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Thursday, April 18, 2013

कॉरपोरेट हित आड़े आते हैं इसलिये प्राकृतिक आपदा से बचाव की नीतियाँ बन ही नहीं सकतीं

कॉरपोरेट हित आड़े आते हैं इसलिये प्राकृतिक आपदा से बचाव की नीतियाँ बन ही नहीं सकतीं


प्रकृति और मनुष्य के सर्वनाश ही मुख्य एजेण्डा ही तो विपर्यय मुकाबले की तैयारी कैसी?

कॉरपोरेट चन्दा वैध कर दिये जाने के बाद अराजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता और बहुजन आन्दोलन के लोग भी इस तस्करी में बड़े पैमाने पर शामिल हैं।

पलाश विश्वास

http://hastakshep.com/?p=31591


कोलकाता समेत पूरे पश्चिम बंगाल में मौसम की दूसरी कालबैशाखी में भारी तबाही मच गयी। कालबैशाखी आने की पहले से चेतावनी थी, लेकिन प्रकृतिक विपर्यय से निपटने की मानसिकता हमारी सरकारों में नहीं है। कामकाजी स्त्री पुरुषों को घर वापसी के रास्ते तरह-तरह के संकट का सामना करना पड़ा, जिनके लिये कोई वैकल्पिक इन्तजाम नहीं हो सका। गनीमत है कि सुन्दरवन की वजह से बंगाल समुद्री तूफान के कहर से बचा हुआ है। पर पिछली दफा आयला की मार झेलने के बावजूद प्रकृतिक विपर्यय से बचने के लिये पर्यावरण और जीवनचक्र बचाने की कोई पहल नहीं हो रही है। कोलकाता और उपनगरों में झीलों, तालाबों और जलाशयों को पाटकर बिल्डर प्रोमोटर राज राजनीतिक संरक्षण से जारी है। कोई भी निजी घर प्रोमोटर सिंडिकेट से बचा नहीं है। बेदखली के लिये अग्निकाण्ड आम है। अंधाधुंध निर्माण की वजह से जलनिकासी का कोई इन्तजाम नहीं है। ट्रेन सेवा हो या विमान यातायात जलभराव के संकट से कुछ भी नहीं बचा है। कालबैशाखी को थामने के लिये हरियाली का जो सबसे बड़ा हथियार है, बंगाल ने विकास की राह पर उसे गवाँ दिया है। काल बैशाखी अपने नाम के अनुरूप कहर बनकर आती है। विशेषकर बैशाख माह में होने के कारण ही इसे काल बैशाखी कहते हैं। गर्मी के दिन में विशेष रूप से काल बैशाखी आती है। काल बैशाखी अपने साथ धूल भरी आँधी, तेज बारिश, कहीं-कहीं ओला वृष्टि और वज्रपात लेकर आती है जिसके कारण तबाही मच जाती है। आँधी-पानी में कई घर व पेड़ क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। जान-माल का भारी नुकसान होता है। हर वर्ष कालबैशाखी के दौरान व्रजपात होने से दर्जनों लोग काल के मुँह में समा जाते है। भारतीय मौसम विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक असित सेन बताते हैं कि सामान्यत: फरवरी माह के अन्त से लेकर मई के पहले पखवाड़े तक काल बैशाखी का असर रहता है। लेकिन इसका सबसे अधिक असर अप्रैल व मई माह में होता है। देश में असम के बाद सबसे अधिक बंगाल में ही काल बैशाखी आती है। चार माह के दौरान औसतन हर वर्ष 15-16 बार काल बैशाखी आती है। वैसे किसी वर्ष इसकी संख्या 10-12 तो किसी वर्ष 22-24 तक भी पहुँच जाती है। वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक सेन ने बताया कि काल बैशाखी को तैयार होने में पाँच से छह घंटा ही समय लगता है। इसलिये 12 से 24 घण्टा पहले ही इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है। बहुत पहले से इसकी भविष्यवाणी करना मुश्किल होता है। इसके अध्ययन के लिये आवश्यक मौसम राडार की संख्या जितनी अधिक होगी सूचना उतनी ही सटीक होगी। भारत में वर्तमान में ऐसे 15 राडार हैं। अगले दो वर्षो में इन राडारों की संख्या 55 करने की योजना है। जिससे काल बैशाखी की और सटीक भविष्यवाणी हो सकेगी। काल बैशाखी में बादलों की विशेष भूमिका होती है। बादल पहले रुई की तरह सफेद दिखता है। उसके बाद क्रमश: ग्रे और डार्क कलर का हो जाता है। बादल कम समय में ही तेजी से ऊपर पहुँच जाते हैं। इसके बाद आकाशीय बिजली चमकने लगती है और आँधी के साथ बारिश शुरू हो जाती है। जो अधिकतम एक से डेढ़ घण्टे तक रहती है। इसके बाद मौसम सामान्य हो जाता है।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

सत्तावर्ग भारत राष्ट्र के महाशक्ति बन जाने के गौरवगान से धर्मान्ध राष्ट्रवाद का आह्वान करने से अघाते नहीं हैं। उत्तराखण्ड में हमने बार बार भूकम्प का कहर झेला है। अब तो हिमालय ऊर्जा क्षेत्र बन गयाहै। भारत से लेकर चीन तक बिना द्विपक्षीय वार्तालाप के बड़े बाँधों का सिलसिला बनता जा रहा है। ऊपर से पेड़ों का अंधाधुंध कटान और चिपको आन्दोलन का अवसान। अभी जो 7.8 रेक्टर स्केल का भूकम्प आया वह ईरान से लेकर चीन तक को हिला गया। राजधानी नई दिल्ली और समूचे राजधानी क्षेत्र की नींव हिल गयी। गनीमत यह रही कि भूकम्प का केन्द्र ईरान में था। भारत में जान माल का नुकसान नहीं हुआ। लेकिन सुनामी के दौरान मची व्यापक तबाही से साफ जाहिर है कि समुद्रतटवर्ती इलाके हों या फिर हिमालय क्षेत्रभारत में जनता को विपर्यय से बचाने की कभी कोई योजना नहीं बनी।

 बन भी नहीं सकती क्योंकि इसमें कॉरपोरेट हित आड़े आते हैं। मनुस्मृति अश्वमेध के तहत मुक्त बाजार के वधस्थल पर आर्थिक सुधारों के नाम पर जो नरसंहार संस्कृति के जयघोष में महाशक्ति के प्राणपखेरु है, उसका मुख्य एजेण्डा ही प्रकृति और मनुष्य का सर्वनाश है।

हम तो किसी कालबैशाखी से ही ध्वस्त-विध्वस्त होने के अभिशप्त हैं। भूकम्प तो क्या मामूली भूस्खलन और बाढ़ से ही जानमाल की भारी क्षति यहाँ आम बात है। मृतकों की संख्या गिनने और क्षति का आकलन करनेफिर राहत और बचाव के बहाने लूट मार मचाने के सिवाय इस व्यवस्था में कुछ नहीं होता। पुनर्वास तो होता ही नहींएकतरफा बेदखली है। मुआवजा दिया नहीं जाता, अनुग्रह राशि बाँटकर वोट खरीदे जाते हैं। जबकि सबसे ज्यादा और सबसे तेज भूकम्प जापान में आते हैं, अमेरिका के तटवर्ती प्रदेशों में तो तूफान जीवन का अंग ही है। लेकिन वहाँ इतने व्यापक पैमाने पर जान माल की क्षति नहीं होती।

दोनों देश पूँजीवादी हैं और वहाँ भी कॉरपोरेट वर्चस्व है। पर विकास गाथा के लिये वे पर्यावरण की तिलांजलि नहीं देते। जापान की पूरी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को ही भूकम्प रोधक बना लिया गया है।

जीआईसी नैनीताल के हमारे आदरणीय गुरुजी ताराचन्द्र त्रिपाठी ने अपनी जापान और अमेरिका यात्रा पर लिखी पुस्तकों में इस पहेली को सम्बोधित किया है। उनके मुताबिक सबसे ज्यादा कारों का उत्पादन करने वाले जापान में तेल की खपत नग्ण्य है। वहाँ प्रधानमन्त्री तक साइकिल से दफ्तर आते जाते हैं।

पर्यावरण चेतना के बिना कॉरपोरेट विकास भी असम्भव है, इसे साबित करने के लिये जापान का उदाहरण काफी है। दूध दुहने के लिये दुधारु पशु की हत्या भारतीय अर्थव्यवस्था का चरित्र है। प्रकृति और प्रकृति से जुड़े समुदायों के सर्वनाश से कब तक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन संभव है, इसपर हमारे शासक कॉरपोरेट अर्थशास्त्री समुदाय तनिक भी नहीं सोचते।

जहाँ अकूत प्राकृतिक सम्पदायें हैं, उन्हें राजमार्गों और रेलवे, पुलों के जरिये बाजार से जोड़ना हमारे यहाँ विकास का पर्याय है और इसके लिये विस्थापन अनिवार्य है। विपर्यय मुकाबले का यह आलम है कि बंगाल में ही पद्मा के कटाव से बचाव के लिये बेहद जरूरी तटबंधों के निर्मम का काम हमेशा अधूरा रहता है। सुन्दरवन इलाकों में नदी तटबंध अभी बने नहीं है, पर पर्यटन के लिये सुन्दरवन के कोर इलाके तक कोलने के चाक चौबन्द इन्तजामात हैं। आयला पीड़ित इलाकों में भी तटबंध का काम शुरु ही नहीं हो पा रहा है।

अमेरिका महज कॉरपरेट साम्राज्यवाद के लिये कोई महाशक्ति नहीं है, विपर्यय मुकाबले के अपने इन्तजाम और अपने नागरिकों की जनमाल की सुरक्षा की गारंटी के लिये उसकी यह हैसियत है। विपर्यय मुकाबले में हम कहाँ हैं, यह शायद बताने की नहीं, महसूस करने की बात है। लेकिन देश के नागरिकों की ऐसी तैसी करने में इस देश की व्यवस्था का क्या खाक मुकाबला करेगा अमेरिका या जापान!

दुनिया भर में भारत बेचना की मुहिम पर निकले केन्द्रीय वित्त मन्त्री पी. चिदम्बरम ने अमेरिकी निवेशकों को आकर्षित करने की कोशिश में कहा है कि विदेशी पूँजी भारत में सर्वाधिक सुरक्षित है और भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) हासिल करने के लिये सभी जरूरी तत्व मौजूद हैं। हावर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों को सम्बोधित करते हुये चिदम्बरम ने कहा, निवेश सुरक्षा की सर्वाधिक गारंटी है स्थिर और लोकतान्त्रिक राजनीतिक संरचना। मैं कानून का शासन, पारदर्शिता और स्वतन्त्र न्यायपालिका में भरोसा करता हूँ। भारत में ये तीनों मौजूद हैं। 'अबाध पूँजी प्रवाह और काले धन की अर्थव्यवस्था जिसे मुक्त बाजार कहा जाता है, उनकी अनिवार्य शर्त है निवेशकों को प्राकृतिक संसाधनों की खुली छूट दे दी जाये। भारत में विकास के नाम पर बेदखली की कथा व्यथा के मूल में ही यही है।

प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक के लिये संवैधानिक रक्षा कवच हमारे पास हैं, पर सात दशक बीतते चलने के बावजूद संविधान लागू ही नहीं हुआ और असंवैधानिक तरीके से बायोमैट्रिक नागरिकता और वित्तीय कानूनों के जरिये उत्पादन प्रणाली को तहस नहस करके, आम जनता के जीवन और आजीविका का बाजा बजाते हुये नागरिक और मानव अधिकारों की धज्जियाँ उड़ाते हुये विकास गाथा का जयगान अब राष्ट्रगान है और हम सभी सावधान की मुद्रा में तटस्थ हैं।

नस्ली भेदभाव के तहत जो जाति व्यवस्था हैजो भौगोलिक अलगाव हैवह प्राकृतिक संसाधनों पर दखल के लिये एकाधिकारवादी वर्चस्ववादी सतत आक्रमण है। भारत के विश्वव्यवस्था के उपनिवेश बन जाने के बाद यह आक्रमण निरन्तर तेज होता जा रहा है। राष्ट्र के सैन्यीकरण का मकसद अन्ततः प्राकृतिक संसाधनों पर कॉरपोरेट कब्जा हासिल करना है।

पाँचवीं और छठी अनुसूचियों को लागू किये बिना, मौलिक अधिकारों की तिलांजलि देकर सविधान की धारा 39 बी और 39 सी के खुल्ला उल्लंघन के जरिये यह आईपीएल पहले से जारी है लेकिन जनता के प्रतिरोध के सिलसिले को तोड़ने के लिहाज से कानून बदले जा रहे हैं। मसलन, अभी सुधार के एजेण्डे के लिये सर्वोच्च प्राथमिकता यह है कि पर्यावरण कानून के तहत लम्बित परियोजनाओं को फिर चालू करना। सारी सत्ता की लड़ाई इस पर केन्द्रित  है कि कॉरपोरेट हितों को सबसे बेहतर कौन साध सकता है। कॉरपोरेट चन्दा वैध कर दिये जाने के बाद अराजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता और बहुजन आन्दोलन के लोग भी इस तस्करी में बड़े पैमाने पर शामिल हैं।

राजनीतिक अखाडा़ कॉरपोरेट अखाड़े में तब्दील है, जनता के बीच जाने के बजाय राजनेता कॉरपोरेट आयोजन के जरिये कॉरपोरेट मीडिया के जनविरोधी उद्यम और जनादेश इंजीनियरिंग के जरिये अपने-अपने प्रधानमन्त्रित्व के दावे पेश कर रहे हैं।

जनता को साधने के लिये धर्मान्ध राष्ट्रवाद पर्याप्त है, लेकिन कॉरपोरेट को साधने के लिये वधस्थल की मशीनरी दुरुस्त करना ज्यादा जरूरी है।

मजे की बात है कि समाजकर्म से जुड़े प्रतिबद्द जन वैसे तो वैज्ञानिक पद्धति के जरिये तर्कसंगत विचारधाराओं और सिद्धान्तों की बात करते हैं लेकिन उनकी सारी कवायद इतिहास की निरंतरता जारी रखने की है।

हाशिये पर रखे भूगोल की ओर, भौगोलिक अलगाव की ओर ध्यान ही नहीं जाता, जिसके लिये प्रकृति और पर्यावरण से तादात्म और तत्सम्बंधी चेतना अनिवार्य है। इस महादेश में कॉरपोरेट राज स्थापना के पीछे इस पर्यावरण चेतना का सर्वथा अभाव सबसे बड़ा कारण है।

सामाजिक कार्यकर्ता को पर्यावरण कार्यकर्ता भी होना चाहियेऐसा हम सोच भी नहीं सकते और बड़ी आसानी से पहले राजनीतिक कार्यकर्ता और फिर कॉरपोरेट राज के एजेन्ट, दलाल और प्रतिनिधि बन जाते हैं। विचारधाराओं और सिद्धान्तों के अप्रासंगिक बन जाने के समाज वास्तव की वास्तविक पृष्ठभूमि किन्तु यही है।

जब विकास कार्यक्रम और कानून का राज, दोनों बेदखली और लूटखसोट पर टिका हो तब विपर्यय मुकाबले का प्रस्थान बिन्दु कहाँ बन पाता है! कानून के राज का आलम यह है कि कैंसर पीड़ित अल्पसंख्यक महिला को कानून कोई मोहलत नहीं देता,पर समान अपराध के लिये अभियुक्त के साथ खड़े हो जाते हैं राजनेता से लेकर न्यायाधीश तकक्योंकि उस पर निवेशकों का दाँव लगा है। इस प्रणाली में इरोम शर्मिला, सोनी सोरी या जेल में बन्द तमाम माताओं और उनके साथ कैद बच्चों के मौलिक अधिकारों की हम परवाह करें तो क्यों करें?

प्रकृति से जुड़े तमाम समुदाय यहाँ तक कि इस देश के बहुसंख्यक किसान और कृषि आधारित नैसर्गिक आजीविका से जुड़े लोग बाजार में खड़े नहीं हो सकते। या तो वे आत्महत्या कर सकते हैं या फिर प्रतिरोध। धर्म-कर्म और संस्कृति में प्रकृति की उपासना की परम्परा ढोते हुये भी हमारे लिये प्रकृति जड़ है।

हम धार्मिक हवाला दकर पवित्रता के बहान नदियों के अबाध प्रवाह की माँग लेकर मगरमच्छी अनुष्ठान तो कर सकते हैं, पर उस प्रकृति से जुड़े समुदायों की हितों के बारे में सोच भी नहीं सकते।

इसलिये जहाँ देवभूमि है, देवताओं का शासन चलता है, उस हिमालयी क्षेत्र में मनुष्य के हित गौण हैं। वहाँ पर्यटन और धार्मिक पर्यटन, विकास और धर्म एकाकार हैं। जबकि कॉरपोरेट धर्म और कॉरपोरेट राज में अब कोई मूलभूत अन्तर नहीं रह गया है। धर्म भी जायनवादी तो कॉरपोरेट राज भी जायनवादी। इसलिये हिमालयी क्षेत्र में किसी प्रतिरोध आन्दोलन का जनाधार बन ही नहीं पाया, वहाँ भी बहुजन संस्कृति के मुताबिक अस्मिता और पहचान पर सब कुछ खत्म है।

बहुजनों में प्रकृति और पर्यावरण चेतना होती तो आज समूचा हिमालय, मध्य भारत और पूर्वोत्तर अलगाव में नहीं होते और आदिवासी भी देश की मुख्यधारा में शामिल होते। इसी वजह से आदिवासियों की सरना धर्म कोड की माँग लेकर, मौलिक अधिकारों, पाँचवीं, छठीं अनुसूचियों को लागू करने की माँग लेकर संविधान बचाव आन्दोलन का तात्पर्य समझना हमारे लिये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। मुख्य एजेण्डा ही प्रकृति और मनुष्य के सर्वनाश का है तो विपर्यय मुकाबले की तैयारी कैसी?

 

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