चम्बा एक दिन चमन बनेगा . 1
लेखक : योगेश चन्द्र बहुगुणा :: अंक: 03 || 15 सितंबर से 30 सितंबर 2011:: वर्ष :: 35 :October 2, 2011 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/chamba-a-small-hill-paradise-for-tourists-1/
चम्बा एक दिन चमन बनेगा . 1
लेखक : योगेश चन्द्र बहुगुणा :: अंक: 03 || 15 सितंबर से 30 सितंबर 2011:: वर्ष :: 35 :October 2, 2011 पर प्रकाशित
चम्बा के नाम से पहचाना जाने वाला स्थान दो भागों में बँटा है- मथल्या (अपर चम्बा), ब्यल्या (लोअर चम्बा)। मथल्या चम्बा ऋषिकेश टिहरी हाइवे पर ऋषिकेश से 70 किमी. की दूरी पर 5300 फीट की ऊँचाई पर बसा एक छोटा सा कस्बा है। वहाँ से मसूरी, टिहरी, नई टिहरी और राणीचैंरी के लिये मोटर मार्ग है। चौराहे के सामने एक ओर विक्टोरिया क्रॉस विजेता गब्बर सिंह का स्मारक है। सन् 1895 में चम्बा के पास मंज्यूड़ गाँव में जन्मे गब्बर सिंह सन् 1913 में गढ़वाल रेजिमेन्ट की 2/49 वीं बटालियन में राइफलमैन के रूप में भर्ती हुए थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी सेना का मुकाबला करने के लिये गब्बर सिंह को दूसरी बटालियन के साथ यूरोप भेज दिया गया। दोनों सेनाओं के सैनिक जब इतने नजदीक आ गये कि गोलियाँ चलाना संभव नहीं रहा। तब गुत्थमगुत्था की लड़ाई शुरू हो गई। एक जर्मन सैनिक मोर्चे पर ब्रेनगन से गोलियाँ बरसा रहा था। उसका मुँह बंद करना आवश्यक था। वीर गब्बर सिंह ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए ब्रेनगन तक पहुँच कर उसका रुख पलट दिया, जिससे फायर उल्टे जर्मन सैनिकों पर होने लगी, जिसके परिणामस्वरूप जर्मन सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा। न्यू चैपल के मोर्चे पर 350 जर्मन सैनिकों तथा सैन्य अधिकारियों को कैद करके जब गब्बर सिंह ब्रिटिश खेमे में लौट रहे थे तो वे भी वीरगति को प्राप्त हो गये। उन्हें ब्रिटिश भारत की सरकार द्वारा विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
प्रतिवर्ष 8 गते वैशाख को उनकी स्मृति में यहाँ पर मेला लगता है और गढ़वाल रेजिमेन्ट सेंटर लैंसडॉन से आकर प्रति वर्ष वीर गब्बर सिंह के स्मारक पर उस दिन सलामी दी जाती है। मेरी स्मृति में वह दिन अब भी ताजा है जब एक बार जनरल के. एम. करिअप्पा भी यहाँ पर आये थे और स्मारक पर जाकर सलामी दी थी। तब चम्बा छोटी सी जगह थी। दिखोल गाँव के सुरजू का चाय का होटल, पकोड़ा की दुकान में नमकीन सेल व आलू बेसन की पकोडि़यों से सजे थाल, ऊपर से भुनी हुई लाल मिर्च-तेल में भुने जाने से जिसका लाल रंग कालेपन में बदल जाता था- बादशाही थौल की ओर जाती पैदल सड़क पर ढरसाल गाँव के बिस्सू लाला की गल्ले की दुकान जिसे डुंडालाला की दुकान के नाम से भी जाना जाता था। इस दुकान की भारी चलत थी। सामान तुलनात्मक रूप से सस्ते दामों पर मिल जाता था। लोगों का विश्वास था कि वह तोल में 'डंडी' नहीं मारता है।
जौनपुर वाले सुनार की एकमात्र ज्वेलरी की दुकान थी, जहाँ पर खास ढंग से गढ़त की गई प्रसिद्ध सोने की नथ 'टिहरी की नथ' बनाई जाती थी। उस समय के चम्बा के जीते-जागते अनुभवों का गाँधी जी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन (मेडेलीन स्लेड) ने अपने संस्मरणों में रोचक वर्णन किया है। उन्हें आपके लिये प्रस्तुत करने का लोभ मैं रोक नहीं पा रहा हूँ -
''हम अब चम्बा खाल पहुँच चुके थे जो 3,500 फुट की ऊँचाई पर बसा है। वहाँ घाटी से आने वाली ठंडी गीली हवा बह रही थी। चम्बा खाल में रेस्ट हाउस न होने का कारण यही था कि उस जंगल को वन विभाग ने भाड़े (लीज) पर दे दिया था। कलेक्टर को इसकी सूचना नहीं दी गयी थी, इसलिये उन्होंने सब कुछ ठीक मानकर हमें वहाँ रहने की इजाजत दे दी थी। चम्बा खाल कस्बा नहीं है, गाँव भी नहीं है। वहाँ एक डाकखाना, एक स्कूल और कुछ बिखरे हुए घर हैं। हमारे पहुँचते ही वहाँ के लोग हमारे पास इकट्ठे हो गये। कई तरह के सुझाव दिये गये और ठहरने के स्थान की खोज की गई। शाम होने को आई थी लेकिन रात के ठहरने के लिये कोई स्थान नहीं मिल रहा था। आखिरकार किसी ने एक छोटे मकान की चाबी हमें दी। उसमें एक रहने लायक कमरा और शाम का भोजन बनाने के लिये एक चूल्हा हमें मिला। लेकिन कमरा इतना बड़ा नहीं था कि उसमें सारी पार्टी सामान के साथ रह सके। इसलिये मैंने कहा कि मैं ट्रक की अगली सीट पर सो रहूँगी। भवानी सिंह और बिशन दोनों ट्रक के पिछले हिस्से में सोये। रात को काफी ठंड और हवा थी इसलिये सवेरे तक हम सब थोड़े से गीले हो गये और सवेरा होते ही नई मुसीबत आई। पाखाने तो वहाँ थे ही नहीं, कहीं कोई पेड़ या झाड़ी भी नहीं थी जिसकी आड़ में बैठा जा सके। बरसते पानी में कीचड़ पार कर टिहरी की सड़क पर लगभग एक मील नीचे मैं गई तब कहीं मुझे सुविधाजनक जगह मिली। ''चम्बाखाल वासियों ने जल्दी से हमारे लिये जो कुछ वे कर सकते थे किया और पास ही के गाँव के कुछ मित्रों ने चम्बाखाल और अपने घरों के बीच एक भैंसशाला (स्थानीय भाषा में इसे 'छानि' कहते हैं) में हमारे लिये दो कमरों का प्रबंध कर दिया। जब हम वहाँ पहुँचे तो पशुपालक/चरवाहा घास लाने के लिये बाहर गया हुआ था। तुरन्त शाम को वापस आने पर जब उसने मुझे अपनी रसोई में देखा तो उसके गुस्से का वारपार नहीं रहा। सुस्त चाल से चलने वाली गाय भैंसें भी उसी समय उसके गुस्से का स्वाद चखने के लिये जंगल से आई और उसके इस अजनबी व्यवहार को देखकर घबरा गयीं। वे सहमी हुई लाल आँखों से उसकी ओर देखने लगीं। यदि मैं वहाँ पर न होती तो निश्चयपूर्वक कह सकती हूँ कि हमारा सारा सामान पहाड़ी से नीचे फेंक दिया जाता और रसोई घर से सभी को धक्के मारकर बाहर निकाल दिया जाता। धीरे-धीरे उसका क्रोध शांत हुआ। उसकी चारपाई उसे दे दी गई तथा रसोई घर का उसका सामान दूसरे कमरे में लगा दिया गया।'
''अब हम अपने नये घर का निरीक्षण करने लगे। इस बात से हमें सांत्वना मिली की छत टपक नहीं रही थी परन्तु स्थान बहुत कम था। छोटे से एक ही कमरे में सामान का ढेर लग गया तथा खाना बनाने के लिये बहुत ही कम स्थान बचा। भैंस, जैसा कि हमने अनुमान लगाया था, दिन भर भीतर ही बँधी रहती थी परन्तु रात में उन्हें खुले में हमारे कमरों के बाहर बाँधा जाता था। सम्भवतः यह उनकी दिनचर्या का एक भाग ही था, जिसमें हमने कोई दखलंदाजी नहीं की। गाँव से मेरे लिये एक चारपाई लाई गयी थी परन्तु साथ के अन्य साथियों के लिये सीलनयुक्त फर्श पर सोने के सिवा और कोई चारा नहीं था। बिशन और ब्रह्मचारी जी ने तो अपने सोने के लिये मेरी चारपाई तथा सामान के ढेर के बीच में स्थान बना लिया था, जबकि स्वामी जी और भवानी सिंह ने किसी तरह अपने सोने का प्रबंध रसोई घर में किया। अभी कुछ आराम मिलने पर नींद आने ही वाली थी कि पिस्सू मेरे शरीर पर रेंगने शुरू हो गये। सारी रात वे मेरे शरीर पर रेंगते रहे और काटते ही रहे। जो व्यक्ति जमीन पर सोये हुए थे उनकी भी वही दशा हो रही थी, क्योंकि मैं उनके कुलबुलाने और खुजलाने की आवाज सुनती रही। सुबह जब हमने इस पर चर्चा की तो पाया कि वे दो जो रसोई घर में सोये थे हमारी ही तरह परेशान रहे। यह सब उन भैंसों के कारण हुआ। मुझे नहीं मालूम था कि भैंस पिस्सुओं को अपने शरीर में आश्रय देती हैं। परन्तु अब समझ गयी हूँ। कभी नहीं भूलूँगी।''
लोअर चम्बा में इस इलाके का एकमात्र हाई स्कूल था जहाँ पैदल चलकर दूर-दूर से छात्र पढ़ाई के लिये आया करते थे। छात्रायें गिनती की थीं। शायद दो-चार की संख्या तक। स्यूटा गाँव के लोगों ने अपने गाँव की पंचायती जमीन स्कूल की स्थापना के लिये दान में दी थी। स्कूल का संचालन निजी प्रबंधतंत्र द्वारा किया जाता था। सुमन की शहादत के बाद स्कूल के नाम के आगे श्रीदेव सुमन का नाम जोड़कर श्रीदेव सुमन हायर सेकेन्ड्री स्कूल कर दिया गया था। हरिशरण डोभाल समिति के अध्यक्ष बने और सांबली गाँव के तारादत्त बहुगुणा सचिव। तारादत्त भाई जी पुरोहितगिरी और सयाणाचारी करते थे। रिंगाल से बनी या होल्डर की निब पर कत्त काटकर बनायी गयी कलम से लिखी उनकी लिखावट छापे के अक्षरों को चुनौती देती सी लगती। कुछ आकर्षक गोलाई लिये उभरे अक्षर आँखों और मन को मोह लेते थे। सयाणाचारी की व्यवस्था समाप्त होने के बाद वे भारतीय संविधान के अन्तर्गत स्थापित ग्राम पंचायत के प्रधान पद पर भी आसीन रहे। मेरे बाबाजी की तरह वे भी ज्योतिष गणना के जानकार विद्वान थे। बाबाजी ने एक दिन मेरी जन्मपत्री उनको दिखाई। गणना करके उन्होंने बताया कि इनका तो राजयोग है, किसी अच्छे शासकीय पद का दायित्व संभालेंगे। परन्तु अफसोस ! मैं कहीं चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी भी नहीं बन पाया।
ग्रामीण परिवेश की पढ़ाई पूरी करने के बाद चम्बा के स्कूल में प्रवेश किया तो एक बदले नये परिवेश में अपने को पाया। अलग-अलग विषय पढ़ाने के लिये अलग-अलग अध्यापक, कक्षाओं को व्यवस्थित करने के लिये समय विभाग चक्र, निर्धारित शुल्क का मासिक भुगतान, बरा बेगार और मास्टर जी की निजी सेवा से मुक्ति। पन्द्रह बीस मील के दायरे में यह इकलौता हाईस्कूल था, अतः दूर-दूर के गाँवों से छात्र शिक्षा ग्रहण करने यहाँ आते। गर्मियों के दिनों में प्रातः 7 से दोपहर 12 बजे और जाड़ों में प्रातः 10 बजे से सायं 4 बजे तक कक्षायें चलतीं। भौगोलिक दूरी के कारण जिन गाँवों से हर रोज स्कूल आना संभव नहीं था वहाँ छात्र कमरा किराये पर लेकर अपनी पढ़ाई जारी रखने का प्रयत्न करते।
कई-कई गाँवों से छात्र पढ़ाई के लिये जुटते, इसलिये सम्पर्कों का दायरा बढ़ने लगा। पहले अगल-बगल में अपने ही गाँव के परिचित चेहरे दिखाई देते थे, अब अपरिचित चेहरों से भी परिचय होने लगा। सामाजिकता ने विस्तार पाया। इधर पढ़ाई के साथ नये खेलों से भी साक्षात्कार हुआ। विद्यालय परिसर से सटा एक बड़ा सा खेल का मैदान भी था। श्रमदान की घंटी में छात्रों के श्रम से इसको समतल करने व चौड़ा बनाने का काम भी सतत चलता रहा। प्रातःकालीन प्रार्थना में कक्षावार लाइन लगाकर प्रार्थना करना, कक्षाध्यापकों द्वारा छात्रों के रोल नम्बर या नाम पुकार कर उपस्थिति पंजिका में उपस्थिति-अनुपस्थिति दर्ज करना, प्रधानाचार्य द्वारा आवश्यक सूचनायें व निर्देश, समय-समय पर सुविधानुसार वॉलीबॉल, फुटबॉल और हॉकी के खेलों का अभ्यास व आयोजन, 15 अगस्त तथा 26 जनवरी के राष्ट्रीय समारोह इसी क्रीड़ांगण में सम्पन्न कराये जाते। स्कूल से थोड़ी दूर पर स्यूँटा गाँव के लोगों ने ही एक और बड़ा सा भूखंड उपयोग के लिये दे रखा था। यह पूरा समतल न होकर हल्का सा ढालदार था और फुटबाल के खेल का अभ्यास यहीं पर किया जाता। खेलों में अध्यापकों की भी भागेदारी होती। जनार्दन बंदाणी हॉकी के जादूगर थे। गेंद एक बार उनके पास फँस गई तो फिर उनसे छीन पाने में दूसरे खिलाड़ी हाँफने लगते थे। वे सेंटर में खेलते थे और चक्करघिन्नी की तरह गेंद को घुमाते हुए दौड़ लगाते थे। बंधाणी जी ने मसूरी में अंग्रेजी माध्यम के किसी स्कूल में शिक्षा पाई थी और अंग्रेजी के अध्यापक के पद पर उनकी नियुक्ति हुई थी। शिक्षण की दुनिया में खेलों को किताबी ज्ञान से कम महत्व का आँका गया है। खेलों से छात्र-छात्राओं के व्यक्तित्व के कई गुणों का प्रस्फुटन और विकास होता है, इस तथ्य को शिक्षक और माँ-बाप कभी गंभीरता से नहीं लेते। 'पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब' की उक्ति से लोक मानस अभी भी मुक्ति नहीं पा सका है। क्रिकेट खिलाड़ी धोनी की बोली भले ही 6 करोड़ में लग चुकी हो, फिर भी कितने माँ-बाप अपने बच्चों को खेलों की दुनिया में उतारना चाहते हैं ?
हमारे गाँव से चम्बा स्कूल 6 मील की दूरी पर था। घर से स्कूल पैदल जाना, स्कूल से घर पैदल आना होता था। नई आजादी का सूरज उग आया था। उन दिनों चारों ओर उल्लास और उत्साह की हवा बह रही थी। क्या गाँव और क्या स्कूल सब जगह जीवन हिलोरें ले रहा था। हमारे गाँव में मुड्यागाँव से राणीचैंरी तक छः फुट मार्ग श्रमदान द्वारा बनाया गया। आगे-आगे पंचायती राज के पहले प्रधान पंडित मोहन लाल जी छः फुट की डंडी हाथ में लेकर चलते, पीछे-पीछे ढोल नगाड़ों के साथ गैंती फावड़े लेकर गाँववासी। किसी का रास्ते पर अतिक्रमण किया होता तो तत्काल वहीं पर समाधान और जब बहुगुणाओं की कुल देवी पुण्डयासिणी के मंदिर से लगी पंचायती जमीन पर सेव का सामूहिक बगीचा लगाया गया तो कोई गड्ढे खोद रहा है, कोई सड़क से उठाकर कंटीले तार पहुँचा रहा है। गाँव की सामूहिक शक्ति जगानी हो तो श्रमदान में उसका उत्कृष्ट स्वरूप दिखाई देता है। सड़कें बनतीं तो स्कूल की ओर से हमें भी श्रमदान के लिये भेजा जाता। शिक्षा का प्रचार करना है तो जागरूकता पैदा करने के लिये छात्रों-शिक्षकों की टोलियाँ गाँवों में भेजी जा रही है। हमारे स्कूल के पास जमीन का बड़ा रकबा है। उस पर गड्ढे बनाकर सेव के बगीचे का विकास, ढालदार भूमि को खोद कर खेल का मैदान बनाना, दीवार बन्दी के लिये पत्थर खोदकर और ढोकर लाना ये सारे काम छात्रों से श्रमदान में कराये जाते थे। कलम और कुदाल दोनों जीवन का श्रृंगार करने में एक-दूसरे के पूरक। लगता था एक नया भारत जन्म ले रहा है, एक नया अरुणोदय होने को है।
बीर गबरसिंह के नाम पर प्रतिवर्ष आठ गते वैशाख को चम्बा में लगने वाले 'थौल' (मेला) के अवसर पर विकास के मुद्दों को लेकर हमारे स्कूल के छात्र-छात्राओं द्वारा 'कैम्प फायर' किये जाते व जागरण गीतों के सामूहिक गान गाये जाते। कुछ लड़के रेडक्रॉस के स्वयंसेवक का दायित्व संभाले हुए होते। मंच पर उस जमाने के धुरन्धर नेताओं के भाषण होते। उनमें सबसे जोशीला भाषण जड़धार गाँव के भगत कृपाल सिंह का होता। रोबीला चेहरा, कंधों तक झूलते घुँघराले बाल, राजपूती मूँछें, खादी का चूड़ीदार पायजामा कुर्ता- जवाहरकट पहने माइक पर अपनी जोशीली आवाज में वे दहाड़ते ''भुला भुल्यौं डाला लगा डाला, भिमल का डाला लगा, दाँवा जूड़ा बटण तै सेलु मिललु, आग जगौण क केड़ा मिलला, मुंड धोण के अठालू मिललु, दुधालि भैंसी तै हरयूँ घास मिललो। खाडु पाला खाडु, गरम कपड़ा पैरनक ऊन मिलेगी। (भीमल प्रजाति के पेड़ लगाइये, उससे दुधारु भैंसों को हरा चारा मिलेगा, जलाने की लकड़ी मिलेगी, रस्सियाँ बनाने के लिये रेशा और बालों की सफाई के लिये उसकी छाल का शैंपू मिलेगा। भेड़ पालिये, गर्म कपड़े बनाने के लिये ऊन मिलेगी)। तब तक न चिपको आंदोलन था, न वन बचाओ, न रक्षा सूत्र। वह पहाड़ के स्थाई विकास के लिये 'पेड़ और भेड़' की बात करने वाला एक आम जन था। बाद में तो इस नारे को कई राजनैतिक दलों ने हथिया लिया।
भगत कृपाल सिंह धरातल से जुड़े ग्राम नेता तो थे ही वे कई प्रकार के चमत्कारों के खजाने भी थे। एक बार उन्होंने हमारे स्कूल में अपने चमत्कारों का प्रदर्शन भी किया। चार इंच की मोटी सरिया आँख के दबाव से ही मोड़ दी, एक मन का पत्थर अपनी छाती पर रखकर घन से तुड़वाया फिर भी हड्डी-पसली सही सलामत रही। इस प्रकार के प्रदर्शनों के पीछे के कार्य संबंधों की जानकारी के अभाव में दर्शक इन्हें चमत्कार मान लेता है, परन्तु इनके कर्ता पर्याप्त साधना और अभ्यास के बाद ही इस तरह की क्षमताओं का विकास कर पाते हैं।
ब्रिटेन के प्रख्यात पत्रकार पॉल ब्रेनटन ने- जो सच्चे योगी की तलाश में भारत भ्रमण पर आये थे, अपनी पुस्तक 'सर्च इन सीक्रेट इंडिया' में इस तरह के कई उदाहरण दिये हैं जब कि ब्रह्मयोगी ने अपनी नाडि़यों की गति, दिल की धड़कन और श्वास का आवागमन कई मिनटों तक रोक दिया था। हठयोग के आसन, प्राणायाम, धारणा द्वारा किस तरह शरीर के विभिन्न अवयवों को अपने वश में करके उनसे इच्छित कार्य करवाया जा सकता है, इसका विस्तृत स्पष्टीकरण किया है। एक योगी ने तो प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर सी. वी. रमन की उपस्थिति में गंधक के तेजाब की बोतल, तेज कार्बोलिक तेजाब और खतरनाक जहर पोटेशियम साइनाइड तक को चाट/निगल लिया था और उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ। वह योगी घर लौटकर तीव्र ध्यान और समाधि के द्वारा जहर के प्रभाव को मिट्टी में मिला देता था। स्थानीय लोग बताते थे कि भगत कृपाल सिंह भी घंटों आसन-प्राणायाम का अभ्यास किया करता जिससे उसने यह शक्ति अर्जित की थी। रौबीली मूँछें और मजबूत काठी के भगत जी ने अपने गाँव के निकट नागणी में ऊँन की पंखियाँ और बेंडी बुनने के लिये कई वर्षों तक खड्डियों पर काम करवाया। वे 'बाक' भी बोलते थे। तंत्र-मंत्र में भी उन्होंने पैंठ बना ली थी। आदमियों पर से भूत-प्रेतों का कब्जा छुड़वाने के लिये दूर-दूर के गाँवों से लोग उन्हें बुलाने आते।
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