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Wednesday, June 13, 2012

बस्‍तर को वहां से नहीं यहां से देखो, उधर से नहीं इधर से देखो

http://mohallalive.com/2012/06/13/a-writeup-on-bastar-by-rajeev-ranjan-prasad/

 असहमतिआमुखनज़रिया

बस्‍तर को वहां से नहीं यहां से देखो, उधर से नहीं इधर से देखो

13 JUNE 2012 3 COMMENTS

बस्‍तर की गरीबी और बस्‍तर का पिछड़ापन पूरे भारत का सच है

♦ राजीव रंजन प्रसाद

अविनाश जी, नमस्कार।

अभी राजीव रंजन प्रसाद का एक लेख मेल किया है। कृपा होगी अगर जगह देंगे। मैं जानता हूं कि कुछ चीजें आपको रास नहीं आएंगी, लेकिन प्लीज, लोकतंत्र के नाम पर विमर्श चलने दीजिए। मुझे मालूम है कि आपकी साइट पर वामपंथी मित्रों की बहुतायत है। और इसीलिए विपरीत विचारों पर प्रतिक्रियाएं भी काफी होती हैं। यही प्रतिक्रियाएं, ऐसा ही विमर्श हमें रास्ता देंगी और तलाशेंगी भी। मेरा विशेष आग्रह है इस जरूरी विमर्श को आप अपने मोहल्ला में होने देना चाहेंगे। आभार पेशगी।

पंकज झा [ प्रेस सलाहकार, रमन सिंह, मुख्‍यमंत्री, छतीसगढ़ ]


नपक्षधरता हमेशा व्यवस्था में सुधार अथवा बदलाव की दिशा में इंगित होती है। आप संवेदनशील व्यक्ति हैं, तो निश्चित रूप से आपको अपने परिवेश के इर्द-गिर्द की घटनाएं कुरेदेंगी, झकझोरेंगी तथा उद्वेलित भी करेंगी। बुनियादी सवाल कश्मीर से कन्याकुमारी तक बिलकुल एक जैसे हैं। कहीं न कहीं हमारे लोकतंत्र को कोई बड़ा सरिया आरपार कर गया है, अवस्था गंभीर है। हर तरह की राजनीति और प्रत्येक राजनीतिक दल आकंठ आरोपों में डूबा, भ्रष्टाचारी तथा जनविरोधी होता जा रहा है। सत्ता और माया ने लोकतंत्र की मर्यादा और उसके हर खंभे को खोखला कर दिया है। किस पर विश्वास की निगाह से देखा जाए? व्यव्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा मीडिया सभी ने अपनी विश्‍वसनीयता खो दी है। इस प्रश्न पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि आमूलचूक परिवर्तन होना चाहिए और हो कर रहेंगे।

आम आदमी जब अपनी शक्ति की अभिव्यक्ति करता है, तो कोई भी बदलाव असंभव नहीं रह जाते। यहां जनपक्षधरता शब्द का कृपया वामपंथीकरण न किया जाए, बुनियादी तौर पर मेरा मानना है कि विचार महत्वपूर्ण होते हैं। वे आपको उड़ने, सोचने, समझने का मुक्ताकाश देते हैं जबकि विचारधाराएं बेड़ि‍यां हैं, जो आपके दायरे निश्चित कर देती हैं, इलाके तय कर देती हैं। विरोध लोकतंत्र का स्वाभाविक स्वर है। दमन और प्रतिकार की हजारों कोशिशों के बाद भी विरोध की धार जिंदा है। अभी नाउम्मीदी के आगे नतमस्तक नहीं हुआ गया तथा कई दीपक टिमटिमाते हुए भी जल रहे हैं। दुर्भाग्यवश जिस तरह राजनीतीति की प्रकृति विश्लेषण से परे हो गयी है, ठीक उसी तरह आंदोलनों की विश्‍वसनीयता भी कलंकित हुई है। बहुतायत आंदोलन छद्म हैं तथा उनके पीछे या तो कोई दूसरा राजनीतिक समीकरण काम कर रहा होता है या ऐसी कुछ गैर सरकारी संस्‍थाएं जिनके चंदे का हिसाब ठीक उसी तरह प्राप्त नहीं हो सकता, जैसे कि हमारे नेताओं के स्विस बैंक के खातों की जानकारियां।

बस्तर के परिप्रेक्ष्य में विरोध के तेवरों को समझने की आवश्यकता महसूस होती है। कुछ पत्रकार मित्रों को जानता हूं, जो ईमानदार हैं तथा सच के साथ खड़े हो कर काम कर रहे हैं। उन्होंने सच की कीमत भी चुकायी है और यह कहने में हिचक नहीं कि आगे भी चुकानी पड़ेगी। यह राह ही ऐसी है बंधु और आग पर हर कोई नहीं चल सकता। ईमानदार कोशिशें अपना असर भी दिखाती हैं और अनेक बार जब आपकी व्यवस्था से सीधे-सीधे ठन जाती है, तब भी, अपना दमन झेल कर भी, अपनी पराजय के बिलकुल किनारे पर आप पाते हैं कि नहीं उम्मीद अभी है। जो दीपक आपने जलाया था उसने कई और घर रोशन कर दिये तथा धीरे धीरे आप फैल रहे हैं। सच्चाई और वास्तविक मुद्दे ही जनसरोकार बनते हैं, जनमत बनते हैं। वे ही बदलाव लाते हैं। तथापि बहुत गंभीरता से सोचता हूं कि आज ऐसा क्या हुआ कि पूरा देश केवल बस्तर देखता है?

मैं याद करता हूं जब स्नात्कोत्तर के लिए मैने भोपाल में एडमिशन लिया था, वहां मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय के गोखले छात्रावास में रैगिंग के दौरान जब मैंने बताया कि बस्तर से हूं तो सभी की निगाह मेरे चेहरे पर गड़ गयी थीं। बस्तर नाम बहुतायत के लिए अनसुना था। एक जो जानता था उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर बोला, अच्छा? बस्तर से? लेकिन तुम तो कपड़े पहने हो? इस बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह शोषित मिट्टी इन 10-15 वर्षों से ही उपेक्षित नहीं रही, जबसे नक्सलवाद का साक्षात्कार होने लगा है अपितु काल दर काल यहां की ऊर्वरता, वनोपज, आदिम शालीनता तथा इनके पर्यावास का अतिक्रमण हुआ है। इस अंचल के किसी आंदोलन में देश भर से आवाज नहीं उठी। यहां का शोषण जब तक बिकने वाली खबर नहीं बन गया, तब तक यहां की मांसलता पर ही लिखा जाता रहा।

जब बांग्लादेशी रिफ्यूजी बस्तर में बसाये जा रहे थे, उस दौर में बोधघाट बंद करो विस्थापन होगा का शोर मचाने वाले समाजसेवी या मानवाधिकारवादी क्या भांग का गोला निगले रहते थे? उस दौर में किसी को दंडकारण्य परियोजना और उसके तहत बहुत बड़ी मात्रा में बांग्लादेशी विस्थापितों को बसाना यहां की अबूझता, यहां की संस्कृति, यहां की जनजातियों, यहां की लोककला, यहां की परंपराओं पर आघात क्यों नहीं लगा? बस्तर ही क्यों? क्या कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक के भूभाग को छोड़ कर बस्तर का इस बसाहट के लिए चयन तब एक सांस्कृतिक हमला नहीं था? बस्तर के भीतर से तब आवाजें उठी थीं, किंतु वह इस देश का स्वर क्यों नहीं बन सकी? दंडकारण्य परियोजना के नाम पर उस दौर में लूट-खसोट का एक लंबा सिलसिला चला।

श्री गोरेलाल झा के 1968 में प्रकाशित एक आलेख से उद्धरण है कि "करीब चालीस हजार एकड़ भूमि जो कि सुरक्षित वन में स्थित थी इस योजना के लिए दी गयी। आदिवासियों को भूमि देने का उतना दुख नहीं है जितनी कि इस नीति से कि भूमिहीन आदिवासियों को तो कोई इस सुरक्षित वन में एक एकड़ भूमि देने के लिए भी तैयार नहीं है।"

एक उदाहरण महाराजा प्रवीर की डायरी में मिलता है कि दंडकारण्य परियोजना पर युक्ति व बुद्धि बंगाल की ब्‍यूरोक्रेसी लगा रही थी। एक राय आयी कि वहां बंगाल में होने वाली बांस की प्रजाति का रोपण किया जाए क्योंकि उससे रिफ्यूजियों का कुटीर उद्योग संचालित हो सकता था। प्रवीर ने विरोध किया कि बस्तर में अपनी ही तरह के बांस होते हैं तथा उसी से यहां की जनजातियां टोकनी सूपा या अन्य कलात्मक वस्तुओं का निर्माण करती हैं। लाखों रुपये फूंके गये और नतीजा सिफर निकला।

यहां पाईन रोपण परियोजना के परिणाम भी बांस रोपण जैसे ही भयानक थे। बस्तर में जब मालिक मकबूजा की लूट चल रही थी, तब राष्ट्रीय मीडिया का मौन और यहां पर दिल्ली के आंदोलनकारियों का अकाल क्यों था? आज जिनकी यहां के शोषण से आह निकल आती है, अमेरिका तक में यहां के दर्द को गीत बना बना कर गाते हैं, तब इन बीनों को फूंक मारने की फुरसत क्यों नहीं रही थी? लेव्ही को ले कर तथा धान के मूल्य निर्धारण को ले कर प्रवीर ने व्यापक आंदोलन चलाया था, तब उनके समर्थन में मौन क्यों था? वह भी ऐसा मौन कि उनकी नृशंस हत्या के लगभग पचास साल बाद उनके लिए पहली श्रद्धांजलि सभा कुछ वर्ष पूर्व ही जगदलपुर में संपन्न हो सकी। 1961 का लौहंडीगुडा गोली कांड, 1966 का राजमहल गोली कांड अंचल की भीषणतम घटनाएं हैं, जिनके विषय में आज तक केवल मौन ही पसरा हुआ है। जब बीबीसी के कैमरे बस्तर के घोटुलों में पूरी बेशर्मी के साथ घुसे थे और अधकचरी जानकारियां एकत्रित कर उसे यौन फिल्म की तरह विश्वभर में परोस दिया था, तब भी केवल और केवल स्थानीय साहित्यकारों और लेखकों ने ही आवाज उठायी थी।

मई 1981 में दंडकारण्य समाचार में प्रकाशित श्री राम सिंह ठाकुर के आलेख का अंतिम पैरा "आज जबकि बस्तर के मूल निवासियों की संस्कृति पर विदेशी अपनी मनमानी कर के फिल्म बना सके, वहां उस देश के अन्य मूल निवासियों का क्या होगा? उचित तो यही होगा कि बीबीसी द्वारा बनाये गये फिल्म प्रदर्शन पर विश्वस्तरीय रोक लगा दिया जाए और फिल्म को भारत ला कर पूरी तरह नष्ट कर दिया जाए।' प्रश्न यह है कि इन आवाजों को सुनने वाला कोई क्यों नहीं था? क्या तब देश भर में एक्टिविस्टों का अकाल था? आज भी नक्सली बीबीसी प्रसारणों का ही अनुसरण जानकारी बटोरने के लिए करते हैं, जिसका उल्लेख कई बार नक्सल समर्थक लेखकों ने अपने आलेखों में किया है। आज भी बीबीसी के संवाददाताओं के पास ही नक्सली अपने मध्यस्‍थों के नाम तय करने के लिए एसएमएस भेजते हैं, यह तो सर्वविदित है चूंकि ताजा घटना है।

किसी भी बड़ी राष्ट्रीय खबरों से ज्यादा बड़ी घटना थी किरंदुल गोली कांड क्‍योंकि यह 20,000 असंगठित मजदूरों का मसला था। यह उस दौर की घटना है, जब नक्सलियों की आमद भी बस्तर में हो चुकी थी। इन मजदूरों से ऐसी क्या खता हुई थी कि यह घटना केवल स्थानीय अखबारों की सुर्खियां बन कर रह गयीं तथा वाम आंदोलन के नाम पर दादा बन कर घुसे नक्सलियों ने भी घटना पर मौन ही साधे रखा था। दिल्ली का एक्टिविज्म तो हमेशा ही पहले की तरह चुप रहा – नक्सलियों की आमद पर मौन, उनकी नृशंसताओं पर मौन। अचानक बस्तर में क्या हुआ कि सारे एक्टिविस्ट दिल्ली में "ले अंगड़ाई हिल उठी धरा" एक साथ जाग गये? ऐसा क्या हुआ भाई?


तस्‍वीर सौजन्‍य : आउटलुक

वस्तुत: जिन मुद्दों पर बस्तर का दुष्प्रचार करने वाले लोग दिल्ली में सक्रिय हैं, उनकी मानसिकता और राजनीति को समझना आवश्यक है। उनका निशाना व्यवस्था नहीं है। वह तो केवल चदरिया झीनी झीनी है अपितु खेल तो विचारधारा का है, बस्तर में जारी युद्ध के लिए समर्थन बनाने और बचाने का है। जायज आवाजें हाशिये पर हैं तथा वे स्वर राष्ट्रीय भोंपू बनते जा रहे हैं, जिनमें यहां के भूगोल और अतीत तो छोड़िए, वर्तमान तक की समुचित समझ नहीं है।

बस्तर के मुद्दों का राष्ट्रीयकरण नक्सलियों के प्रभावी होने के साथ साथ हुआ है। लेकिन क्या वास्तविक सरोकार विषयवस्तु बन रहे हैं? देश-विदेश में सलवा जुडुम का विरोध किया और अब बस्तर में इस आंदोलन से जुडे आदिवासी एक-एक कर नक्सलियों द्वारा मारे भी जा रहे हैं। किस सामाजिक तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता ने इस विषय को खुल कर उठाया है? किसने अब भी जारी इस अनावश्यक हत्या शृंखला का विरोध किया है? इन घटनाओं का विरोध असल में उस माहौल को बनाये जाने की कोशिश का हिस्सा नहीं है, जिसे विश्व भर में दिखा कर इस क्षेत्र को निरंतर उपनिवेश बना रही विचारधारा की बंदूकों को जायज ठहराया जाना है। उसने पेड़ काट दिया, उसने बलात्कार कर दिया, उसने प्रताड़ि‍त कर दिया, वह नंगा है, वह भूखा है, उसके घर में बिजली नहीं है, वहां अभी भी स्कूल नहीं है, पुलिसिया दमन हो रहा है – ये सब केवल बस्तर का चेहरा नहीं है, यह पूरे भारत का एक जैसा सच है और एक जैसा ही कडुवा। पत्रकारों को निश्चय ही इन तथ्यों-सत्यों को उजागर करने में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए। मेरा इशारा उन समाचार की खदानों की ओर है, जो समाचार चुनते हैं और चुने हुए समाचारों के साथ बौद्धिक विलास करते हैं।

मेरे पास इसी तरह के प्रचार का हिस्सा एक ईमेल निरंतर आता है, जिसमें कई प्रकाशित आलेखों के लिंक होते हैं (बहुतायत कहानियां छत्तीसगढ़ के नाम पर कभी झारखंड की होती हैं, कभी महाराष्ट्र की तो कभी आंध्र की। इसके अलावा देश भर में कुछ चुने हुए लोगों की गतिविधियों का ब्यौरा कि कहां-कहां दिल्ली में बस्तर के नाम पर हाय तौबा की।) इन चुनी हुई कहानियों पर अगाध श्रम किया जाता है। ये कहानियां वह मील का पत्थर बनायी जाती हैं, जिन्हें लहरा-लहरा कर बस्तर को दुनिया की सबसे डरावनी जगह बनाये जाने की कोशिश लगातार की जा रही है। ये समाचार बस्तर के वास्तविक सरोकार भी नहीं अपितु सरोकार के करीब की घटनाएं मात्र हैं। उदाहरण के तौर पर एक सप्ताह में नक्सलियों ने चार सड़कें फोड़ी, दो स्कूल विध्वंस कर दिये, एक बाजार में हमला किया आदि-आदि। तो यह सामान्य घटना लेकिन इसकी प्रतिक्रिया राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समाचार!

ये समाचार पोर्टल, समाजसेवी और विचारक बस्तर की समस्याओं का कोई समाधान ले कर आज तक क्यों उपस्थ्ति नहीं हुए? यहां समस्या है कृषि का आधुनिकीकरण किये जाने की, यहां जरूरत है सिंचाई के साधन विकसित किये जाने की, यहां चाहिए शिक्षा के बेहतर माहौल। यहां उच्च शिक्षा के मौजूदा संस्थानों को दुरुस्त करने तथा उनमें आदिवासी छात्रों को विशेष वरीयता तथा आर्थिक मदद दिया जाना चाहिए। यहां आवश्यकता है रोजगार मूलक उपायों की, साफ पानी की, बिजली की, सड़क की।

पिछले बीस-सालों में इन विषयों पर न तो विमर्श हुआ है, न ही आंदोलन। वस्तुत: अगर इनके समाधानों की बात और कोशिश की पहल होगी तो नक्सलवाद की प्रासंगिकता क्या बचेगी? इस बात को पूरी तरह जान और समझ कर जनसरोकार के नये किस्म की परिभाषा गढ़ी गयी है, जिसमें दो ही किरदार हैं, नक्सली जो क्रांतिकारी हैं और पुलिस जो विलेन है। इस पृष्ठभूमि के लेखो में ड्रामा है, फिक्शन है… नहीं है तो बस समाधान! जिन्‍हें बस्तर का 'ब' पता नहीं, उनसे हम समाधान की उम्मीद रखें, यह तो हमारी ही सोच में कमी हुई न?

समाधान 'केवल और केवल' पढ़ी लिखी आदिवासी पीढ़ी के पास ही है। ये ही उर्वरा बीज हैं और ये ही अपना स्वर! दिल्ली में बहुत से लोग भगतसिंह का मुखौटा लगाकर आपकी क्रांति करने की जुगत में हैं; उनके भरम में आये बिना अपने चेहरे के साथ अपनी मुट्ठी बांधिए। अपने अधिकार के लिए लड़ाई आपकी अपनी है। फिर वह व्‍यवस्था के खिलाफ हो अथवा उसकी आड़ में व्‍यवस्था बदलने वाली बंदूकों के खिलाफ। आपको अपनी बुद्धिजीविता के साथ अपना स्वर बनना ही होगा। आपकी अपनी कोई आवाज नहीं है, इसलिए दिल्ली के पास भोंपू है। आदिवासी मित्रो, शिक्षा सोच देती है तथा अपनी समस्याओं को स्वयं अनुभव कर निराकरण की समझ भी स्वयं में विकसित कर देती है। गहराई से उन समस्याओं की विवेचना कीजिए, जो आपके सरोकारों को स्पर्श करते हों। यह समय आपकी सक्रियता का है क्योंकि 'चलता है' की प्रवृत्ति ही आपको हाशिये पर धकेल रही है। अपनी अभिव्यक्ति के अवसर तलाशिए और अपनी बात सकारात्मक तरीके से कहिए। याद रखिए… व्यवस्था के खिलाफ खड़े होना आपका अधिकार है तथा बस्तर के खिलाफ चल रहे दुष्प्रचार के विरुद्ध लामबंद होना कर्तव्य। जड़ ही महत्वपूर्ण होती है तथा आपकी जडें हजारों सालों का गौरवशाली अतीत आपके साथ जोड़ती हैं। आप गेंदसिंह, झाड़ा सिरहा, आयतु माहरा, यादव राव, व्यंकट राव, डेबरी धुर और गुंडाधूर की संततियां हैं। आपका नेतृत्व सुबरन कुंवर जैसी वीरांगना और प्रवीर जैसे विचारक ने किया है। फिर ऐसा क्यों है कि आप बस्तर के दुष्प्रचार तंत्र के प्रति नाराज नहीं होते? मित्रो यह जाहिर करना ही होगा कि हम किसी ओर की बंदूक के साथ नहीं हैं और न ही आप किसी दुष्प्रचार का हिस्सा ही हैं। बस्तर हमारा है और अब बहुत हो चुका, इसका नवनिर्माण भी हम बस्तरिया ही करेंगे।

(राजीव रंजन प्रसाद। बस्तर (छतीसगढ) के निवासी। एक सरकारी उपक्रम एनएचपीसी में प्रबंधक। ई-पत्रिकासाहित्य शिल्पी के संपादक। अभी हाल ही में आमचो बस्‍तर नाम की एक किताब लिखी, जिसका लोकार्पण छत्तीसगढ़ के माननीय मुख्‍यमंत्री श्री रमन सिंह जी ने किया।
उनसे sahityashilpi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


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