"अरे यायावर रहेगा याद"
सन् 1974 की अस्कोट-आराकोट के दो प्रमुख साथी नहीं रहे। कुँवर प्रसून तो पहले ही चले गये थे, 25 मई की शाम प्रताप शिखर भी अनन्त यात्रा पर निकल गये। सन् 1974 में पैदल यात्रा में रूपकुण्ड और बेदिनी बुग्याल के रास्ते पर जब गाँव से निकल रहे थे, तो एक ग्रामीण ने पूछा था, अब कब आओगे? प्रताप शिखर का जवाब था, कभी नहीं। तब दूसरे ग्रामीण ने कहा था कि लौटना तो पड़ेगा। प्रताप ने फिर दृढ़ता से उत्तर दिया, अब कभी नहीं लौटेंगे। आज प्रताप शिखर ने सुनिश्चित कर दिया कि अब वह कभी नहीं लौटेगा।
आज जब उसके पुत्र अरण्य रंजन ने उसका जीवनवृत्त भेजा, तब पता चला कि अरे वह तो प्रताप सिंह पँवार था। 40 वर्ष साथ रहने के बाद भी मैं तो उसे प्रताप शिखर के रूप में ही जानता था। यह प्रताप शिखर और कुँवर प्रसून जैसे कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता साबित करता है। वे जो अपने विचारों में थे, वही अपने व्यक्तिगत जीवन में। कुँवर प्रसून की जाति का नाम भी उसकी मृत्यु के बाद ही पता चला था। प्रताप शिखर और कुँवर प्रसून गांधीवाद से जर्बदस्त ढंग से प्रभावित थे। सुन्दर लाल बहुगुणा जी के प्रभाव में रहने से उनके सहकर्मी तो थे ही, उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने अपना पूरा जीवन आंदोलन को समर्पित कर दिया। लेकिन वे बहुगुणा जी के अन्ध भक्त भी नहीं थे। इसीलिये छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुडे़ होने के कारण उन्होंने अपने नाम से जाति व धर्म को चिन्हित करने वाले शब्दों को पूरे जीवन के लिये हटा दिया। जे.पी. आंदोलन के प्रबल समर्थक बन गये तथा उसमें सक्रिय रूप से भागीदारी की।
शराब विरोधी आंदोलन में अपने छात्र जीवन में ही जेल यात्रा आरम्भ कर दी। फिर चिपको आंदोलन के दौरान हुए जर्बदस्त प्रतिरोध के कारण जेल जाना पड़ा। सरकार के जर्बदस्त दमन के बीच भी प्रताप शिखर अपने साथियों के साथ खड़े रहे। इसी प्रकार केमर पट्टी में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, खनन विरोधी आंदोलन के अलावा स्थानीय स्तर पर सामाजिक जीवन में समरसता पैदा हो, इसके लिये भी सक्रिय रहे। सन् 1974 में 45 दिन की अस्कोट-आराकोट की पैदल यात्रा में प्रमुख रूप से कुँवर प्रसून व प्रताप शिखर गढ़वाल विश्वविद्यालय से तथा मैं व शेखर पाठक कुमाऊँ विश्वविद्यालय से थे। इस यात्रा के प्रेरणास्रोत भी बहुगुणा जी थे। कुँवर प्रसून और प्रताप शिखर पर सर्वोदय विचारों का जबर्दस्त प्रभाव था। मुझे और शेखर को सर्वोदय से कोई लेना-देना नहीं था। हमारे बीच मतभेद उभरते। लेकिन उन दोनों की व्यक्तिगत ईमानदारी से हम अत्यधिक प्रभावित थे। 45 दिन की यात्रा में एक पैसा भी अपने पास नहीं रखना था। प्रताप शिखर व कुँवर प्रसून की समाज में समाहित होने की जो आदत थी, उससे हमें ज्यादा कठिनाई नहीं हुई। पँवालीकाँठा की 14 हजार फीट की ऊँचाई का वह दृश्य बार-बार मुझे याद आता है, जब प्रताप शिखर चप्पल पहने चल रहा था। पैर लहूलुहान हो गये थे, लेकिन उसे कोई कष्ट हो रहा है, इसका उसने अहसास ही नहीं होने दिया। इस 45 दिन की यात्रा में प्रताप शिखर और कुँवर प्रसून के विचारों के प्रतिबद्धता व मानवीय संवेदना ने हमें अत्यधिक प्रभावित किया। यह यात्रा कुमाऊँ-गढ़वाल की एकता के लिये भी मील का पत्थर बनी, जिसमें प्रताप शिखर व कुँवर प्रसून की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
प्रताप शिखर का जन्म 22 मार्च 1952 में फोनी, कुजणी, टिहरी गढ़वाल में बैशाख सिंह पँवार के घर हुआ। माता का नाम श्रीमती छेरी देवी था। टिहरी से ही शिक्षा लेने तथा ठक्कर बाबा छात्रवास से संपर्क होने के कारण वे सर्वोदय के समीप आये। टिहरी में हमेशा सर्वोदय तथा वामपंथियों, दोनों का जबर्दस्त प्रभाव रहा है। इससे टिहरी में हमेशा चेतना के स्वर फूटते रहे, वह जनआंदोलनों की भूमि रही। यह दीगर बात है कि इतनी जबर्दस्त जन चेतना के बाद भी टिहरी नगर सबसे पहले नष्ट हुआ। टिहरी के डूबते ही चेतना का वह अंश भी डूबा, जो उत्तराखण्ड को नहीं, पूरे देश को प्रभावित करता था। प्रताप शिखर भी उसी पुरानी टिहरी के उपज थे, जिसने सुन्दर लाल बहुगुणा, भवानी भाई, घनश्याम शैलानी, सुरेन्द्र भट्ट, कुँवर प्रसून, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी आदि जन आंदोलनों के नायक दिये। इन्हीं के बीच प्रताप शिखर भी थे।
श्रीमती दुलारी देवी से विवाह के बाद प्रताप की तीन संतानें, पुत्र अरण्य रंजन व पुत्री सृजना व समीरा हुई। तीनों का विवाह हो चुका है। और भरापूरा परिवार प्रताप शिखर छोड़ गये।
अधिकांश आंदोलनकारियों की तरह प्रताप शिखर ने भी सन् 1983 में एक स्वैच्छिक संगठन बनाया, 'उत्तराखण्ड जन जागृति संस्थान'। अब संस्था का कामकाज अरण्य रंजन कर रहा है। प्रताप शिखर का पत्रकारिता व साहित्य से भी गहरा जुड़ाव रहा। युगवाणी, उत्तरांचल, सत्यपथ, कर्मभूमि, सीमांत प्रहरी, हिलांस, अलकनंदा, अमर उजाला, सर्वोदय जगत, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, लोक गंगा आदि में वह निरंतर लिखता रहा। उसकी प्रमुख प्रकाशिन पुस्तकें हैं, कुरैड़ी फटेगी टिहरी गढ़वाल की लोक कथाएँ, एक दिन की बातें हैं……, एक थी टिहरी।
पिछले दो वर्षों से वह मधुमेह से गंभीर रूप से पीडि़त था। पैर में खराबी आ गई थी। बाहर आना-जाना बन्द हो गया था। अन्ततः 25 मई को वह हमसे अलविदा कह गया।

No comments:
Post a Comment