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Sunday, October 9, 2016

नरसंहारी मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी फासिज्म के अंध राष्ट्रवाद का जबाव फिर वही लोकायत का जनवाद है। पलाश विश्वास

नरसंहारी मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी फासिज्म के अंध राष्ट्रवाद का जबाव फिर वही लोकायत का जनवाद है।


पलाश विश्वास


नरसंहारी मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी फासिज्म के अंध राष्ट्रवाद का जबाव फिर वही लोकायत का जनवाद है।यही विविधता बहुलता का लोकायत जनवाद सिंधु सभ्यता के समय से तमिल इतिहास की निरंतरता के तहत करीब सात हजार साल की भारतीय सभ्यता की विरासत है और जिसकी वजह से दुनियाभर में तमाम प्राचीन सभ्यताओं जैसे रोमन,यूनानी,मेसोपोटामिया,मिस्र,इंका और माया सभ्यताओं के अवसान के बावजूद भारतीय सभ्यता हिमालय से निकली पवित्र नदी गंगा की जलधारा की तरह भारतीय राष्ट्र और भारतीय नागरिकों के तन मन में प्रवाहमान है,जिसे हम अवरुद्ध करके आपदाओं का सृजन कर रहे हैं।

इसके विपरीत, प्राचीनतम सभ्यताओं की अनंत धारा में एशिया और यूरोप के संजोगस्थल पर यूनान और भूमध्यसागर के पार तुर्क साम्राज्य का आधुनिकीकरण हुआ है।सीरिया और समूचे अरब दुनिया जब युद्ध और गृहयुद्ध में कबीलाई विरासत को जीते हुए आतंकवाद और शरणार्थी सैलाब के शिकंजे में हैं,वहां इस्लाम देश होने के बावजूद यूरोप और अमेरिका की तुलना में तुर्की का जीवन यापन कम आधुनिक नहीं है।खास बात यह है कि सिंधु सभ्यता के समय से और वैदिकी काल में भारत के नेतृत्व में मौलिक वैश्वीकरण की प्रक्रिया में मध्य एशिया के साथ भारत की संस्कृति का इसी तुर्की से नाभिनाल का संबंध रहा है।इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत में सत्तावर्ग के सत्ताकेंद्रों के रुप में रचे बसे और उत्तर आधुनिक अमेरिकी मुक्तबाजारी उन्मुक्तता में विकसित स्मार्ट महानगरों कोलकाता ,नई दिल्ली, चेन्नई, बंगलूर, मुंबई,चंडीगढ़ से लेकर प्राचीन भारतीय नगर सभ्यता के अवशेष और भारतीय संस्कृति और इतिहास के महत्वपूर्ण केंद्रों लखनऊ, अमृतसर, हैदराबाद, नागपुर ,कानपुर,कोयंबटुर,मदुरै, कोच्चि, वाराणसी, उज्जैन, इंदौर,भुवनेश्वर,अमदाबाद,इलाहाबाद,रांची और पटना में कहीं दीखते नहीं है।

जनपदों का यह कत्लेआम,लोकायत और लोक की सासंस्कृतिक विरासतों की जड़ों से कटकर जो सीमेंट का महारण्य हम वनों और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के तहत मुक्तबाजारी अमेरिकी उपनिवेश बनने के लिए धर्मोन्मादी युद्धक राष्ट्रवाद के तहत रच रहे हैं,वहां हम बुलेट गति से अरब और मध्यपूर्व की दिशा में ही दौड़ रहे हैं।

आज इस आलेख का उद्देश्य उन्हीं लोक विरासत,विविधता और बहुलता की अनंत धारा को स्पर्श करने के लिए है और हो सकता है है कि इससे हमारी प्रेतमुक्ति की दिशा खुले।हमारी मध्ययुगीन सामंती जंजीरों की कैद का तनिक अहसास हो और हममें आजादी का कोई ख्वाब जनमे।

कारण जो भी हो,हमारे पास सिंधु सभ्यता का इतिहास या साहित्य उपलब्ध नहीं है।इतिहास हमारे पास वैदिकी सभ्यता का भी नहीं है।वैदिकी इतिहास का जो हम महिमामंडन करते अघाते नहीं हैं,वह मिथकों का जंजाल है,जिसमें आम जनता के जीवन यापन,जीवन यंत्रणा,सामाजिक यथार्थ सिरे से लापता हैं।फिरभी विविधता और बहुलता के लोकतंत्र की यह धारा बुद्धमय बंगाल की विरासत है,जिसकी जड़ें अब भी मौजूद हैं।

सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद संक्रमणकाल और वैदिकी समय में आर्य अनार्य संघर्षों के बीच समन्वय और समाोजन के तहत एकीकरण की प्रक्रिया,फिर एकाधिकारवादी रंगभेदी ब्राह्मण धर्म और तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति का यह पूरा इतिहास बुद्धमय बंगाल से लेकर बंगाल के इतिहास,साहित्य और लोकायत, वैष्णव और बाउल आंदोलन,चर्यापद,पदावली साहित्य,मंगल काव्य,किसान आदिवासी विद्रोहों और आंदोलनों की निरंतरता,उत्पादन प्रणाली के विकास और उत्पादन संबंधों में बदलाव, भारत विभाजन और मतुआ आंदोलन के साथ साथ जंगल महल के पुरात्तव अवशेषों से हम सामाजिक यथार्थ की वैज्ञानिक दृष्टि से जांच परख सकते हैं।

फासिज्म के राजकाज में धर्मोन्मादी अंध मुक्तबाजारी युद्धक राष्ट्रवाद की वानर सेनाओं की तरफ से जिस विविधता और बहुलता पर सबसे ज्यादा हमले तेज हैं,वह सिंधु सभ्यता और वैदिकी सभ्यता की अखंड विरासत है।

हड़प्पा और सिंधु घाटी के लोग अपढ़ नहीं थे और वे वैश्वीकरण और विश्वबंधुत्व की नींव करीब सात हजार साल पहले डाल चुके थे और उनका तैयार रेशम पथ के जरिये ही वैदिकी सभ्यता का विकास हुआ।वह रेशम पथ भी खोया नहीं है।

सिंधु सभ्यता के अवसान से पहले मध्य एशिया और भूमध्यसागर के तटवर्ती इलाकों से लगातार विदेशी खानाबदोस लोग सिंधु सभ्यता के समय से भारत आते रहे हैं और भारतीय संस्कृति की बहुलता औक विविधता की  एकात्मता में शामिल होते रहे हैं।इसी क्रम में वैदिकी समय में ही विविधता और बहुलता की भारतीय संस्कृति का विकास बहुत तेज हुआ जिसके तहत शक और खस जातियों का मध्यपूर्व से भारत आगमन आर्य अनार्य संघर्ष के परिदृश्य से संदर्भ और प्रसंग में  सर्वथा भिन्न है क्योंकि ये जातियां लगातार भारतीय संस्कृति में एकाकार होती रही हैं।

तो दूसरी तरफ वेदों में भी लोकायत की गूंज है तो वैदिकी देवमंडल में यूनान और मध्य एशिया के देव मंडल जैसे समाहित हैं,वैदिकी समय से सती पीठों के रचना समय के आधुनिक काल तक पुराणों और महाकाव्यों के मिथकों और प्रक्षेपण की अनंत धारा के मध्य वेद वेदांत चार्वाक उपनिषद संहिता ब्राह्मण शतपथ समय से अनार्य द्रविड़ लोक देव देवियों के साथ साथ बौद्ध और जैन देवदेवियों, अवतारों का आर्य देवमंडल में समायोजन हुआ है,जिसमें शिव और चंडी के विविध बहुल रुप है।इसे समझे बिना हम भारतीय लोकतंत्र को कायदे से समझ नहीं सकते।

हमारा यह लोकतंत्र सिर्फ प्राचीन जनपदों के गणराज्यों या पश्चिमी आधुनिक गणतंत्र की विरासत नहीं है,बल्कि यह एकमुश्त सिंधु सभ्यता और वैदिकी सभ्यता की निरंतरता है,जिसमें बौद्ध,सिख,जैन जैसे भारतीय धर्मों और संस्कृतियों के साथ साथ इस्लामी और ईसाई संस्कृतियों, तुर्क और मंगोल जनधाराओं का समायोजन हुआ है।अठारहवीं शताबादी के नवजागरण और चौदहवीं सदी से लगातार जारी संत फकीर पीर बाउल समाज लिंगायत बहुजन समाज सुधार आंदोलनों,मतुआ चंडाल आंदोलनों, फूले अंबेडकर भगतसिंह की विचारधाराओं का साझा आधार इसी विविधता बहुलता की ठोस लोकायत जनपदीय जमीन है।चार्वाक दर्शन परंपरा की निरंतरता है।

बंगाल में चैदहवीं सदी में सेन वंश के राजकाज के दौरान ब्राह्मण धर्म, अस्पृश्यता, पुरोहित तंत्र और जाति व्यवस्था जिस तरह बौद्ध और जैन संस्कृतियों के धारक वाहक आम जनता पर थोंपा गया,उसके खिलाफ वैष्णव आंदोलन और बाउल आंदोलन का महाविद्रोह है,जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ फिर किसान आदिवासी विद्रोहों के लगातार महाविस्फोट और बंगाल की अंत्यज जनता के 1776 में कंपनी राज और ब्राह्मण धर्म के रंगभेद के खिलाफ हुई पहली बहुजन हड़ताल से लेकर मतुआ आंदोलन और बीसवीं सदी के पहले दशक में चंडाल आंदोलन में निरंतर जारी रहा है।

इसीलिए सिर्फ बंगाल ही नहीं,बल्कि समूचा पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत बाकी भारत और आर्यावर्त के धर्मोन्माद के विपरीत आज भी कहीं ज्यादा धर्मनरिपेक्ष,उदार और प्रगतिशील है।इसीलिए फासिज्म के राजधर्म का प्रतिरोध इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यदा है और इसीलिए शेष भारत के मुकाबले फासीवादी नरसंहारी अश्वमेध के घोड़े यही सबसे तेज दौड़ाये जा रहे हैं और असम को गुजरात बनाया जा रहा है।

इसके विपरीत यथार्थ यह है कि पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में,सिर्फ बंगाल में नहीं, बंगाल में सारे धर्मों के सारे पर्व त्योहार आज भी आम जनता के साझा पर्व और त्योहार है,जो वैदिकी सभ्यता के दौरान विकसित बहुलता और विविधता की बहती हुई लगातार संकुचित हो रही,लगातार बंध रही,लगातार बेदखल हो रही,लगातार प्रदूषित हो रही गंगा जल की पवित्र धारा है।इसीलिए ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान के विरुद्ध महिष मर्दिनी के मिथ्या मिथक के प्रतिरोध में महिषासुर उत्सव प्रासंगिक है।

इस इतिहास को समझने के लिए कवि जयदेव और उनके गीत गोविंदम् की भूमिका को सिलसिलेवार समझने की जरुरत है।महाकवि जयदेव संस्कृति काव्य धारा के अंतिम महाकवि हैं जिन्होंने दैवी और राजकीय नायक नायिका के बदले राधा कृष्ण प्रणय लीला के मार्फत देशज लोकायत के तहत साहित्य और संस्कृति में संस्कृत जानने वाले पुरोहितों और कुलीनों के वर्चस्व को तोड़ा है।

भागवत पुराण की कथा को महाकवि जयदेव ने एकमुश्त लोकायत और बंगाल की बौद्ध जैन विरासत से जोड़कर वैष्णव और बाउल आंदोलन के तहत बहुजन आंदोलन की नींव डाली है।भागवत पुराणकी तरह गीतगोविंदम कोई दैवी शक्ति का महिमामंडन या मोक्ष अन्वेषण या स्व्रग नर्क का मिथक नहीं है बल्कि प्रकृति और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता की रौजमर्रे की जिदगी की कथा व्यथा,प्रेम विरह राग रास अनुराग श्रृंगार मिलन की हाड़ मांस का देहत्तव का वैज्ञानिक दर्शन है और वैष्णव आंदोलन में जैविकी जीवन को मनुष्यता में तब्दील करने के लिए इंद्रियों को साधने की साधना है तो मोक्ष का निषेध है जो बौद्ध जैन विरासत की जमीन पर फिर चार्वाक और लोकायत के जनवादी लोकतंत्र की निरंतरता है।जिसमें मेहनतकशों के उत्पादन संबंधों की देह सुगंध जंगल की खुशबू की तरह प्राकृतिक और मानविक हैं।

गौरतलब है कि राजा बल्लाल सेन ने बंगाल में बौद्धों का सफाया करके जो ब्राह्मणधर्म को प्रचलित किया ,उसीसे बंगाल में बुद्धमय भारत के अंतिम द्वीप का जो पतन हुआ ,सो हुआ, लेकिन इससे बंगाल में क्षत्रिय अनुपस्थिति से बहुजनों के हिंदूकरण और उन्हीें के जनेऊधारण से  वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था पहलीबार लागू हुई बेहद निर्ममता के सात,जिसके तहत जबरन धर्मांतरित बौद्धों को शूद्र और चंडाल बना दिया गया और अस्पृश्यता लागू हो गयी।बंगाल में अभिजात कुलीनतंत्र और पुरोहित तंत्र का जन्म हुआ जो आद भी फल फूल रहा है और जो आज भी बंगाल के बहुजनों के दमन और उत्पीड़न की राजनीति के महिषासुर वध उत्सव में सक्रिय है।

 बंगाल के इसी सत्तावर्ग ने पूरे भारतवर्ष में बहुजनों के सफाये में हमेशा निर्णायक पहल की है।इसी ने भारत विभाजन में निर्णायक भूमिका अदा की और अपने ब्राह्मण धर्म के हितों के मद्देनजर भारत में ब्राह्मण धर्म और मनुस्मृति के पुनरूत्थान में निर्णायक भूमिका अदा करते हुए भारतीय साम्यवादी आंदोलने को सिरे से गैरप्रासंगिक बना दिया।

अंबेडकर को इन्हीं ब्राह्मण धर्म के कुलीन तबके  के सत्तावर्ग ने कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग थलग किया तो नेताजी का देश निकाला इन्ही के रकारण हुआ और आजादी में सबसे ज्याद खूनदेने वाले पंजाब और बंगाल से बहुजन आंदोलन और बहुजनों के सफाये के लिए दिल्ली में सत्ता के केंद्रीयकरण में भी इसी जमींदारी तबके की कारस्तानी है। तो इसके प्रतिरोध में बंगाल के बहुजनों ने ही उसी बौद्ध मतुआ वैष्णव विरासत की जमीन पर खड़े होकर बाबासाहेब को संविधानसभा पहुंचाया, जिन्होंने भारतीय संविधान के तहत फिर धम्म प्रवर्तन की तर्ज पर समता और न्याय को भारतीयता का मुख्य विमर्श बना दिया।

उसी बल्लाल सेन के पुत्र लक्ष्मण सेन के सभाकवि जयदेव ने जब वैदिकी काल के लोकायत को गीत गोविंदम के तहत नये सिरे से स्थापित किया तब भी चर्यापद लिखे जा रहे थे,जो सभी भारतीय भाषाओं का मौलिक साहित्य है।

कवि जयदेव के बाद, बौद्ध चर्यापद के तुरंत बाद बंगाल में पदावली और मंगल काव्य के मार्फत आम जनता का लोकजीवन और लोकायत  के जनपद साहित्य के माध्यम से ही संतों के भक्ति आंदोलन की धारा में लगभग कबीर के समसामयिक चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव आंदोलन के मार्फत बंगाल का सांस्कृतिक विकास हुआ।यह धारा चुआड ,नील,मुंडा,भील,संथाल विद्रोहों के मध्य जारी जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई से निबटने के लिए  ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कंपनी राज में सामंती और साम्राज्यवादी हितों के मुताबिक संसाधनों से बहुजनों को बेदखल करने की कार्रवाई के तहत  स्थाई बंदोबस्त लागू करके जमींदारी पत्तन तक जारी रहा और जल जगंल जमीन की मिल्कियत पर एकाधिकार के बाद इसी जमींदार वर्ग ने जनपदों और लोकायत की विरासत की हत्या करके सारे माध्यमों और विधाओं पर एकाधिकार कायम करके मुख्यधारा से बहुजनों को निकाल बाहर किया।बाकी भारत में भी धर्म कर्म,राजनीति,समाज,अर्थव्यवस्था,साहित्य,संस्कृति,माध्यमों और विधाओं में यही मनुस्मृति जमींदारी बहाल है।

बंगाल की विविध बहुल संस्कति में महाकवि जयदेव,चैतन्य महाप्रभू,हरिचांद गरुचांद ठाकुर के अलावा कवि चंडीदास और मैथिल कवि विद्यापति की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है,मौका मिला तो इस पर हम बाद में सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।

जिन्हें यह विमर्श प्रासंगिक लगता है ,उनसे विनम्र निवेदन है कि इसे अपने अपने माध्यम से प्रचारित प्रसारित करें ताकि हम आगे भी यह संवाद जारी रख सकें।

इस धम्म प्रवर्तन की प्रक्रिया में कुछ बौद्ध संगठनों के स्वयंभू कार्यकर्ता व्यवधान पैदा कर रहे हैं जो इस विमर्श को न सिर्फ अपने नाम से छाप रहे हैं बल्कि उसे संदर्भ और प्रसंग से काटकर अपना मिथ्या अहंकार साध रहे हैं।हम उन तक पहले यह सारा विमर्श पहुंचाते रहे हैं और मेरे प्रकाशित सामग्री को अपने नाम से छाप कर वे  43 सालों से बनी मेरी साख खराब करने में लगे हैं।उनके साथ आगे काम करना असंभव है।उन्हे अलग से सामग्री उनके नाम से प्रकाशित करने के लिए भेजते रहने के बावजूद वे मरी विश्वसीनयता को दांव पर लगा रहे हैं।इसलिए मैं उन्हें अब मेरी कोई सामग्री आगे प्रकाशित करने की इजाजत नहीं दे रहा हूं।विडंबना यही है कि वे इस वक्त बाकी बचे खुचे बौद्धों के संगठनों के नेता,संपादक वगैरह वगैरह हैं।मैंने पहले इस बारे में अंग्रेजी में लिखकर उन्हें चेताया है लेकिन खुद अपनी बात कहने की कवायद से बचते हुए वे सुधरने की कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं।मेरे ऐतराज पर उन्होंने खेद बी नहीं जताया है।मेरे लिखे को पढ़ने के बाद उनके अखबारों और उनकी पत्रिकाओं में उनके नाम से लिखी सामग्री को पढ़कर आप जांच लें कि वे कैसे बौद्ध हैं।

बहरहाल,स्वर्ग नर्क जन्म जन्मांतर कहीं वैदिकी साहित्य में नहीं है।सिंधु सभ्यता के अवसान के बाद आर्य अनार्य संस्कृतियों के संघर्ष और समन्वय के मध्य कृषि बतौर अर्थव्यवस्था कायम होने लगी तो पराजित जातियों के गुलामों और सभी समुदायों की स्त्रियों के सार हक हकूक छीनने की जो रीति चली आयी,उसके तहत उत्पादन प्रणाली पर पितृसत्ता का वर्चस्व बनता चला गया और वैदिकी कर्मकांड से पुरोहित तंत्र मजबूत होता गया।

भूसंपदा पर काबिज आभिजात वर्गो के संपन्न जीवन यापन के मुकाबले गुलामों और स्त्रियों की,आम प्रजाजनों की उत्पीड़ित जीवनयंत्रणा को नियतिबद्ध बताकर वर्गीय ध्रूवीकरण की संभावना रोकने के लिए ये सारे किस्से बाद में गढ़े गये ताकि संसाधनों और अवसरों पर एकाधिकार का सिलसिला कायम रह सकें।यही मौलिक जन्मजात आरक्षण है और हजारों साल से इसी जन्मजात आरक्षण से सत्ता का स्वर्गसुख भोगते हुए आम जनता को नर्क जीने के लिए मजबूर करने वाले लोग हजारों साल से वंचित उत्पीड़ियों को अवसर देने की गरज से सवैधानिक आरक्षण के खिलाफ योजनाबद्ध प्रतिक्रांति के तहत युद्धोन्मादी हिंदुत्व की वानरसेना बना रहे हैं बहुजनों को।

चार्वाक दर्शन में इसी एकाधिकार के खिलाफ विद्रोह के बतौर वैदिकी और गैरवैदिकी जनविरोधी धर्मग्रंथों में रचे गये संसाधनों और अवसरों पर पुरोहित तंत्र और सत्तावर्ग के रंगभेदी एकाधिकार के स्थाई बंदोबस्त के सारे सिद्धांत खारिज कर दिये गये।वैदिकी धर्म भूस्वामियों की संपन्नता बढ़ने के साथ साथ उत्पादन प्रणाली में लगातार हुए परिवर्तन और मध्य एशिया और उसके आर पार वाणिज्य का सिलसिला शुरु हो जाने से आर्यों अनार्यों के युद्धों के मध्य वर्गीय ध्रूवीकरण लगातार तेज होता गया  जिसकी तार्किक और वैज्ञानिक परिणति तथागत गौतम बुद्ध का धम्म और उनकी सामाजिक क्रांति है।

एैसा जानकर चलें तो सही मायने में वैदिकी साहित्य कोई धर्मग्रंथ हैं ही नहीं और उनके साथ रचे गये ब्राह्मण,संहिता,शतपथ से लेकर उपनिषद और पुराण तक सत्ता वर्ग के हित में लिखा गया साहित्य है जिसका मकसद संसाधनों और अवसरों पर एकाधिकार बहाल रखना है।वैदिकी साहित्य में इतिहास भी कुछ नहीं है किंवदंतियों के सिवाय जो सिरे से कपोलकल्पित और परस्परविरोधी हैं।जिसका इतना महिमामंडन किया जाता है,उसका कोई ऐतिहासिक यथार्थ आधार ही नहीं है।

मनुस्मृति और जाति व्यवस्था भारतीय समाज के सामंती ढांचे को बनाये रखकर सत्तावर्ग के हितों का बहाल रखने का स्थाई बंदोबस्त है,जिनकी उत्पत्ति तथागत की सामाजिक क्रांति और उनके धम्म से आम जनता को किस्से कहानियों के तिलिस्म में कैद करने के मकसद से हुई।जो अब फासिज्म का नया एजंडा है।

मेरे बचपन में नैनीताल की तराई में विभाजन पीड़ित बंगाली शरणार्थी गांवों में साठ के दशक के अंत तक संकीर्तन और प्रभात फेरी की परंपरा रही है जो वे पूर्वी बंगाल से लेकर गये थे।रोग शोक प्राकृतिक आपदाओं में बार बार संकीर्तन और प्रभातफेरी का सिलसिला तेज होता रहा,जो अंततः सत्तर के दशक की शुरुआत में खत्म हुई।

इसीतरह वैदिकी और ब्राह्मणकाल में पूजा पाठ और यज्ञ पर पुरोहित तंत्र के वर्चस्व और इन कर्मकांड में होने वाले खर्च के मद्देनजर जादू टोना,झांड़ फूंक मंत्र तंत्र इत्यादि के जरिये रोग शोक आपदा विपदा टालने के लोकायत जो विकल्प रहा है,वह अब भी भारतीय जनपदों में धूम धड़ाके के साथ जारी है।

उत्पादन प्रणाली से बेदखल,जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखल साधन हीन अवसरों से वंचित लोगों के लिए राहत का विकल्प इसके सिवाय कोई दूसरा  नहीं है या फिर जन्म जन्मांतर के पापों की दुहाई देकर कर्मफल के लिए परलोक में स्वर्ग सिधारकर धरती के स्वर्ग में रहने वाले सत्तावर्ग के सुख सुविधाओं ,भोग विलास की इच्छा से कर्मकांड मार्फत पलोक सुधारने की गरज से इहलोक में नर्क भोगने के लिए नियतिबद्ध हैं गुलाम और स्त्रियां लाखों अस्मिताओं में कैद एक दूसरे के  खिलाफ लड़ते हुए अति अल्पसंख्यक सत्ताव्रग के खिलाफ वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत न गोलबंद हो सकते हैं और न जन्म जन्मांतर के पापों के बोझ तले दबे अपनी नर्क यंत्रणा के कारणों और कारकों के बारे में कुछ जान सकते हैं।शिक्षा और ज्ञान के अधिकरार से बहुसंख्या गुलामों और स्त्रियों को हजारों साल से वंचित किये जाने के फलस्वरुप आज वैज्ञानिक और तकनीक के चरमोत्कर्ष समय में भी अज्ञानता का वह अंधकार हमें लगातार मध्ययुगीन बर्बरता के युग में वापस खींच रहा है।

वैदिकी काल से अब तक धर्म कर्म का यह सारा सिलसिला मनुष्यता के खिलाफ निरंतर जारी युद्ध है और यही हमारे युद्धोन्माद की खास वजह है।

ग्यारहवीं सदी तक पाल वंश के राजकाज में बाकी भारत में बौद्धधर्म के अवसान के बहुत बाद तक बंगाल बौद्धमय रहा है।गौरतलब है कि सेनवंश के पहले दो शासकों वीरसेन और विजयसेन के राजकाज में कोई हिंदूकरण अभियान चलने का विवरण अभीतक नहीं मिला है।

कन्नौज से पांच ब्राह्मण बुलाकर विजय सेन के पुत्र बल्लाल सेन ने बंगाल में ब्राह्मण धर्म की नींव डाली।बल्लाल सेन के राजकाज के दौरान ही बौद्धों का उत्पीड़न हुआ और उनका हिंदू धर्म में धर्मांतरण हुआ।यह मारकाट सिर्फ राजा बल्लाल सेन के राजकाज के दौरान हुई जिसके नतीजतन बांकुडा़ पुरुलिया मेदिनीपुर के जंगल महल को छोड़कर बाकी बंगाल में बौद्धों का पूरा सफाया या धर्मांतरण हो गया।

फिर राजा बल्लाल सेन के पुत्र लक्ष्मण सेन के सभाकवि संस्कृत के महाकिव जयदेव ने वैदिकी हिंदुत्व के ब्राह्मणधर्म के बदले बंगाल में वैष्णव धर्म अपने गीत गोविंदम् से शुरु किया और गौरतलब है कि गीत गोविंदम् के दर्शन के मुताबिक बंगाल में धर्म निरपेक्ष बाउल आंदोलन की शुरुआत हुई।बाउल तब से लेकर अबतक जयदेव को ही अपना गुरु मानते रहे हैं।

इसका इतना बड़ा असर हुआ कि सारा का सारा रवींद्र साहित्य बाउल आंदोलन के लोकायत पर आधारित है,जिसे फिर भारतीयता और भारततीर्थ की बहुलता विविधता की एकात्मकता के साथ नये भारत का राष्ट्रवाद जनमा,जिसका निषेध अब फिर ब्राह्मणधर्म का पुनरुत्थान का यह मुक्तबाजार है।फासिज्म का राजकाजहै।

वैष्णव और बाउल आंदोलन के दर्शन में स्थाईभाव श्रृंगार तत्व है,जिसमें फिर राथा कृष्ण का प्रेम और मिलन केंद्र में है।

मूल वैष्णव और बाउल दर्शन में मोक्ष का निषेध है जो ब्राह्मण धर्म का अंतिम लक्ष्य है।चरित्र से इसलिए वैष्णव और बाउल आंदोलन चार्वाक दर्शन के लोकायत की निरंतरता है और धर्म परंपरा की दृष्टि से यह सहजिया जीवन शैली सहजयान है जिसमें बौद्धधर्म के महायान और वज्रयान दोनों का प्रभाव है।वज्रयान की तांत्रिकता कमाख्या और काली की उपासना पद्धति में भी देखी जा सकती है।

वैष्णव और बाउल आंदोलन पूरी तरह नैसर्गिक जीवनधारा के पक्ष में है और सृष्टि और विज्ञान के नियम की तरह जीवन चक्र के लिए चार्वाक दर्शन की तरह भोग को केंद्र में मानता है,जिसमें जीवन चक्र जारी रखने के लिए अनिवार्य काम की वंदना है, लेकन वह काम जैविक नहीं है बल्कि ईश्वर और प्रकृति के मिलन के मध्य इंद्रियों को वश में करके मनुष्यता के विकास का लक्ष्य ही वैष्णव धर्म है,जहां पुरोहित तंत्र और वैदिकी कर्मकांड निषिद्ध हैं।

गीत गोविंदम के बाइस सर्ग में कृष्ण की रासलीला से राधा की ईर्षा, विरह, अभिमान, राग ,अनुराग और मिलन का ब्यौरा है,जिसे ऋषि बंकिम चंद्र ने अश्लील करार दिया था। गीत गोविंदम में मिलन और प्रेम का उत्कर्ष भाववादी नहीं है ,यहां छायावादी उटोपियन प्लोटोनिक प्रम नहीं है।विशुध सचेतन शारीरिक मिलन है,जो जैविक भी नहीं है,मनुष्यता का उत्सव है वह।रास है अखंड।लीला भी अखंड है।ईश्वर के प्रति समर्पण है।ईश्वर और मनुष्यता एकाकर है।जिसके सजीव ब्योरे भी हैं, लेकिन श्लोक रचने की अद्भुत कला और विद्यता की वजह से पंक्ति दर पंक्ति गीतगोविंदम दर्शन है,बंकिम के मुताबिक अश्लील कहीं नहीं है।

गीत गोविंदम् संस्कृत काव्य परंपरा से अलग रचना है क्योंकि जयदेव ने काव्यभाषा,श्लोक संरचना और छंद बिंबविन्यास संस्कृति काव्य के मुताबिक बनाये रखते हुए उसमें देशज जनपदीय भाषा,लोकजीवन और पंरपराओं का समायोजन एकदम अपनी विशिष्ट शैली में किया है।व्याकरण को भी तोड़ा है तो अलंकार नये तरीके से गढ़े हैं।लेकिन हर श्लोक गागर में सागर है।बांग्लाभाषा के विकास में गीत गोविंदम् के इन प्रयोगों की बड़ी भूमिका रही है। कुल मिलाकर ब्रिटिश हुकूमत से पहले तक आम जनता के साहित्य और रचनाधर्मिता इसी लोकायत परंपरा में विकसित हुई।

चर्या पदों के बाद मंगल काव्यधारा के सिलसिले में दर्शन और साहित्य दोनों मायने में गीत गोविंदम् से शुरु वैष्णव बाउल आंदोलन नवजागरण से पहले नवजागरण था जो बल्लाल सेन के ब्राह्मण धर्म के खिलाफ तो था ही,जिसमें तथागत गौतम बुद्ध के धम्म की निरंतरता पुरोहित तंत्र और वैदिकी कर्म कांड के खिलाफ जनांदोलन की शक्ल में रहा है,जो शुरु से लेकर अंत तक सत्ता और सत्ता वर्ग के विरुद्ध रहा है।यही जनविद्रोह बंगाल और बाकी देश में किसान आदिवासी विद्रोहों और जनांदोलनों की निरंतरता भी है।इसी से बहुजन समाज आकार लेता रहा।

इस आंदोलन के दार्शनिक अगर कवि जयदेव हैं तो इस महान जनांदोलन के तहत हुई सांस्कृतिक क्रांति के महानायक चैतन्य महाप्रभु रहे हैं।चैतन्य महाप्रभु और उनके अनुयायी नित्यानंद ने अपने आंदोलन के जरिये पाल वंश के अंत से बुद्धमय बंगाल के अवसान के बाद और सेनवंश के अवसान के बाद इस्लामी राजकाज के मध्य इस वैष्णवधर्म के तहत बंगाल में धम्म प्रवर्तन नये सिरे से कर दिया।

चैतन्य महाप्रभु बंगाल से ओड़ीशा में वैष्णव मत के प्रचार के लिए गये और वहां उनकी हत्या कर दी गयी।वह हत्या रहस्य अभीतक अनसुलझा है।

चूंकि वैष्णव और बाउल आंदोलन में पुरोहित तंत्र और कर्मकांड के ब्राह्मण धर्म का निषेध है और वैष्णव और बाउल दोनों देह को ही सारे तीर्थस्थलों और तैतीस करोड़ देवी देवताओं का आधार मानते हैं,इसलिए वैष्णव आंदोलन और उसके साथ ही बाउल आंदोलन आम जनता में इतना लोकप्रिय हुआ,जिसका प्रभाव ओडीशा से लेकर समूचे पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में व्यापक पैमाने पर रहा और आज भी मणिपुरी संस्कृति वैष्णव ही है।यह धम्म के साथ लोकायत की भी निरंतरता है।

प्रकति की उपासना वैष्णव दर्शन की मौलिक आस्था है और विश्व ब्रह्मांड में सबकुछ प्रकृति की लीला है।यह दर्शन अलौकिक आध्यात्म का खंडन करता है जो वैज्ञानिक दृष्टि और लोकायत के हिसाब से बराबर है।देहतत्व का रहस्यवाद भी यहां प्राकृतिक रहस्यवाद है जो प्रकृति और ईश्वर के संबंध पर आधारित है।यह सीधे तौर पर प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता का जीवन दर्शन है।

वैष्णव दर्शन के मुताबिक राधा प्रकृति है तो ईश्वर कृष्ण है।वैष्णव धर्म का अनुशीलन स्थाई राधा भाव है। क्योकि राधा कृष्ण की प्रेमलीला में ही प्रकृति का सृष्टि रहस्य और देहतत्व है।

गौरतलब है कि पदावली और मंगल काव्य बांग्ला साहित्य की दोनों धाराओं में धर्म लेकिन ब्राह्मणधर्म और वैदिकी कर्मकांड के विरुद्ध है।चंडी मंगल, मनसामंगल, शिवायन और धर्म मंगल काव्यों में भी यही लोकायत है,तो विद्यापति और चंडीदास की पदावली में भी यही लोकायत की गूंज है जो लालन फकीर से होकर रवींद्र नाथ की गीतांजलि में भी प्रतिध्वनित हुई है।रचनाधर्मिता यहां सही मायने में जहां जनजीवन का आइना है वह विरासत,परंपरा और इतिहास का धारक वाहक भी है। जिसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति फिर बाउल गीतों या सूफी संगीत में है।वैष्णव,बाउल और सूफी आंदोलन तरह धर्मनिरपेक्ष है और उसमें जनपदों की धड़कनें मुख्य हैं।

गौरतलब है कि तथागत गौतम बुद्ध के परानिर्वाण के तुरंत बाद उनके शिष्य दो मुख्य धाराओं में बंट गये थे।इन्हीं दो धाराओं से आगे चलकर सहजयान बौद्ध धर्म का प्रचलन है और सहज यान की वह सहजिया दर्शन ही वैष्णव आंदोलन और बाउल आंदोलन का स्थाई भाव है।खेर पंथी मानते थे कि बुद्ध पहले हैं और धम्म बाद में है। जबकि सांघिकों का मत था कि पहले धम्म  है,उसके बाद बुद्ध और संघ है।नागार्जुन के नेतृत्व में महायान बौद्ध धम्म का प्रवर्तन हुआ और बंगाल में महायान बौद्धधर्म का प्रचलन  ग्यारहवीं शताब्दी तक पालवंश के अवसान के बाद भी राजा विजय सेन के शासन काल तक जारी रहा।

पहली शकाब्द शताब्दी में नागार्जुन के नेतृ्त्व में शुरु महायान बौद्ध धम्म में प्रज्ञा(धम्म),उपाय(बुद्ध) और बोधिसत्व की उपासना पद्धति चालू हुई।

शकाब्द सातवीं शताब्दी में ओड्डीयन के राजा इंद्रभूति,उनके पुत्र पद्मसंभव के नेतृत्व में सहजयान बौद्ध धर्म से ही वज्रयान तांत्रिक बौद्ध धम्म का प्रवर्तन हुआ और इनके अनुयायी पद्म,वज्र और बोधिस्तव की उपासना करते थे।इतिहास यह है कि यह ओड्डियन आधुनिक ओड़ीशा नहीं है बल्कि पाकिस्तन में स्थित वर्तमान स्वात है, लेकिन जनता उन्हें ओड़िया मूल का मानती है।चैतन्य महाप्रभु और कवि जयदेव के भी ओड़ीशा के होने की कथाएं प्रचलित है।

ये पद्मसंभव नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षक थे और वहीं से वे राजा ठी स्त्रीङ के आमंत्रण पर सिक्किम के रास्ते सन् 747 में तिब्बत पहुंच गये।उन्होंने 749 में तिब्बत में पहले बौद्ध मठ की स्थापना करके तांत्रिक उपासनापद्धति का श्रीगणेश किया था।वे ही वज्रयान के तहत तांत्रिक बौद्ध उपासना पद्धति के जनक हैं।

गुरु पद्मसंभव ने ही तिब्बत और सिक्किम में बौद्धधर्म का प्रचार प्रसार किया और तिब्बत में बौद्ध अनुयायी उसी तांत्रिक बौद्धधर्म के अनुयायी हैं,जिसका असर बिहार,बंगाल,ओड़ीशा से लेकर असम और पूर्वोत्तर में खूब रहा है।

असम में कामाख्या और बंगाल में काली की तांत्रिक उपासना पद्धति का पद्मसंभव के वज्रयान से कोई  संबंध है या नहीं,यह हालांकि शोध का विषय है।

बंगाल का वैष्णव बाउल आंदोलन तंत्र उपासना पद्धति के वज्रयान, कापालिक शाक्त धर्म के विपरीत सहजयान बौद्ध धम्म की परंपरा में है जिसका दर्शन सहजिया है।

सहजयान में भी नर नारी के मिलनपर आधारित देहत्व का दर्शन प्रमुख था।बंगाल में वैष्णव आंदोलन और बाउल आंदोलन की जड़ें उसी सहजयान का सहजिया दर्शन है।उनके लिए राधा कृष्ण का मिलन ही देहतत्व का आाधार है,जो वैदिकी काल के लोकायत दर्शन की ही निरंतरता है और वैदिकी और ब्राह्मण धर्म दोनों का निषेध है।यही परंपरा फिर मतुआ आंदोलन का ब्राह्मणधर्म निषेध है।

साफ जाहिर है कि हम गौर से देखें तो बंगाल में बौद्ध धम्म की निरंतरता वैष्णव,बाउल और मतुआ आंदोलन के मार्फत आज भी जारी है और इसी वजह से भारत में शायद एकमात्र बंगाल में सत्ता पर एकाधिकार के बावजूद जन जीवन में ब्राह्मण धर्म के बजाय धर्म निरपेक्ष लोकायत ही प्रचलित है और बंगाल में हिंदुत्व गाय पट्टी और बाकी भारत के ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान से अलग है।

ब्रिटिश हुकूमत से औद्योगिक उत्पादन प्रणाली के तहत यह धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील भौतिकवादी परंपरा और मजबूत होती गयी।

नरसंहारी मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी फासिज्म के अंध राष्ट्रवाद का जबाव फिर वही लोकायत का जनवाद है।







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