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Saturday, April 6, 2013

राहुल जो कह गए

राहुल जो कह गए

Saturday, 06 April 2013 11:00

कुमार प्रशांत 
जनसत्ता 6 अप्रैल, 2013: इस बार राहुल गांधी राजधानी दिल्ली के मंच से बोले! चुनावी भाषणों से अलग वे जब भी बोले हैं तो वह एक घटना बन गया है। क्योंकि राहुल बोलते भी हैं यह देश को कम ही पता चलता है; और वे क्या बोलते हैं, यह तो देश और भी कम जानता है। इसलिए भारतीय उद्योगपतियों की सबसे बड़ी संस्था सीआइआइ के मंच से जब राहुल गांधी बोलने आए तो सभी उत्सुक भी थे और हैरान भी कि वे क्या बोलेंगे! जब उन्होंने पोडियम पर जाकर, कागज के पुलिंदों में से देख-देख कर बोलना शुरू किया तब गहरी निराशा हुई। वे न तो ठीक से बोल और न ठीक से पढ़ पा रहे थे। उनकी आवाज में थरथराहट थी और उनका पूरा हावभाव किसी ऐसे घबराए व्यक्ति का था, जिसे सुनना और देखना किसी सजा जैसा होता है। वे अपना ही उपहास करते दिखाई दे रहे थे।
राहुल गांधी हिंदी बोलते हैं तब कम, अंग्रेजी बोलते हैं तब ज्यादा पता चलता है कि भाषा पर उनकी पकड़ कम है और अपनी बात ठीक से कहने के लिए उन्हें शब्द खोजने पड़ रहे हैं। इसलिए वे कभी भी किसी कुशल वक्ता की छाप नहीं छोड़ पाते हैं। वैसे शायद यह उस पीढ़ी की ही विशेषता है जो मानती है कि भाषा ज्यादा कुछ नहीं, एक माध्यम भर है, जिससे हम अपनी बात दूसरे तक पहुंचाते हैं। मैंने मोटा-मोटा कहा और आपने मोटा-मोटा समझा, बस, भाषा की भूमिका पूरी हुई और खत्म भी!
हम अपने घरों में भी यह रोज देखते हैं कि हमारी नई पीढ़ी भाषा में सौंदर्य, संस्कार की, कोमलता और प्रांजलता की जरूरत न मानती और न चाहती है। हमने उन्हें जैसा परिवेश दिया है, अपने सार्वजनिक जीवन में हम जैसा रेगिस्तान बना और फैला रहे हैं, चूसे हुए गन्ने-सी सत्वहीन शिक्षा-पद्धति हमने उन पर लाद रखी है, उन सबका मिला-जुला परिणाम हमें मिल रहा है। राहुल गांधी उसका एक नमूना हैं। इसलिए यह मेरी शिकायत राहुल गांधी की कम, अपनी ज्यादा है।
राहुल गांधी उस रोज जब अपनी उस दुरवस्था से बाहर निकले, पोडियम की कैद छोड़ कर, मंच पर सीधे टहलते हुए, सवालों के जवाब के बहाने अपना मन खोलने लगेतब हमने एक नए राहुल को देखा और सुना! भाषा और अभिव्यक्ति की उनकी समस्या है ही और उस पर उन्हें काफी काम करने की जरूरत है। वैसे जवाहरलाल से राहुल गांधी तक, नेहरू-परिवार का कोई भी सदस्य बहुत कुशल वक्ता नहीं रहा है। एक परिपूर्ण व्यक्तित्व के धनी पंडित नेहरू अपने गहरे इतिहासबोध और खासे भाषा-सौंदर्य के बल पर अपनी अल्पता को पूरा कर लेते थे, लेकिन बाकी नेहरुओं में यह सब भी नहीं था। राहुल इन सारी अल्पताओं से बाहर आ सकेंगे तो ज्यादा खिलेंगे। लेकिन अभी तो हमारे पास जो राहुल हैं वे वही हैं जो उस रोज सीआइआइ के मंच पर खड़े थे।
राहुल गांधी ने जब अपनी बात कहनी शुरू की तब कुछ वक्त लगा श्रोताओं को यह समझने में कि यह आदमी कुछ अलग-सी और कुछ ऐसी बातें कह रहा है जो इन दिनों का कोई घुटा राजनीतिक कहता नहीं है, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ऐसे सवाल वह समझता भी नहीं है और ऐसे सवाल उसकी चिंता या चिंतन के दायरे में आते भी नहीं हैं।
राहुल गांधी ने पहली बात तो यही कही कि देश किसी मनमोहन सिंह के चलाने से नहीं चलेगा, नहीं चल रहा है; और फिर यह भी कहा कि किसी राहुल गांधी की राय क्या है, यह जानना बहुत अहम बात नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारा राजनीतिक ढांचा इतना सिकुड़ा हुआ है कि उसमें हम कुछ सैकड़ा सांसद और कुछ हजार विधायक भर समाते हैं। इतनी छोटी जमात, इतनी बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है? एक अरब से ज्यादा की हमारी आबादी अगर हमारे राजनीतिक ढांचे से बाहर ही रहेगी तो संवाद की, अपेक्षाओं की, कागजी योजनाओं को धरती पर उतारने की जो खाई बनती जाती है, वह भरेगी कैसे?
किसी व्यक्ति या किसी पार्टी का सवाल नहीं है, सीधी सच्चाई यह है कि यह अति केंद्रित राजनीतिक प्रणाली आज का हिंदुस्तान संभालने में अक्षम है। उन्होंने स्वीकार किया कि वामपंथी दल हैं और कुछ द्रविड़ पार्टियां हैं कि जो गांव और प्रधान से रिश्ता जोड़ कर रखने की कोशिश करती हैं, लेकिन दूसरी जगहों पर एकदम सन्नाटा है। यह सन्नाटा जब तक नहीं टूटेगा और वह संवादहीनता के कारण बनी खाई पाटी नहीं जाएगी तब तक हमें अपनी समस्याओं के जवाब मिलेंगे नहीं।
यह भारत का वह नौजवान है जो लंबे अरसे से इस इंतजार में रहा है कि इस नहीं तो उस पार्टी को या इस नहीं तो उस नेता को वोट देकर, नई सरकार बनाने से उसके जीवन के सवालों के हल मिलेंगे। वह ऐसा करता भी है, लेकिन हर बार पाता है कि वह तो वहीं का वहीं रह गया, जबकि कोई दूसरा उसके कंधे पर बैठ कर, उसकी पहुंच से बहुत दूर निकल गया! पैंसठ सालों के अनुभव के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस खेल में कुछ धरा नहीं है। कोई भी आदमी या पार्टी ऐसी नहीं है जो दूसरे के लिए कुछ करती है। अब कुछ करना है तो अपने भरोसे करना है। यहां तक बात पहुंच गई है, लेकिन अपने भरोसे कुछ कैसे किया जा सकता है, यहां आकर वह अटक जाता है। राहुल गांधी भी यहीं आकर अटकते हैं।

हमारी दिक्कत यह हो गई है कि हम सरकार को सर्वशक्तिमान मान कर देखते हैं और चाहते हैं कि वह एक मंत्र बोल दे और हमारा रास्ता खुल जाए। कॉरपोरेट जगत में यह बीमारी सबसे ज्यादा है, क्योंकि उन्हें अपना पैसा और कमाई सबसे पहले दिखाई देती है और यही अंतिम सच की तरह उनके सामने रहती है। इसलिए उन्हें एक ऐसा व्यक्ति या नेता सबसे मुफीद लगता है जो कहे कि बस, मेरे पास आ जाओ, मैं सारी बीमारियां दूर कर दूंगा।
यही सारे लोग थे, जिन्होंने आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू की उस कमजोरी को खूब हवा दी कि सब कुछ सरकार कर देगी, आप बस वोट डाले जाओ, वाला माहौल बनाने में लग गए और कुछ अमेरिका से तो कुछ सोवियत रूस से लाकर अपना हिंदुस्तान बनाने का ख्वाब पालने लगे। यही लोग थे, जिन्होंने महात्मा गांधी को दकियानूसी और जवाहरलाल को आधुनिक विकास का प्रतीक बनाया था और देश को गांधीजी के रास्ते से बहुत दूर ही नहीं, उससे उल्टी दिशा में ले गए थे। लेकिन आप भटक सकते हैं, लोगों को भी भटका सकते हैं, मगर वक्त न भटकता है, न भटकाता। इसलिए आज राहुल गांधी को लग रहा है कि संसद में बैठ कर, बड़े-बड़े कानून बना कर, योजनाएं फैला कर भी हम देश में वह कर नहीं पा रहे हैं जिसकी देश को जरूरत है।
उनमें यह अहसास जागा है क्योंकि वे देश के कुछ वैसे राजनीतिकों में हैं जो गांव-गलियों में जाता रहा है, जिसने वोट पाने के लिए जमीन नापी है; और तब उसके मन में सवाल आया है कि यह चुनावी खेल तो ठीक है, सत्ता और सरकार भी ठीक है, लेकिन ये सभी जिस आधार पर खड़े होने हैं वह आधार कहां है?
राहुल के भाषण के बाद भाजपा की तरफ से जो प्रतिक्रिया आई वह अत्यंत दरिद्र राजनीतिक समझ का परिचय देती है, जो विपक्ष का एक ही मतलब समझती है कि अपनों की छोड़ कर, सबकी खिल्ली उड़ाओ! हमारी राजनीति आज जिस स्तर पर पहुंच गई है उसमें हम भूल गए हैं कि गंभीर राजनीतिक प्रक्रिया के संदर्भ में विमर्श करते समय ज्यादा गहराई में उतर कर सोचना-समझना-बोलना चाहिए।
लेकिन कॉरपोरेट जगत की प्रतिक्रिया यही बताती है कि वह ऐसे राहुल की तलाश में है जो उसे उसकी समस्याओं से निकलने की जादुई कुंजी थमा दे। वह यह मानने और समझने को तैयार नहीं है कि राजनीतिक प्रणाली की जिस जड़ता का जिक्र राहुल गांधी ने किया है, उद्योग जगत की अधिकतर मुसीबतें उसी का नतीजा हैं। शेयर बाजार का सूचकांक अगर उन्हें अपने स्वास्थ्य का सूचक लगता है तो उन्हें इसकी चिंता करनी ही होगी कि इस बाजार का आधार कैसे बड़ा हो और यह देशी पंूजी के दम पर कैसे चले!
जिस विकास दर की बात प्रधानमंत्री करते हैं उसकी हकीकत यह है कि हमारे उत्पादन की आधार-भूमि जब तक आज से काफी बड़ी नहीं होगी, उसमें लगने वाली अधिकतर पूंजी हमारे अपने संसाधनों से जुटाई नहीं जाएगी और हमारा बाजार हमारे अधिकतर उत्पाद का उपभोक्ता नहीं होगा तब तक हमारी वृद्धि दर पीपल के पत्तों की तरह हिलती-डोलती और हमेशा विदेशी निवेश की मोहताज बनी रहेगी। मनमोहन सिंह जैसा सिद्ध अर्थशास्त्री भी लाख सिर मार ले, इसे बदल नहीं सकता; हम देख ही रहे हैं कि आधुनिक अर्थशास्त्रियों की हमारी पूरी टोली का दम फूल रहा है, लेकिन यह महंगाई, मंदी, औद्योगिक और खेतिहर उत्पादन की गिरावट, बेरोजगारी किसी पर भी काबू नहीं कर पा रही। इस बदहाली का ही नतीजा है कि हमारा समाज अपराध और अंधाधुंधी की चपेट में आ गया है।
कॉरपोरेट जगत को यह समझने की जरूरत है कि वह भले हवामहल में रहता हो, उसके उद्योग-धंधों की जड़ें इसी धरती में धंसी हैं और उस स्तर पर जो भयंकर खाई बनी हुई है, जिसे राहुल बार-बार 'डिसकनेक्ट' कह रहे थे, वह सबको डुबा रही है। इसलिए हमारे सारे प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और उनके जवाब भी समग्रता में ही मिलेंगे।
राहुल गांधी जो कुछ कह रहे थे, उसे वे पूरी तरह समझ भी रहे थे, यह कहना कठिन है। लेकिन इतना तो साफ है कि एक धुंधली-सी समझ उनकी बनी है। इसे बहुत मांजने की जरूरत है और इस प्रक्रिया में भारतीय समाज के हर तबके को शामिल करने की जरूरत है। राहुल गांधी ने ठीक ही कॉरपोरेट जगत को साथ लेकर चलने की बात कही। हमारा कॉरपोरेट जगत यथार्थ की धरती पर उतर कर मजदूरों, ग्रामीण उद्यमियों, मनरेगा में काम करने वालों और विकास के नाम पर जिनकी जमीन का अधिग्रहण हुआ है उनके साथ बैठेगा तो कई नए रास्ते खुलेंगे।
कभी जयप्रकाश नारायण ने एक किताब लिखी थी- भारतीय समाज-रचना का पुनर्निर्माण- रिकंस्ट्रक्शन आॅफ इंडियन पॉलिटी! राहुल गांधी को वहां तक जाना होगा।
हो सकता है राहुल गांधी कल को भारत के प्रधानमंत्री बन जाएं और यह भी हो सकता है कि वे इन सारी बातों को भूल जाएं और एक दिशाहीन राजनेता की तरह देश चलाने में जुट जाएं। जब वे ऐसा करेंगे तब भी देश नहीं चला सकेंगे। नए तरह से बनाए बिना अब यह देश नहीं चलाया जा सकेगा! राहुल गांधी ने यह बात अपनी तोतली आवाज में कही है। लेकिन सच तोतली आवाज में बोला जाए तो सच नहीं होता है, यह किसने कहा? सच तो यह है कि सच तोतली आवाज वाले ही बोले हैं।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41935-2013-04-06-05-31-30

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