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Wednesday, February 20, 2013

क्या आपके बमरोधी बेसमेंट में अटैच बाथरूम है? : अरुंधति राय

क्या आपके बमरोधी बेसमेंट में अटैच बाथरूम है? : अरुंधति राय

Posted by Reyaz-ul-haque on 2/21/2013 01:19:00 AM


अफजल गुरु की फांसी के निहितार्थों और भारत की युद्धोन्मादी सांप्रदायिक राजनीति पर अरुंधति राय. मूल अंग्रेजी: आउटलुक. अनुवाद: रेयाज उल हक.

2001 के संसद हमले के मुख्य आरोपी मोहम्मद अफजल गुरु की खुफिया और अचानक दी गई फांसी के क्या नतीजे क्या होने जा रहे हैं? क्या कोई जानता है? सेंट्रल जेल जेल नं. 3, तिहाड़, नई दिल्ली के सुपरिंटेंडेंट द्वारा 'मिसेज तबस्सुम, पत्नी श्री अफजल गुरु' को भेजे गए मेमो में, जिसमें संवेदनहीन नौकरशाहाना तरीके से हरेक नाम को अपमानजनक तरीके से लिखा गया है, लिखा है:

'श्री मो. अफजल गुरु, पुत्र- हबीबिल्लाह की माफी की याचिका को भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा खारिज कर दिया गया है. इसलिए मो. अफजल, पुत्र-हबीबिल्लाह को 09/02/2013 को सुबह आठ बजे सेंट्रल जेल नं. 3 में फांसी देना तय किया गया है.

आपको सूचना देने और आगे की जरूरी कार्रवाई के लिए भेजा गया.'

मेमो भेजने का वक्त जानबूझ कर ऐसा रखा गया कि वह तबस्सुम को फांसी के बाद ही मिले, और इस तरह उन्हें उनके आखिरी कानूनी मौके – यानी क्षमा याचिका के खारिज किए जाने को चुनौती देने के अधिकार -  से महरूम कर दिया गया. अफजल और  उनके परिवार, दोनों को अलग-अलग ये अधिकार हासिल था. दोनों को ही इस अधिकार का उपयोग करने से रोक दिया गया. यहां तक कि कानून में अनिवार्य होने के बावजूद तबस्सुम को भेजे गए मेमों में राष्ट्रपति द्वारा क्षमा याचिका खारिज किए जाने की कोई वजह नहीं बताई गई. अगर कोई वजह नहीं बताई गई है, तो आप किस आधार पर अपील करेंगे? भारत में फांसी की सजा प्राप्त सभी कैदियों को यह आखिरी मौका दिया जाता रहा है.

चूंकि फांसी दिए जाने से पहले तबस्सुम को अपने पति से मिलने की इजाजत नहीं दी गई, चूंकि उनके बेटे को अपने पिता से सलाह के आखिरी दो बोल सुनने की इजाजात नहीं दी गई, चूंकि उन्हें दफनाने के लिए अफजल का शरीर नहीं दिया गया, और चूंकि कोई जनाजा नहीं हुआ, तो जेल मैनुअल के मुताबिक 'आगे की जरूरी कार्रवाई' क्या है? गुस्सा? अपार, अपूरणीय दुख? बिना किसी सवाल के, जो हुआ उसे कबूल कर लिया जाना? संपूर्ण अखंडता?

फांसी के बाद एक अपार जश्न मनाया गया. संसद हमले में मारे गए लोगों की गमजदा बीवियां टीवी पर दिखाई गईं, अपनी उत्तेजित मूंछों के साथ ऑल इंडिया एंटी-टेररिस्ट फ्रंट के अध्यक्ष एम.एस. बिट्टा थे उनकी छोटी सी उदास कंपनी के सीईओ की भूमिका अदा कर रहे थे. क्या कोई उन्हें बताएगा कि जिस इंसान ने उनके पतियों को मारा वो भी उसी वक्त, उसी जगह पर मारा गया था? और जिन लोगों ने हमले की योजना बनाई उनको कभी सजा नहीं होगी, क्योंकि हम अब तक नहीं जानते कि वे कौन हैं.

इस बीच कश्मीर पर एक बार फिर कर्फ्यू लागू है. एक बार फिर इसके लोगों को बाड़े में जानवरों की तरह बंद कर दिया गया है. एक बार फिर उन्होंने कर्फ्यू को मानने से इन्कार कर दिया है. तीन दिनों में तीन लोग मारे जा चुके थे और पंद्रह गंभीर रूप से जख्मी थे. अखबार बंद करा दिए गए हैं, लेकिन जो भी इंटरनेट पर छानबीन करना जानता है, वो पाएगा कि नौजवान कश्मीरियों का गुस्सा उतना अवज्ञाकारी और साफ जाहिर नहीं है, जितना यह 2008, 2009 और 2010 की गर्मियों के जन उभार के दौरान था – यहां तक कि उन मौकों पर 180 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. इस बार गुस्सा सर्द और तीखा है. निर्मम. क्या ऐसी कोई वजह है कि इसे ऐसा नहीं होना चाहिए था?

20 वर्षों से भी अधिक समय से, कश्मीरी एक फौजी कब्जे को भुगत रहे हैं. जिन दसियों हजार लोगों ने अपनी जानें गवाईं, वे जेलों में, यातना शिविरों में और असली और फर्जी 'मुठभेड़ों' में मारे गए. अफजल गुरु की फांसी को जो बात इन सबसे अलग बनाती है, वो यह है कि इस फांसी ने उन नौजवानों को, जिन्हें कभी भी लोकतंत्र का सीधा अनुभव नहीं रहा है, सबसे आगे की कुर्सियों पर बैठ कर भारतीय लोकतंत्र को पूरी महिमा के साथ काम करते हुए देखने का मौका मुहैया कराया है. उन्होंने पहियों को घूमते हुए देखा है, उन्होंने एक इंसान को, एक कश्मीरी को फांसी देने के लिए इसके सारे पुराने संस्थानों, सरकार, पुलिस, अदालतों, राजनीतिक दलों और हां, मीडिया को एकजुट होते हुए देखा है, जिसके बारे में उऩका मानना है कि उसे निष्पक्ष सुनवाई नहीं हासिल हुई थी. और उनके यह मानने की खासी वजहें हैं.

निचली अदालत में सुनवाई के सबसे अहम हिस्से में अफजल का पक्ष पेश करने वाला लगभग कोई नहीं था. अदालत द्वारा नियुक्त वकील कभी उनसे जेल में नहीं मिला, और असल में उसने अपने खुद के मुवक्किल के खिलाफ इल्जाम लगाने वाले सबूत पेश किए. (सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर विचार किया और फिर फैसला किया कि यह ठीक है.) संक्षेप में, किसी भी तरह से तर्कसंगत संदेहों के परे जाकर उनका अपराध साबित नहीं हुआ. उन्होंने देखा कि सरकार ने उन्हें फांसी की सजा का इंतजार कर रहे लोगों में से चुन कर, बेवक्त फांसी दे दी. यह नया सर्द, तीखा गुस्सा किस दिशा में जाएगा और कौन सी शक्ल अख्तियार करेगा? क्या यह उन्हें वह मुक्ति (आजादी) दिलाएगा, जिसकी उन्हें इतनी चाहत है और जिसके लिए उन्होंने एक पूरी पीढ़ी कुरबान कर दी है. या इसका अंजाम तबाही से भरी हुई हिंसा का एक और सिलसिले में, कुचल दिए जाने और फौजी बूटों द्वारा थोपी गई 'सामान्य हालात' वाली जिंदगी में होगा?

हममें से जो भी इलाके में रहते हैं, वे जानते हैं 2014 एक ऐतिहासिक साल होने जा रहा है. पाकिस्तान, भारत और जम्मू और कश्मीर में चुनाव होंगे. हम जानते हैं कि जब अमेरिका अफगानिस्तान से अपने फौजियों को निकाल लेगा तो पहले से ही गंभीर रूप से अस्थिर पाकिस्तान की अव्यवस्था कश्मीर तक फैल जाएगी, जैसा कि पहले हो चुका है. जिस तरह से अफजल को फांसी दी गई है, उससे भारत सरकार ने इस अस्थिरता की प्रक्रिया को बढ़ाने का फैसला किया है, असल में उसने इसकी दावत दी है. (जैसा कि इसने पहले भी, 1987 में कश्मीर चुनावों में धांधली करके किया था.) घाटी में लगातार तीन सालों तक चले जनांदोलन के 2010 में खत्म होने के बाद सरकार ने 'सामान्य हालात' का अपना वर्जन लागू करने की काफी कोशिश की है (खुशहाल सैलानी, वोट डाल रहे कश्मीरी). सवाल है कि क्यों यह अपनी ही कोशिशों को पलटना चाहती है? जिस तरह अफजल गुरु को फांसी दी गई, उसके कानूनी, नैतिक और उसके अमानवीय पहलुओं को परे कर दें और इसे एक महज राजनीतिक, कार्यनीतिक रूप में देखें तो यह एक खतरनाक और गैरजिम्मेदार काम है. लेकिन यह किया गया है. साफ साफ और जान बूझ कर. क्यों?

मैंने 'गैरजिम्मेदार' शब्द सोच-समझ कर ही इस्तेमाल किया है. पिछले कुछ समय में जो हुआ है, उस पर नजर डालते हैं. 

2001 में, संसद पर हमलों के हफ्ते भर के भीतर (अफजल गुरु की गिरफ्तारी के कुछ दिनों के बाद) सरकार ने पाकिस्तान से अपने राजदूत को बुला लिया और अपनी पांच लाख फौज सरहद पर भेज दी. ऐसा किस आधार पर किया गया? जनता को सिर्फ यही बताया गया कि दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की हिरासत में अफजल गुरु ने पाकिस्तान स्थित एक चरमपंथी समूह जैश-ए-मुहम्मद का सदस्य होना कबूल किया है. सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस हिरासत में दिए गए कबूलनामे को कानून की नजर में अमान्य करार दिया. लेकिन कानून की नजर में जो अमान्य है वो क्या जंग में मान्य हो जाता है?

मामले के अपने अंतिम फैसले में, 'सामूहिक अंतरात्मा की संतुष्टि' वाले अब मशहूर हो गए बयान और किसी सबूत के न होने के अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि इसका 'कोई सबूत नहीं था कि मोहम्मद अफजल गुरु का संबंध किसी आतंकवादी समूह या संगठन से है.' तो फिर कौन सी बाद उस फौजी चढ़ाई, फौजियों के जान के उस नुकसान, जनता के पैसे को पानी के तरह बहाए जाने और परमाणु युद्ध के वास्तविक जोखिम को जायज ठहराती है? (विदेशी दूतावासों द्वारा यात्रा सुझाव जारी किया जाना और अपने कर्मचारियों को वापस बुलाया जाना याद है?) संसद हमले और अफजल गुरु की गिरफ्तारी के पहले क्या कोई खुफिया सूचना आई थी, जिसके बारे में हमें नहीं बताया गया? अगर ऐसा था, तो हमले को होने कैसे दिया गया? और अगर खुफिया सूचना सटीक थी, और इतनी सटीक थी कि उससे ऐसी खतरनाक फौजी तैनाती को जायज ठहराया जा सकता था, तो क्या भारत, पाकिस्तान और कश्मीर की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि वह क्या थी? अफजल गुरु का अपराध साबित करने के लिए वह सबूत अदालत में क्यों नहीं पेश किया गया?

संसद पर हमले के मामले की सारी अंतहीन बहसों में से इस मुद्दे पर, जो कि सबसे अहम मुद्दा है, वामपंथी, दक्षिणपंथी, हिंदुत्वपंथी, धर्मनिरपेक्षतावादी, राष्ट्रवादी, देशद्रोही, सनकी, आलोचक - सभी हल्कों में मुर्दा खामोशी है. क्यों?

हो सकता है कि हमले के पीछे जैश-ए-मुहम्मद का दिमाग हो. भारतीय मीडिया के जाने-माने 'आतंकवाद' विशेषज्ञ प्रवीण स्वामी ने, जिनके भारतीय पुलिस और खुफिया एजेंसियों में ऐसे सूत्र हैं कि जलन होती है, हाल ही में एक पूर्व आईएसआई प्रमुख ले. जन. जावेद अशरफ काजी के 2003 के एक बयान का और एक पाकिस्तानी विद्वान मुहम्मद आमिर राणा की 2004 की एक किताब काहवाला दिया है, जिसमें संसद हमले में जैश-ए-मुहम्मद को जिम्मेदार ठहराया गया है. (एक ऐसे संगठन के मुखिया के बयान की सच्चाई पर यकीन करना दिल को छू गया, जिसका काम भारत को अस्थिर करना है.) लेकिन तब भी यह नहीं बताता कि 2001 में जब फौजी तैनाती हो रही थी, तो कौन से सबूत पास में थे.

चलिए बहस की खातिर मान लेते हैं कि जैश-ए-मुहम्मद ने हमला कराया था. हो सकता है कि आईएसआई भी इसमें शामिल हो. हमें यह दिखावा करने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान सरकार कश्मीर में छुपी हुई गतिविधियां करने से पाक-साफ है. (जैसे कि भारत सरकार बलूचिस्तान और पाकिस्तान के दूसरे इलाकों में करता है. याद करें कि भारतीय सेना ने 1970 के दशक में पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी को और 1980 के दशक में लिट्टे सहित छह विभिन्न श्रीलंकाई तमिल चरमपंथी समूहों को प्रशिक्षण दिया था.)

यह एक गंदा नजारा है. पाकिस्तान से जंग से क्या हासिल होने वाला था और अभी इससे क्या हासिल होगा? (जानों के भारी नुकसान के अलावा. और हथियारों के कुछ डीलरों के बैंक खातों के फूलते जाने के अलावा.) भारतीय युद्धोन्मादी लगातार यह सुझाव देते हैं कि 'समस्या को जड़ से खत्म करने' का अकेला तरीका 'सख्ती से पीछा करते हुए' पाकिस्तान में स्थित 'आतंकवादी शिविरों' को 'खत्म करना' है. सचमुच? यह देखना दिलचस्प होगा कि हमारे टीवी के पर्दों पर दिखने वाले कितने आक्रामक रणनीतिक विशेषज्ञों और रक्षा विश्लेषकों के हित रक्षा और हथियार उद्योग में हैं. उन्हें तो युद्ध की जरूरत तक नही है. उन्हें एक युद्ध-जैसी स्थिति की जरूरत है, जिसमें फौजी खर्च का ग्राफ ऊपर चढ़ता रहे. सख्ती से पीछा करने का खयाल बेवकूफी भरा है और जितना लगता है उससे कहीं अधिक दयनीय है. वे किन पर बम गिराएंगे? कुछ व्यक्तियों पर? उनके बैरकों और भोजन की आपूर्ति पर? या उनकी विचारधारा पर? देखिए कि अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा 'सख्ती से पीछा किया जाना' किस अंजाम को पहुंचा है. और देखिए कि कैसे पांच लाख फौजियों का 'सुरक्षा जाल' कश्मीर की निहत्थी, नागरिक आबादी को काबू में नहीं कर पाया है. और भारत सरहद पार करके एक ऐसे देश पर बम गिराने जा रहा है जिसके पास परमाणु बम है और जो अव्यवस्था में धंसता जा रहा है. भारत में युद्ध चाहनेवाले पेशेवरों को पाकिस्तान के बिखराव को देख कर काफी तसल्ली मिलती है. जिसे भी इतिहास और भूगोल की थोड़ी बहुत, कामचलाऊ भी जानकारी होगी, वो जान सकता है कि पाकिस्तान का टूटना  (उन्मादी, नकारवादी, धार्मिक हिमायतियों के गैंगलैंड के रूप में बिखर जाना) किसी के लिए भी खुशी मनाने की वजह नहीं है.

अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी मौजूदगी और आतंक के खिलाफ युद्ध में अमेरिकी मातहत के रूप में पाकिस्तान की भूमिका ने इस इलाके को सबसे ज्यादा खबरों में बने रहने वाला क्षेत्र बना दिया है. वहां जो खतरनाक चीजें हो रही हैं, कम से कम बाकी की दुनिया उनके बारे में जानती है. लेकिन उस खतरनाक तूफान के बारे में बहुत कम जाना-समझा जाता है और उससे भी कम पढ़ा जाता है, जो दुनिया की पसंदीदा नई महाशक्ति की दुनिया में तेजी अख्तियार कर रहा है. भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से मुश्किलों में है. आर्थिक उदारीकरण ने नए-नए बने मध्य वर्ग में जो आक्रामक, लालची महत्वाकांक्षा पैदा की है वो तेजी से उतनी ही आक्रामक हताशा में बदल रही है. जिस हवाई जहाज में वे बैठे थे, वो उड़ान भरने के फौरन बाद बंद हो गया है. खुशी का दौरा आतंक में बदल रहा है.

आम चुनाव 2014 में होने वाले हैं. एक्जिट पोल के बिना भी मैं आपको बता सकती हूं कि नतीजे क्या रहेंगे. हालांकि हो सकता है कि यह खुली आंखों से न दिखे, हमारे पास एक बार फिर कांग्रेस-भाजपा गठबंधन होगा. (दोनों में से हरेक दल के दामन पर अल्पसंख्यक समुदायों के हजारों लोगों के जनसंहारों के दाग हैं.) सीपीआई (एम) बाहर से समर्थन देगी, हालांकि उससे यह मांगा नहीं जाएगा. ओह, और यह एक मजबूत राज्य होगा. (फांसी के मोर्चे पर, फंदे तैयार हैं. क्या अगली बारी पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के लिए फांसी का इंतजार कर रहे बलवंत सिंह रजोआना की होगी? उनकी फांसी पंजाब में खालिस्तानी भावनाओं को भड़का देगी और अकाली दल को फायदा पहुंचाएगी. यह कांग्रेसी राजनीति का वही पुराना तरीका है.)

लेकिन पुराने तरीके की वह राजनीति कुछ मुश्किलों में है. पिछले कुछ उथल-पुथल भरे महीनों में, केवल मुख्य राजनीतिक दलों की छवि को ही नहीं, बल्कि खुद राजनीति को, राजनीति के विचार को जैसा कि हम इसे जानते हैं, धक्का लगा है. फिर और फिर से, चाहे वो भ्रष्टाचार हो, कीमतों का बढ़ना हो या बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही हिंसा हो, नया मध्य वर्ग बैरिकेडों पर है. उन पर पानी की बौछारें छोड़ी जा सकती हैं या लाठी चलाई जा सकती है, लेकिन गोली चला कर उनको हजारों की संख्या में मारा नहीं जा सकता, जिस तरह गरीबों को मारा जा सकता है, जिस तरह दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, कश्मीरियों, नागाओं और मणिपुरियों को मारा जा सकता है - और मारा जाता रहा है. पुराने राजनीतिक दल जानते हैं कि अगर पूरी तबाही नहीं लानी है, तो इस आक्रामकता को आगे बढ़ कर खत्म करना है, इसकी दिशा बदलनी है. वे जानते हैं कि राजनीति पहले जो हुआ करती थी, उसे वापस वही बनाने के लिए उनका मिल कर काम करना जरूरी है. तब एक सांप्रदायिक आग से बेहतर रास्ता क्या हो सकता है? (वरना और किस तरीके से एक धर्मनिरपेक्ष एक धर्मनिरपेक्ष बना रह सकता है और एक सांप्रदायिक एक सांप्रदायिक?) मुमकिन है कि एक छोटा सा युद्ध भी हो, ताकि हम फिर से नूराकुश्ती का खेल खेल सकें.

तब उस आजमाए हुए और भरोसेमंद पुराने राजनीतिक फुटबाल कश्मीर को उछालने से बेहतर समाधान और क्या हो सकता है? अफजल गुरु की फांसी, इसकी बेशर्मी और इसका वक्त, दोनों जानबूझ कर चुने गए हैं. इसने कश्मीर की सड़कों पर राजनीति और गुस्से को ला दिया है.

भारत इनको हमेशा की तरह क्रूर ताकत और जहरबुझी, मैकियावेलियाई चालबाजियों के साथ इसे काबू में कर लेने की उम्मीद करता है, जिन्हें लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने के लिए बनाया गया है. कश्मीर में युद्ध को दुनिया के सामने एक सबको समेटने वाले, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और उग्र इस्लामवादियों के बीच लड़ाई के रूप में पेश किया जाता है. तब हमें इस तथ्य का क्या करना चाहिए कि कश्मीर के तथाकथित ग्रांड मुफ्ती (जो एक पूरा कठपुतली पद है) मुफ्ती बशीरुद्दीन असल में एक सरकार द्वारा नियुक्त मुफ्ती हैं, जिन्होंने सबसे ज्यादा नफरत से भरे हुए भाषण दिए और एक के बाद एक फतवे जारी किए और जो मौजूदा कश्मीर को एक डरावना, अखंड वहाबी समाज बनाने का इरादा रखते हैं? फेसबुक के बच्चे गिरफ्तार किए जा सकते हैं, लेकिन वे कभी नहीं. हम इस तथ्य का क्या करें कि जब सऊदी अरब (अमेरिका का मजबूत दोस्त) कश्मीरी मदरसों में पैसे झोंकता है तो भारत सरकार दूसरी तरफ देख रही होती है? सीआईए ने अफगानिस्तान में उन सारे वर्षों में जो किया, यह उससे अलग कैसे है? उन करतूतों ने ही ओसामा बिन लादेन, अल कायदा और तालिबान को जन्म दिया. उन करतूतों ने ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान को बर्बाद कर दिया. अब यह किस तरह के बुरे सपनों को जगाएगा?

समस्या यह है कि हो सकता है कि अब पुराने राजनीतिक फुटबॉल को काबू में करना पूरी तरह आसान नहीं रहे. और यह रेडियोएक्टिव भी है. हो सकता है कि यह महज एक इत्तेफाक न हो कि कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान ने 'सामने आते परदृश्य' से पैदा होने वाले खतरों के खिलाफ अपनी रक्षा की खातिर छोटी दूरी का जमीन से जमीन पर वार कर सकने वाले परमाणु मिसाइल का परीक्षण किया है. दो हफ्तों पहले, कश्मीर पुलिस ने परमाणु युद्ध में 'बचाव की तरकीबें' प्रकाशित की हैं. इसमें शौचालय-युक्त बमरोधी बेसमेंट बनाने के साथ साथ, जो इतना बड़ा हो कि पूरा परिवार इसके भीतर दो हफ्तों तक रह सके, कहा गया है: 'एक परमाणु हमले के दौरान, गाड़ीचालकों को जल्दी ही पलट जाने वाली अपनी गाड़ियों के नीचे कुचलने से बचने के लिए उनसे निकल कर धमाके की तरफ छलांग लगानी चाहिए.' और 'उन्हें शुरुआती मतिभ्रम के लिए तैयार रहना चाहिए, जब धमाके की तरंगें गिरेंगी और अनेक महत्वपूर्ण और जानी-पहचानी विशिष्टताओं को हटा देंगी.'
 

मुमकिन है कि महत्वपूर्ण और जानी-पहचानी विशिष्टताएं पहले से ही गिर चुकी हों. शायद हम सबको अपनी जल्दी ही पलट जाने वाली गाड़ियों से कूद जाना चाहिए.

(अनुवादकीय नोट: नीचे से पांचवें पैराग्राफ की आखिरी पंक्ति में जहां 'नूराकुश्ती' का इस्तेमाल किया गया है, वहां अरुंधति ने Hawks & Doves का इस्तेमाल किया है. ये एक अंग्रेजी कॉमिक्स के अपराध से लड़ने वाले सुपरहीरो हैं. हालांकि इन दोनों का चरित्र अलग-अलग है, हॉकगरममिजाज और सख्त है तो डोव नरममिजाज है, लेकिन अपराध से दोनों मिल कर लड़ते हैं. यहां इनको क्रमश: भाजपा और कांग्रेस के साथ जोड़ कर दिखाया गया है. हिंदी में ऐसे पात्रों का अभी ध्यान नहीं आने की वजह से इसे 'नूराकुश्ती' में समेटने की कोशिश की गई है, फिर भी इसे इस टिप्पणी के साथ ही पढ़ा जाए.)

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