| Saturday, 09 June 2012 10:36 |
सत्येंद्र रंजन यूनान के हाल के संसदीय चुनाव में इन्हीं नीतियों के प्रति आम जनता की बगावत का इजहार हुआ, जब धुर वाम और उग्र दक्षिणपंथी पार्टियों ने अप्रत्याशित सफलता पाई। उधर फ्रांस की जनता ने इन नीतियों को पूरे यूरोप पर थोपने पर आमादा सरकोजी को सिर्फ एक कार्यकाल के बाद एलिजे पैलेस (राष्ट्रपति निवास) से बाहर कर दिया। आज नीदरलैंड से लेकर स्पेन और खुद किफायत की नीतियों की सबसे मुखर प्रवक्ता एंजेला मर्केल के देश जर्मनी तक में वित्तीय पूंजी के खिलाफ जन विद्रोह के संकेत साफ देखे जा सकते हैं। दरअसल, यूरोप में ब्रसेल्स बनाम राष्ट्रीय राजधानियों में खडे हो रहे अंतर्विरोध ने नव-उदारवाद की पूंजीपरस्त राज्य-व्यवस्था के लिए कड़ी चुनौती पैदा कर दी है। इस संदर्भ में आज अगर देश में एक मजबूत वाम विकल्प होता- या कम से कम सार्वजनिक बहसों में उसकी प्रभावशाली उपस्थिति होती- तो मनमोहन सिंह सरकार जिन नीतियों पर देश को ले गई है और आज भी जिनका पालन करना चाहती है, उनकी उपयोगिता पर न सिर्फ तार्किक प्रश्न खडेÞ किए जाते, बल्कि उनके परिणाम के संदर्भ में यूपीए सरकार की राजनीतिक जवाबदेही भी तय की जाती। यह हैरतअंगेज है कि अब भी अर्थव्यवस्था की गिरावट रोकने के लिए जो नुस्खे सुझाए रहे हैं, उनका सारतत्त्व यह है कि तमाम संसदीय प्रक्रियाओं और रुकावटों को दरकिनार कर सरकार नव-उदारवादी सुधारों पर तेजी से अमल करे। इस सिलसिले में मनमोहन सिंह, उनके वित्तमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का आभास तक होने का संकेत नहीं मिलता कि उनकी विकास दर की बेसब्री और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के बीच अंतर्विरोध लगातार गहराता जा रहा है। इस परिघटना का संदेश यह है कि अब न सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया में नव-उदारवाद और लोकतंत्र के बीच अंतर्विरोध उस अवस्था में पहुंच गया है, जब दोनों के बीच किसी तरह का सामंजस्य या समन्वय होना निरंतर कठिन होता जाएगा। पूंजी की निरंकुश सत्ता और विभिन्न समाजों के उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण की परिघटनाएं अब परस्पर विरोधी होने की स्थिति में पहुंच गई हैं। यूरोप में यह तस्वीर ज्यादा साफ है, तो इसका कारण यह है कि वहां औपनिवेशिक या नव-औपनिवेशिक शोषण से आने वाली समृद्धि के स्रोत अब सूख गए हैं और उसके बिना कल्याणकारी राज्य को चलाना वहां की नव-उदारवादी पूंजी के लिए मुश्किल हो गया है। इसकी सीधी मार आम मेहनतकश जन-समूहों पर पड़ी है। आम जन में बैंकरों, वित्तीय संस्थानों और उनसे नियंत्रित राजनेताओं के प्रति आक्रोश उबल रहा है। भारत में विचारधारा और व्यवस्था के रूप में मुक्त बाजार की नीतियों को ऐसी चुनौती मिलती नहीं दिखती, तो इसके कारण ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियों में छिपे हैं। भारत में संवैधानिक व्यवस्था का उदय- जो हमारे लोकतंत्र का आधार है- जातीय समुदायों और धार्मिक संप्रदायों की आपसी सौदेबाजी और आधुनिकता से उनके समस्याग्रस्त अंतरसंबंधों से तय हुआ। इसलिए आज भी आम जन की चर्चाओं में आर्थिक व्यवस्था से जुडेÞ मुद्दे गौण ही रहते हैं, जबकि जातीय या सांप्रदायिक अस्मिता के मुद्दे चुनावों में निर्णायक हो जाते हैं। इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण अनुकूल आर्थिक हालात के बावजूद देश में माकूल वाम विकल्प का उदय नहीं हो पाया है। यूरोप और यहां तक कि अमेरिका में भी नव-उदारवाद और मुक्त बाजार की व्यवस्था पर बुनियादी सवाल खडेÞ किए जा रहे हैं, मगर भारत में यह बात राजनीतिक बहस में हाशिये पर है। नतीजतन न सिर्फ सत्तापक्ष, बल्कि मुख्य विपक्ष भी इस व्यवस्था का पैरोकार बना हुआ है। खुद को सिविल सोसायटी कहने वाले संगठन भी इस बुनियादी बहस में गए बिना समाज में प्रतिष्ठा पाने में सफल हो गए हैं। चूंकि इस व्यवस्था में इन सबके हित हैं, इसलिए उन्होंने राजनीति में प्रासंगिकता बनाने के लिए भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर विवेकहीनता की हद तक शोर मचा रखा है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि यह सारी बहस और यह सारा राजनीतिक संघर्ष समाज के कुछ खास तबकों को लुभाने वाले एक मुद्दे तक सीमित है। वह तबका संख्या में भले छोटा हो, लेकिन उसका प्रभाव निर्विवाद है। चूंकि उस तबके का हित भी इसी में है कि राजनीतिक बहस पूंजी की लोकतंत्र-विरोधी निरंकुशता पर केंद्रित न हो जाए, इसलिए उससे जीवन-स्रोत पाने वाले दल और संगठन बहस को उस बिंदु पर नहीं ले जाएंगे। इसीलिए मुख्यधारा मीडिया से लेकर संसद तक में भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया हुआ है। इस क्रम में मनमोहन सिंह की छवि धूमिल करने की कोशिशें एक नया उपक्रम हैं, जो अगर सफल हो जाएं तो उसका सर्वाधिक लाभ मुख्य विपक्षी दल यानी भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा। लेकिन उससे उस नीतिगत निरंकुशता से देश को मुक्ति नहीं मिलेगी, जिसके पीछे असल में नव-उदारवादी पूंजीवाद की ताकत है। बहरहाल, देश में लोकतंत्र को अगर सुरक्षित होना है, तो इस निरंकुशता पर लगाम लगानी ही होगी। लेकिन दुर्भाग्य से अभी इसके लिए कोई मजबूत राजनीतिक विकल्प उपलब्ध नहीं है। |
Saturday, June 9, 2012
पूंजी की निरंकुश सत्ता
पूंजी की निरंकुश सत्ता
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