्तावर्ग की अपेक्षाओं के मुताबिक खरी नहीं उतरी कसौटी पर। राष्ट्रपति चुनाव को लेक उत्पन्न संकट के पीछे की कहानी बस इतनी सी है। भारत में खेती को पूरी तरह तबाह किये बिना, परंपरागत आजीविका और काम धंधे खत्म किये बिना, किसानों, आदिवासियों को बंधुआ मजदूर बनाये बिना, प्राकृतिक संसाधनों को पूरी तरह लूटे बिना,​​ नागरिक और मानवअधिकारों के खुले उल्लंघन के बिना, जनांदोलनों और प्रतिरोध की हर संभावना को माओवादी और राष्ट्रविरोधी घोषित​ ​ किये बिना, बहिष्कृतों की नागरिकता और पहचान मिटाये बिना, भूमि , जल और जंगल से बेदखली के अनंत अधिकार हासिल किये बिना ​​वैश्विक पूंजी के आर्थिक सुधारों का एजंडा पूरा नहीं होता। नरसंहार संस्कृति के समावेशी विकास के लिए नीति निर्धारण की विकलांगता, प्रशासन में अपारदर्शिता और राजनीतिक बाध्यताओं का कुल मिलाकर लब्बोलुआब और तात्पर्य यही है। जाहिर है कि सत्ता वर्ग के हितों के मद्देनजर मनमोहन और प्रणव मुखर्जी दोनों बेअसर हो गये हैं और राष्ट्रपति प्रत्याशी की दौड़ में अचानक अवरोध और रहस्य, नाटक और बढ़ते तापमान का रह​​स्य भी यही है।

अब चाहे राष्ट्रपति कोई बनें या प्रधानमंत्री कोई और, तय यह हो गया है कि आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के लिए मनमोहन और प्रणव दोनों ​​मिसफिट हैं और उनकी सेवानिवृत्ति का समय आ गया है। उन्हें रायसीना हिल्स में आराम फरमाने का मौका दिया जाये या नहीं, यह सत्ता समीकरण का मामला है। मजे की बात यह है कि हमारे लोगों को मुलायम ममता की युगलबंदी नजर आती है, पर बाजार सत्ता और विपक्ष की नैसर्गिक सांगीतिक संगत​ ​ नहीं। राजनीतिक चेहरे फोकस में होते हैं, पर गैर राजनीतिक गैर कानूनी गैर सांविधानिक नीति नियंताओं की गोलबंदी और परदे के फीछे उनके निर्णायक खेल नजर नहीं आते। फोकस ममता सोनिया या ममता मुलायम की बैठक पर होती है, पर वाशिंगटन में विदेशमंत्री के किये समझौते नजर नहीं​
​ आते, नजर नहीं आते मदाम हिलेरिया के राइटर्स सफर के दीर्घकालीन इफेक्ट और साइड इफेक्ट।हिलेरिया की सवारी में कोलकाता की खामोश भागेदारी के साथ भारत में खुला बाजार अर्थव्यवस्था और अमेरिकापरस्त राजनीति के विरुद्ध रहे सहे जनप्रतिरोध का जनाजा निकल गया और बाजार इसका जश्न मना रहा है। नंदीग्राम सिंगुर लालगढ़ जनप्रतिरोधों का हश्र आखिर वहीं हुआ जो १९७४ के संपूर्ण क्रांति का हुआ और जो मध्यपूर्व में अरब वसंत का होने जा ​​रहा है। हम जब आपातकाल लगने से पहले अपनी पीढ़ी के युवाजनों के साथ सड़क पर उतरकर तानाशाही के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे थे, तब हमने दुःस्वप्न में भी नहीं सोचा था कि यह खुला  बाजार का पहला पड़ाव है और इंदिरा के विरोध के बहाने भारत में बाजार की ताकतों के प्रभुत्व का​ ​ पहला चेकपोस्ट। ३४ साल के मार्क्सवादी ब्राह्मणवादी वर्चस्व को तोड़ने के लिए लामबंद होने से पहले परिवर्तनपंथियों ने भी क्या सोचा होगा​ ​ कि राइटर्स में फिर फोर्ट विलियम के दृश्य बनेंगे और साम्राज्ववादी कारपोरेट अश्वमेध के घोड़े वहीं से रवाना होंगे दसों दिशाओं में! नंदीग्राम नरसंहार के विरुद्द सड़क पर उतरे बंगाल को क्या मालूम था कि उसके सीने पर फिर जीता जायेगा पलाशी का महायुद्ध आत्मसमर्पण और विश्वासघात के निर्लज्ज प्रदर्शन के मध्य? एक आंख से अंधी हिरणी की तरह वध्य होने के लिए इसीतरह अभिशप्त हैं हम सभी।

अभी अभी उत्तराखंड में सितारगंज से मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के उपचुनाव से पहले दशकों वंचित कुछेक हजार बंगाली ​अछूत शरणार्तियों को​ ​  भूमिधारी हक दिये जाने पर हंगामा बरपा है। कहा जा रहा है कि चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंगन हुआ। पर अब देश के सर्वोच्च पद के लिए जो सौदेबाजी का खुला बाजार है,जो कारपोरेट लाबिइंग है, जो वैश्विक पूंजी का दबाव है, उसके बारे में विद्वतजनों की क्या राय है?इसी मुद्दे पर हमारे पत्रकार मित्र परयाग पांडेय ने भूमि सुधार का वाजिब मसला उठाया। पर हमने जब बंगाली शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताकर उनके देश निकाले के संघी अभियान की चर्चा करते हुए भूमिसुधार के मुद्दे पर ब्राहमणवादी वर्चस्व को मुख्य बाधा बताया और कारपोरेट खुले बाजार में भूमि सुधार को असंभव बताया, तो पहाड़ के तमाम ब्राह्मण और सवर्ण मित्र नाराज हो गये। क्या भारत में वर्चस्व की राजनीति नहीं है? क्या भूमि सुधार और संपत्ति का बंटवारा, सामाजिक न्याय लंबित नहीं है? क्या इसी वर्चस्व के चलते मानव और नागरिक अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है?क्या  ब्राह्मण  और ब्राह्मणवादी वर्चस्व एक दूसरे के पर्याय हैं?

उत्तराखंड, हिमाचल के लोग अपने को ब्राह्मण सवर्ण समझकर इतराते होंगे, पर सच तो यह है कि मौजूदा भारतीय व्यवस्था में सिर्फ जनसमुदाय​ ​ ही नहीं, इलाके और भूगोल भी अछूत होते हैं, जैसे कि समूचा हिमालय, समूचा मध्य भारत, सारा पूर्वोत्तर और समसत आदिवासी इलाके। जब समूचे हिमालय में आपके पांव तले एटम बम हों, तब न देवबूमि के बचने के आसार हैं और न देवताओं के। राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति पर तो हमारे अखबार रंगे हुए हैं, टीवी चैनलों पर लाइव शो चौबीसो घंटे हैं, पर इस चुनाव के आर्थिक एजंडा और भारत वर्ष के उस अर्थ शास्त्र का भी तो खुलासा होना चाहिए, जिसके शिकार हैं अभिशप्त बहिष्कृत समुदायों और भूगोल के लोग? भारत में मनमोहनसिंह ने वर्ष 1991 में नवउदारवाद की जिन नीतियों के रास्ते पर देश को डाला , उसके बाद आने वाली सभी सरकारें , उन्हीं नीतियों पर चलीं , जो अमेरिका परस्त थीं और जिन पर चलकर देश की जनसंख्या का एक छोटा हिस्सा तो संपन्न हुआ लेकिन बहुसंख्यक हिस्सा बदहाली और भुखमरी को प्राप्त हुआ। इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि 1991 के बाद के दो दशकों में भारत में शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल रहा हो , जो सत्ता में न आया हो या जिसने सत्ता में मौजूद दलों को समर्थन न दिया हो।इसलिए जब भी मनमोहनसिंह के ऊपर सोनियानिष्ठ होने के आरोप लगाए जाते हैं तो राजनीतिक दलों का असली उद्देश्य मनमोहनसिंह के अमेरिका परस्त या वर्ल्ड बेंक परस्त चहरे को छिपाना ही होता है क्योंकि पिछले दो दशकों में सत्ता का सुख प्राप्त कर चुके सभी दल अमेरिका परस्त रह चुके हैं और इस मामले में कोई भी दूध का धुला नहीं है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा वर्ष 2006 में मंत्रिमंडल के पुनर्गठन के समय अमेरिका परस्त लोगों को शामिल किए जाने संबंधी खोजी इंटरनेट साइट विकिलीक्स की खबर के बाद देश में राजनीति भी गर्म हो उठी थी, जिसकी गूंज संसद में सुनायी पड़ी थी। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) सहित विभिन्न विपक्षी दलों ने सरकार से भारत में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत डेविड मलफोर्ड के इस कथन पर सफाई मांगी कि प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल में जो फेरबदल किया, वह अमेरिका के पक्ष में है। दूसरी ओर कांग्रेस ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि विकिलीक्स खुलासे की प्रामाणिकता संदिग्ध है तथा तथाकथित राजनयिक संदेश बेहूदा और सनसनी पैदा करने वाले हैं।देश के प्रमुख अंग्र्रेजी दैनिक 'द हिन्दू' ने विकिलीक्स से भारत से संबंधित पांच हजार एक सौ राजनयिक संदेश हासिल किए हैं जिन्हें अमेरिकी राजनयिकों ने वाशिंगटन भेजा था।एक संदेश में अमेरिकी राजनयिक मलफोर्ड ने मनमोहन सरकार के अमेरिका समर्थक रुझान का जिक्र किया है। वहीं एक अन्य संदेश में मौजूदा राजदूत टिमोथी रोमर ने कहा है कि पाकिस्तान के प्रति अपनी नीति को लेकर प्रधानमंत्री अलग थलग पड़ गए हैं। मलफोर्ड ने अपने संदेश में कहा था कि  मणिशंकर अय्यर से पेट्रोलियम मंत्रालय इसलिए छीना गया कि भारत अमेरिका संबंधों को तेजी से आगे बढ़ाया जा सके।अय्यर द्वारा भारत ईरान गैस पाइपलाइन परियोजना को आगे बढ़ाने को लेकर अमेरिका खफा था तथा श्री अय्यर के स्थान पर  मुरली देवड़ा की नियुक्ति पर उसने खुशी जाहिर की थी।अमेरिकी राजनयिक कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और सैफुद्दीन सोज को अमेरिका की तरफ झुकाव रखने वाला मानते थे।

आजाद भारत के इतिहास में 1952 से अब तक राष्ट्रपति के चुनाव में सिर्फ एक उम्मीदवार निर्विरोध चुना गया है।

वर्ष 1977 में नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध निर्वाचित हुए थे, जबकि के.आर. नारायणन को सर्वाधिक मत मिले थे, जो नौ लाख 56,290 मतों से चुनाव जीते थे।

राष्ट्रपति चुनाव के सभी नतीजे इस प्रकार रहे :

1952 - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, 13 मई को पदासीन हुए। पहले राष्ट्रपति को पांच लाख सात हजार चार सौ वोट मिले, जबकि केटी शाह को 92 हजार 827 वोट मिले।

1957 - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, 13 मई को दूसरी बार राष्ट्रपति बने। इन्हें 4,59,698 वोट मिले। नागेंद्र नारायण दास एवं चौधरी हरी राम को क्रमश: 2000 एवं 2672 वोट मिले।

1960- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, 13 मई को पदभार ग्रहण किया। इनको 5,53,067 वोट मिले। चौधरी हरी राम और यमुना प्रसाद त्रिशुलिया को क्रमश: 6,341 और 3,537 मत मिले।

1967- डॉ. जाकिर हुसैन, 13 मई को पदभार ग्रहण किया। 17 उम्मीदवारों में से डॉ. जाकिर हुसैन को सर्वाधिक 4,71,244 मत मिले। तीन मई 1969 को इनके आकस्मिक निधन के बाद संविधान के अनुच्छेद 65 (1) के तहत उप राष्ट्रपति वी.वी. गिरि को कार्यकारी राष्ट्रपति बनाया गया। इन्होंने 20 जुलाई 1969 को पद से इस्तीफा दिया।

1969-वी.वी. गिरि, 24 अगस्त को राष्ट्रपति बने। 15 प्रत्याशियों में से गिरि को सर्वाधिक 4,01,515 वोट, जबकि डॉ. नीलम संजीव रेड्डी को 3,13,548 मत मिले।

1974-फखरुद्दीन अली अहमद, 24 अगस्त को पदभार ग्रहण किया। उन्हें 7,65,587 वोट मिले, जबकि त्रिदीब चौधरी को 1,89,196 मत मिले।
1977-नीलम संजीव रेड्डी, 11 फरवरी को फखरुद्दीन की असामयिक मौत के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति बी.डी. जट्टी को कार्यकारी राष्ट्रपति बनाया गया। राष्ट्रपति की मौत या इस्तीफे के बाद छह महीने के अंदर राष्ट्रपति चुनाव कराया जाता है। 37 उम्मीदवारों ने पर्चे दाखिल किए। जांच में रिटर्निंग अधिकारी ने रेड्डी के अलावा सभी 36 लोगों के पर्चे रद्द कर दिए। इस तरह रेड्डी निर्विरोध चुने गए।

1982-ज्ञानी जैल सिंह, 25 जुलाई को राष्ट्रपति बने। जैल सिंह को 7,54,113 और एच. आर. खन्ना को 2,82,685 मत मिले।

1987-आर. वेंकटरमन। 25 जुलाई को राष्ट्रपति बने। इन्हें 7,40,148 मत मिले।

1992-शंकर दयाल शर्मा। 25 जुलाई को राष्ट्रपति बने। चार प्रत्याशियों में डॉ. शर्मा को 6,75,864 मत मिले।

1997-के. आर. नारायणन। 25 जुलाई को पदभार ग्रहण किया। दोनों उम्मीदवारों में से नारायणन और टी. एन. शेषन को क्रमश: 9,56,290 और 5,0631 मत मिले।

2002-डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, 25 जुलाई को डॉ. कलाम राष्ट्रपति बने। कुल दो प्रत्याशियों में कलाम को 9,22,884 वोट मिले। वहीं लेफ्ट समर्थित उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल को 1,07,366 मत मिले।

2007- प्रतिभादेवी सिंह पाटिल, 25 जुलाई को देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं। संप्रग समर्थित प्रतिभा पाटिल को 6,38,116 और राजग समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार भैरोसिंह शेखावत को 3,31,306 मत मिले।


कांग्रेस ने राष्‍ट्रपति पद के लिए मनमोहन सिंह का नाम उछालने पर ममता को आड़े हाथ लिया है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि ममता ने सोनिया के साथ बैठक की बात जगजाहिर कर मर्यादा तोड़ी है। कांग्रेस प्रवक्‍ता जर्नादन द्विवेदी ने गुरुवार को पत्रकारों से कहा कि मनमोहन सिंह 2014 तक पीएम बने रहेंगे। उन्‍होंने यह भी कहा कि ममता-मुलायम की तरफ से सुझाए गए बाकी दो नाम कांग्रेस को मंजूर नहीं हैं।

द्विवेद्वी ने कहा, 'यूपीए चेयरपर्सन के नाते सोनिया गांधी ने अपने सभी सहयोगियों से बातचीत की। जब बातचीत होती है तो नाम चर्चा में आते हैं। पहले दौर की बातचीत में प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी के नाम उभर कर सामने आए। इसका मतलब यह बिल्‍कुल नहीं है कि कांग्रेस ने एक नाम तय किया है। आमतौर पर इस तरह की बातचीत के बारे में बाहर चर्चा नहीं होती है। अन्‍य सहयोगी दलों के लोग भी सोनिया जी से मिले हैं लेकिन किसी ने उम्‍मीदवार के नाम को लेकर चर्चा नहीं की। इस तरह की बातचीत में एक मर्यादा होती है। थोड़े समय बाद इस बारे में चर्चा होती तो अच्‍छा होता।' केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने कहा कि राष्‍ट्रपति चुनाव की जंग में पीएम मनमोहन सिंह को घसीटा जाना ठीक नहीं है। वहीं, पीएम से मुलाकात के बाद प्रणब मुखर्जी ने कहा कि राष्‍ट्रपति पद के लिए यूपीए के उम्‍मीदवार के नाम का ऐलान जल्‍द ही किया जाएगा।

ममता-मुलायम की 'गुगली' के बाद कांग्रेस के भीतर और यूपीए के सहयोगी दलों के साथ बैठकों का दौर शुरू हो गया है। राष्‍ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर आज शाम कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक होगी वहीं एनसीपी नेता शरद पवार आज शाम सोनिया गांधी से मिलेंगे। इससे पहले यूपीए की अहम सहयोगी डीएमके के नेता टी आर बालू ने भी सोनिया से मुलाकात की। बालू ने बताया कि डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि ने सोनिया गांधी को राष्‍ट्रपति पद के लिए एक उम्‍मीदवार का नाम सुझाया है और कांग्रेस अध्‍यक्ष जल्‍द ही यूपीए उम्‍मीदवार के नाम का ऐलान करेंगी। सूत्रों के मुताबिक करुणानिधि ने राष्‍ट्रपति पद के लिए उम्‍मीदवार के तौर पर प्रणब मुखर्जी का नाम आगे किया है (ऐसे होता है राष्‍ट्रपति चुनाव)।

कांग्रेस की पश्चिम बंगाल यूनिट ने भी ममता पर हमला बोल दिया है। कांग्रेस की राज्‍य इकाई ने ममता को 'एंटी बंगाली' करार दिया है। आरोप है कि ममता 'रॉयल बंगाल टाइगर' की तरह नहीं बल्कि गुरिल्‍ला वार कर रही हैं। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने पार्टी सुप्रीमो के खिलाफ हमले पर पलटवार किया है। तृणमूल ने साफ कर दिया है कि वो प्रणब की उम्‍मीदवारी का कतई समर्थन नहीं करेगी। ममता का इस बार दिल्‍ली आने पर प्रधानमंत्री से मिलने का भी कार्यक्रम था लेकिन खबर है कि वह पीएम से नहीं मिलेंगी। इसके अलावा ममता को आज कोलकाता लौटना था लेकिन वह आज कोलकाता नहीं जाएंगी। सूत्रों के मुताबिक ममता आज शाम मुलायम से मिल सकती हैं।






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