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Thursday, April 25, 2013

बहरीन की बगावत

बहरीन की बगावत

Thursday, 25 April 2013 10:10

अख़लाक़ अहमद उस्मानी 
जनसत्ता 25 अप्रैल, 2013: सावधान। यहां बच्चा जार-जार रोया था। एक औरत सुबकी थी। एक बुजुर्ग के बदन से खून बहा था। ये मकाम जो खून से लथपथ और जख्मी है। जहां हुतात्माएं विचरती हैं। यह खूनी गुरुवार था। हम इसे कैसे भूल सकते हैं?' 
बहरीन के मनामा के मोती चौक (पर्ल राउंडअबाउट) पर 17 फरवरी 2011 को शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे आम लोगों पर एक हजार पुलिस वालों के कत्लो-गारत के तीन दिन बाद बीस फरवरी को चौक पर लटकाई गई एक तख्ती पर वह तहरीर लिखी थी जो आपने अभी ऊपर पढ़ी। वह गुरुवार का दिन था, इसीलिए बहरीन के इतिहास में इसे अब 'खूनी गुरुवार' के नाम से जाना जाएगा। 'खूनी गुरुवार' को पिछली सत्रह फरवरी को दो साल पूरे हो गए। बाकी दुनिया से लोकतंत्र समर्थक बहरीनी यह सवाल पूछते हैं कि प्रदर्शन के लिए इजाजत मिली थी, फिर रात तीन बजे पुलिस के हमले और गोलीबारी का क्या मतलब था? क्या देश के डॉक्टरों और ब्लॉगरों के प्रदर्शन मात्र से बादशाह हम्माद बिन ईसा अल खलीफा के सिंहासन की चूलें हिल गर्इं? क्या विपक्षी पार्टी अल विकाफ  का यह तकाजा गलत था कि बहुसंख्यक शियाओं के अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा होनी चाहिए?
उर्दू गजल में 'बहर' शब्द से आप वाकिफ  होंगे। पहले मिसरे से बाकी पूरे मिसरों का वजन बराबर हो तो गजल बहर में मानी जाती है। 'बहर' का मतलब समुद्र होता है और यह शब्द अरबी से आया है। 'बहरीन' मतलब 'दो समुद्र' होता है यानी वर्तमान सऊदी अरब के पूर्वी तटीय शहर अल-हासा और बहरीन के बीच दो समुद्रों के आधार पर इस द्वीप देश का नाम बहरीन पड़ा। उत्तरी बहरीन के कई द्वीपों से लोग नौका लेकर बीच समुद्र में जाकर पानी चखते हैं तो मीठा निकल आता है। कहा जाता है कि बहरीन के आसपास कई ऐसे समुद्री रहस्य हैं। ये पानी मिलकर भी जुदा हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे बहरीन में शिया मिलकर भी जुदा हैं। कहा जा सकता है कि शियाओं को या तो अधिकार नहीं दिए गए या जब उन्होंने अधिकार मांगा तो मिली प्रताड़ना और मौत। बहरीन में ताजा नस्ली हिंसा, बादशाहत के जुल्म, मानवाधिकार हनन, बहुसंख्यक लेकिन प्रताड़ित शियाओं की स्थिति और बहरीन राजपरिवार की राजनीति को समझने से पहले आइए इस छोटे-से प्रायद्वीप-राष्ट्र का थोड़ा पसमंजर जानते चलें।
फारस की खाड़ी में तैंतीस द्वीपों से मिलकर बना है बहरीन। सुन्नी बादशाहत और वैचारिक रूप से नकारवादी दमनकारी वहाबी विचारधारा होने के कारण बहरीन से पचपन किलोमीटर दूर वहाबी विचारधारा के पोषक सऊदी अरब के राजपरिवार अलसऊद और दक्षिण में कतर से बहरीन के गहरे संबंध हैं। तीनों देशों में कई अनोखी समानताएं हैं। तीनों सबसे करीबी पड़ोसी हैं, तीनों में सुन्नी वहाबी विचारधारा वाली बादशाहत है, तीनों में अमेरिका के सबसे करीब होने की होड़ है, तीनों ही राष्ट्रों के शासक दमन का कोई भी तरीका अपनाकर अपनी सत्ता बनाए रखना चाहते हैं और वैचारिक, राजनीतिक और अमेरिकी अनुकूलता के आधार पर तीनों राष्ट्र फारस की खाड़ी के उस छोर पर ईरान के कट््टर दुश्मन हैं। 
बहरीन में एक अनोखी बात यह भी है कि यहां शिया बहुलता में हैं लेकिन बादशाह सुन्नी वहाबी है। ऐसा नहीं है कि शिया, सुन्नियों के अन्य उदारवादी समूह, गैर-मुसलिम और विदेशी मूल के लोग शांति से नहीं रह रहे थे, लेकिन सत्तर के दशक से ही शाही परिवार की मात्र वहाबी सुन्नियों को शरण देने और बाकी समुदायों के दमन का दुष्परिणाम है कि बहरीन में 'खूनी गुरुवार' से लेकर अब तक करीब सौ लोग मारे गए हैं; उनमें पेशेवर, डॉक्टर और ब्लॉगर आदि ज्यादा हैं। 
दिलमुन सभ्यता वाला बहरीन पारथियन और सस्सानिदी के बाद इस्लामी खिलाफत के अधीन आ गया। 1521 में इस पर पुर्तगालियों ने कब्जा कर लिया। सफाविद बादशाहत के शाह अब्बास प्रथम ने 1602 में बहरीन को अपने अधीन कर लिया। बनी उतबा कबीले ने 1783 में पारसियों को मार भगाया और अलखलीफा राजपरिवार ने देश पर शासन किया। अठारहवीं सदी में बनी उतबा के अहमद अल फतह ने दबाव में ब्रिटेन के साथ कई संधियां कीं, जिनके तहत बहरीन ब्रिटेन का 'संरक्षित राज्य' बन गया।
दरअसल, यह ब्रिटेन की गुलामी का एक प्रकार था। जब भारत के लोग इंदिरा गांधी की अगुआई में बांग्लादेश मुक्तियुद्ध को करीब से देख रहे थे और देशभक्ति में दीवानावार पूरे भारत में 15 अगस्त 1971 को तिरंगा लिए दौड़ रहे थे, सुदूर मध्यपूर्व में ठीक उसी दिन बहरीन आजाद हुआ। वर्ष 2002 में वर्तमान बादशाह हम्माद बिन ईसा अल खलीफा के पिता ने स्वयं को राजपरिवार बताते हुए देश में संसदीय बादशाहत थोप दी। कुल जमा नौ साल भी चैन से यह परिवार अपनी सत्ता नहीं चला पा रहा है। आज बहरीन विश्व में उभरती मानव विकास सूची में अड़तालीसवें नंबर पर आता है, लेकिन उसी बहरीन के बारे में 'ह्यूमन राइट वॉच' का मानना है कि देश के शिया व्यवस्थित भेदभाव के शिकार हैं। 
ट्यूनिसिया में बेरोजगार युवा मुहम्मद बाउजीजी के आत्मदाह के बाद उभरे अरब बसंत के कुछ झोंके बहरीन तक आए। यहां बहुसंख्यक शिया लगातार व्यवस्थित भेदभाव के शिकार रहे हैं।
बहरीन में संवैधानिक बादशाही है। ऊपरी सदन में राजा अपनी पसंद के लोगों को चुनता है और निचले सदन के चुनाव होते हैं। सभी महत्त्वपूर्ण पद राजपरिवार ने हथिया रखे हैं। बादशाह हम्माद बिन ईसा अलखलीफा हैं, क्राउन प्रिंस सलमान बिन हम्माद बिन ईसा   अलखलीफा और खलीफा बिन सलमान अलखलीफा देश का प्रधानमंत्री है। चुनी हुई संसद और मंत्रिमंडल को जब चाहे राजा भंग कर सकता है।

'खूनी गुरुवार' नागरिक विरोध का प्रतीक बन गया। लगातार दमन में जी रहे लोग सत्रह फरवरी 2011 को राजधानी मनामा के मोती चौक पर जमा हुए। दरअसल, बहरीन के पीड़ित लोग चौदह फरवरी को ही वहां पर जुटना शुरू हो गए थे। घबराई बादशाहत ने आनन-फानन सुरक्षा बलों को भेजा। बल प्रयोग में एक युवक मारा गया और तीस घायल हो गए। अगले दिन युवक की लाश को लेकर शिया समुदाय के लोग उसी जगह विलाप करने लगे जहां उस लड़के को गोली लगी थी। बहरीन की बर्बर पुलिस ने फिर आंसू गैस, रबर की गोलियों और बर्डशॉट का इस्तेमाल किया। एक और युवक मारा गया और पचीस अन्य घायल हो गए। प्रदर्शन में कई सुन्नी लोग भी बादशाहत के विरुद्ध जुट गए और पंद्रह फरवरी की रात से प्रदर्शनकारियों ने मोती चौक को विरोध का अड््डा बना लिया। सत्रह फरवरी की अलसुबह सुरक्षा बलों ने अचानक भीड़ पर हमला किया और ताबड़तोड़ गोलीबारी में चार प्रदर्शनकारियों को मार डाला। करीब तीन सौ लोग घायल हुए। दमन के विरोध में अलवक्फ  पार्टी के निचले सदन के सभी सांसदों ने इस्तीफा दे दिया। 
जालिम सरकार ने प्रदर्शन में मारे गए लोगों के जनाजे ले जा रहे पचास हजार लोगों के काफिले पर भी गोलियां चलार्इं। सत्ता के मद में चूर बादशाह को पीछे कर राजकुमार सलमान बिन हम्माद बिन ईसा अलखलीफा ने सेना हटा ली और शांतिपूर्ण प्रदर्शन की इजाजत दे दी। 22 फरवरी 2011 को राजधानी में हुई ऐतिहासिक रैली में डेढ़ लाख से ज्यादा लोग शरीक हुए। ये प्रदर्शन अगले कई दिनों तक चले। राजा ने राजनीतिक बंदियों को छोड़ने में नरमी बरतने और तीन कैबिनेट मंत्रियों को हटाने का निर्णय किया। छिटपुट प्रदर्शन अब भी जारी हैं। बहरीन के लोग प्रधानमंत्री खलीफा बिन सलमान अलखलीफा से बहुत नाराज हैं। उनकी छवि एक बर्बर और बिगड़ैल नवाबजादे की है। खबरें हैं कि राजा के समर्थक सुन्नियों ने भी कई जगह शियाओं पर हमले किए हैं। 
पिछले साल मार्च में विपक्षी पार्टी अलविकाफ  ने फिर जोरदार प्रदर्शन की घोषणा की। बहरीन की बादशाहत के बने रहने में सऊदी अरब की गहरी रुचि है। यही वजह है कि खाड़ी सहयोग समिति यानी जीसीसी की पुलिस और सुरक्षाकर्मी दो दिन पहले ही बहरीन पहुंच चुके थे। जीसीसी के सुरक्षाकर्मियों में ज्यादातर सऊदी हैं और प्रताड़ना देने का उन्हें विशेष प्रशिक्षण है। पंद्रह मार्च को बादशाह ने तीन माह के आपातकाल और मार्शल लॉ की घोषणा कर दी, जिसकी वजह से मोती चौक खाली करवा लिया गया। जैसे ही पिछले साल एक जून को आपातकाल समाप्त हुआ, अलविकाफ  ने साप्ताहिक प्रदर्शनों का क्रम शुरू कर दिया। अलविकाफ  ने लगातार और छोटे प्रदर्शनों की योजना बनाई, लेकिन राजशाही के दमनकारी रवैए में कमी नहीं आई। 
इस महीने की उन्नीस तारीख को अलविकाफ  ने पूरे देश में जोरदार रैलियां निकालीं, जिनमें हजारों-हजार लोग शरीक हुए। लोग बहरीन में सरकार द्वारा प्रायोजित फॉर्मूला-वन रेस का विरोध करते हुए कह रहे हैं कि हमारे खून पर यह रेस होगी। पिछले साल अप्रैल तक प्रदर्शनों में छियासी लोगों के मारे जाने की खबर है। अपुष्ट सूत्र तो इन मौतों का आंकड़ा बहुत बड़ा मानते हैं। सरकार पर आरोप है कि वह विदेशी सुन्नियों को बहरीन की नागरिकता दे देती है ताकि न सिर्फ बहुसंख्यक शिया अल्पमत में आ जाएं बल्कि निचले सदन के सांसद भी राजशाही की पसंद के हों। 
अमेरिकी नौसेना का पांचवां बेड़ा बहरीन की राजधानी मनामा में है। अमेरिका भी नहीं चाहता कि बहरीन के सत्ताधारी राजपरिवार को जाना पड़े। ईरान पर नजर रखने के लिए ही अमेरिकी हुकूमत ने बहरीन में अपना बेड़ा डाला। अगर बहरीन में हम्माद की सरकार चली गई और शिया सत्ता में आ गए तो यह न सिर्फ अमेरिका की खाड़ी नीति, बल्कि सऊदी अरब और कतर के लिए भी सिरदर्द हो जाएगा। माना जाता है कि बहरीन के शिया ईरान के प्रति हमदर्दी रखते हैं।
सूडानी मूल के ब्रिटिश नागरिक सालह अलबंदर को 13 सितंबर 2006 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया था। वे हम्माद सरकार में सलाहकार के पद पर थे। साल 2006 में सालह अलबंदर ने सरकार को दी गई दो सौ चालीस पेज की रिपोर्ट में कह दिया था कि देश में सत्ता विरोधियों खासकर शियाओं के दमन की सरकार की योजना है। 'बंदरगेट' नाम से मशहूर इस रिपोर्ट की प्रतियां सालह अलबंदर ने विभिन्न देशों के दूतावासों और मीडिया को भी बांट दी थीं। सलाह अलबंदर को गिरफ्तार कर इंग्लैंड भेज दिया गया। बंदरगेट की भविष्यवाणी 2011 में सच साबित हुई। बहुमत वाले शिया व्यवस्थित भेदभाव के खिलाफ  सड़कों पर निकल आए।
पड़ोसी कतर राजपरिवार के स्वामित्व वाले अलजजीरा चैनल ने सीरिया और बहरीन विद्रोह के कवरेज में पत्रकारिता के उसूलों को ताक  पर रख दिया। चैनल के बेरुत ब्यूरो प्रमुख गस्सान बेन जेद््दो ने बहरीन की बगावत के कवरेज को बहुत कम जगह मिलने पर 2011 में इस्तीफा दे दिया था। जेद््दो का आरोप है कि अलजजीरा सीरिया में सरकार की मुखालफत दिखाता रहता है लेकिन बहरीन में शाही परिवार को बचाने के लिए सामान्य खबरें तक रोक दी गर्इं। अलजजीरा की चुनिंदा रिपोर्टिंग पर खाड़ी में जोरदार चर्चा है। 
अरब बसंत की विकृत परिभाषा और वहाबी सुन्नी राजशाही अपना खेल खेल चुकी है। ब्लॉग और न्यू मीडिया के बूते   बहरीन ने क्रांति का सपना देखा है। एक जालिम बादशाह अपनी सत्ता बचाने की अंतिम कोशिशें कर रहा है। सप्ताह में जब भी गुरुवार आता होगा, हम्माद की नींद उड़ जाती होगी।

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