| Monday, 18 June 2012 11:10 |
अरविंद मोहन यह एक बिल्कुल नई स्थिति है। कई मायनों में यह भ्रष्टाचार के खिलाफ उभरे जन आक्रोश- जिसकी अभिव्यक्ति अण्णा आंदोलन रहा है- का दूसरा चरण है। अब यह अच्छा है या बुरा, पर इसने सरकार की साख और इसके निष्कलंक मुखिया की छवि धूमिल की है और उसे सफाई देने और पलट कर चुनौती देने की जरूरत महसूस हो रही है। कुछ समय पहले तक मनमोहन सिंह, एके एंटनी, जयराम रमेश जैसे कांग्रेस के नेताओं की छवि सवालों से परे मानी जाती थी। यह भी माना जाता था कि भाजपा एक पार्टी के तौर पर (और कम्युनिस्ट पार्टियां भी) भ्रष्टाचार के सवाल पर कांग्रेस से अलग हैं। तब कांग्रेस डरती थी कि अगर उसने कोई कदम नहीं उठाया तो आंदोलन का लाभ भाजपा उठा ले जाएगी। पर साल भर में भाजपा ने भी अपनी कमीज कांग्रेस जितनी दागदार बना ली है। दूसरी ओर, टीम अण्णा ने भी जब तक हिसार चुनाव में सीधे दखल देकर एक भारी भूल नहीं की थी तब तक उसकी सीधी आलोचना करना एक तरह से कुफ्र जैसा माना जाता था। याद कीजिए, मनीष तिवारी को एक गलत बयान देने के बाद नेपथ्य में जाना पड़ा था। हिसार से लेकर चार जून के धरने और पंद्रह मंत्रियों पर आरोप लगाने के बीच क्या-क्या हुआ और सरकारी पक्ष और टीम अण्णा की तरफ से क्या-क्या गलतियां हुर्इं हैं यह गिनाना संभव नहीं है। ऐसा करना हमारा उद्देश्य भी नहीं है। बाबा रामदेव तो पहले मुकाबले से भाग कर खुद को नेतृत्व के लिए अनुपयुक्त साबित कर चुके हैं, और सरकार भी उनके व्यवसाय के चलते उन पर आसानी से निशाना साध लेती है। अण्णा हजारे पर तो बे-ईमानी के आरोप चिपकाना असंभव-सा है, पर राजनीतिक चूकें उनसे भी हुई हैं और उन्होंने सार्वजनिक रूप से कुछ गलतियों को स्वीकार करके सुधार भी किया है। टीम अण्णा के ज्यादातर सदस्य भी कई तरह के आरोपों के घेरे में आए, कई ने खुद को बेदाग साबित किया तो कई के दाग धुंधले भर हुए। एनजीओ के लोगों को अपनी सीमा और सार्वजनिक जीवन की कीमत का अंदाजा तो हुआ, पर इस क्रम में उनके आंदोलन की छवि भी प्रभावित हुई। केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण समेत ज्यादातर सक्रिय लोग सवालों के घेरे में आए तो अपनी खास जासूसी शैली से उन्होंने स्वामी अग्निवेश समेत कई को सरकारी जासूस बता दिया। जाहिर तौर पर इन सबसे आंदोलन की चमक फीकी हुई। कोई बहुत सहानुभूति वाला रुख रखे तो इस सब को भूल सुधार और आगे के लिए अच्छी तैयारी का हिस्सा मान सकता है। पर बात आंदोलन और आंदोलनकारियों के सुधार भर की होती तो खुश हो लिया जाता। बात आंदोलन से उठे सवालों पर सरकार और हमारे सांसदों की तरफ से हुई भूल-चूक और सुधार के कदमों- जिनमें ए राजा, कनिमोड़ी, सुरेश कलमाड़ी जैसों के जेल जाने का मामला भी शामिल है- तक की होती तब भी खुश हो लिया जाता। पर बात इतनी भर नहीं है। भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ सारी लड़ाई एक मुकाम पर आकर रुक गई है। इसे चलाने वाली मंडली की बाबा रामदेव वाली धारा जहां इस काम के लिए अनुपयुक्त साबित हो चुकी है वहीं टीम अण्णा भी लुटी-पिटी दिखती है। दूसरी ओर, सरकार और राजनेताओं ने इन बीमारियों से निपटने में जितनी दिलचस्पी दिखाई है उससे ज्यादा आंदोलन को निपटाने में। इसमें साम, दाम, दंड, भेद, किसी भी तरीके से परहेज नहीं किया गया। जिस लोकपाल के लिए पूरी संसद ने एक सुर में पूरे मुल्क से वादा किया उसे अब लालूजी ही नहीं कई और नेता भी खुलेआम बेकाम का बता रहे हैं। इसलिए मुद्दा कोयला ब्लॉकों के आबंटन के बारे में सीएजी की रपट के खुलासे और टीम अण्णा की ओर से चौदह मंत्रियों पर लगाए गए आरोपों का ही नहीं है। सवाल उससे बड़े हैं। भ्रष्टाचार और काले धन से सफाई की जरूरत ज्यादा बड़ी है। |
Monday, June 18, 2012
रहबरी पर सवाल
रहबरी पर सवाल
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