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Sunday, April 14, 2013

एक बेहद जरुरी स्पष्टीकरण​ः जोगेंद्र नाथ मण्डल तो मुस्लिम लीग समर्थित भारत के कानून मन्त्री थे, लेकिन मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे बाकी लोग मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर विरोधी थे।

 एक बेहद जरुरी स्पष्टीकरण​ः

जोगेंद्र नाथ मण्डल तो मुस्लिम लीग समर्थित भारत के कानून 

मन्त्री थे, लेकिन मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे बाकी लोग 


मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर


विरोधी थे

​​
​टाइपिंग की वजह से इस आलेख में ेक भारी गलती चली गयी, जिससे गलत फहमियां फैल सकती हैं।देर रात लिखकर पोस्ट करने की वजह से यह गलती तब सुधारी नहीं जा सकी। इस वजह से प्रकाशित आलेख में यह छप गया है ः

जब कांग्रेस ने अंबेडकर के लिए संविधान सभा में पहुंचने के दरवाजे और खिड़कियां तक बंद कर दी ​​थी, तब जोगेंद्रनाथ मंडल c मुकुन्द बिहारी मल्लिक जैसे मतुआ अगुवाइयों की पहल पर उन्हें जैशोर, खुलना,फरीदपुर, बरिशाल के ​​चुनाव क्षेत्र से पार्टी लाइन तोड़कर नमोशूद्र विधायकों ने ही संविधान सभा में भेजा। इनमे जोगेंद्र नाथ मंडल तो मुस्लिम लीग समर्थित भारत के  के कानून मंत्री थे, लेकिन मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे बाकी  लोग मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर समर्थक थे।

​​

तथ्य यह है कि जोगेंद्र नाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित जरुर थे लेकिन मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे बाकी  लोग मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर विरोधी थे।कृपया आगे इस आलेख को प्रकाशित प्रसारित करते वक्त इस भूल को सुधार लें।यह अनिवार्य है क्योंकि अंबेडकर विरोधी लोग जोगेंद्र नाथ मंडल की वजह से अंबेडकर को मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधानसभा में पहुंचने की दलील देते हैं। जबकि

 मंडल को छोड़कर बाकी मतदाता लीग के कट्टर विरोधी थे। हस्तक्षेप से भी 

ग्रह है कि वे इस भूल की सूचना पाठकों को अवश्य दे दें।यह उनकी गलती नहीं है। बल्कि वे अक्सर मेरे आलेख को सुसंपादित करके ही लगाते हैं। जिसे मैं रिपोस्ट किया करता हूं। पर यह व्याकरण संबंधी मामूली गलती तो है नहीं। तथ्यात्मक भारी भूल है, जिसका स्पष्टीकरण बेहद जरुरी है। यह सच अंबेडकर विमर्श और जाति विमर्श दोनों संदर्भ में बेहद जरुरी है। इस अनचाहे तथ्यात्मक भूल से आज अंबेडकर जयंती पर अंबेडकर के अनुयायियों और आम भारतीय नागरिकों को जो गलतफहमी हुई, उसके लिए हमें माफ करें।मुकुंद बिहारी मल्लिक व अंबेडकर के उन तमाम धर्मनिरपेक्ष मतदाताओं और पूरी नमोशूद्र जाति से भी हम माफी चाहते हैं।


पलाश विश्वास


कृपया अब संशोधित आलेख पढ़ेः


आंबेडकर की पूजा में हिन्दुत्व का ही अनुकरण कर रहे हैं हम


आंबेडकर की मूर्ति पर मत्था टेककर बहुजन समाज का वोट लूट ले जाते हैं लोग

एटीएम मशीन की तरह आंबेडकरवाद सबको नकद भुगतान कर रहा है

आंबेडकर मिशन आंबेडकर के निधन के बाद जबरन चंदा वसूली से आगे एक कदम नहीं बढ़ा

क्या आंबेडकर जयंती मनाने का हमें हक भी है?

पलाश विश्वास

 देश विदेश में आंबेडकर अनुयायी सालाना रस्म बतौर आंबेडकर जयंती मनाने की तैयारी में हैं। हमारी आस्था ने उन्हें ईश्वर का दर्जा दे दिया है। किसी ईश्वर की कोई विचारधारा नहीं है। संघ परिवार का हिन्दुत्व उन्माद भी कोई विचारधारा नहीं है। लेकिन कम से कम हिन्दुत्ववादी आस्था को आन्दोलन में बदलने में कामयाब है और मनुस्मृति की अर्थ व्यवस्था के मुताबिक वर्चस्ववादी सत्ता भी उन्हीं की है। हम आंबेडकर की पूजा में हिन्दुत्व का ही अनुकरण कर रहे हैं। वरना क्या कारण है कि बहुजन समाज के निर्विवाद नेता को भारतीय राजनीति में किनारे कर दिया गया, फिर उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी, उन्हीं के आन्दोलन की वजह से संसद और विधानसभाओं में पहुँचे बहुजन समाज के पूना पैक्टी प्रतिनिधि तब से निरन्तर खामोशी अख्तियार किये हुये हैं। बिना समुचित जाँच पड़ताल के उनकी मृत्यु पर हमेशा के लिये  पर्दा डाल दिया गया । आज सूचना के अधिकार के तहत जब प्रश्न किया जाता है तो भारत सरकार टका सा जवाब देती है कि डॉ. आंबेडकर की कैसे मृत्यु हुयी, उसे नहीं मालूम। भारत सरकार के पास डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मौत से जुड़ी कोई जानकारी नहीं है।

आंबेडकर कोई मामूली हस्ती तो थे नहीं। संविधान निर्माता थे। वोट की राजनीति में जहाँ उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी गाँधी और संसदीय राजनीति के धुरंधर राम मनोहर लोहिया को सत्ता वर्ग ने गैर प्रासंगिक बना दिया है, वहीं आंबेडकर के बिना किसी भी रंग की राजनीति का कम नहीं चलता। बहुजन वोट आंबेडकर आराधना से ही मिल सकता है। इसलिये आंबेडकर आन्दोलन और विचारधारा की बजाय दुर्गा पूजा और आईपीएल बतर्ज आंबेडकर जयंती व आंबेडकर निर्वाण उत्सव का प्रचलन हो गय़ा। लोग आंबेडकर की मूर्ति पर मत्था टेककर बहुजन समाज का वोट लूट ले जाते हैं। बहुजनों की आर्थिक सम्पन्नता, सामाजिक न्याय, समता और जाति उन्मूलन का एजेण्डा सिरे से खारिज हो गया। एटीएम मशीन की तरह आंबेडकरवाद सबको नकद भुगतान कर रहा है। इसके अलावा हमने आंबेडकर की कोई प्रासंगिकता नहीं बनाये रखी। मौजूदा सवालों, चुनौतियों और संकट से मुखातिब हुये बिना हमें क्या हक है कि हम आंबेडकर के नाम अपने निजी हित साधते रहे, आंबेडकर जयंती पर यह सवाल सबसे बड़ा है।

काँग्रेस दलितों के वोटों पर कब्जा करने के लिये आंबेडकर के नाम का जाप करती है तो संघ परिवार भी पीछे नहीं है। मसलन इस वर्ष दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का परचम लहराने के लिये पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों के बाद अब दलितों में पैठ बनाने की दिशा में कई कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की है। आंबेडकर के संविधान को खारिज करके खुलेआम मनुस्मृति की व्यवस्था लागू करने की मुहिम में जुटा संघ परिवार जाति उन्मूलन, सामाजिक न्याय और समता के विरुद्ध है। लेकिन सिर्फ दिखावे के लिये कोई भी आंबेडकर का नाम लेकर हमें बेहद आसानी से ठग सकता है, क्योंकि आंबेडकर अनुयायियों को उनकी विचारधारा और आन्दोलन के बारे में सही जानकारी नहीं है।

राम मनोहर लोहिया भारतीय यथार्थ के सन्दर्भ में जातिव्यवस्था के वास्तव को सम्बोधित करने की कोशिश कर रहे थे, उनके अनुयायी और आंबेडकर अनुयायी अपने-अपने वोट बैंक के गणित के मुताबिक जाति अस्मिता के आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी की राजनीति करके न सिर्फ सत्ता में शासक वर्ग का आधिपत्य बनाये रखने में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं बल्कि उनकी जाति अस्मिता की वजह से बहुजन समाज के घटक अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, पिछड़े और अल्पसंख्यक अलग-अलग पहचान के जरिये भारत में बहुजन समाज का निर्माण को विलम्बित कर रहे हैं।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

यह कटु सत्य है कि गोलमेज सम्मेलन के मौके पर पंजाब के बाल्मीकि समुदाय ने खून से लिखकर एक चिट्ठी ब्रिटिश सरकार को भेजकर आंबेडकर को भारत में दलितों का प्रतिनिधि बताकर गाँधी के इस तर्क का खण्डन किया था कि आंबेडकर नहीं, गाँधी ही भारत में दलितों के प्रतिनिधि हैं। लेकिन बाद में बाल्मीकि गाँधी के समर्थक हो गये। विभाजन से पूर्व मुख्यतः महाराष्ट्र के महार और बंगाल के नमोशूद्र दो जातियाँ ही आंबेडकर के साथ खड़ी थीं। जब काँग्रेस ने आंबेडकर के लिये संविधान सभा में पहुँचने के दरवाजे और खिड़कियाँ तक बन्द कर दी थीं, तब जोगेन्द्रनाथ मण्डल, मुकुन्द बिहारी मल्लिक जैसे मतुआ अगुवाइयों की पहल पर उन्हें जैशोर, खुलना,फरीदपुर, बरिशाल के चुनाव क्षेत्र से पार्टी लाइन तोड़कर नमोशूद्र विधायकों ने ही संविधान सभा में भेजा। 


इनमें जोगेंद्र नाथ मण्डल तो मुस्लिम लीग समर्थित भारत के कानून 

मन्त्री थे, लेकिन मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे बाकी लोग 


मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर


विरोधी थे


इसी वजह से हिन्दू बहुल आंबेडकर का पूरा चुनाव क्षेत्र पाकिस्तान में बिना किसी जमीनी सर्वे या सुनवाई के पाकिस्तान में डाल दिया गया आंबेडकर वहाँ की दलित विभाजन पीड़ित आंबेडकर अनुयायी जातियों को शरणार्थी बनाकर भारत भर में बिखेर दिया गया। फिर उनकी नागरिकता छीनने के लिये नागरिकता संशोधन कानून और आधार कार्ड योजना बहुजन सांसदों के समर्थन के साथ सर्वदलीय सहमति से लागू हो गया। इन शरणार्थियों को न मातृभाषा का अधिकार मिला और न आरक्षण का लाभलेकिन दलित होने के नाते वे नस्ली भेदभाव के शिकार हैं और बहुजन समाज भी उनके समर्थन में खड़ा नहीं हुआ।

इसके विपरीत जो जातियाँ आंबेडकर विरोध में सबसे आगे थीं, वे आरक्षण और सत्ता में भागेदारी के जरिये कमजोर अनुसूचितों के हक मार रही हैं। पिछड़े आंबेडकर का साथ देते तो हिन्दू कोड और पिछड़ों को आरक्षण की माँग लेकर आंबेडकर को भारत सरकार से त्यागपत्र नहीं देना होता और इन पर तत्काल अमल हो जाता। भूमि सुधार और सम्पत्ति के बँटवारे के बारे में आंबेडकर के प्रस्ताव भी लागू हो जाते। अब हालत यह है कि आंबेडकर की पहल मुताबिक आगे चलकर मण्डल कमीशन रपटलागू होने से सत्तावर्ग के मुख्य सिपहसालार, अनेक राज्यों के मुख्यमन्त्री पिछड़े वर्ग के लोग हैं।

हिन्दुत्ववादी कॉरपोरेट अश्वमेध के रथी महारथीसंघी प्रधानमन्त्रित्व के दावेदार नरेंद्र मोदी से लेकर रामजन्मभूमि आन्दोलन के सिपाहसालार कल्याणसिंहउमा भारतीविनय कटियार जैसे लोग पिछड़े वर्ग से हैं। यहीं नहीं, मध्य बिहार और बाकी देश में दलितों के उत्पीड़न में सवर्ण जातियों के बजाय पिछड़ी जातियों की ही प्रमुख भूमिका रही है। लेकिन आरक्षण और सत्ता में भागेदारी के सवाल पर पिछड़ी जातियाँ आंबेडकर अनुयायी बन गयी हैंठीक उसी तरह जैसे वे हिन्दुत्व के सबसे प्रबल अनुयायी हैं।

अब मजबूत पिछड़ी जातियों का आंबेडकर आन्दोलन का एकमात्र एजेण्डा अपनी अपनी जाति के लिये आरक्षण हासिल करना है। यह ठीक वैसा ही है जैसे सत्ता से बेदखल ब्राह्मण उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज की राजनीति करते हैं।

आंबेडकरवादी आरक्षण प्रत्याशी ओबीसी की गिनती के सहारे आंबेडकरवादी मिशन को अंजाम देने में लगे हुये हैं और पिछड़ों के नेता संघी मोर्चा का नेतृत्व करते हुये, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिये यज्ञ महायज्ञ करते हुये उनके साथ बने हुये हैं और इसी के जरिये वे कॉरपोरेट राजनीति में अपनी अपनी पैठ बना रहे हैं। इसी को भौगोलिक और सामाजिक नेटवर्किंग कहा जा रहा है।

आंबेडकर मिशन आंबेडकर के निधन के बाद जबरन चंदा वसूली से आगे एक कदम नहीं बढ़ा, तो सिर्फ इसलिये  कि जाति अस्मिता से अलग आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन को निनानब्वे फीसद जनता के हक हकूक की लड़ाई में प्रासंगिक बनाने की कोई पहल नहीं हुयी। आंबेडकर आन्दोलन सत्ता में भागेदारी का पर्याय बनकर रह गया। यहीं नहीं, आंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद को प्रमुख दुश्मन बताते थे। तो हमने ब्राह्मणों को प्रमुख दुश्मन बताकर आन्दोलन को ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों के समर्थन में खड़ा कर दिया।

इसी तरह अलग दलित आन्दोलन और अलग पिछड़ा आन्दोलन जारी रखकर सत्ता के खेल में इस्तेमाल होते हुये आंबेडकर अनुयायियों ने इस तथ्य को सिरे से नज़र अंदाज कर दिया कि जाति व्यवस्था तो नस्ली भेदभाव के तहतवंशवादी शुद्धता के तहत सिर्फ शूद्रों और अस्पृश्यों में हैं। बाकी शासक वर्ग तो वर्णों में शामिल हैंजिनका उत्पादन प्रणाली से कोई सम्बंध नहीं हैं। वे या तो पुरोहित हैं या फिर भूस्वामी या फिर वणिक। किसान जातियाँ ही देश के अलग अलग हिस्से में अलग अलग नामकरण के साथ अलग अलग पैमाने के तहत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जातियाँ हैं। नस्ली भेदभाव के तहत सम्पूर्ण हिमालयपूर्वोत्तर और आदिवासी भूगोल के दमन और उत्पीड़न को आंबेडकरवादी बहुजन आन्दोलन ने सिरे से नजरअंदाज किया और यह भूल गये कि आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन कुल मिलाकर भारत के किसानों और आदिवासियों के महासंग्राम की निरन्तरता की ही परिणति है। साम्राज्यवाद  और पूँजीवाद के विरुद्ध और अधुनातन कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्द दुनिया भर में नस्ली भेदभालव के शिकार अश्वेत आदिवासियों की नेतृत्वकारी बलिदानी भूमिका न सिर्फ हम भूल गये बल्कि इस महाशक्ति को हम अपने आन्दोलन की मुख्य शक्ति बनाने के कार्य भार से चूक गये। इसके विपरीत हिन्दू साम्राज्यवाद ने तो आदिवासी इलाकों को अपना आधार क्षेत्र बना लिया है, माओवादी चुनौती को तोड़ते हुये भी। हालत यह है कि हिदुत्ववादी ग्लोबल साम्राज्यवाद के हित साधते हुये आदिवासी ही आदिवासी के खिलाफ सलवा जुड़ुम में शामिल हैं। आदिवासी इलाकों में बहुजन आन्दोलन के बहाने अब कुछ आंबेडकरवादी संगठन भी आदिवासियों को आदिवासियों से लड़ाने के खेल में शामिल है। आंबेडकर की हत्या शासक वर्ग ने सही मायने में नहीं कीबल्कि बहुजन समाज की आत्मघाती प्रवृत्तियों के कारण ही आंबेडकर की हत्या की प्रक्रिया अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से जारी है। चूंकि इस हत्या में हम स्वयं शामिल हैं, तो प्रतिरोध तो दूर, जाँच पड़ताल की माग भी नहीं उठा सकते हम!

बहुजन समाज का निर्माण उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के एकीकरण के बिना असम्भव है, इस हकीकत को सिरे से नजरअंदाज किया जा रहा है। अपढ़ बहुसंख्य वंचित शोषित जनता की कौन कहें, आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन की वजह से जो अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग हैं, बेहतरीन ओहदों पर हैं और आंबेडकर विचारधारा के घोषित विशेषज्ञ हैं, वे भारतीय जनता और खासतौर पर बहुजन समाज के मौजूदा संकट से मुखातिब होने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। मेरे दिवंगत पिता कहा करते थे कि किसी भी विचारधारा की सही प्रासंगिकता जनता के अस्तित्व के लिये खतरनाक संकटों के समाधान की कसौटी से हैव्यक्ति से नहीं। दुनिया भर में कोई भी विचारधारा जस की तस जड़ नहीं है। वामपंथी आन्दोलन पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में देश काल परिस्थिति के मुताबिक बदलता रहा है। जाहिर है कि आंबेडकर के निधन से पहले कॉरपोरेट साम्राज्यवाद, एकध्रुवीय विश्व और मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था जैसी परिस्थितियों नहीं थी। ऐसा मार्क्स, लेनिन और माओ के जीवनकाल में भी नहीं था। पर दुनिया भर में वामपंथ के समर्थक इन प्रश्नों और चुनौतियों के समाधान के रास्ते निकालने में लगे हैं। वे संशोधनवादी और क्रान्तिकारी दोनों किस्म के लोग हैं। लेकिन इसके नतीजतन साठ और सत्तर दशक के वामपंथी आन्दोलन और वैश्विक व्यवस्था के मुताबिक के अलग अलग देशों में वामपंथी आन्दोलन के अलग अलग रुप सामने आये हैं। पर हमारे लोग तो आंबेडकर के उद्धरणों के दीवाने हैंउससे इतर हम कुछ भी विचार करने को असमर्थ हैं। हम तो अंधे भक्तों की जमात हैं। ईश्वरों और अवतारों के अनुयायी। आस्था ही हमारा संबल है। विचारधार और आन्दोलन नहीं। इसललिये आंबेडकरवादी होते हुये हम कब संघी एजेण्डा के मुताबिक हिन्दुत्ववादी हो जाते हैंहमें पता ही नहीं चलता।

भारत में किसान आन्दोलनों का इतिहास, उत्पादन सम्बंधों के बदलते स्वरूप और आदिवासी विद्रोह के कारण गौतम बुद्ध के समय से वर्चस्ववादी वैदिकी ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निरन्तर जो जनविद्रोह हुये, उसमें सूफी संतों, आदिवासी किसान विद्रोहों के महानायकों, मतुआ आन्दोलन के जनक हरिचांद ठाकुर और उनके उत्तराधिकारी गुरुचांद ठाकुर, महात्मा ज्योतिबा फूले, पेरियार रामस्वामी और नारायण गुरु सबकी अपनी अपनी भूमिका है। उन लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने देस काल को सम्बोधित करने की कोशिश की। डॉ. आंबेडकर ने किसी को खारिज नहीं किया बल्कि सभी विचारधाराओं के सम्यक अध्ययन के तहत अपना खास रास्ता चुना, जो पूर्वजों के आन्दोलन का जस का तस अनुकरण तो कतई नहीं है।

अगर आंबेडकर विचारधारा के मुताबिक कुछ प्रश्न अनुत्तरित भी रह जाते हैं, तो उनकी ऐतिहासिक भूमिका खारिज नहीं हो सकती। हमें उन अनुत्तरित सवालों का जवाब खोजना चाहिये। दलित पैंथर आन्दोलन ने एक अच्छी क्रान्तिकारी शुरुआत की थी, लेकिन वह आन्दोलन भी बाकी बहुजन आन्दोलन की तरह भटक गया। कुछ लोग जरूर इस कवायद में लगे हैं। लेकिन बाकी लोगों में तो अवतारवाद और आस्था का इतना ज्यादा असर है कि वे कतई यह मुश्किल कवायद नहीं करना चाहते, जिसके जरिये आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन को भारतीय जनता के समक्ष हिन्दू साम्राज्यवाद और कॉरपोरेट साम्राज्यवाद से निपटने के लिये राष्ट्रव्यापी जनांदोलन और प्रतिरोध का हथियार बनाया जा सके, जो आंबेडकर की प्रासंगिकता को बनाये रखने के लिये बेहद जरूरी है।

अगर आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन को हम बहुसंख्य भारतीय बहिष्कृत जनता ही नहीं, इस उपमहाद्वीप और उससे बाहर ग्लोबल हिन्दुत्व और जायनवादी वैश्विक कॉरपोरेट व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़ा नहीं कर सकते, तो आंबेडकर चर्चा अंततः वैदिकी संस्कार में ही निष्णात हो जाना है जो हो भी रहा है। क्योंकि जाति अस्मिता और सत्ता में भागेदारी का जो आंबेडकर आन्दोलन का प्रस्थान बिन्दु हमने बना दिया है, उससे जीवन के किसी भी क्षेत्र में शासक वर्ग का वर्चस्व तनिक कम नहीं हुआ बल्कि बहुजनों के हितों के विरुद्ध बहुजन समाज हिन्दू साम्राज्यवाद और कॉरपोरेट साम्राज्यवाद की पैदल सेना में तब्दील है। इस यथार्थ के महिमामण्डन से मौजूदा संकट के मुकाबले हम न आंबेडकर विचारधारा और न आंबेडकर आन्दोलन को सार्थक और सकारात्मक बनाने में कोई कामयाबी हासिल कर सकते हैं।

आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन को प्रासंगिक बनाने के लिये न दलितों की ओर से और न ही पिछड़ों की ओर से, बल्कि भारत के आदिवासी समाज, जो किसी भी जनप्रतिरोध के स्वाभाविक नेता है, की ओर से सबसे सकारात्मक पहल हुयी है, संविधान बचाओ आन्दोलन के तहत। बाबा साहेब के संविधान के तहत भारतीय आदिवासी समाज न सिर्फ मौलिक अधिकारों, पांचवीं और छढी अनुसूचियों, धारा 39 बी, धारा 39 सी के तहत हासिल रक्षाकवच को लागू करने की माँग कर रहे हैं, बल्कि वे बहुजन आन्दोलन को जल-जंगल-जमीन आजीविका, नागरिकता नागरिक मानवाधिकारों से जोड़ते हुये साधन संसाधनों पर मूलनिवासियों के हक हकूक का दावा पेश करते हुये पूना समझौते के तहत चुने गये तथाकथित जनप्रतिनिधियों के कॉरपेरेट नीति निर्धारण और उनके बनाये कॉरपोरेट हित साधने वाले कानून के विरुद्ध महासंग्राम का ऐलान कर रहे है। आंबेडकर विचारधारा और आन्दोलन के लिये आगे का रास्ता दरअसल इतिहास के खिलाफ भूगोल के इस महायुद्द से ही तय होना है। अब सिर्फ आंबेडकरवादियों को ही नहींलोकतान्त्रिक व धर्मनिरपेक्ष गैर आंबेडकरवादियों को भी तय करना है कि हम किस तरफ हैं।


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