Saturday, 28 April 2012 11:34 |
कुमार प्रशांत बहादुरी के साथ फैसला लेना व्यक्तिगत गुण भी है, लेकिन इसका सामाजिक आयाम भी है। जब सबसे ऊपर कोई ए राजा बैठा हो तब कोई अधिकारी कैसे कानून-सम्मत फैसले ले सकता है? इतना ही नहीं, जब वह देखता है कि प्रधानमंत्री खुद ऐसे किसी राजा के बारे में फैसला नहीं ले पाते हैं और कहते हैं कि गठबंधन सरकार की मजबूरियां होती हैं, तब वह अपनी गर्दन क्यों आगे करे! आप अपनी सरकार को दांव पर नहीं लगाते तो वह अपनी जीविका कैसे दांव पर लगा दे! इसलिए माहौल तो ऊपर से बनाना पड़ता है। ऊपर का माहौल कैसा है, यह प्रधानमंत्री हमसे बेहतर जानते हैं। सत्ता जब सत्तामात्र के लिए रह जाती है तब स्वार्थ ही एकमात्र प्रेरक तत्त्व बच रहता है। रेल मंत्रालय में पिछले दिनों जो हुआ, क्या उसके बाद हम कह सकते हैं कि इस सरकार की रीढ़ में हड््डी भी है! अमेरिका से आणविक समझौता करने के सवाल पर अपनी सरकार को दांव पर लगाने का एक अपवाद छोड़ दें तो प्रधानमंत्री ने कभी किसी राष्ट्रीय सवाल पर कोई टेक रखी हो, ऐसा कुछ याद आता है? उन्होंने अपने किसी मंत्रालय को अनुशासित करने की दिशा में सख्ती दिखाई हो, ऐसा कोई प्रसंग याद आता है? अलबत्ता उनका बार-बार यह कहना जरूर याद आता है कि मेरी सरकार में ऐसा या वैसा कुछ हो रहा था, इसकी मुझे तो कोई जानकारी नहीं थी। फिर कोई पूछे कि प्रधानमंत्री जी, आप बहादुरी से, बहादुरी भरे फैसले क्यों नहीं ले पाते, तो वे क्या जवाब देंगे? मिली-जुली सरकार की सीमाएं वे बताएंगे तो उन्हें यह बताना जरूरी होगा कि आपका एक अदना नौकरशाह आपसे कहीं अधिक किस्म के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक दवाब में काम करता है और वह एकदम निहत्था होता है। वैसी हालत में वह अपनी चमड़ी बचाए रखने और अपनी जेब भारी रखने को ही एकमात्र कसौटी मान कर चलता है तो हम शिकायत कैसे कर सकते हैं? गुलाम देश और आजाद देश की नौकरशाही में कोई फर्क नहीं कर पाए हम! प्रशासन और अपराध संबंधी कानून की सारी धाराएं वही-की-वही हैं जो अंग्रेजों ने इस देश की गर्दन कस कर पकड़ रखने के लिए बनाई थीं। हमारी शिक्षा वही, कानून वही, पुलिस वही और पुलिस का इस्तेमाल करने वाली मानसिकता वही, तो फर्क कैसे हो! आलम तो यह है कि सेना का प्रधान कह रहा है कि फलां व्यक्ति ने उसे फलां सौदा मंजूर कराने के एवज में चौदह करोड़ रुपयों की घूस देने का प्रस्ताव रखा था, और सरकार चुप बैठी है। सारी बहस इधर घूम गई कि सेना के प्रधान की इसमें मंशा क्या है! उनकी मंशा ठीक न हो तो भी कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि रक्षा-सौदों में अमूमन भ्रष्टाचार होता है। कमीशन खाए बिना वहां कोई पहिया घूमता नहीं है। इसलिए हर बड़ा सैन्य अधिकारी अवकाश-प्राप्ति के बाद, हथियार बनाने वाली किसी-न-किसी कंपनी की दलाली खोजने लगता है। क्या किसी सरकार ने, कभी इसे कानूनन रोकने की कोशिश की? दलाली कभी भी किसी भी स्तर पर हो, स्वार्थ के बिना नहीं होती। हम सेना में उसे मान्य ही कैसे कर सकते हैं? सेना प्रमुख की बात का ही सिरा पकड़ कर अब तक दलालों की धड़-पकड़ शुरू हो जानी चाहिए थी। लेकिन इंतजार इस बात का है कि कब नया सेना प्रमुख बने और हम इस विवाद से छुटकारा पाएं! प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने एकदम पते की कही थी कि नीति के स्तर पर हमें लकवा मार गया है! बाद में विवाद खड़ा हो गया तो उन्होंने अपनी ही बात पर राख डालने की कोशिश की। लेकिन सच यही है कि असली संकट नीति के स्तर पर लकवा मार जाने का ही है। अफसर और अफसरों के अफसर सभी अंधेरे में भटक रहे हैं। कौशिक बसु को शायद लगता है कि नीतिगत लकवे के कारण आर्थिक सुधारों की रफ्तार धीमी पड़ी है। लेकिन सच्चाई यह है कि आर्थिक सुधारों का यह मॉडल भी नीतिगत लकवे का ही प्रमाण है। वैकल्पिक नीति के स्तर पर कोई बहस उठे और बढ़े तो बात बने! नहीं तो बात का भात पकाने की हमारी कुशलता से यह संकट टलने वाला नहीं है। यह गहरा रहा है और गहराता ही जाएगा। |
Saturday, April 28, 2012
भ्रष्टाचार से कौन डरता है
भ्रष्टाचार से कौन डरता है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment