Saturday, 16 June 2012 11:37 |
मुकुल प्रियदर्शिनी जनसत्ता 16 जून, 2012: नेहरू-आंबेडकर कार्टून पर संसद में उठा विवाद भले ही क्षणभंगुर था, पर इस विवाद की आंधी का शिकार अंतत: शिक्षा हुई है। पर इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का एक दूसरा पहलू यह है कि इस विवाद ने शिक्षा और शिक्षाशास्त्र पर विमर्श के लिए एक संदर्भ भी रच दिया है। इस बात की कल्पना शायद ही किसी ने की होगी कि एक-दो दिन के संसदीय उन्माद पर सरकार अफरातफरी में ऐसे कदम उठा लेगी जिसके शिक्षा के लिए दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। कोई भी प्रगतिशील शैक्षिक विमर्श बच्चों और शिक्षकों के प्रति संवेदनशील होता है। वह बच्चों की पृष्ठभूमि, उनकी क्षमताओं, सीखने की उनकी अपनी गति के प्रति सकारात्मक रुख रखता है। हिंदी की पाठ्यपुस्तकों में इसकी झलक कई रूपों में मिलती है: ये किताबें राजनीतिक दृष्टि से गढ़े गए भाषा और बोली में ऊंच-नीच के अंतर को तोड़ती हैं। पाठों के चयन और भाषा के प्रश्नों के माध्यम से ये किताबें साबित करती हैं कि बोलियों का भी अपना व्याकरण होता है और वे भी नियमबद्ध होती हैं। ये किताबें बच्चों के घर की भाषा और उनकी सामाजिक, भाषाई और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को स्वीकार करती और सम्मान देती हैं। इसके जरिये किताबें इस बात की वकालत भी करती हैं कि सीखने की प्रक्रिया में बच्चों की केंद्रीय स्थिति और भूमिका होती है। शिक्षा व्यवस्था का दूसरा बड़ा स्तंभ शिक्षक होते हैं जिन्हें उचित सम्मान और स्थान दिया जाना चाहिए। जब तक शिक्षकों का शैक्षिक सशक्तीकरण नहीं होता तब तक शिक्षा में रचनात्मक बदलाव महज एक कल्पना है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या (2005) तैयार किए जाने के दौरान एक राष्ट्रीय फोकस समूह विशेष रूप से शिक्षकों की शिक्षा से संबद्ध था। उसके बाद पाठ्यचर्या पर आधारित पाठ्यक्रम और उसके आधार पर बनी पुस्तकों में इस बात की गुंजाइश थी कि शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के दायरे से बाहर जाकर शिक्षण के नए और सृजनशील तरीके अपनाएं। इस प्रक्रिया के दौरान शिक्षक सभी दस्तावेजों को तैयार करने के लिए गठित समितियों का अभिन्न अंग थे। प्रत्येक समिति में शिक्षकों के अलावा एनसीइआरटी के प्रतिनिधि, शिक्षा से जुडेÞ गैर-सरकारी संगठनों के सदस्य और विश्वविद्यालयों से जुडेÞ विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ और शिक्षाविद शामिल थे। पाठ्यपुस्तकें निगरानी समिति द्वारा देखी और अनुमोदित की गर्इं। इस प्रकार ये किताबें चार अलग-अलग किस्म के संस्थानों और संगठनों के लोगों का सामूहिक प्रयास थीं। वे 'राज्य द्वारा निश्चित किए गए' विद्वान लेखकों ने नहीं लिखीं, जैसा कि एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान ने अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय समाचारपत्र में छपे एक लेख में कहा है। लेकिन हर स्तर पर शिक्षकों की भागीदारी के बावजूद बड़े पैमाने पर शिक्षकों को नवाचार से जोड़ना जरूरी है। इसके लिए नौकरी से पहले के अध्यापक-शिक्षा कार्यक्रम और नौकरी के दौरान समय-समय पर चलने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम गुणवत्ता, परिप्रेक्ष्य, अध्यवसाय के लिहाज से बेहतरीन हों ताकि ताजा शैक्षिक विमर्श और नवाचारी शिक्षण पद्धतियों से शिक्षकों की वाकफियत बनी रहे। इस शैक्षणिक सशक्तीकरण के साथ-साथ इस बात पर गौर करना जरूरी है कि समाज का शिक्षक वर्ग के प्रति रवैया क्या है। क्या समाज शिक्षक को एक पेशेवर (प्रोफेशनल) के रूप में देखता है? शिक्षक वर्ग के प्रति समाज का सकारात्मक रवैया उनको संबल, कुछ नया कर गुजरने का प्रोत्साहन और आत्मविश्वास देगा। शोध करना केवल विश्वविद्यालयकर्मियों की जागीर नहीं है। स्कूली शिक्षक भी पेशेवर के नाते शोधकर्ता हो सकता है। पर क्या राज्य उसके लिए ऐसी सुविधाओं का प्रावधान करता है? यह बात एक विचार के तौर पर भी समाज और राज्य के मानसपटल से गायब है। कार्टूनों और पाठ्यपुस्तकों पर संसद में उठे बवाल ने एक लंबी बहस छेड़ दी है। हिंदी विरोधी आंदोलन से संबद्ध एक कार्टून पर भी विरोध के स्वर उठ रहे हैं। पर यह पहली बार नहीं हुआ है कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या (2005) के बाद बनी पाठ्यपुस्तकें विवाद के घेरे में आई हैं। सन 2006 में इसी किस्म का बवाल मचा था जब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने प्रेमचंद, पांडेय शर्मा बेचन 'उग्र', धूमिल और पाश जैसे साहित्यकारों की रचनाओं को पाठ्यपुस्तक से हटाने की मांग की थी, क्योंकि उनके अनुसार वे रचनाएं क्रमश: दलित-विरोधी, ब्राह्मण-विरोधी, स्त्री-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी थीं। भाषा की आंचलिक रंगतों को नकारते हुए उन्होंने एक कविता में 'छोकरी' शब्द को अशोभनीय बताया था। उस समय शायद ही किसी कोने से संसद में बैठे इन शुद्धतावादियों की दलीलों पर कोई विरोध प्रकट किया गया। अकादमिक और पत्रकारिता जगत में शायद यह मुद्दा बहस के लायक नहीं माना गया क्योंकि मामला हिंदी साहित्य जैसे हाशिये पर पडेÞ गौण विषय का था (हिंदी की जगह कोई अन्य भारतीय भाषा भी हो सकती थी)। पर अगर अंग्रेजी पाठ्यपुस्तकें हमले का शिकार होतीं, तो ऐसी उदासीनता विद्वानों, शिक्षित समाज और नागरिक समाज में नहीं दिखाई पड़ती। सरकार ने कुछ सप्ताह पहले आनन-फानन में जो घोषणाएं की थीं, उन पर अगर वह अमल करती है तो इससे भविष्य में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या (2005) जैसे प्रगतिशील और नवाचारी शैक्षिक सुधारों को धक्का पहुंचेगा। 2005 से 2009 के बीच जो कुछ हुआ वह भारतीय शिक्षा के इतिहास में किसी क्रांति से कम नहीं था। |
Saturday, June 16, 2012
तर्कहीन विवाद के खतरे
तर्कहीन विवाद के खतरे
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