अफसोस कि सरकार भूमाफियाओं के साथ खड़ी है
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 06 || 01 नवंबर से 14 नवंबर 2010:: वर्ष :: 34 :December 24, 2010 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/uttarakhand-government-supporting-land-mafia/
अफसोस कि सरकार भूमाफियाओं के साथ खड़ी है
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 06 || 01 नवंबर से 14 नवंबर 2010:: वर्ष :: 34 :December 24, 2010 पर प्रकाशित
विद्या भूषण रावत
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में प्रदेश सरकार से एक वर्ष के भीतर उधमसिंह नगर के एस्कॉर्ट फार्म की सीलिंग कानून के तहत घोषित की गई 1163.42 एकड़ का नियमानुसार प्रबंधन करने को कहा है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बारिन घोष और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की खंडपीठ ने यह निर्णय नई दिल्ली स्थित स्वैच्छिक संगठन 'सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन' द्वारा दायर की गई जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया। न्यायमूर्ति घोष ने कहा सीलिंग कानून के तहत ली गई जमीन पर सरकार को बताना है कि उसने कितनी जमीन 'जनहित' के लिये इस्तेमाल की है और बाकी बची जमीन पर सरकार ने क्या फैसला किया है। यदि सरकार ने पहले ही ऐसा कोई निर्णय लिया है कि जमीन को भूमिहीन कृषि मजदूरों को वितरित किया जाये तो अतिरिक्त भूमि को धारा 27 (3) (उ.प्र. लैंड सीलिंग एक्ट 1960) और 198 (3) उ.प्र. जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के अनुसार वितरित किया जाये। अगर सरकार ने अतिरिक्त भूमि के वितरण का फैसला अब तक नहीं लिया है तो वह एक वर्ष के भीतर अतिरिक्त जमीन भूमिहीनों को वितरित करे। खंडपीठ ने राज्य सरकार से पूछा कि क्या उसने भूमि के वितरण के संदर्भ में कोई निर्णय लिया है ? क्योंकि जिलाधीश या कलेक्टर को ऐसा निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। उसका काम सरकार के निर्णय को लागू करना मात्र है।
'सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन' ने दलील दी थी कि जमींदारी उन्मूलन और सीलिंग कानून का उद्देश्य सामाजिक न्याय था। भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अनुरूप सामन्तशाही को समाप्त करने और भूमिहीन लोगों को भूमि देने के लिये ये कानून बनाये गये थे, ताकि वे सम्मान के साथ जीवन जी सकें। जमींदारी उन्मूलन अधिनियम और सीलिंग अधिनियम ने लोगों के सम्पत्ति के अधिकार पर अतिक्रमण जरूर किया, परन्तु इसका मुख्य उद्देश्य भूमिहीन, दलित और पिछड़ों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने भी इन कानूनों को स्वीकार किया था। अतः सीलिंग की अतिरिक्त भूमि का प्रबंधन भूमिहीनों, कृषि श्रमिकों, भूमिहीन दलितों, महिलाओं के पक्ष में ही किया जाना चाहिये था, किसी उद्योग के पक्ष में नहीं।
'सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन' की ओर से पैरवी कर रहे सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता विजय कुमार के अनुसार इस निर्णय से अब गेंद राज्य सरकार के पाले में है कि वह कोर्ट को बताये कि उसने इस मामले में क्या किया। राज्य सरकार का अब तक रुख निराशाजनक था। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने भी माना कि राज्य सरकार की तरफ से इस संदर्भ में कोई शपथपत्र या रिजाइंडर नहीं दिया गया। सरकारी वकील के पास इस बात का कोई जवाब ही नहीं था कि क्या सरकार ने इस जमीन के सिलसिले में कोई कार्यवाही की है। जबकि याची ने यह आरोप लगाया था कि सरकार ने इस भूमि के एक बड़े हिस्से को सिडकुल को दे दिया है और बाकी जमीन को भी बहुत ही गलत तरीके से उन लोगों में बाँटा, जिन्होंने एस्काॅर्ट फार्म के साथ मिलकर सीलिंग कानूनों से बचने का प्रयास किया और जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर अतिक्रमणकारी कहा है। लोकायुक्त ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना हुई है, हालाँकि खंडपीठ ने लोकायुक्त की रिपोर्ट पर संज्ञान लेने से इंकार कर दिया।
दरअसल उत्तराखंड सरकार के अधिकारियों ने इस जमीन को मनमाने तरीके से बाँटने का निर्णय 2007 में ही ले लिया था। लोकायुक्त न्यायमूर्ति एस.एच. रजा के पास मैं यह मामला ले गया तो उत्तराखंड सरकार के अधिकारियों ने लोकायुक्त को कोई सहयोग नहीं दिया। वे यह साबित नहीं कर पाये कि 192 लोगों को दिये गये पट्टे विधिवत हंै। 'उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम' की धारा 198 के तहत सरकार प्राथमिकता के आधार पर ही पट्टे दे सकती है। ये प्राथमिकतायें हैं – 1. भूमिहीन विधवा, गैर शादीशुदा पुत्री, ऐसे सैनिक के माता-पिता जो युद्ध में शहीद हुआ हो और सर्कल में रहता हो। 2. ऐसा व्यक्ति जो सेना में दुश्मन से लड़ते हुए विकलांग हुआ हो और उस सर्कल का निवासी हो। 3. भूमिहीन कृषि श्रमिक जो उस सर्कल में रहते हों और अनुसूचित जाति या जनजाति के हों, और अन्य ऐसी ही परिस्थितियों वाले लोग।
सरकार के अधिकारियों ने पट्टे देते समय यह नहीं देखा कि इनमें से कितने लोग गैर कानूनी तरीके से पंजाब से आकर उत्तराखंड में बसे हैं। जिन्होंने फर्जी तरीके से सीलिंग कानूनों की धज्जियाँ उड़ायीं, उन्हीं को कानूनी तरीके से जमीनें दे दीं। यह निर्णय नारायण दत्त तिवारी सरकार का है। उस इलाके में 1950 से रह रहे लगभग 150 दलितों की लड़ाई को मैंने पिछले 15 वर्षों से बहुत नजदीक से देखा है। उन्होंने एक बंजर क्षेत्र को इस उम्मीद से उपजाऊ बनाया कि एक दिन जमीन का कुछ हिस्सा उनके नाम होगा। लेकिन राजनैतिक पार्टियों के दलित विरोधी एजेंडे ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। मैंने अपनी आँखों के सामने बहुत सारे बुजुर्गों को प्राण गँवाते देखा, जिन्हें अम्बेडकर के संविधान पर पूर्ण भरोसा था, मगर जिनकी चुनी हुई सरकार उनसे धोखाधड़ी करती रहीं। उत्तराखंड के जन प्रतिनिधियों को समझना होगा कि यहाँ के मूल निवासी भूमिहीन होकर भी शांत केवल इसलिये हैं, क्योंकि वे दबे हुए हैं। थारू और बोक्साओं की सारी जमीनों पर दूसरों का कब्जा है, क्या हमारी सरकारें यह नहीं जानतीं ? अगर पंजाब से आये लोग बिना कागजों पत्रों के तराई की जमीन हथिया सकते हैं तो उत्तराखंड के मूल निवासी वहाँ क्यों नहीं रह सकते ?
रही बात सिडकुल को 'जनहित' में जमीनें देने की। सवाल यह है कि जनहित क्या है? क्या उद्योग जनहित हैं ? कितने स्थानीय नागरिक इन उद्योगों से लाभ लेंगे ? आज उत्तराखंड में कई गाँवों को बसाया जाना है। हाल की वर्षा से ही बहुत सारे लोग अपनी जमीनों से उजड़ चुके हैं। क्या सरकार के पास इनके पुनर्वास के लिये कोई योजना है ? इस क्षेत्र में ही हजारों भूमिहीन लोग हैं। जब लोगों के रहने और खेती के लिये जमीनें नहीं हैं, तो इन तथाकथित उद्योगों से कौन सा तीर मार लिया जायेगा ? उपजाऊ कृषि भूमि को माफियाओं के हाथ में देकर हमारे नेता और अफसर कौन सा उत्तराखंड बनाना चाहते हैं ?
बहरहाल, उत्तराखंड सरकार को माननीय न्यायालय के सामने एक साल के भीतर अपने आप को पाक-साफ साबित करना है। देखें, अब वह कौन से झूठ गढ़ कर ऐसा कर पाती है।
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