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Thursday, June 14, 2012

Fwd: [New post] काली करतूतें सफेद झूठ



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/6/14
Subject: [New post] काली करतूतें सफेद झूठ
To: palashbiswaskl@gmail.com


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काली करतूतें सफेद झूठ

by सुभाष गाताडे

angry-vasundhara-rajeएक तरफ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार अपनी नाकामी के चलते विवादों के घेरे में आती दिख रही है, वहीं हम यह भी पा रहे हैं कि प्रमुख विपक्षी पार्टी भी अपनी दुर्दशा से उबर नहीं पा रही है। मई का महीना तो संघ-भाजपा के लिए नई-नई मुसीबतों की सौगात लेकर आया। उधर झारखंड में सत्ताधारी होने के बावजूद अपने प्रत्याशी को राज्यसभा चुनावों मे मिली शिकस्त के गम से परिवारजन उबर ही रहे थे कि राजस्थान में पार्टी दो फाड़ की स्थिति में पहुंची दिखी, और वसुंधरा राजे की बगावत के आगे संघ के स्वयंसेवक गुलाबचंद कटारिया की प्रस्तावित जनजागरण यात्रा को मुल्तवी करना पड़ा और मध्यप्रदेश में संघ परिवार से ही संबद्ध भारतीय किसान संघ के आंदोलन पर भाजपा सरकार द्वारा चलाई गई गोलियों से हुई मौत को लेकर पार्टी को रक्षात्मक पैंतरा अख्तियार करना पड़ा।

मगर उसके माथे पर सबसे अधिक चिंता की लकीरें फैलानेवाली दो अन्य घटनाएं थीं, जिसमें उसके दो शीर्षस्थ नेताओं - लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी - पर अदालती शिकंजा कसने की संभावना बनती दिखी। मालूम हो कि सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि आडवाणी के खिलाफ बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में चल रही अदालती कारवाई 'साजिश रचने का' हिस्सा बिना छोड़े चलाई जाए अर्थात उन्हें भी 'उस बड़ी साजिश'' का अभियुक्त मान कर कार्रवाई आगे चलाई जाए। भारत की इस अग्रणी जांच एजेंसी ने अपने हालिया शपथपत्र में संघ-भाजपा के आठ अग्रणी नेताओं और बाकी 41 लोग -जिनमें मुख्यत: कारसेवक शामिल थे जो 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के प्रत्यक्ष विध्वंस में शामिल थे - के मामलों को अलग करने के खिलाफ अपनी राय प्रकट की। सीबीआई का स्पष्ट कहना था कि इन आठ नेताओं - आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, विष्णु हरि डालमिया और साध्वी ऋतम्भरा - इनके मुकदमे को बाकी अभियुक्तों के मुकदमे से अलग करना बिल्कुल अनुचित है।

modi-will-have-to-think-nowइसके अलावा गुजरात 2002 के दंगों को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त 'अदालती मित्र' ने न्यायालय को दी अपनी रिपोर्ट में यह बताया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर 'विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी भड़कानें', 'राष्ट्रीय एकता के खिलाफ वक्तव्य देने' के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है। मालूम हो कि एमिकस क्यूरे अर्थात अदालत के मित्र प्रसिद्ध वकील राजू रामचंद्रन की रिपोर्ट, जो जाकिया जाफरी की शिकायत पर पेश की गई है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा ही इस मामले मे नियुक्त स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम की रिपोर्ट से बिल्कुल भिन्न राय रखती है। आर के राघवन के नेतृत्ववाली एस आई टी ने यह कहा था कि मोदी के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं बनता है। रामचंद्रन का यह भी कहना है कि मोदी पर भारतीय दंड विधान की अन्य धाराओं जिसके अंतर्गत 'किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के मकसद से' शासकीय सेवक खुद कानून का उल्लंघन करता दिखे; 'दुश्मनी, घृणा या दुर्भावना को बढ़ावा देता दिखे' इसके तहत भी मुकदमा चलाया जा सकता है।

याद रहे कि 27 फरवरी 2002 की रात, जिस दिन गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने से कारसेवकों की मौतें हुई थी, स्थिति की गंभीरता पर विचार करने के लिए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के आवास पर आयोजित विशेष बैठक की कार्रवाई को लेकर दो किस्म की बातें सामने आयी हैं। गुजरात काडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट ने अपने हलफनामे में बताया है कि उस रात नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर वरिष्ठ अधिकारियों को यह निर्देश दिया कि ''हिंदुओं को अपने गुस्से का इजहार करने दिया जाए''। कहने का तात्पर्य यह कि आनेवाले कुछ दिन वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हिंदुओं पर अंकुश न लगाएं। दूसरी तरफ, इस बैठक में संजीव भट्ट की उपस्थिति को लेकर यहां तक कि किसने क्या कहा इसे लेकर वहां उपस्थित रहे बाकियों ने अलग बात कही है। खुद एस आई टी ने भी अपनी अंतिम रिपोर्ट में संजीव भट्ट के कथन पर यकीन नहीं किया था।

राजू रामचंद्रन बताते हैं कि 'उस रात की बैठक को लेकर एस आई टी ने वरिष्ठ अधिकारियों अर्थात वरिष्ठ नौकरशाहों एवं पुलिस अधिकारियों की बात पर यकीन किया है' मगर एस आई टी ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में (पेज 13) लिखा था:

''3. कुछ सरकारी अधिकारी, जो बहुत पहले रिटायर हो चुके हैं, उन्होंने स्मृतिलोप होने का दावा किया क्योंकि वह किसी विवाद में फंसना नहीं चाहते थे। 4. कुछ अन्य सरकारी अधिकारी, जो हाल में ही रिटायर हुए हैं और जिन्हें रिटायरमेंट के बाद अच्छी सुविधाएं/तैनातियां मिली हैं, वे राज्य सरकार एवं वर्तमान मुख्यमंत्री के प्रति एहसानमंद दिखते हैं और इस वजह से उनके वक्तव्य की विश्वसनीयता नहीं है। 5. अभी भी सरकारी नौकरी में कायम अधिकारी, जिन्हें उच्च पदों की तैनाती मिली हुई है, वे सत्ताधारी राजनेताओं के साथ किसी किस्म के विवाद में फंसना नहीं चाहते थे और उनका कोपभाजन नहीं बनना चाहते थे, जिसने उनकी प्रतिक्रिया को प्रभावित किया।''

जिस शर्मनाक तरीके से स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम नरेंद्र मोदी का बचाव करती है, वह काबिलेगौर है। याद रहे कि 27 फरवरी 2002 को नरेंद्र मोदी के आवास पर हुई उपरोक्त बैठक को लेकर अब जबकि यही तथ्य उजागर हो रहे हैं कि भट्ट वहां उपस्थित थे, तो स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम ने एक नई थियरी पेश की है। उसके मुताबिक अगर यह कहा भी गया हो कि 'हिंदुओं को उनका गुस्सा निकालने दिया जाए' तो भी यह अपराध नहीं बनता क्योंकि यह बात चहारदीवारी के अंदर कही गई है, इसलिए यह अपराध नहीं बनता। राज्य का कर्णधार एक आपातबैठक में अपने मातहतों को 'हिंसा को न रोकने का' निर्देश दे, मगर फिरभी वह अपराध नहीं होगा यही विचित्र तर्क टीम पेश करती है।

इतना ही नहीं एस आई टी की अंतिम रिपोर्ट गुलबर्ग सोसायटी इलाके में हुए भारी हिंसाचार के लिए भीड़ द्वारा मार दिए गए सांसद एहसान जाफरी को ही जिम्मेदार ठहराती है, जिसमें वह लिखती है कि भीड़ को उकसाने का काम जाफरी ने ही किया क्योंकि उन्होंने भीड़ पर गोलियां चलाईं। याद रहे कि मोदी या उनके करीबी 'क्रिया' की 'प्रतिक्रिया' का यही सिद्धांत पेश करते रहे हैं।

अहमदाबाद में तैनात दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी - पी बी गोंदिया और एम के टंडन - की दंगों के दौरान भूमिका को लेकर भी स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम एवं अदालत के मित्र राजू रामचंद्रन की राय बिल्कुल अलग है। श्री रामचंद्रन बताते हैं कि एस आई टी ने खुद इस बात को रेखांकित किया था कि इन दो अधिकारियों ने मेघानी नगर इलाके से - जहां गुलबर्ग सोसायटी स्थित है - तब एक तरह से पलायन किया जब वहां सांप्रदायिक हिंसा चरम पर थी और अन्य इलाकों में -जहां ऐसा कोई फसाद हो नहीं रहा था - फर्जी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अपनी अनुपस्थिति को औचित्य प्रदान करने की कोशिश की थी। एस आई टी ने खुद पाया था कि ये अधिकारी जो खुद उस वक्त नरोदा पाटिया एवं नरोदा ग्राम कत्लेआम के सूत्रधारों - जयदीप पटेल, माया कोदनानी - से टेलीफोन से संपर्क में थे। अदालती मित्र के मुताबिक इन अधिकारियों पर आपराधिक मुकदमा चलना चाहिए था, जबकि एस आई टी ने महज विभागीय कार्रवाई की सिफारिश की है।

यह बात भी विदित है कि 28 फरवरी 2002 को जब दंगे भड़क उठे तब मोदी के दो कैबिनेट मंत्री अशोक भट्ट एवं आई के जडेजा और उनका राजनीतिक सहयोगी पुलिस कंट्रोल रूम में मौजूद थे। यही वह वक्त था जब दंगाइयों से बचने के लिए गुहार लगाते पीडि़तों के फोन कॉल्स पर पुलिस कंट्रोल रूम पूरी तरह निष्क्रिय रहा। अशोक भट्ट का फोन रेकार्ड बताता है कि वह स्वयं नरोदा कत्लेआम के 'शिल्पकार' विश्व हिंदू परिषद के नेता जयदीप पटेल के साथ फोन पर संपर्क में थे। विडंबना ही कही जाएगी कि एस आई टी ने इस मामले में भी गहराई से जांच करने की बात पर जोर नहीं दिया।

एस आई टी द्वारा मोदी को दी गई 'क्लीन चिट' की मुखालिफत करते हुए राजू रामचंद्रन बताते हैं कि इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि कई सारे अहम बिंदुओं पर जांच की जरूरत है, अदालत ही इस मामले में अंतिम फैसला ले सकती है। अपनी रिपोर्ट के आखिर में वह उन तमाम धाराओं का भी उल्लेख करते हैं जिसके अंतर्गत मोदी पर मुकदमा चलाया जा सकता है।

स्पष्ट है कि अदालती मित्र की तीखी रिपोर्ट से भन्नायी भाजपा ने 2014 के चुनावों में 'प्रधानमंत्री पद के अपने संभावित प्रत्याशी' के बचाव के लिए अपने तमाम प्रवक्ताओं को उतारा है, मगर वे सभी इस बुनियादी बात को भूल रहे हैं कि देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा खुद नियुक्त अदालती मित्र की रिपोर्ट - जिसका एक जबरदस्त नैतिक वजन है - जब एस आई टी के हर निष्कर्ष को लेकर अलग राय रखती है, तब ऐसा कैसे होगा कि अदालत उस पर गौर न करे।

क्या इसका मतलब 'हिंदू हृदय सम्राट' नरेंद्र मोदी 2002 के जनसंहार में 'नीरो की अपनी भूमिका' के लिए अदालती कटघरे में खड़े कर दिए जाएंगे? इसका जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा है ।

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