चम्बा एक दिन चमन बनेगा . 2
लेखक : योगेश चन्द्र बहुगुणा :: अंक: 04 || 01 अक्टूबर से 14 अक्टूबर 2011:: वर्ष :: 35 :October 16, 2011 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/chamba-a-small-hill-paradise-for-tourists-2/
चम्बा एक दिन चमन बनेगा . 2
लेखक : योगेश चन्द्र बहुगुणा :: अंक: 04 || 01 अक्टूबर से 14 अक्टूबर 2011:: वर्ष :: 35 :October 16, 2011 पर प्रकाशित
उन्हीं दिनों अपर चम्बा से श्रमदान द्वारा एक सड़क हड़म गाँव की ओर बनाई जा रही थी। हमारे स्कूल के छात्र भी टोलियाँ बनाकर इस सड़क पर श्रमदान करने आते। बीच में लड़कियों का एक स्कूल पड़ता था। वहाँ की छात्रायें भी टोली बनाकर आतीं। किशोर वय का तकाजा। छात्र छात्राओं की ओर ताक-झाँक करने से बाज नहीं आते। एक दिन प्रधानाचार्य आर्यानन्द जी घिल्डियाल ने स्थिति को भाँप लिया। मनोविज्ञान में उनकी पैठ थी। सब छात्रों को उन्होंने अपने पास बुलाया और प्यार से कहा, ''ताक-झाँक मत किया करो, डोन्ट पीप। यह असभ्यता है। बात करने की इच्छा हो तो सीधे जाकर बात करो।''
शिक्षा के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिये शिक्षकों-छात्रों की एक टोली का कार्यक्रम हमारे गाँव में भी बना। डॉ. महावीर प्रसाद लखेड़ा इस टीम का नेतृत्व कर रहे थे। एक आँख से वे 'सेड़े' (तिरछी आँख वाले) थे। दृष्टि भी कुछ कमजोर थी। किन्तु संस्कृत-हिन्दी के उद्भव विद्वान थे। बहुत थोड़े समय के लिये वे चम्बा स्कूल में रहे। उसके बाद ख्यातिप्राप्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने चले गये।
ग्रामवासी पंचायती चौक में एकत्रित हुए। पहले अनौपचारिक बात चली। मेरे एक चाचाजी थे दयानन्द जी। बिल्कुल निरक्षर, अनपढ़ परन्तु वाक्चातुर्य में उनका कोई मुकाबला नहीं था। हँसने-हँसाने में बेजोड़। गाँव के कौ कार्ज (शादी-ब्याह) में उनकी उपस्थिति से रौनक आ जाती थी। चारों ओर हँसी के फव्वारे। नृत्यकला में भी चाचाजी लाजवाब थे। कार्तिक महीने की दीवाली की रातों में इसी पंचायती चौक में जब 'मंडाण' (नृत्योत्सव) लगता, झोपडि़याँ बाजगी की 'लाँकुड़ी' की टंकार ढोल पर पड़ती तो 'मंडाण' में कूदने से चाचाजी को कौन रोक सकता था ? सफेद चूड़ीदार पायजामा, सफेद अचकन, सफेद ही दुपट्टा कंधे में झूलता हुआ, सिर पर सफेद पगड़ी पहने हुए किसी गंधर्व से वे चौक में अवतरित हो जाते। झोपड्या ढोल पर 'जौनपुरी राँसा' बजाता और चाचाजी ढोल का 'कसणा' (डोरी) पकड़े कमर, गर्दन और पाँवों में लचक देते, कभी रंगीले रूमाल को तर्जनी पर मध्यमा के बीच फँसाकर दिशा-दिशाओं में नृत्य करते तो एक अलग ही समाँ बंध जाता था। जितने भी 'नचाड़' हमारे गाँव में थे चाचाजी उनके सिरमौर थे।
अनौपचारिक बातचीत औपचारिक मीटिंग की ओर बढ़ी। अपनी वाक् कला से चाचाजी टोली के सदस्यों पर अपना सिक्का जमा चुके थे। डॉ. लखेड़ा ने कहा ''अब मैं श्री दयानन्द बहुगुणा जी से निवेदन करूँगा कि वे शिक्षा पर अपने विचार सबके सामने प्रस्तुत करें।'' चाचाजी थोड़ा असमंजस में पड़े, थोड़ा ठिठके। फिर बैठे-बैठे ही अपना वक्तव्य दे डाला, ''भई लिखना पढ़ना तो मुझे नहीं आता। हाँ, गप्पें तुम जितना चाहो लगवा लो।'' बस, चारों ओर हँसी की खिलखिलाहट बिखर गई।
चम्बा स्कूल की बात चले और प्रधानाचार्य दयाराम मोहन का स्मरण न हो यह कैसे संभव हो सकता है ? वे पंजाब के रहने वाले थे। सम्भवतः शरणार्थी बनकर भारत आये थे। एक साल यहाँ पर रहे। आते ही उन्होंने स्कूल का नये सिरे से श्रृंगार करना आरम्भ कर दिया। गोरा लम्बा चेहरा, मजबूत लम्बी कद-काठी, सफेद धारीदार नीले रंग का कोट-पैंट, सिर पर पंजाबी ठाठ की पगड़ी बाँधे प्रतिदिन प्रार्थना के समय समस्त स्टाफ के साथ हाजिर होते, छात्रों से उनकी समस्याओं पर चर्चा करते। कभी अन्दर छुपा वात्सल्य छलछला उठता। सवाल करते, ''आज नाश्ता कौन-कौन करके नहीं आये हैं ?'' कुछ हाथ इधर से उठते। उनका हाथ अपने कोट की अंदर की जेब में जाता, बटुआ बाहर निकालते और जितने रुपये उसमें होते उनके नाश्ते के लिये दे डालते। माँ की ममता चारों ओर तारी हो जाती। एक पगले हिन्दू द्वारा 30 जनवरी को की गई गांधी हत्या का समाचार उन्होंने 31 जनवरी की सुबह प्रातःकालीन प्रार्थना के समय सुनाया और देर तक फफक कर रोते रहे। उसके बाद पूरे दिन की छुट्टी कर दी गयी।
स्कूल को व्यवस्थित व संगठित करने के उनके अपने तरीके थे। विद्यालय परिसर में इधर-उधर आने जाने के लिये छोटे-छोटे गोल पत्थरों से उन्होंने लाइनिंग कर दी थी और उन लाइनों को चूने से पुतवा दिया था। छात्रों को सख्त हिदायतें थीं कि वे इन लाइनों के बीच में ही चला करें, अराजक झुंडों की तरह न घूमें। एक ढालदार जगह पर छोटे नुकीले गोल-गोल पत्थरों को तरह-तरह का रंग देकर शिक्षकों व छात्रों की भागीदारी से भारतवर्ष का नक्शा बनवा दिया। शीर्ष पर नन्दादेवी, नन्दाघुंटी, चैखम्बा, गौरीशंकर के हिमधवल शिखर, भारत माँ के चरणों को पखारता गहरा नीला हिन्द महासागर, बीच-बीच में हरे-भरे प्रदेश, सदाबहार गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी जीवनदायिनी नदियाँ, दक्षिण के पठार, केरल के आसमान छूते नारियल व ताड़ के वृक्ष। सब कुछ मनमोहक। पूरा भारत आँखों के सामने। दृश्य साधनों से शिक्षण की एक दृष्टि, नई पद्धति, हेड, हार्ट और हैन्ड्स की रचनात्मक शक्तियों का एक साथ विेकास। क्या-क्या तो नहीं था उनके सपनों में! थोड़े ही समय में उन्होने सबका मन मोह लिया था। छात्रों अध्यापकों के वे श्रद्धा के पात्र बन गये थे। स्थानीय जनता के दिलों में उन्होने गहरी पैठ बना ली थी। परन्तु वे ज्यादा दिनों यहाँ नही रह पाये। उम्र के हाथों उन्हें अवकाश लेना पड़ा। अपने प्यारे छात्रों से उन्हे विदाई लेनी पड़ी। विदाई समारोह में सबके दिल भरे हुए और आँखें नम थीं।
एक अन्य शिक्षक थे जिनके व्यक्तित्व की छाप जीवन के संध्याकाल में भी मेरा पीछा नही छोड़ रही है- वे थे श्री परमानन्द शास्त्री। वे बनारस से शास्त्री की पढ़ाई करके आये थे- चेहरा सौम्य, गंभीर, हर समय मुस्कुराता हुआ। कभी धोती कमीज तो कभी पैंट-शर्ट पहने वे विघालय में आते। कक्षा में प्रवेश करते तो सारे वातावरण मैं एक गंभीर मौन पसर जाता-पिन ड्रॉप साइलेंस। उनका पढ़ाने का तरीका अद्भुत था। ज्ञान के भंडार थे वे। उनकी विद्वता के प्रभामंडल ने कक्षा में स्वतःस्फूर्त अनुशासन को जन्म दिया था। सूर, तुलसी, बिहारी की चौपाइयों के कितने-कितने अर्थ, कितनी-कितनी तो व्याख्यायें करते थे वे!
उनका छोटा भाई सतीश भी उनके साथ रहते हुए यहीं पढ़ता था। पढ़ने के प्रति उदासीन, गैर जिम्मेदार। वार्षिक परीक्षा में उनके ही विषय में फेल हुआ। साथी अध्यापकों ने बहुत प्रयत्न किया कि कृपांक देकर उसे पास करवा लें, परन्तु किसी कि न चली। मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा। शास्त्री जी और मेरे बाबाजी बनारस मैं एक साथ पढ़े थे। फिर मैं पढ़ाई में कुछ ठीकठाक था, इसलिये कुछ अतिरिक्त प्यार का पात्र बन गया था। मुझे यज्ञेश्वर कहकर बुलाया करते थे।
चम्बा की बात करता हूँ तो दयाराम भाई का चेहरा नजरों के सामने घूम जाता है। वे हमारे गाँव से थे। साँवला चेहरा, सिर के बाल बीच से उड़े हुए, कुछ-कुछ खल्वाट जैसे परन्तु 'कपि खल्वाट निर्धनः' का फार्मूला उन पर लागू नहीं होता था। घुटनों तक की एक गन्दी सी धोती, वैसा ही कुर्ता सदरी। लोअर चम्बा में उनका चाय का छोटा सा होटल था। चूल्हे में बाँज की लकड़ी का 'खुंड' (लकड़ी का बेडौल टुकड़ा) जलता रहता और उसके ऊपर काली कलूटी चाय की केतली। थाल पर कभी-कभी जलेबी, आलू की पकोड़ी और छोले। सब कुछ खुला और बेपर्द। मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं, फिर भी दयाराम भाई की केतली की चाय क्या छात्र, क्या शिक्षक और क्या राह चलते मुसाफिर सबके गलों की सिकाई करती, सबकी थकान मिटाती। ऊपर की मंजिल पर होटल, नीचे की मंजिल पर एक कमरा और कच्ची फर्श, घुप्प अंधेरा। वार्षिक परीक्षाओं के समय छात्रों द्वारा उसे किराये पर उठा लिया जाता। आर्डर देने पर दयाराम भाई दाल, भात, आलू का झोल, रोटी को सन्नद्ध रहते। पचास वर्षों बाद मेरा उस ओर जाना हुआ। जहाँ कभी छप्परनुमा होटल था, वहाँ पर अब उनके लड़कों ने बहुमंजिली इमारत खड़ी करके अपने पिता की स्मृति को तरोताजा रखा है।
दयाराम भाई के होटल से सटा हुआ चार कमरों वाला एक बड़ा सा दुमंजिला मकान था। निचली मंजिल के दरवाजे पिछवाड़े की ओर खुलते ऊपर की मंजिल के सड़क की ओर, उसके बाद बंजाण्यों का जंगल। इस जंगल में उगे बाँज के पेड़ों के संबंध में स्थानीय बुजुर्गों का कहना था कि इन पेड़ों को जितना ऊँचा हमने बचपन में देखा था उतने ही आज भी हैं। न जाने कौन सी बीमारी उनको है जिसका उपचार वन विभाग भी नहीं कर पाया है। बीसवीं सदी के पाँचवे दशक में दो अंग्रेज मेमों ने इस मकान में डेरा डाला था, एक स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना करके। सम्भवतः वे किसी मिशनरी की ओर से भेजी गई थीं। जब तक टिहरी रियासत में राजा का राज रहा, मिशनरीज वहाँ प्रवेश नहीं कर पाई जबकि ब्रिटिश गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल में उन्होंने शिक्षा के माध्यम से अपनी पकड़ बनाई और धर्मान्तरण को विशेषकर अन्त्यज जातियों में प्रोत्साहन दिया। प्रेरक तत्व चाहे जो रहा हो ईसाई मिशनरीज की पहल पर वहाँ नये जमाने की जिस शिक्षा ने प्रवेश किया उसके कारण नौकरियों के बाजार में वहाँ के लोगों को सफलता पाने में कहीं ज्यादा अवसर मिले। स्वास्थ्य सेवाओं का उन दिनों बड़ा अभाव था खासकर महिलाओं से जुड़ी हुई पेचीदगियों के उपचार का अकाल सा था। अधकटे बालों वाली, आधे बाजू की शर्ट, घुटनों से ऊपर तक का स्कर्ट पहने गोरी मेमें खट्-खट् इधर से उधर दौड़तीं तो छात्रों की टोलियां उत्सुकता से उन्हें निहारा करतीं। खीखी-खीखी करके हँसी के फव्वारे छूटते। स्त्रियाँ उनके प्रेमल व्यवहार की प्रशंसा करने से नहीं थकतीं। लोगों ने न जाने कैसे पता लगा लिया कि पाखाना जाने के बाद वे पानी से पुटठों की सफाई नहीं करती। तरह-तरह के कयास लगाये जाते। कोई कहता ''अरे उनके पास खास ढंग का गत्ते जैसा कागज है'' कोई कहता ''अरे रुई के पैड रखती हैं,'' किसी का जवाब होता ''पाखाना जाने के बाद सीधे स्नान कर लेती हैं।'' जितने मुँह उतनी बातें। लेकिन गोरी मेमें ज्यादा समय चम्बा में नहीं टिक पायीं।
राजशाही की समाप्ति के बाद टिहरी राज्य का उत्तर प्रदेश के साथ विलीनीकरण कर लिया गया था। आजादी से भी नई-नई आई थी इसलिये उन दिनों प्रदेश के नेताओं व मंत्रियों के खूब दौरे हुआ करते थे। एक बार हरगोविन्द पंत हमारे स्कूल में पधारे थे। वे उत्तर प्रदेश सरकार में किसी उपमंत्री के पद पर थे। शिक्षकों ने फूलमालाओं से उनका अभिनन्दन करते हुए एक मान पत्र (माँग पत्र) भी उन्हें भेंट किया। अपने संबोधन में उन्होंने कहा, ''चम्बा एक दिन चमन बनेगा।'' सचमुच आज के चम्बा को देखकर पचास वर्ष पहले के उस चम्बा की कल्पना की जा सकती है जब कि यहाँ पर चन्द दुकानें थीं, गिनती के कच्चे मकान, ऋषिकेश से टिहरी जाने वाली कच्ची मोटर रोड और उस पर धूल उड़ाती बसें थीं। 8 गते बैसाख के थौल में दूर-दराज के गाँवों से आकर जितनी भीड़ जुटती थी उतनी तो प्रतिदिन अब यहाँ पर जमा होती है। जिधर नजर दौड़ाओ उधर मकान ही मकान। बाजार में आम जरूरत की सारी चीजें मौजूद। धार ऐंच मकान, ढाल पर मकान। रंग बिरंगे परिधानों से सजी आधुनिक नारियाँ। दुकानों में खरीददारी करते ग्रामीण लोगों की गहमागहमी।
चम्बा अब विकसित होता एक सेवा केन्द्र बन गया है। यहाँ ब्लॉक हेडक्वार्टर है, रेडक्रॉस का हॉस्पीटल है, उसके साथ कई छोटे-बड़े प्राइवेट प्रेक्टिशनर, गढ़वाल मंडल विकास निगम का सर्वसुविधा सम्पन्न टूरिस्ट रेस्ट हाउस, बड़ा सा डाकघर, शानदार होटल, कई बैंकों की शाखायें, दिखोल गाँव के घनश्याम सिंह रावत जिन्हें बिड़ला के नाम से पुकारा जाता था और बादशाहीथौल की शराब की दुकान को बंद करवाने के लिये चले जन आंदोलन में जिन्होंने उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी, द्वारा बनवाया गया दुर्गा माता का मंदिर, गंभीर और जटिल बीमारियों का इलाज करवाने के लिये मसीही अस्पताल, यात्रियों की रेलमपेल, बसों, टैक्सियों, दुपहिया वाहनों की पों पों और सर्वोपरि पहाड़ों में उभरती एक कस्बाई संस्कृति- ग्रामीण और शहरी जीवन शैलियों का मिश्रण। कौन कहता है विकास नहीं हुआ है। सभी कुछ तो है चम्बा में। एक नये चेहरे के साथ नई दुनिया बसा ली है मेरे चम्बा ने।
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