आने वाले चुनाव में यदि विखंडित जनादेश आता है तो बाबुराम भट्टराई ही एकमात्र ऐसे नेता होंगे, जिन पर फिर सहमती बनेगी. यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि आगामी चुनाव बाबुराम भट्टराई का चुनाव साबित होगा...
विष्णु शर्मा
नेपाल की संविधान सभा का विघटन जितना अप्रत्याशित था उनता ही जरूरी . चार साल पुरानी संविधान सभा अपने जनादेश के विपरीत केवल प्रधानमंत्री बनने और न बनने देने की कसरत बन कर रह गई थी. इन चार वर्षो में संविधान सभा केवल पांच उल्लेखनीय फैसले कर पाई, जिनमें से चार केवल प्रधानमंत्री बनाने-बनने संबंधी ही थे और एक में नेपाल को गणतंत्र घोषित किया गया था.

संविधान सभा नेपाल के तमाम नेताओं के लिए लेन-देन का जरिया बन गई थी. संविधान सभा की अधिकांश बहसों में सरकार बनाने का सवाल प्रमुख होता था न कि संविधान बनाने का. संविधान के प्रति प्रमुख राजनीतिक दलों की उदासीनता का आलम यह था कि संविधान निर्माण के लिए गठित 14 उप-समितियों की सभी प्रमुख संस्तुतियों को प्रमुख राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज कर दिया और होटलों, रिर्जोटों और देश-विदेश में आयोजित सेमिनारों में संविधान में क्या शमिल करना है क्या नहीं इस की बहस चलाते रहे.
सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भारत, चीन, विलायत और अमरीका की यात्राएं कीं, संविधान निर्माण के गुण सीखे और वहां के स्मारकों की फोटो को अपने फेसबुक पर लगातार अपडेट किया. संविधान सभा की सबसे बड़ी पार्टी की हैसियम में माओवादी पार्टी के नेता इस काम में सबसे आगे दिखे. नेपाल, जिसकी 80 फीसदी आबादी के लिए कम्प्यूटर रहस्य है उसके भाग्य का फैसला करने वाले नेताओं की फेसबुक की ललक उसके साथ एक मजाक ही माना जा सकता है.
इस मजाक को थोड़ा और मजाकिया बनाने के लिए माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचण्ड के सुपुत्र प्रकाश ने संविधान के लिए ऐवरेस्ट की चोटी में चढ़ने का ऐलान किया. हालाकि एक साक्षत्कार में उन्होनें कहा कि यह उनका बचपन का सपना था लेकिन इस सपने को संविधान निर्माण से जोड़ कर 'कामरेड' प्रकाश ने इसे 'जनसपना' बना दिया था. तो क्या संविधान बनाने की चार साल लंबी कसरत बेकार गई? या विघटन ने नेपाली दलों के लिए कुछ महत्वपूर्ण सबक छोड़े हैं?
माओवादी पार्टी के लिए सबक
संविधान सभा की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते विघटन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी माओवादी पार्टी की है. इसके अध्यक्ष प्रचण्ड पूरे चार साल भ्रमित नजर आए. कभी जनविद्रोह और कभी संविधान को प्रमुखता देने के चलते माओवादी पार्टी अन्य राजनीतिक दलों को भरोसे में नहीं ले सकी. 2008 में गणतंत्र नेपाल के पहले प्रधान मंत्री की हैसियत से प्रचण्ड ने नेपाल की सत्ता संभाली. उसके आठ महीने बाद कटवाल प्रसंग पर उन्होंने इस्तीफा दिया.
यह एक साहसिक काम था, लेकिन इसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री पद पर पुनः पहुंचने की उनकी चाहत उनके कद को छोटाकरती चली गई. ऐसा लगता था जैसे पूरी माओवादी पार्टी उनके इस सपने को पूरा करने का साधन है. माधव नेपाल की सरकार को कठपुतली सरकार कहने वाली माओवादी पार्टी ने लगातार संविधान सभा की बैठकों का बहिष्कार किया, उसे चलने नहीं दिया और संविधान बनाने की प्रक्रिया को एक साल तक हाइजैक करके रखा.
आठ महीने तक संविधान की दिशा में माओवादी पार्टी ने कोई खास पहल नहीं की और अगले एक साल माधव नेपाल को कोई पहल नहीं करने दिया. माधव नेपाल के इस्तीफे के बाद जब लग रहा था कि बाबुराम भट्टराई पर सहमती बन सकती है तो पूरी पार्टी पंक्ति ने ऐसा नहीं होने दिया. प्रचण्ड ने बाबुराम को भारत समर्थक कह कर पार्टी की ओर से उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं बनने दिया और पार्टी को नेकपा एमाले के अध्यक्ष झलनाथ खनाल को समर्थन दिलवा दिया. इस प्रकार झलनाथ खनाल के कार्यकाल की उपलब्धि यही रही कि उन्होनें छः महिने तक बाबुराम भट्टराई को प्रधानमंत्री पद से दूर रखा.
इसके बाद माओवादी पार्टी के किरण समूह के दवाब में बाबुराम भट्टराई के प्रधान मंत्री बनने का रास्ता खुला. बाबुराम भट्टराई ही एक मात्र ऐसे नेता हैं जो शुरू से ही संविधान निर्माण के प्रति चिंतित नजर आते हैं. उन्होंने राजनीतिक दलों के बीच बनी खाई को पाटा और विश्वास का माहौल बनाने में सफल हुए. ये उनके नेतृत्व की सफलता थी कि पहली बार नेपाल में राष्ट्रीय सहमती की सरकार बन सकी. हां, इस मुहीम में वे अपनी ही पार्टी के एक बड़े हिस्से को नाराज करते चले गए लेकिन संविधान निर्माण के लिए जो समय उनके पास उपलब्ध था उसमें यह कीमत उन्हें चुकानी ही थी.
जोखिम उठाना एक नेता का जरूरी गुण है. संविधान सभा के विघटन का फैसला कर उन्होंने अपने इस गुण का परिचय दिया है. भले ही विघटन और आगामी चुनाव टूट के कगार पर खड़ी माओवादी पार्टी के नुक्सानदायक साबित हो लेकिन यह बाबुराम भट्टराई के लिए वरदान से कम नहीं है और शायद इसी के चलते बाबुराम भट्टराई ने इतना बड़ा जोखिम उठाया.
माओवादी पार्टी के अध्यक्ष इस बात को शायद अभी न समझे लेकिन चुनाव के बाद भट्टराई की राजनीतिक परिपक्वता का एहसास उन्हें हो ही जाएगा. भट्टराई एक ऐसे राजनेता है जिन्हे एक पार्टी के बहुमत से हमेशा नुकसान होता है लेकिन विखंडित जनादेश उन्हें मजबूती प्रदान करता हैं. आने वाले चुनावों में यदि एक बार फिर विखंडित जनादेश आता है तो बाबुराम भट्टराई ही एकमात्र ऐसे नेता होंगे, जिन पर फिर सहमती बनेगी. यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि आगामी चुनाव बाबुराम भट्टराई का चुनाव साबित होगा.
प्रचण्ड की अध्यक्षता वाली माओवादी पार्टी और खुद प्रचण्ड के लिए अच्छा होता कि नया संविधान इसी कार्यकाल में बन जाता. प्रचण्ड इसमें चूक गए. साथ ही अंतिम दिनों में संविधान निर्माण की जो हड़बड़ी उन्होंने दिखाई उसमें वे अपने सबसे भरोसेमंद जनाधार को नष्ट करते चले गए. उन्होने अपने ही दलों के महत्वपूर्ण नेताओं को भरोसे में लिए बिना ऐसे फैसले लिए या लेने में सहयोग दिया जो उनके राजनीतिक धरातल को कमजोर करने वाले साबित होगें. आगामी चुनाव में यदि वे पार्टी को संयुक्त तौर पर नहीं ले जा सके (जिसकी पूरी संभावना है) तो उनके राजनीतिक भविष्य पर सवाल खड़ा हो सकता है.
कांग्रेस की स्थिति
संविधान सभा के विघटन का सबसे बड़ा नुकसान नेपाली कांग्रेस को चुकाना पड़ सकता है. पिछले चुनाव में राजतंत्र के प्रति उसकी उदारता चुनाव में उसके पिछड़ जाने का कारण बनी थी और इस बार संघियता पर सख्ती उसकी चुनावी राणनीति को कमजोर बना सकती है. नवंबर में होने वाले चुनाव संघियता को मुद्दा बना कर ही लड़े जाएंगे और ऐसे में संघियता की मांग कर रही नेपाल की एक बड़ी आबादी स्वतः उसके खिलाफ हो जाती है. मधेशी दलों के राजनीतिक पटल पर प्रकट होने से पहले तक कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ मधेश था. मधेश मोर्चा के कई बड़े नेताओं ने अपनी राजनीतिक शिक्षा कांग्रेस में हासिल की. आगामी चुनाव में मधेश, जनजाति और अन्य राष्ट्रीयताएं कांग्रेस के खिलाफ खड़ी दिखई देंगी. लेकिन कांग्रेस के पास उम्मीद की किरण है. वह है माओवादी पार्टी का विधिवत विभाजन. माओवादी पार्टी का विभाजन कांग्रेस के विरोधी वोट बैंक को बांट सकता है और उसका वफादार वोट बैंक उसकी जीत को सुनिश्चित कर सकता है. इसके अलावा मधेशी पार्टियों का विभाजित रहना भी उसके आधार को मजबूत करेगा.
कहाँ खड़ी एमाले
पिछले चुनावों की तरह इस बार भी नेकपा (एमाले) के पास राजनीति का कोई साफ मॉडल नहीं है. उसके पास कांग्रेस के जैसा वफादार वोट बैंक भी नहीं है. पिछली बार की तरह उसकी कोशिश इस बार भी कांग्रेस और माओवादी पार्टी की कमजोरी पर केंद्रित हो कर चुनाव लड़ने की होगी. माओवादी पार्टी के टूटने का फायदा उसे नहीं होगा बल्कि दो माओवादी पार्टियां उसके जनाधार को अपने में समाहित कर लेंगी. कांग्रेस के विपरीत एमाले के पास पुरानी सरकारों को कोसने का भी कोई खासा अवसर नहीं है. पिछली चार सरकारों में तीन में उसकी पूरी भागीदारी थी. दो बार उसने सरकार का नेतृत्व किया है.
मधेशी और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका
निश्चित तौर पर अगले चुनावों में मधेशी और क्षेत्रीय पार्टियों की निर्णायक भूमिका होगी. चूंकि चुनाव संघियता पर केंद्रित होगें इसलिए जनता में इन पार्टियों को अधिक महत्व मिलना स्वाभाविक है. चुनाव के करीब आते-आते हो सकता है कि बड़ी पार्टियों के क्षेत्रीय नेता अपनी पार्टियों के खिलाफ खड़े हो कर संघियता के समर्थन में चुनाव लड़े (संविधान सभा के विघटन के बाद एमाले के कई नेता अपनी पार्टी को छोड़ कर जा चुके हैं या जाने की तैयारी कर रहे हैं).
अंततः एक बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि माओवादी पार्टी का विभाजन और चुनाव में दो पार्टी के रूप में उसकी हिस्सेदारी कांग्रेस और एमाले के लिए फायदेमंद हो न हो यह विभाजन बाबुराम भट्टराई के लिए जरूर फायदेमंद होगा और प्रचण्ड की हैसियत को गहरा नुकसान पहुंचाएगा.

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