जनगणना में जातियों की गिनती के पक्ष में हम क्यों हैं?
देश में 80 साल बाद एक बार फिर से जाति-आधारित जनगणना की संभावना बन रही है। संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण की अंतिम बैठकों में जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समुदायों की तरह अन्य जातियों की भी गणना किये जाने की पुरजोर ढंग से मांग उठी। बहस के दौरान इस पर सदन में लगभग सर्वानुमति सी बन गयी, जिसकी सरकार ने कल्पना तक नहीं की थी। सभी प्रमुख दलों के सांसदों ने माना कि जाति भारतीय समाज की एक ऐसी सच्चाई है, जिससे भागकर या नजरें चुराकर जातिवाद जैसी बुराई का खात्मा नहीं किया जा सकता है। सामाजिक न्याय, एफर्मेटिव एक्शन और सामाजिक समरसता के लिए जाति-समुदायों से जुड़े ठोस आंकड़ों और सही कार्यक्रमों की जरूरत है। यह तभी संभव होगा, जब जनगणना के दौरान जातियों की स्थिति के सही और अद्यतन आंकड़े सामने आएं।
पता नहीं क्यों, ससंद और उसके बाहर सरकार द्वारा इस बाबत दिये सकारात्मक आश्वासन और संकेतों के बाद कुछ लोगों, समूहों और मीडिया के एक हिस्से में जाति-आधारित जनगणना की धारणा का विरोध शुरू हो गया। हम ऐसे लोगों और समूहों के विरोध-आलोचना का निरादर नहीं करते। लोकतंत्र में सबको अपनी आवाज रखने का अधिकार है। पर ऐसे मसलों पर सार्थक बहस होनी चाहिए, ठोस तर्क आने चाहिए। किसी संभावित प्रक्रिया के बारे में जल्दबाजी में निष्कर्ष निकालने और फतवे देने का सिलसिला हमारे लोकतंत्र को मजबूत नहीं करेगा। सरकार पर एकतरफा ढंग से दबाव बनाने की ऐसी कोशिश जनता के व्यापक हिस्से और संसद में उभरी सर्वानुमति का भी निषेध करती है। बहरहाल, हम जाति-आधारित जनगणना पर हर बहस के लिए तैयार हैं। अब तक उठे सवालों की रोशनी में जाति-गणना से जुड़े कुछ उलझे सवालों पर हम संक्षेप में अपनी बात रख रहे हैं -
(1) जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक-समूहों की गिनती हमेशा से होती आ रही है। सन 1931 और उससे पहले की जनगणनाओं में हर जाति-समुदाय की गिनती होती थी। सन 1941 में दूसरे विश्वयुद्ध के चलते भारतीय जनगणना व्यापक पैमाने पर नहीं करायी जा सकी और इस तरह जातियों की व्यापक-गणना का सिलसिला टूट गया। आजादी के बाद भारत सरकार ने तय किया कि अनुसूजित जाति-जनजाति के अलावा अन्य जातियों की गणना न करायी जाए। पिछली जनगणना में भी ऐसा ही हुआ, सिर्फ एससी-एसटी और प्रमुख धार्मिक समुदायों की गणना की गयी थी। पर इसके लिए कोई ठोस तर्क नहीं दिया गया कि अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समूहों की गणना के साथ अन्य जातियों की गिनती कराने में क्या समस्या है। हमें लगता है कि आज संसद में बनी व्यापक सहमति के बाद वह वक्त आ गया है, जब जनगणना के दौरान फिर से सभी जातियों-समुदायों की गिनती करायी जाए। सिर्फ ओबीसी नहीं, अन्य सभी समुदायों को भी इस गणना में शामिल किया जाए। भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय-नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन के सिलसिले में भी जनगणना से उभरी सूचनाएं बेहद कारगर और मददगार साबित होंगी।
(2) समाज को बेहतर, सामाजिक-आर्थिक रूप से उन्नत और खुशहाल बनाने के लिए शासन की तरफ से सामाजिक न्याय, समरसता और एफर्मेटिव-एक्शन की जरूरत पर लगातार बल दिया जा रहा है। ऐसे में सामाजिक समूहों, जातियों और विभिन्न समुदायों के बारे में अद्यतन आंकड़े और अन्य सूचनाएं भी जरूरी हैं। जातियों की स्थिति को भुलाने या उनके मौजूदा सामाजिक-अस्तित्व को इंकार करने से किसी मसले का समाधान नहीं होने वाला है।
(3) कुछेक लोगों और टिप्पणीकारों ने आशंका प्रकट की है कि जाति-गणना से समाज में जातिवाद और समुदायों के बीच परस्पर विद्वेष बढ़ जाएगा। यह आशंका इसलिए निराधार है कि अब तक अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समूहों की गिनती होती आ रही है, पर इस वजह से देश के किसी भी कोने में जातिगत-विद्वेष या धार्मिक-सांप्रदायिक दंगे भड़कने का कोई मामला सामने नहीं आया। जातिवाद और सांप्रदायिक दंगों के लिए अन्य कारण और कारक जिम्मेदार रहे हैं, जिसकी समाजशास्त्रियों, मीडिया और अन्य संस्थानों से जुड़े विशेषज्ञों ने लगातार शिनाख्त की है।
(4) जनगणना की प्रक्रिया और पद्धति पर सवाल उठाते हुए कुछेक क्षेत्रों में सवाल उठाये गये हैं कि आमतौर पर जनगणना में शिक्षक भाग लेते हैं। ऐसे में वे जाति की गणना में गलतियां कर सकते हैं। यह बेहद लचर तर्क है। जनगणना में आमतौर पर जो शिक्षक भाग लेते हैं, वे स्थानीय होते हैं। जाति-समाज के बारे में उनसे बेहतर कौन जानेगा।
(5) कुछेक टिप्पणीकारों ने यह तक कह दिया कि दुनिया के किसी भी विकसित या विकासशील देश में जाति, समुदाय, नस्ल या सामाजिक-धार्मिक समूहों की गणना नहीं की जाती। अब इस अज्ञानता पर क्या कहें। पहली बात तो यह कि भारत जैसी जाति-व्यवस्था दुनिया के अन्य विकसित देशों में नहीं है। पर अलग-अलग ढंग के सामाजिक समूह, एथनिक ग्रुप और धार्मिक भाषाई आधार पर बने जातीय-समूह दुनिया भर में हैं। ज्यादातर देशों की जनगणना में बाकायदा उनकी गिनती की जाती है। अमेरिका की जनगणना में अश्वेत, हिस्पैनिक, नैटिव इंडियन और एशियन जैसे समूहों की गणना की जाती है। विकास कार्यक्रमों के लिए इन आंकड़ों का इस्तेमाल भी किया
जाता है। यूरोप के भी अनेक देशों में ऐसा होता है।
(6) एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि जनगणना तो अब शुरू हो गयी है, ऐसे में जाति की गणना इस बार संभव नहीं हो सकेगी। मीडिया के एक हिस्से में भी इस तरह की बातें कही गयीं। पर इस तरह के तर्क जनगणना संबंधी बुनियादी सूचना के अभाव में या लोगों के बीच भ्रम फैलाने के मकसद से दिये जा रहे हैं। जनगणना कार्यक्रम के मौजूदा दौर में अभी मकानों-भवनों आदि के बारे में सूचना एकत्र की जा रही है। आबादी के स्वरूप और संख्या आदि की गणना तो अगले साल यानी 2011 के पहले तिमाही में पूरी की जानी है। इसके लिए फरवरी-मार्च के बीच का समय तय किया गया है। ऐसे में जाति-गणना की तैयारी के लिए अभी पर्याप्त वक्त है।
(7) जनगणना में अनुसूचित जाति-जनजाति और धार्मिक समुदायों की गणना पहले से होती आ रही है। इस बार से अन्य सभी जातियों, समुदायों और धार्मिक समूहों की गणना हो। इससे जरूरी आंकड़े सामने आएंगे। इन सूचनाओं से समाज को बेहतर, संतुलित और समरस बनाने के प्रयासों को मदद मिलेगी।
(प्रो डी प्रेमपति, मस्तराम कपूर, राजकिशोर, उर्मिलेश, प्रो चमनलाल, नागेंदर शर्मा, जयशंकर गुप्ता, डा निशात कैसर, श्रीकांत और दिलीप मंडल द्वारा जारी आलेख)
Dear Friends, thanks to address the most relevant issue realted to EXCLUSION of SC, St, OBC and Minority Communities along with Underclasses, Slumdogs and refugees.
Bharat Mukti Morcha has launched a Nationwide campaign demanding Headcount of OBC and the JAT AARAKSHAN SANGHARSH SAMITI led by Jaspal Mailik and RR Godara have threatened to stopp Delhi Commonwealth Games for Uniform Resrvation accross the Country and OBC Headcount.
I suuport your Campaign. It would have been better to launch a Petition on which Signatories may be mobilised as well as Register General of India may be addressed. My home was Omitted by the Census team. I wrote an open letter to the President of India and sent copies to media. media underlooked it. However the Census team visited my house one day before the deadline , on 14th May. I got the reply from RGI only yesterday.
Media skipped the much needed Mass Awakening Campaign as it did to polarise caste hindu Vote bank to manipualte Mandate in favour of the Super slave India Incs LPG Mafia Extra Constitutional Government of India. neither the Government cared to Notify areawise. NPR forms did not reach most of the Destination. The scientific Brahaminical Syastem adopting Human and Ideological Face would not allow any Genuine Census as nandan Nilekani has set a Methodology to deprive at least Six Hundred Indian Black Untouchables of theior citizenship.
This Blogging is good but we musrt try otherwise also to address the masses as NET is exclusively used by the Ruligg Class adnResistance Writing is subject to RUDE Censorship as Four of My Blogs have been deleted in tow days , yesterday ONE and Today , Three.
Palash Biswas
http://mohallalive.com/2010/05/22/caste-and-the-census/comment-page-1/#comment-9216
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निरुपमा के जाने के बहुत बाद, जब गुबार थम जाए
दिलीप मंडल ♦ आने वाले दिनों में और कई निरुपमाओं की जान बचानी है तो उस वर्ण व्यवस्था की जड़ों को काटने की जरूरत है, जिसकी अंतर्वस्तु में ही हिंसा है। निरुपमा की हत्या करने वाले आखिर उस वर्ण व्यवस्था की ही तो रक्षा कर रहे थे, जो हिंदू धर्म का मूलाधार है।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया, स्मृति »
रीतेश ♦ अपने एक गुरुजी कहा करते थे कि सच बोलने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि आपको याद रखने की जरूरत नहीं पड़ती कि आपने क्या कहा था और कब कहा था। झूठ बोलने में सबसे बड़ा झंझट है कि आपको हमेशा ये याद रखना होता है कि आपने कब, किससे, क्या कहा था। निरुपमा पाठक हत्याकांड में पाठक परिवार हालांकि सम्मिलित रूप से झूठ बोल रहा है बावजूद इसके निरुपमा के पापा कुछ कहते हैं तो उनकी माता कुछ और। ये उन दोनों के बयान, मुकदमों की कॉपी से भी साबित हो जाता है। वो झूठ इसलिए नहीं बोल रहे हैं कि झूठ बोलना उनकी फितरत है। उनकी दिक्कत ये है कि सच से बचने के लिए वो जो कह रहे हैं, उसे याद नहीं रख पा रहे हैं कि उन्होंने सोमवार को क्या कहा, मंगलवार को क्या कहा या बुधवार को क्या कहा था।
नज़रिया »
अपूर्वानंद ♦ कुछ वक्त पहले झारखंड में जब एक आदिवासी पुलिसकर्मी फ्रांसिस इंदुवार की माओवादियों ने गला काट कर हत्या की, तो उनके समर्थक भी हिल गये। माओवादियों को पहली बार निंदा का सामना करना पडा। निंदा करने वाले हालांकि यह याद नहीं रख पाये कि यह न तो ऐसी पहली घटना थी, न इसमें कुछ अनूठा था। मध्य बिहार और अब झारखंड के इलाकों में न जाने हत्या के इससे भी अधिक वहशतनाक तरीके माओवादियों और क्रांतिकारियों ने अपनाये थे। उन्हें उसी तरह याद नहीं रखा गया जैसे नंदीग्राम के पहले बंगाल और अन्यत्र सीपीएम की क्रूरताओं की चर्चा करना राजनीतिक रूप से उचित नहीं माना जाता था।
मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली »
डेस्क ♦ प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे ने 'निरुपमा को न्याय' अभियान को आश्वासन दिया है कि वे पत्रकार निरुपमा पाठक की हत्या के मामले को संबंधित अधिकारियों के सामने उठाएंगे और इसे सीबीआई को सौंपने की प्रक्रिया तेज करने की कोशिश करेंगे। निरुपमा की मौत पर दुःख और चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि निरुपमा और उसका दोस्त भले ही अलग-अलग जातियों के रहे हों लेकिन वास्तव में, उनकी जाति और समुदाय एक ही – पत्रकार – थी जो कि आज के आधुनिक और वैश्विक होती दुनिया में ज्यादा महत्वपूर्ण है।
मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली »
डेस्क ♦ साहित्य और मीडिया दो ऐसे पड़ोसी देश की तरह हैं जो हमेशा एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। इनकी दुश्मनी पुरानी है। फिर भी साहित्य को मीडिया की जरूरत है। मीडिया को साहित्य की जरूरत है। मशहूर कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने ये बातें मंगलवार को दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर के गुलमोहर सभागार में कहीं। मौका था मोहल्ला लाइव, जनतंत्र और यात्रा बुक्स की साझेदारी में पहले बहसतलब का। मीडिया में साहित्य की खत्म होती जगह पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हमें एक खास तरह के साहित्य को ही साहित्य मानने की मानसिकता से उबरने की जरूरत है। जिस वक्त ऐसा होने लगेगा इस बहस को एक निष्कर्ष मिलता दिखाई देने लगेगा।
मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली »
अविनाश ♦ हमारे लेखकों के दावे हैं कि वह अपने समाज को बेहतर स्कैन कर रहे हैं। हमारी किताबों की हकीकत है कि उनमें हमारा समाज कायदे से अपडेटेड नहीं है। हमारा साहित्य हमारे समाज से ज्यादा सरकारी पुस्तकालयों में मौजूद है। चंद लाइनें लोगों की जिंदगियां ज्यादा बदल रही हैं और हजार शब्द अपने पढ़े जाने के लिए लोगों की फुर्सत का इंतजार करते हैं। लोग कभी खाली नहीं होते। और इस तरह लोगों की जिंदगियां बीतने के साथ ही साहित्य भी अनपढ़ा रह जाता है। इसमें राजनीति है, सिनेमा है, खेल है, अपराध है, यहां तक कि भूत-प्रेत हैं। हमारा समाज इनमें ज्यादा दिलचस्पी लेता है। मीडिया इस दिलचस्पी का सौदा करता है।
नज़रिया »
फेलिक्स पाडेल ♦ अपने सामने उड़ीसा में कलिंगनगर और पोस्को विरोधी आंदोलनों पर क्रूर हमले होते देखना बेहद पीड़ाजनक है। यही कहानी पूरे मध्य आदिवासी भारत में दोहरायी जा रही है। यह पीड़ा सिर्फ इसलिए नहीं है कि औरतें, मर्द और बच्चे अपनी हर चीज को जोखिम में डाल कर अपनी जमीन पर कारपोरेट के कब्जे के खिलाफ एक शानदार एकता और अहिंसा के साथ उठ खड़े हुए हैं, बल्कि इसलिए भी कि पुलिस और गुंडों द्वारा छेड़ी गयी इस राजकीय हिंसा में भविष्य के अत्याचारों की आशंकाएं छिपी हैं और ये कार्रवाइयां माओवादी विद्रोहियों के लिए नये लोगों की भर्ती को सुनिश्चित करेंगीं।
मीडिया मंडी, मोहल्ला रांची, समाचार »
डेस्क ♦ पाठक परिवार चाहे जितना भी खुद को बेदाग़ साबित करने की कोशिश करे लेकिन निरुपमा की मौत से जुड़े परिस्थितिजन्य साक्ष्य चीख चीख कर कह रहे हैं कि उसकी ह्त्या की गयी थी। झारखंड की सरकारी फोरेंसिक प्रयोगशाला की प्राथमिक जांच रिपोर्ट के मुताबिक नीरू की ह्त्या की गयी थी। अंग्रेजी दैनिक "टाइम्स ऑफ इंडिया" ने राज्य पुलिस के सूत्रों के हवाले से बताया है कि पाठक परिवार के दावे के मुताबिक़ जिस पंखे से निरुपमा पाठक की लाश लटकती हुई पायी गयी थी, वह अपने "पर्फेक्ट शेप" यानी वास्तविक आकार में ही है। रिपोर्ट के मुताबिक अगर नीरू ने सचमुच ख़ुदकुशी की होती तो पंखे के ब्लेड और दूसरे पुर्जों को कुछ नुकसान जरूर हुआ होता। यह रिपोर्ट राज्य के पुलिस महानिदेशक को सौंप दी गयी है।
मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली »
डेस्क ♦ क्या हिंदी साहित्य मीडिया के लिए सेलेबल कमॉडिटी (बिकाऊ माल) क्यों नहीं है? इस मसले पर हिंदी की वर्चुअल दुनिया के सबसे पॉपुलर मंच जनतंत्र/मोहल्ला लाइव और पेंगुइन प्रकाशन के हिंदी सहयोगी यात्रा बुक्स के साझा प्रयास से एक सेमिनार का आयोजन किया गया है। 18 मई की शाम सात बजे इंडिया हैबिटैट सेंटर, नयी दिल्ली के गुलमोहर सभागार में आयोजित इस सेमिनार में हिंदी साहित्य और मीडिया के पांच जरूरी नाम सेमिनार में अपनी बात रखेंगे। ये वक्ता होंगे : राजेंद्र यादव, सुधीश पचौरी, ओम थानवी, रवीश कुमार और शीबा असलम फहमी।
नज़रिया »
पशुपति शर्मा ♦ उसने पत्रिका को उलट-पुलट कर देखा और अजीब सी निगाहों से मुझे देखता हुआ सीढ़ियों से उतर गया। गलियारे में मौजूद गार्ड को उसने कुछ कहा। अगले दिन मैं फिर सीढ़ियों पर बैठने लगा तो गार्ड ने मना कर दिया। पता नहीं ये नक्सलवाद पर लेख पढ़ने का असर था या फिर सुरक्षा चौकसी, लेकिन मुझे तपती गर्मी में लू के थपेड़े सहने सीढ़ियां छोड़ प्लेटफार्म पर आना पड़ा। ये तो बस बानगी भर है, अभी सरकार के उस एलान पर पूरी तरह अमल शुरू नहीं हुआ है, जिसमें नक्सलवाद का समर्थन या उसके समर्थक होने की बू मात्र से आप गुनहगार बन जाएंगे, पता नहीं उस दिन पुलिसवाले क्या करेंगे?
मोहल्ला दिल्ली, विश्वविद्यालय, सिनेमा »
डेस्क ♦ दिल्ली के गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान सुरक्षा गार्ड्स ने वीसी की गाड़ी क्या रोक दी, तैश खाये वीसी ने मीडिया स्टडीज के प्रोफेसर को ही कैंपस से निकाल बाहर किया। मास्टर ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन (एमजेएमसी) के छात्रों ने कुलपति प्रो बंद्योपाध्याय के तौर-तरीकों के विरुद्ध कुलाधिपति और दिल्ली के उपराज्यपाल श्री तेजेंद्र खन्ना के सामने आवाज बुलंद की है। छात्रों का विरोध प्रो सक्सेना को गलत तरीके से उनके पद से हटाने को लेकर है। उनका कहना है कि इससे छात्रों का भविष्य अंधकार में डूब गया है।
नज़रिया, मीडिया मंडी, मोहल्ला दिल्ली »
विजय प्रताप ♦ अफसोस यह भी है कि इस वीकेंड प्रोटेस्ट मार्च के आयोजकों में मेरा भी नाम था। लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि कार्यक्रम की रूपरेखा ऐसी होगी। कहने को यह 'विरोध मार्च' था लेकिन इसमें विरोध जैसा कुछ नहीं था। प्रेस क्लब के तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए क्लब के पदाधिकारियों में निश्चित तौर पर एक उत्साह था। क्लब के महासचिव पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ 'बेटी के ब्याह' जैसी तैयारियों में जुटे थे। उनके उत्साह का अंदाजा इन वाक्यों से लगाया जा सकता है, 'जब से यह कार्यक्रम तय हुआ है दिल्ली के सभी बड़े अधिकारी परेशान हैं। फोन कर-करके पूछ रहे हैं कि कितने लोग आएंगे, कहां तक रैली निकालेंगे।'
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