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Friday, December 16, 2016

भारतीय रिजर्व बैंक की हत्या और अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर, माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट सुपर भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या क

भारतीय जनता का कोई माई बाप नहीं

भारतीय रिजर्व बैंक की हत्या और  अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी

लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन

नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं

जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर, माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट सुपर

भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या कर दी गयी है।

यह हत्या का मामला है या आत्महत्या का,इसका फैसला कभी हो नहीं सकता क्योंकि किसी ने एफआईआर दर्ज नहीं करायी है।

#डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।

पलाश विश्वास

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

भारतीय जनता का कोई माई बाप नहीं।

रिजर्व बैंक की हत्या और अर्थव्यवस्था के लिए मौत की घंटी।

लाटरी आयोग कर रहा है नीति निर्धारण और वित्तीय प्रबंधन।

नोटंबंदी में हस्तक्षेप करने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार,संसद में कोई चर्चा नहीं।

जन प्रतिनिधि अब ब्रांड एंबेसैडर,माडल सुपरमाडल,सेल्स एजंट।

योजना आयोग नीति आयोग के बाद अब लाटरी आयोग है।

अब लाटरी आयोग वित्तीय प्रबंधन कर रहा है।

रिजर्व बैंक,सुप्रीम कोर्ट और संसद के ऊपर लाटरी आयोग।

बाकी लोग देखते रह जाये,जिसकी लाटरी लग गयी वह सीधे करोड़पति।

बुहजनों के पौ बारह कि अंबेडकर जयंती पर खुलेगी लाटरी। बाबासाहेब तो दियो नाही कुछ नकदी में,जिन्हें दियो वे सगरे अब बहुजनों में ना होय मलाईदार।

अब बाबाससाहेब के नाम नकद भुगतान तो होई जाये केसरियाकरण।

क्या पता कौन भागवान के नाम भगवान खोल दे लाटरी।

अच्छे दिनों का कुलो मतलब यही लाटरी है।

बूझो बुड़बक जनगण।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

अर्थव्यवस्था भी इब लाटरी है जिसके नाम खुली वह करोड़ पति कमसकम।

बाकीर खातिर खुदकशी थोक इंतजाम बा।

उ नकद नहीं,तो मौत नगद।चाहें तो खुदकशी से रोकै कौण।

अरबपति खरबपति की लाटरी तो हर मौसम खुली खुली है। और न जाने ससुर कौन कौन पति ठैरा कहां कहां।भसुरवा देवरवा गोतीनी देवरानी जिठानी बहूरानी कुनबा जोडे़ वक्त क्या लगे है।लाटरी खुलि जाई तो चकाचाक सैफई का जलवा घरु दुआर मेकिंगिंडिया।डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

मसला मुश्किल है कि वित्तीय प्रबंधन करने वाले लोग जिंदा है कि बैंकों और एटीेएम की कतार में शामिल देशद्रोहियों के साथ कहीं मर खप गये हैं,इसका अता पता नहीं है,बूझ सको तो बूझो जनगण बुड़बक।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

अम्मा जयललिता का शोक हम मना रहे हैं,किसी वित्तीय प्रबंधक के लिए  शोक मनाने जैसी बात हमने सुनी नहीं है।

हांलाकि इस देश की अर्थव्यवस्था के लिए राष्ट्रीय शोक का समय है यह।

पीएम की मंकी बात पेटीएमिंडियाकैशलैशडिजिटल इंडियआ।ओयहोय।होयहोय।

एफएमकी ट्यूनिंग फिर सुर ताल में नहीं है।

कहि रहे हैं एफएमवा कैशलैस कोई इकोनामी हो ही नहीं सकती।ओयहोय।होयहोय।

हम भी दरअसल वही कह और लिख रहे हैं।

मंकी बातों में 30 दिसंबर के बाद मुश्किल आसान तो अब पता चल रहा है कि सालभर में भी आम जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली है।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

कालाधन मिला नहीं है।ना मिलबै हैं।

बैंकों मे जमा नकदी निकालने से रोकने का अधिकार सरकार तो क्या रिजर्वबैंक को भी नहीं है।खातधारकों के खाते में नकद जमा किया है तो निकालने की आजादी होनी चाहिए।बैंक के पास नकदी नहीं है तो इसका मतलब बैंक दिवालिया है।

बेहिसाब या बिना हिसाब कालाधन समझ में अाता है,लेकिन नकदी के लेनदेन बंद करने की कवायद बाजार और अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है।

भारतीय रिजर्व बैंक नकदी का वायदा पूरा नहीं कर पा रहा है,इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक मर गया है या उसकी हत्या कर दी गयी है।

यह हत्या का मामला है या आत्महत्या का,इसका फैसला कभी हो नहीं सकता क्योंकि किसीने एफआईआर दर्ज नहीं करायी है।

समयांतर ने पिछले साल से सरकारी विज्ञापन लेना बंद कर दिया है।वैकल्पिक मीडिया के लिए यह कदम ऐतिहासिक है।किसी भी स्तर पर किसी पत्र पत्रिका का यह कदम उसके जीवित रहने के लिए भारी चुनौती है।साधनों के मुताबिक ज्वलंत मुद्दों को संबोधित करते हुए वर्षों से नियमित अंक निकालने के लिए हमारे पंकजदा का सार्वजिनक अभिनंदन होना चाहिए।

नोटबंदी के परिदृश्य में समयांतर का दिसंबर अंक आया है।जिसमें से बेहद महत्वपूर्ण संपादकीय का अंश हम इस रोजनामचे के साथ नत्थी कर रहे हैं।हाशिये की आवाज स्तंभ में नोटबंदी के संदिग्ध फायदों और निश्चित नुकसान का खुलासा किया है तो नोटबंदी पर गंभीर विश्लेषण की सामग्री भरपूर है।

यह अंक संग्रहनीय और पठनीय है।जो नोटबंदी गोरखधंधे को समझना चाहते हैं,उनके लिए समयांतर का ताजा अंक अनिवार्य है।बेहतर हो कि आप इसका ग्राहक खुद बनें और दूसरों से भी ग्राहक बनने को कहें।

आज निजी काम से दक्षिण कोलकाता गया था।जहां सुंदरवन इलाके के गरीब मेहनतकशों की आवाजाही होती है और सारी ट्रेनें मौसी लोकल होती हैं।यानी कोलकाता  महानगर और उपनगरों के संपन्न घरों में कामवाली महिलाओं से लदी फंदी होती हैं वहां की ट्रेनें।

इसके अलावा बंगाल के सबसे गरीब मुसलमानों और अनुसूचितों का जिला भी दक्षिण 24 परगना है,जहां कार्ड वगैरह,पीटीएम इत्यादि की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बंगाल की खाड़ी और सुंदर वन के इस इलाके में संचार नेटवर्क की क्या कहें, द्वीपों को जोड़ने वाले पुलों और सड़कों की बेहद कमी है।स्कूलों,अस्पतालों,बुनियादी सेवाओं,बुनियादी जरुरतों,हवा राशन पानी तक की कमी है।

सांस सांस मुकम्मल महायुद्ध है।जमीन पर बाघ तो पानी में मगरमच्छ हैं।वहां सारी लेन देन नकदी में होती है और फिलहाल कोई लेनदेन वहां हो नहीं रही है।

जिंदगी 8 नवंबर की आधी रात के बाद जहां की तहां ठहरी हुई है।दीवाल से पीठ लगी है और रीढ़ गलकर पानी है।हिलने की ताकत बची नहीं है।आगे फिर मौत है।

बंगाल में रोजगार नहीं है तो ट्रेनें भर भर कर जो लोग देशभर में असंगठित क्षेत्रों में नौकरी करने निकले थे,वे तमाम लोग घर लौट चुके हैं और उनके घरों में राशन पानी के लिए कहीं कोई पेटीएम नहीं है।

अब हिंदुत्व के लिए बीजमंत्र नया ईजाद है।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

बुद्धमय बंगाल के बाद प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष स्वतंत्रतासंग्रामी बंगाल के अवसान के बाद लगातार केसरिया,तेजी से केसरिया केसरिया बंगाल में ऐसे अनेक जिले हैं।जहां बैमौत मौत ही जिंदगी का दूसरा नाम है,अब बेमौत मौत नोटबंदी है।

भारत बांग्लादेश सीमा से सटे हुए तमाम इलाकों में जायें तो पता ही नहीं चलेगा कि हम भारत में हैं।नदियों के टूटते कगार की तरह जिंदगी उन्हें रोज चबा रही है।हालात के जहरीले दांत उन्हें अपने शिकंजे में लिये हुए हैं।जिंदगी फिर मौत है।

जहां बैमौत मौत ही जिंदगी का दूसरा नाम है,अब बेमौत मौत नोटबंदी है।

मसलन भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी मुर्शिदाबाद के जिस जंगीपुर इलाके से संसदीय चुनाव जीतते रहे हैं,वहां मुख्य काम धंधा बीड़ी बांधना है।

बीड़ी के तमाम कारखाने नकदी के बिना बंद हैं।घर में राशन पानी भी नहीं है।

न नकदी है और न पेटीएम जिओ एटीएम डेबिट क्रेडिट कार्ड हैं।

सिर्फ वोट हैं,जिसके बूते स्वयं महामहिम हैं।

पद्मा नदी की तेज धार से बची हुई जिंदगी बीड़ी के धुएं में तब्दील है।

वह धुआं भी नहीं है और वे तमाम लोग राख में तब्दील हैं।

रोज उनके घर नदी के कटाव में खत्म होते जाते हैं।

खुले आसमान के नीचे वे लोग बाल बच्चों के साथ मरने को छोड़ दिये गये हैं।

नोटबंदी ने उन्हें बीच धार पद्मा में डूबने को छोड़ दिया है।

जिलों की क्या कहें,कोलकाता की आधी आबादी फुटपाथ पर जीती है तो मुंबई का यही हाल है।राजधानी में फुटपाथ थोड़े कम हैं,चमकीले भी हैं। लेकिन वहां झुग्गी झोपड़ियां कोलकाता और मुंबई से कम नहीं हैं।अब पेटीेएम से लावारिश जिंदगी  की कैसे गुजर बसर होती है और कैसे छप्परफाड़ सुनहले दिन उगते हैं,देखना बाकी है।

हालात लेकिन ये हैं कि मुसलमानबहुल मुर्शिदाबाद जिले के लगभग हर गांव से लोग महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब,गुजरात से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक में भी मजूरी की तलाश में जाते हैं।उनकी जिंदगी में सबकुछ नकद लेनदेन से चलता है।

इसी तरह मालदह,बाकुंड़ा,पुरुलिया जैसे जिलों की कहानी है।

हम उन जिलों को गिनती में नहीं रख रहे हैं जहां लोग थोड़ा बहुत संपन्न है या कुछ लोग कमसकम कार्ड वगैरह से काम चला लेते हैं।

बिहार और ओड़ीशा के अलावा झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और यूपी में भी ऐसे अनेक जिले होंगे।हिमालय के दूरदराज के गांवों में, या पूर्वोत्तर भारत या जल जंगल द्वीप मरुस्थल थार में कैशलैस डिजिटल इंडिया का क्या जलवा है,हम इसका अंदाज नहीं लगा सकते।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।

बहुत थका हुआ हूं।कल 17 नवंबर को कोलकाता के गणेशचंद्र एवेन्यू के सुवर्ण वणिक हाल में शाम चार बजे हमारे आदरणीय मित्र शमशुल इस्लाम कोलकाता में प्रगट होने वाले हैं तो कल का दिन उनके नाम रहेगा।

आज की सबसे बुरी खबर है कि नोटबंदी में कई दफा सरकार को फटकारने वाली सुप्रीम कोर्ट ने नोटबंदी मामले में हाथ खड़े कर दिये हैं।

नोटबंदी के मामले में भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है।

हांलांकि यह कोई खबर नही है कि संसद के इस सत्र में लगातार शोरशराबे के अलावा नोटबंदी पर कोई चर्चा नहीं हुई है।

क्योंकि हमारे नेता और जनप्रतिनिधि चाहे जो हों आम जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं।

वे तमाम लोग ब्रांड एंबेसैडर हैं।

वे तमाम रंगबिरंगे लोग माडल सुपरमाडल हैं।

वे तमाम लोग बाजार के दल्ला का काम छीनकर कंपनीराज के माफिया गिरोह में शामिल हैं और वसूली के लिए पहले से बंटवारे के तहत अपने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं।

वे तमाम लोग करोड़पति हैं या अरबपति।खरबपति भी।

वे कभी किसी कतार में खड़े नहीं होते।

यह संसदीय लोकतंत्र करोड़पति अरबपति खरबपति तंत्र है।

करोड़पति अरबपति खरबपति तंत्र में आम जनता की कोई सुनवाई नहीं हो सकती।

सर्वोच्च न्यायालय के भी हाथ पांव बंधे हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर का दस्तखत हर नोट पर होता है और इसके बावजूद इस मुद्रासंकट के मध्य उनके लिए कुछ करने को नहीं है क्योंकि रिजर्व बैंक की हत्या कर दी गयी है और बैंक दिवालिये बना दिये गये हैं।

कोलकाता में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को काला झंडा दिखाया गया तो दिनभर पूरे कोलकाता में उनके खिलाफ प्रदर्शन होता रहा।बंगाल की मुख्यमंत्री ने उन्हें जमकर करी खोटी सुनायी।

यह घटनाक्रम भारतीय अर्थव्यवस्था की मौत की घंटी है।

डिजिटलंडियाकैशलैसंडियापैटीएमिंडियाजिओंडिया।ओयहोय।होयहोय।

बूझो बुड़बक जनगण।बूझसको तो बूझ लो।भोर भयो अंधियारा दसों ओर।

बाकी ससुरा भाग्यविधाता जो है सो है,अधिनायक नरसिस महानो ह।


यह धुआं कहा से उठता है!

Author: पंकज बिष्ट Edition : December 2015

संपादकीय

सत्ताधारी वर्ग किस तरह से अपने और सामाजिक संकटों का सामना करता है, या कहना चाहिए बच निकलता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण इधर दिल्ली में देखने को मिल रहा है। संकट है प्रदूषण का, जिससे इस महानगर का कोई भी हिस्सा चाहे, कालोनी कितनी भी पॉश हो या झुग्गी-झोपड़ी वाली , बचा नहीं है, हां उनके प्रभावित होने का स्वरूप और मात्रा भिन्न हो सकती है। जैसे कि दक्षिणी और ल्यूटन्स दिल्ली में संकट वायु प्रदूषण का है तो निम्रवर्गीय कालोनियों में यह वायु के अलावा सामान्य कूड़े और प्लास्टिक व अन्य किस्म के रासायनिक प्रदूषण का भी है। देखा जाए तो इससे सिर्फ दिल्ली ही नहीं कमोबेश देश का हर शहर और कस्बा प्रभावित हो चुका है। देश कुल मिला कर एक बड़े कूड़ा घर में बदलता जा रहा है। जलवायु पर पेरिस में 30 नवंबर से शुरू होनेवाले सम्मेलन से ठीक तीन दिन पहले भारत सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के प्रमुख 59 शहरों से प्रति दिन 50 हजार टन कूड़ा निकलता है। यह आंकड़ा भी पांच साल पुराना था। जाहिर है कि यह चिंता का विषय है। विशेषकर शासक वर्ग के लिए क्यों कि इससे सुविधा भोगी वर्ग भी – अपने एसीओं और एयर प्यूरिफायरों के बावजूद, जिनकी, खबर है कि बिक्री, तेजी से बढ़ रही है – बच पाने की स्थिति में नहीं रहा है।

देखने की बात यह है कि प्रदूषण चाहे भूमि की सतह का हो, भूमिगत हो या वायु का, इन सभी का संबंध कुल मिला कर उस नई जीवन शैली से है जो उपभोक्तावाद और अंधाधुंध बाजारवाद की देन है। यानी इसका संबंध वृहत्तर आर्थिक नीतियों से है और इसके लिए कुल मिला कर शासक वर्ग जिम्मेदार है। यह अचानक नहीं है कि प्रदूषण के असली कारणों पर कोई बात नहीं हो रही है। बल्कि कहना चाहिए मूल कारणों से ध्यान भटकाने की जो बातें हो रही हैं वे दिल्ली से लेकर पेरिस तक लगभग एक-सी हैं। पर हमारे देश के संदर्भ में दिल्ली महत्वपूर्ण है। इसे लेकर हम शासक वर्ग की प्रदूषण और जलवायु की चिंता के कारणों की वास्तविकता को समझ सकते हैं।

दिल्ली देश की राजधानी है,यहां केंद्रीय सरकार व उसके मुलाजिमों की फौज के अलावा कारपोरेट और औद्योगिक जगत के कर्णधारों की कतार रहती है, दिल्ली को लेकर चिंता का स्तर समझा जा सकता है। विशेष कर ऐसे में जब कहा जा रहा हो कि अपने प्रदूषण में दिल्ली ने बीजिंग को पीछे छोड़ दिया है। इधर पिछले कुछ सालों से प्रदूषण का हल्ला जाड़े आने से कुछ पहले से ही जोर मारने लगता है। इसकी शुरूआत होती है पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा जलाई जानेवाली खरीफ की फसल की कटाई के बाद धान के बचे हुए पुवाल के खेतों में ही जलाए जाने से। इसके कई कारण हैं जैसे कि विशेषकर हरियाणा और पंजाब में तुलनात्मक रूप से बड़ी जोतों के कारण कृषि में पशुओं के इस्तेमाल का घटना, रसायनिक उर्वरकों और मशीनों का बढ़ता इस्तेमाल तथा परंपरागत फसलों की जगह ज्यादा लाभकारी फसलों का बोया जाना आदि। इस पुवाल उखाडऩा मंहगा सौदा होता है। वैसे भी किसान धान की फसल के बाद, तत्काल रबी की फसल की तैयारी कर रहा होता है, इसलिए जल्दी में होता है। ऐसे में उसके पास इस बला से निजात पाने का एक ही तरीका रह जाता है और वह होता है इसे जला देने का। दिल्ली के चारों ओर की हजारों एकड़ जमीन पर इन पुवालों के जलाए जाने से स्वाभाविक है कि धुंआ उठता है और उसका असर राजधानी पर पड़ता है। अखबार जितना भी हल्ला मचाएं यह प्रदूषण कुल मिला कर अपने आप में कोई बहुत बड़ी मात्रा में नहीं होता है, हां यह दिल्ली के प्रदूषण को, जिसकी मात्रा पहले ही खतरे की सीमा पर पहुंच चुकी है, में इजाफा जरूर कर देता है। असल में संकट इसलिए बढ़ता है कि मौसम के डंठे होते जाने के कारण, प्रदूषण तेजी से ऊपर नहीं उठ पाता है।

इस पृष्ठभूमि में सिर्फ किसानों को दोष देना कितना वाजिब है, समझा जा सकता है। इस पर भी केंद्र के दबाव में राज्यों ने पुलाव को जलाने के खिलाफ दंडात्मक कानून बना दिए हैं। पर यह भी सच है कि विगत वर्षों की तुलना में पुवाल का जलाया जाना लगातार कम हुआ है।

जहां तक दिल्ली का सवाल है यहां से ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से, ऐसे सारे उद्योगों को, जिनसे प्रदूषण होता था या प्रदूषण होना माना जाता था, न्यायालय के आदेश पर लगभग एक दशक पहले ही बाहर किया जा चुका है। इसके बाद आता है वह प्रदूषण जो मानव जनित है। वह ज्यादातर मलमूत्र और ठोस कूड़े के रूप में है। चूंकि यह कचरा जैवकीय है इससे निपटना ज्यादा कठिन नहीं है, यद्यपि इसका भी संबंध विकास की उस शैली से है, जो लगातार केंद्रीय करण को बढ़ावा दे रही है।

तीसरी समस्या है खनिज ईंधन चालित वाहनों के प्रदूषण की। दिल्ली में पेट्रोल और डीजल से चलनेवाले वाहनों की संख्या एक करोड़ के आसपास पहुंचने वाली है। इनमें सबसे बड़ी संख्या निजी गाडिय़ों की है और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद, जिसके तहत सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बड़ी वृद्धि होनेवाली है, वाहनों की संख्या में और बढ़ोतरी की पूरी संभावना है।

समस्या की असली जड़ यही है। तीन दशक पहले की प्रदूषण रहित दिल्ली अचानक दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में तब्दील नहीं हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के प्रदूषण के पीछे सबसे बड़ा कारक यही गाडिय़ां हैं। यानी इन गाडिय़ों के चलने से पैदा होनेवाला धुंआ है। खनिज ईधन के धुंए में कई तरह के विषाक्त तत्व होते हैं विशेषकर सल्फर डाइआक्साइड और सस्पेंडेड पार्टिकल मैटर जो सिर्फ खांसी, आंखों में जलन और उबकाई आदि ही पैदा नहीं करते बल्कि सांस (रेस्पिरेटरी) और हृदय रोग (कार्डियोवास्कुलर) जैसी गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं। इसलिए असली समस्या इन गाडिय़ों की संख्या को नियंत्रित करने की है। सवाल है क्या यह किया जा सकेगा?

पिछले तीन दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में जो बढ़ोतरी दिखलाई देती है उसके पीछे मोटरगाड़ी उद्योग (ऑटो इंडस्ट्री) का बड़ा योगदान है। इस उद्योग ने किस तरह से भारतीय बाजार को पकड़ा यह अपने आप में एक कहानी है।

पर इससे पहले यह बात समझ में आनी चाहिए कि निजी वाहनों से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि देश में, विशेषकर बड़े नगरों में सक्षम सार्वजनिक यातायात व्यवस्था हो। पर हमारे यहां उल्टा हुआ है। अगर दिल्ली को ही लें तो यहां की परिवहन व्यवस्था को नियोजित तरीके से ध्वस्त किया गया। उदारीकरण के चलते ऑटो इंडस्ट्री से सब तरह की पाबंदियां हटा ली गईं और उसे अपना विस्तार करने की ही सुविधा नहीं दी गई बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर कई तरह की सब्सिडी दी गईं। इसका सबसे ताजा उदाहरण गुजरात का है, जिसने राज्य में नॉनो मोटर कारखाना लगाने के लिए 30 हजार करोड़ का लगभग व्याज रहित ऋण और प्रतीकात्मक कीमत पर हजारों एकड़ जमीन मुहैया करवाई है। सरकार की ओर से अपने कर्मचारियों को गाडिय़ां खरीदने के लिए आसान शर्तों पर ऋण दिये गए। सरकार ने बैंकों को गाडिय़ां खरीदने के लिए अधिक से अधिक और आसान किस्तों पर ऋण देने के लिए प्रेरित किया।

अगर इस बीच केंद्रीय सरकार ने रेल यातायात का न तो विस्तार किया और न ही उसकी सेवाओं को दुरस्त तो दूसरी ओर बड़ी राज्य सरकारों ने लगातार सार्वजनिक यातायात को घटाना शुरू किया। इसका परिणाम यह हुआ कि कि महानगरों के बाहर कस्बों के बीच भी सार्वजनिक बसों की जगह छोटी गाडिय़ां चलने लगीं। इसका सत्ताधारियों को दोहरा लाभ हुआ। एक तो वह सार्वजनिक यातायात उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी से निवृत्त हो गई और दूसरी ओर आईएमएफ तथा वल्र्ड बैंक के एजेंडे के तहत सरकारी नौकरों को कम करने के दबाव को भी पूरा करने का उसका उद्देश्य पूरा हो गया। इस तरह एक के बाद एक – स्वास्थ्य, शिक्षा और सार्वजनिक यातायात जैसी – सेवाओं को निजी हाथों में सौंप कर वह स्वयं फैलिसिटेटर में बदलती गई। उसका काम रह गया है कि वह देखे कि गाडिय़ों के लिए ईंधन मुहैया होता रहे। यह और बात है कि इसके लिए देश को अपनी दुर्लभ विदेशी मुद्रा का एक बड़ा हिस्सा देना पड़ता है। अनुमान है कि इस दौर में जब कि तेल के दाम अपने निम्रतम स्तर पर हैं हमें सन 2014-2015 के वित्त वर्ष में 6,87,369 करोड़ रुपये (112.748 बिलियन डालर) तेल के आयात पर देने पड़े। इस भारी भरकम खर्च को सार्वजनिक परिवहन के द्वारा आसानी से कम किया जा सकता है।

सच यह है कि जब तक दिल्ली या किसी भी अन्य महानगर में गाडिय़ों की संख्या को कम नहीं किया जाएगा तब तक प्रदूषण पर नियंत्रण असंभव है। अब सवाल है दिल्ली जैसे शहर में यह नियंत्रण कैसे हो? सरकार ने इसके लिए जो तरीके निकाले हैं वे सब असल में आटो इंडस्ट्री को लाभ पहुंचानेवाले हैं। असल में एक सीमा तक इसका कारण यह भी है कि सरकार अपने कथित 7 प्रतिशत विकास की दर को गिरते हुए नहीं देखना चाहती फिर चाहे इसके लिए देश की जनता को कितनी ही कीमत क्यों न चुकानी पड़े। इधर राष्ट्रीय हरित ट्राईब्यून ने फैसला दिया है कि दस वर्ष पुरानी गाडिय़ों को सड़कों पर चलने का अधिकार नहीं होगा। यह किया गया है प्रदूषण के नाम पर। सत्य यह है कि शहरों में गाडिय़ां इतनी नहीं चलतीं कि उन्हें दस वर्ष के बाद ही खत्म कर दिया जाए। चूंकि ये ज्यादातर दफ्तर से घर के बीच इस्तेमाल होती हैं इसलिए औसत 50 किमी प्रतिदिन से ज्यादा नहीं चलतीं। मोटा अंदाजा लगाया जाए तो ये गाडिय़ां साल में दस से पंद्रह हजार किमी से ज्यादा नहीं चलतीं। दूसरे शब्दों में ये गाडिय़ां बहुत हुआ तो दस वर्ष में सिर्फ एक से डेढ़ लाख किमी ही चल पाती हैं जबकि किसी भी आधुनिक कार की बनावट कम से कम दो लाख मील यानी 3,21,868 किलो मीटर चलने की है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तरह से गाडिय़ों को दस साल में कंडम करने के कारण कितने संसाधनों बर्बाद किया जा रहा है।

दूसरे शब्दों में गाडिय़ों को दस साल बाद बाहर करने के बजाय सरकारों ने दूसरे तरीके अपनाने चाहिए थे। इस तरह का कोई निर्णय लेने से पहले इन सब बातों पर विचार करना एनजीटी की भी जिम्मेदारी थी। सवाल है अगर एनजीटी दिल्ली में वाहनों की संख्या को नियंत्रिक करने जैसा कड़ा आदेश नहीं दे सकती थी तो भी वह ज्यादा आसान रास्ता तो अपना ही सकती थी कि शहर में सम और विषम नंबरों की गाडिय़ां बारी-बारी से चलाने का आदेश देती। उसके इस आदेश का किस को फायदा हुआ है सिवा निर्माताओं के और पैसेवालों को। इससे असानी से प्रदूषण को आधा किया जा सकता था। पूरे साल नहीं तो भी यह नियम कम से कम अक्टूबर से फरवरी तक तो आसानी से लागू हो ही सकता था। सच यह है कि आज यह उद्योग इतना ताकतवर हो चुका है कि इसके खिलाफ कोई नहीं जा सकता। यह अचानक नहीं है कि सारा मीडिया इन सवालों को उठाने को तैयार नहीं है। वह जितने विज्ञापन देता है उनके चलते वह किसी भी अखबार या चैनल को असानी से अपने हितों के अनुकूल चलने के लिए मजबूर कर सकता है और कर रहा है।

अब सरकार जो शहर के किसी एक हिस्से में महीने में एक दिन गाडिय़ां न चलाने, विशेषकर किसी अवकाश के दिन, का नाटक कर रही है उसका क्या असर होनेवाला है? इससे होगा यह कि गाडिय़ां दूसरे रास्तों का इस्तेमाल करने लगेंगी। अगर वाकेई मंशा गंभीर है तो एक पूरे दिन, फिर चाहे वह अवकाश के दिन ही क्यों न हो, पूरे दिन शहर में निजी गाडिय़ों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। पर सरकार के लिए यह भी संभव नहीं है।

सच यह है कि दिल्ली की खरबों रूपये से बन रही मैट्रो ट्रेन दस साल में ही अपर्याप्त साबित होने लगी है।

देखना होगा कि सरकार का अगला कदम इस संकट से बचने का क्या होनेवाला है।

इस बीच मोटरगाडिय़ों के मांग में, गत वर्ष जो कमी आती नजर आ रही थी उसके बढऩे के समाचार आने लगे हैं।



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