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Friday, July 18, 2014

भारतीय स्टेट बैंक बिकने चला बाजार,सबसे पहले सबसे कीमती कंपनी ओएनजीसी में विनिवेश करने का फैसला।

भारतीय स्टेट बैंक बिकने चला बाजार,सबसे पहले सबसे कीमती कंपनी ओएनजीसी में विनिवेश करने का फैसला।

पलाश विश्वास

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) अगले 2 साल में शेयर बेचकर 20,000 करोड़ रुपये जुटा सकता है।बैंक शेटर बेचकर यह रकम जुटायेगा और इस प्रक्रिया में बैंक के सरकारी शेटर जो पहले ही घचा दिये गये हैं,58.6 प्रतिशत से 51 प्रतिशत तक सिमटा देने की विनिवेश योजना है।कम से कम 53 परतिशत तक सरकारी शेयर घटा देने का टार्गेट है।दरअसल शेयर बाजार में सांढ़ों के धमाल का असली रहस्य यही केसरिया विनिवेश कार्यक्रम है।


देश बेचो अभियान के तहत विनिवेश पर फिर से काम तेज हो गया है। मोदी सरकार ने सबसे पहले अपनी सबसे कीमती कंपनी ओएनजीसी में विनिवेश करने का फैसला किया है। इसके लिए सरकार ऑफर फॉर सेल (ओएफएस) का रास्ता अपनाएगी।ओएफएस के जरिए सरकार ओएनजीसी में 5 फीसदी हिस्सेदारी बेचेगी। सरकार ने इसके लिए मर्चेंट बैंकर्स से बोलियां भी मंगवाई है और मर्चेंट बैंकरों के पास इसमें हिस्सा लेने के लिए 6 अगस्त तक का वक्त है।


दरअसल, गैस मूल्य के साथ ही सरकारी कंपनी ओएनजीसी के विनिवेश का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। गैस कीमत बढ़ने के फैसले के बाद ही ओएनजीसी में विनिवेश कार्यक्रम को लागू करने का फायदा होगा।गैस कीमते बढ़ने से किसे पायदा होना है,सारा देश जानता है।


भारत सरकार के फाइनेंशियल सर्विस सचिव जी एस संधू  के मुताबिक सभी पीएसयू बैंकों के विनिवेश का काम 4-5 साल में पूरा होगा। बैंकों का विनिवेश एफपीओ की बजाय राइट्स इश्यू या एफपीओ के जरिए किया जाएगा। साथ ही बैंकों के विनिवेश में पहली प्राथमिकता रिटेल निवेशकों को दी जाएगी। एफपीओ में रिटेल निवेशकों का हिस्सा बढ़ाने पर बातचीत चल रही है।


केसरिया बजट पेश करने के बाद सरकार बड़े पैमाने पर विनिवेश की भी तैयारी कर रही है। कोल इंडियामें 10 फीसदी हिस्सेदारी बेचने और ओएनजीसी में 5 फीसदी विनिवेश के लिए ड्राफ्ट नोट तैयार कर लिया गया है। माना जा रहा है कि सितंबर-अक्टूबर में इन दोनों कंपनियों का विनिवेश हो सकता है।


कोल इंडिया में हिस्सा बेचकर सरकार 25000 करोड़ रुपये जुटाने वाली है। वहीं, ओएनजीसी विनिवेश के जरिए सरकार को 15000 करोड़ रुपये मिलने की उम्मीद है। इन दोनों कंपनियों में हिस्सा बेचकर सरकार वित्त वर्ष 2015 का विनिवेश लक्ष्य हासिल करगी।


वैसे सरकार के विनिवेश प्लान में सेल और एनएचपीसी भी शामिल हैं। सेल में 5 फीसदी और एनएचपीसी में 11.4 फीसदी हिस्सा बिकने की उम्मीद है।



गौरतलब है कि निजी बैंको को लाइसेंस देने से पहले केसरिया कारपोरेट सरकार बैंकों के राष्ट्रीयकरण का इतिहास पलट देने की जुगत में है और सारे सरकारी बैंकों के सरकारी शेयर 51 फीसद तक घटा दिये जाने की योजना है ताकि जरुरत और मौके के हिसाब से स्ट्रेटिजिक सेल के जरिये इन बैंको का एक के बाद एक सेल आफ हो जाये।


मुनाफा,नेटवर्क और पूंजी के हिसाब से एसबीआई चूंकि अव्वल नंबर पर है और उसकी इस हैसियत से बैंकिंग में एफडीआई का खास असर नहीं हो रहा है और न ही निजी कंपनियों को एसबीआई की मौजूदगी में कोई बाजार मिल सकता है ,इसलिए इसे मरघट तक पहुंचाकर एअरइंडिया और ओएनजीसी का अंजाम दिया जाना है।


अटल शौरी जमाने की डिसइंवेस्टमेंट कौंसिल की रपटमुताबिक जो विनिवेश रोड मैप है,उसके तहत  सबसे ज्यादा फायदे में चलने वाले सराकारी उपक्रमों को सबसे पहले  बेच डालने की यजना है।जिसके तहत बीएसएलएन,बाल्को,नेल्को और एअर इंडिया का बंटाढार हो चुका है।


रिलायंस एकाधिकार के जरिये ओएनजीसी और दूसरी सरकारी तेल कंपनियों को बेच डालने की पूरी तैयारी है।


जाहिर है कि टेलीकाम, बिजली, चिकित्सा, शिक्षा, सूचना, इस्पात, बंदरगाह, विमानन, डाकतार,माइंनिंग,रेलवे,विमानन,बीमा,निर्माण,विनिर्माण,परिवहन जैसे क्षेत्रों में निजी कंपनियों की सांढ़ संस्कृति के वर्चस्व के बावजूद भारत में बेसरकारीकरण के रास्ते पर सबसे बड़ा अवरोध एसबीआई है,जिसका देहात नेटव्रक कृषि जीवी अधिसंख्य भारतीयों की आर्थिक गतिविधियों का मूलाधार है।


निजी बीमा कंपनियों को परमिशन और बीमा में एफडीआई से भारतीय जीवनबीमा निगम की निर्विरोध हत्या के बाद अब बारी एसबीआई की है।पंजाब नेशनल बैंक इसके साथ ही सिधार जायेगा।एकीकरण के बहाने जो बैंक और वित्तीयसंस्थान एसबीआई में समाहित कर दिये गये,एसबीआई के साथ जाहिर है कि उन्हें भी तिलांजलि दे दी जायेगी।


अभूतपूर्व कोयलासंकट के जरिये ब्लैकआउट मध्ये कोल इंडिया का देर सवेर सेल आफ भी तय है।तो सरकार ने हिंदुस्तान जिंक और बाल्को के विनिवेश प्रक्रिया को तेज कर दिया है। इसी साल दोनों कंपिनयों का विनिवेश कर दिया जाएगा। विनिवेश सचिव रवि माथुर ने सीएनबीसी आवाज़ के साथ खास बातचीत में कहा कि हिंदुस्तान जिंक के लिए मूल्यांकन करने वालों की नियुक्ति हो चुकी है और अगले 6-8 हफ्ते में इसकी रिपोर्ट मिल जाएगी।


आजतक के मुताबिक नई सरकार अपने बड़े विनिवेश कार्यक्रम की शुरुआत सितंबर में इस्पात कंपनी सेल की 5 फीसद हिस्सेदारी बिक्री से करेगी।


उसके बाद  नई सरकार  के देश बेचो अभियान के तहत ओएनजीसी व सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली कंपनियों मसलन ग्रामीण विद्युतीकरण निगम (आरईसी), पावर फाइनेंस कारपोरेशन (पीएफसी) व एनएचपीसी का विनिवेश किया जाएगा।


सेल की शेयर ब्रिकी के लिए विनिवेश विभाग इस माह के अंत तक सिंगापुर, हांगकांग, अमेरिका, ब्रिटेन व यूरोप में रोड शो की शुरुआत करेगा।


एक सरकारी अधिकारी ने कहा कि विदेशी की भांति घरेलू रोड शो भी महत्वपूर्ण हैं. इनको पूरा होने में सामान्य तौर पर एक माह का समय लगता है।


गौरतलब है कि  वित्त वर्ष 2014-15 के बजट में विनिवेश से 43,425 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें से 30 प्रतिशत विनिवेश (18,000 करोड़ रुपये) ओएनजीसी की 5 फीसद हिस्सेदारी बिक्री से आने की उम्मीद है। इसके अलावा कोल इंडिया में 10 प्रतिशत हिस्सेदारी का विनिवेश हो सकता है। इससे सरकार को 23,000 करोड़ रुपये तक मिल सकते है।


मौजूदा 85 रुपये प्रति शेयर के मूल्य पर सेल के 5 प्रतिशत विनिवेश यानी 20.65 करोड़ शेयरों की बिक्री से सरकार को 1,800 करोड़ रुपये मिलने की उम्मीद है।



यह अभूतपूर्व कोयला संकट दरअसल कोलइंडिया के विनिवेश की रंगीन बहुआयामी पृष्ठभूमि रचना है,जिसके तहत पूरे देश में पावर की सप्लाई गड़बड़ा सकती है। एनटीपीसी ने सरकार से कहा है कि कोयले की कमी की वजह से कंपनी के 17000 मेगावॉट के 6 प्लांट कभी भी बंद हो सकते हैं। एनटीपीसी के सीएमडी अरुप चौधरी ने ऊर्जा मंत्रालय को चिट्टी लिखकर जानकारी दी है कि कंपनी के पास कोयले का मुश्किल से 2 दिन का कोयला बचा है।


एनटीपीसी को मॉनसून की वजह से कोयले को दोबारा भरने में भारी दिक्कतें आ रही हैं। सप्लाई में थोड़ी गड़बड़ी से पूरी क्षमता पर असर पड़ने की आशंका है। कंपनी के 6 में से 3 प्लांट के पास 1 दिन से भी कम की सप्लाई बाकी है। ऊर्जा मंत्रालय ने कोयला और ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल से हस्तक्षेप की मांग की है। हालांकि, भारतीय रेलवे ने कोयले के ट्रांसपोर्ट के लिए अतिरिक्त रेक देने से इनकार किया है।



कहा जा रहा है कि  बैंक यह पैसा फंडिंग की जरूरतें पूरी करने और एक्सपेंशन के लिए जुटाएगा। शेयर बाजार में हालिया तेजी के बाद एसबीआई का शेयर भी काफी चढ़ा है।दूसरी ओर बाजार विशेषज्ञ इक्विटीरश के कुणाल सरावगी के मुताबिक जबतक एसबीआई 2700 रुपये के ऊपर नहीं जाता तबतक दोबारा तेजी बनते नहीं दिखेगी। अगर बाजार में नरमी आती है तो उसको बैंकिंग शेयर लीड कर सकते हैं। एसबीआई को 2700-2680 रुपये का स्टॉपलॉस लगाकर शॉर्ट किया जा सकता है। एसबीआई 2500 रुपये तक नीचे आ सकता है।


गौरतलब है किस्टेट बैंक आफ इंडिया (State bank of India / SBI) भारत का सबसे बड़ी एवं सबसे पुरानीबैंक एवं वित्तीय संस्था है। इसका मुख्यालय मुंबई में है। यह एक अनुसूचित बैंक (scheduled bank) है।दस हज़ार शाखाओं और 8,500 एटीएम के नेटवर्क वाला भारतीय स्टेट बैंक सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों में सबसे बड़ा बैंक है।

गौरतलब है कि बजट पेश होते ही 14 जुलाई को फाइनेंशियल सर्विस सचिव जी एस संधू का कहना था कि इस साल 3-4 बैंकों का इश्यू आ सकता है। वहीं बैंकों के विनिवेश की प्रक्रिया इस साल शुरू करने वाले हैं। इस साल एसबीआई, पीएनबी और बैंक ऑफ बड़ौदा में विनिवेश किया जा सकता है। सरकार ने एसबीआई कैपिटल को विनिवेश के रोडमैप का काम सौंपा गया है।


यह विडंबना ही है कि एसबीआई कैपिटल विनिवेश का रोडमैप बना रहा है जबकि एसबीआई का विनिवेश इस पूरी योजना का सबस बड़ा लक्ष्य है।


जी एस संधू का कहना है कि  इस साल पीएसयू बैंकों में 11,200 करोड़ रुपये की पूंजी डाली जाएगी। पीएसयू बैंकों को 2.4 लाख करोड़ रुपये की इक्विटी की जरूरत है। इस साल एसबीआई की कम से कम 1 सब्सिडियरी बैंक का विलय हो सकता है। साथ ही कुछ और बैंकों का भी विलय संभव है।


सिद्धांत तौर पर अगर पब्लिक सेक्टर के बैंकों में सरकार का स्टेक 51 पर्सेंट तक बना रहता है तो उन्हें शेयर बाजार से पैसा जुटाने की इजाजत देने में कोई दिक्कत नहीं है। अगर एसबीआई के फंड जुटाने के इस प्रपोजल को मंजूरी मिली तो उसमें सरकार की हिस्सेदारी 58.6 पर्सेंट से घटकर 53 पर्सेंट पर आ सकती है। हालांकि इस मामले में बैंक की चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्या ने कॉमेंट करने से इनकार कर दिया।


बाजल 3 नॉर्म्स पूरा करने के लिए सरकारी बैंकों को 2019 तक 2.4 लाख करोड़ की जरूरत है। हालांकि, इस फाइनैंशल ईयर में केंद्र ने उनके लिए सिर्फ 11,200 करोड़ रुपये ही अलग रखे हैं।


पिछले हफ्ते फाइनैंशल सर्विसेज सेक्रेटरी जी. एस. संधू ने कहा था कि सरकार एक रोडमैप बना रही है, जिसमें पब्लिक सेक्टर के बैंकों को शेयर बाजार से फंड जुटाने की इजाजत दी जा सकती है। उन्होंने कहा था, 'हम एक स्ट्रैटेजी बना रहे हैं। इसमें बताया जाएगा कि सरकारी बैंकों में हम अपनी होल्डिंग कितनी कम कर सकते हैं। यह रोडमैप अगले 5 साल के लिए हो सकता है।'


10 जुलाई को बजट स्पीच में फाइनैंस मिनिस्टर अरुण जेटली ने कहा था कि सरकार पब्लिक सेक्टर बैंकों में कंट्रोलिंग स्टेक रखते हुए उन्हें शेयर बेचकर फंड जुटाने की इजाजत देगी। इसमें ख्याल रखा जाएगा कि इससे सरकारी बैंकों में रिटेल इनवेस्टर्स का स्टेक बढ़े। इस फाइनैंशल ईयर में एसबीआई एक सहयोगी बैंक का अपने साथ मर्जर कर सकता है।


शेयर बेचकर जो पैसा जुटाया जाएगा, उसका एक हिस्सा इस पर खर्च हो सकता है। एसबीआई के एक ऑफिशल ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि हम लंबे समय में फंडिंग जरूरतों को पूरा करने का प्लान बना रहे हैं। अगर हमें इसके लिए पहले से मंजूरी मिल जाती है तो सही समय पर इश्यू लाए जा सकते हैं। इस साल जनवरी में एसबीआई ने क्वॉलिफाइड इंस्टीट्यूशनल प्रोग्राम के जरिये शेयर बेचकर 8,032 करोड़ रुपये जुटाए थे। हालांकि, इसमें से ज्यादातर शेयर सरकारी इंश्योरेंस कंपनी एलआईसी ने खरीदे थे। तब शेयर बाजार दबाव में था और अब हालात पूरी तरह बदले हुए हैं।


२ जून, १८०६ को कलकत्ता में 'बैंक ऑफ़ कलकत्ता' की स्थापना हुई थी। तीन वर्षों के पश्चात इसको चार्टर मिला तथा इसका पुनर्गठन बैंक ऑफ़ बंगाल के रूप में २ जनवरी, १८०९ को हुआ। यह अपने तरह का अनोखा बैंक था जो साझा स्टॉक पर ब्रिटिश इंडिया तथा बंगाल सरकार द्वारा चलाया जाता था। बैंक ऑफ़ बॉम्बे तथा बैंक ऑफ़ मद्रास की शुरुआत बाद में हुई। ये तीनों बैंक आधुनिक भारत के प्रमुख बैंक तब तक बने रहे जब तक कि इनका विलय इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया (हिन्दी अनुवाद - भारतीय शाही बैंक) में २७ जनवरी १९२१ को नहीं कर दिया गया। सन १९५१ में पहली पंचवर्षीय योजना की नींव डाली गई जिसमें गांवों के विकास पर जोर डाला गया था। इस समय तक इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया का कारोबार सिर्फ़ शहरों तक सीमित था। अतः ग्रामीण विकास के मद्देनजर एक ऐसे बैंक की कल्पना की गई जिसकी पहुंच गांवों तक हो तथा ग्रामीण जनता को जिसका लाभ हो सके । इसके फलस्वरूप १ जुलाई १९५५ को स्टेट बैंक आफ़ इंडिया की स्थापना की गई। अपने स्थापना काल में स्टेट बैंक के कुल ४८० कार्यालय थे जिसमें शाखाएं, उप शाखाएं तथा तीन स्थानीय मुख्यालय शामिल थे, जो इम्पीरियल बैंकों के मुख्यालयों को बनाया गया था ।


राष्ट्रीयकरण

भारतीय स्टेट बैंक के राष्ट्रीयकरण के समय भारतीय स्टेट बैंक साथ संसद में वर्ष 1959 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (सब्सिडियरी बैंक) अधिनियम पारित कर एसबीआई को 8 पूर्व सहयोगी बैकों (वर्तमान में केवल 7) के अधिग्रहण का अधिकार दिया गया, जिससे ये बैंक एसबीआई के सहायक बैंक बन गये और इसे स्टेट बैंक समूह का नाम दिया गया।

कारोबार (बिज़नेस)

कारोबारी साल 2008 - 09 में बैंक का शुद्ध लाभ 35.5% बढ़ कर 9,120.9 करोड़ रुपये रहा। इस दौरान इसकी ब्याज से होने वाली आय में 22.6 % की वृद्धि दर्ज की गयी और यह 20,873 करोड़ रुपये हो गयी। साल 2008 - 09 में एसबीआई के कुल कर्जों में 29.8% की बढ़त आयी, जबकि इसकी जमाराशियाँ 38% की दर से बढ़ीं।[1]भारतीय स्टेट बैंक को 2009 - 10 की दूसरी तिमाही में 2,490.04 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ है। एसबीआई कैपिटल मार्केट्स लिमिटेड भारतीय स्टेट बैंक की सब्सिडियरी है, जो इनवेस्टमेंट बैंकिंग का कारोबार देखती है। साथ ही बैंक ने साधारण बीमा के लिए इंश्योरेंस ऑस्ट्रेलिया ग्रुप के साथ करार किया है। इसके अलावा बैंक प्राइवेट इक्विटी, वेंचर कैपिटल, म्युचुअल फंड्स जैसे क्षेत्रों में भी कार्यरत है। एसबीआई ने अपने सभी सहयोगी बैंकों के अपने साथ विलय की योजना बनायी है। सात सहयोगी बैंकों में से स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद और स्टेट बैंक ऑफ पटियाला में एसबीआई की 100 % हिस्सेदारी है। जबकि शेष चार बैंको - स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ ट्रैवेनकोर और स्टेट बैंक ऑफ इंदौर में इसकी 75 % से 98 % तक हिस्सेदारी है।[1]

भारतीय स्टेट बैंक के सहयोगी बैंक

  • स्टेट बैंक ऑफ़ बीकानेर एंड जयपुर

  • स्टेट बैंक ऑफ़ हैदराबाद

  • स्टेट बैंक ऑफ़ मैसूर

  • स्टेट बैंक ऑफ़ पटियाला

  • स्टेट बैंक ऑफ़ त्रावणकोर



विनिवेश को रफ्तार देने में जुटी सरकार

इंदिवजल धस्माना / नई दिल्ली July 13, 2014





सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की इस्पात निर्माता कंपनी सेल में 5 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की तैयारी कर रही है। इसके तहत सरकार इस माह विदेशी निवेशकों को कंपनी में इक्विटी खरीद के प्रति आकर्षित करने के लिए रोड शो शुरू कर सकती है। एक अधिकारी ने बताया कि सिंगापुर ओर हॉन्ग कॉन्ग के अलावा अन्य जगहों पर विनिवेश के लिए रोड शो आयोजित किए जा सकते हैं। विनिवेश की खबरों से सेल का शेयर शुक्रवार को बंबई स्टॉक एक्सचेंज पर 6.06 फीसदी गिरकर 82.15 रुपये पर आ गया। मौजूदा शेयर भाव के हिसाब से सरकार को 5 फीसदी हिस्सेदारी के विनिवेश से करीब 1,700 करोड़ रुपये मिल सकते हैं। पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील सरकार के कैबिनेट से पहले ही सेल के विनिवेश को मंजूरी मिल चुकी है।

मोदी सरकार ने बजट में विनिवेश के जरिये 43,425 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है, वहीं हिंदुस्तान जिंक और भारत एल्युमीनियम कंपनी (बालको) की शेष हिस्सेदारी बेचकर 15,000 करोड़ रुपये जुटाने की योजना है। विनिवेश के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार कोल इंडिया में 10 फीसदी और ओएनजीसी में 5 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की संभावना तलाश रही है। इन दोनों कंपनियों की हिस्सेदारी बेचकर सरकार विनिवेश लक्ष्य का बड़ा हिस्सा जुटा सकती है। शुक्रवार को कोल इंडिया का शेयर 2.34 फीसदी गिरकर 362.45 रुपये पर बंद हुआ। इस भाव पर विनिवेश से सरकार को करीब 22,000 करोड़ रुपये मिल सकते हैं। इसके साथ ही ओएनजीसी की 5 फीसदी हिस्सेदारी बेचने के लिए पहले ही कैबिनेट प्रस्ताव जारी किया जा चुका है। इससे सरकार को करीब 17,000 करोड़ रुपये मिल सकते हैं। ऐसे में मौजूदा शेयर भाव पर कोल इंडिया और ओएनजीसी के विनिवेश ही सरकार को करीब 39,000 करोड़ रुपये मिल सकते हैं। हालांकि विनिवेश के समय शेयर भाव में बदलाव संभव है।

एक अधिकारी ने कहा, 'विनिवेश लक्ष्य का बड़ा हिस्सा कोल इंडिया और ओएनजीसी से आएगी।' हालांकि कोल इंडिया के विनिवेश को लेकर पूर्ववर्ती सरकार को कर्मचारी संगठन के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। केपीएमजी के भारत में पार्टनर और प्रमुख (बुनियादी ढांचा और सरकारी सेवा) अरविंद महाजन ने कहा, 'विनिवेश लक्ष्य को हासिल करने में कोल इंडिया की अहम भूमिका होगी। हालांकि कर्मचारी संगठनों को विनिवेश का उचित तर्क समझाना होगा और यह बताना होगा कि प्रबंधन सरकार के हाथों में ही रहेगा।' कंपनी में विनिवेेश के बावजूद सरकार के पास करीब 80 फीसदी हिस्सेदारी होगी। अधिकारी ने बताया कि इन दोनों कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने को लेकर कोई समयसीमा तय नहीं की गई है। विनिवेश को लेकर पूरा खाका दो माह के अंदर तैयार हो सकता है।

महाजन का मानना है कि 43,450 करोड़ रुपये के लक्ष्य का हासिल किया जा सकता है लेकिन सरकार को इसके लिए जल्द निर्णय लेना होगा ताकि बाजार में तेजी का फायदा उठाया जा सके। सरकार इसके अलावा, एनएचपीसी, राष्टï्रीय इस्पात निगम और मॉयल में भी विनिवेश की संभावना तलाश सकती है। अधिकारी ने बताया कि दो अन्य बिजली कंपनियों में भी सरकार अपनी हिस्सेदारी घटा सकती है। हालांकि उन कंपनियों के नाम का जिक्र नहीं किया गया। सेल, एनएचपीसी, मॉयल और कोल इंडिया के विनिवेश के जरिये सरकार को सेबी के न्यूनतम 25 फीसदी सार्वजनिक शेयरधारिता के नियम को भी पूरा करने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा कई अन्य कंपनियां हैं जहां अगले तीन साल में सरकार को अपनी हिस्सेदारी घटाकर 75 फीसदी करनी है।

http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=89205



Jul 18 2014 : The Economic Times (Kolkata)

COMING SOON TO DALAL STREET - A HUMDINGER . Rs 20,000-Crore ` Share Sale by SBI

DHEERAJ TIWARI

NEW DELHI





Largest lender in talks with finance r ministry; govt may pare stake to 53%

State Bank of India may raise about `. 20,000 crore by selling shares over two years to fund capital requirements and expansion plans as it looks to take advantage of the surge in stock prices, driven by optimism about the Narendra Modi government putting economic growth back on track.

India's largest bank is in discussions with the finance ministry over its financial requirements. The government is expected to support the plan as it's open to lowering its stake in state-run banks to 51%, besides which it doesn't have anywhere near the money needed to infuse the capital they require.

"We are in talks," said a government official aware of the deliberations. "In principle, our stand is that banks can explore the markets provided the government retains majority stake."

The government's stake will drop to around 53% from 58.6% if it approves SBI's capitalraising proposal.

SBI Chairman Arundhati Bhattacharya declined comment.

Public sector banks require additional common equity of Rs 2.4 lakh crore by 2018 to meet Basel III norms.

But the government has allocated just a relatively paltry Rs 11,200 crore for bank capitalisation in this fiscal.

Last week, Financial Services Secretary GS Sandhu had said the government was drawing up a road map for state-run banks to raise resources from the market.

"We are devising a strategy on how much stake dilution can be done in state-run banks.

This will be staggered over five years," he had said.

In his budget speech on July 10, Finance Minister Arun Jaitley had said the government proposes to raise capital through the sale of shares largely through the retail route while retaining a majority stake in state-run banks.

SBI is also looking to absorb at least one of its associate banks in this fiscal year and some of the money raised through the public offer will go toward this.







भारतीय स्टेट बैंक

http://hi.wikipedia.org/s/nho

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

Sbi logo.gif


प्रकार

सार्वजनिक (BSE, NSE:SBI) & (एलएसई: SBID)

उद्योग

बैंकिंग

बीमा

पूंजी बाजार और संबद्ध उद्योग

स्थापना

Flag of भारत कलकत्ता, १८०६ (बैंक ऑफ़ कैलकटा के रूप मे)

मुख्यालय

कोर्पोरेट सेंटर,

मैडम कामा रोड,

मुंबई ४०० ०२१ भारत

प्रमुख व्यक्ति

अरुंधति भट्टाचार्य, अध्यक्षा (चेयरपर्सन) (७ अक्टूबर २०१३ से [1] -)

उत्पाद

ऋण, क्रेडिट कार्ड, बचत, निवेश के साधन, एस बी आई लाइफ (बीमा) आदि

राजस्व

Green Arrow Up Darker.svg रु 200559.83 करोड़ (2013)

प्रबंधन आधीन परिसंपत्तियां

Green Arrow Up Darker.svg शुद्ध लाभ रु 18322.99 करोड़ (2013) [2]

कुल संपत्ति

रु 2136133 करोड़ (2013)

मुंबई में भारतीय स्टेट बैंक का आँचलिक कार्यालय

स्टेट बैंक आफ इंडिया (State bank of India / SBI) भारत का सबसे बड़ी एवं सबसे पुरानीबैंक एवं वित्तीय संस्था है। इसका मुख्यालय मुंबई में है। यह एक अनुसूचित बैंक (scheduled bank) है।

२ जून, १८०६ को कलकत्ता में 'बैंक ऑफ़ कलकत्ता' की स्थापना हुई थी। तीन वर्षों के पश्चात इसको चार्टर मिला तथा इसका पुनर्गठन बैंक ऑफ़ बंगाल के रूप में २ जनवरी, १८०९ को हुआ। यह अपने तरह का अनोखा बैंक था जो साझा स्टॉक पर ब्रिटिश इंडिया तथा बंगाल सरकार द्वारा चलाया जाता था। बैंक ऑफ़ बॉम्बे तथा बैंक ऑफ़ मद्रास की शुरुआत बाद में हुई। ये तीनों बैंक आधुनिक भारत के प्रमुख बैंक तब तक बने रहे जब तक कि इनका विलय इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया (हिन्दी अनुवाद - भारतीय शाही बैंक) में २७ जनवरी १९२१ को नहीं कर दिया गया। सन १९५१ में पहली पंचवर्षीय योजना की नींव डाली गई जिसमें गांवों के विकास पर जोर डाला गया था। इस समय तक इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया का कारोबार सिर्फ़ शहरों तक सीमित था। अतः ग्रामीण विकास के मद्देनजर एक ऐसे बैंक की कल्पना की गई जिसकी पहुंच गांवों तक हो तथा ग्रामीण जनता को जिसका लाभ हो सके । इसके फलस्वरूप १ जुलाई १९५५ को स्टेट बैंक आफ़ इंडिया की स्थापना की गई। अपने स्थापना काल में स्टेट बैंक के कुल ४८० कार्यालय थे जिसमें शाखाएं, उप शाखाएं तथा तीन स्थानीय मुख्यालय शामिल थे, जो इम्पीरियल बैंकों के मुख्यालयों को बनाया गया था ।

अनुक्रम

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इतिहास[संपादित करें]

भारतीय स्टेट बैंक का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में 2 जून 1806 कोबैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना के साथ हुआ। तीन साल बाद बैंक को अपना चार्टर प्राप्त हुआ और इसे 2 जनवरी 1809 को बैंक ऑफ बंगाल के रुप में पुनगर्ठित किया गया। यह एक अद्वितीय संस्था और ब्रिटेन शासित भारत का प्रथम संयुक्त पूंजी बैंक था जिसे बंगाल सरकार द्वारा प्रायोजित किया गया था। बैंक ऑफ बंगाल के बाद बैंक ऑफ बॉम्बे की स्थापना 15 अप्रैल 1840 को तथा बैंक ऑफ मद्रास की स्थापना 1 जुलाई 1843 को की गई। ये तीनो बैंक 27 जनवरी 1921 को उनका इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया के रुप में समामेलन होने तक भारत में आधुनिक बैंकिंग के शिखर पर रहे।

मूलत: एंग्लो-इंडियनों द्वारा सृजित तीनों प्रसिडेंसी बैंक सरकार को वित्त उपलब्ध कराने की बाध्यता अथवा स्थानीय यूरोपीय वाणिज्यिक आवश्यकताओं के चलते अस्तित्व में आए न कि किसी बाहरी दबाव के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए इनकी स्थापना की गई। परंतु उनका प्रादुर्भाव यूरोप तथा इंग्लैंड में हुए इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरुप उभरे विचारों तथा स्थानीय व्यापारिक परिवेश व यूरोपीय अर्थव्यवस्था के भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ने एवं विश्व-अर्थव्यवस्था के ढांचे में हो रहे परिवर्तनों से प्रभावित था।

स्थापना[संपादित करें]

बैंक ऑफ बंगाल की स्थापना के साथ ही भारत में सीमित दायित्व व संयुक्त-पूंजी बैंकिंग का आगमन हुआ। बैंकिंग क्षेत्र में भी इसी प्रकार का नया प्रयोग किया गया। बैंक ऑफ बंगाल को मुद्रा जारी करने की अनुमति देने का निर्णय किया गया। ये नोट कुछ सीमित भौगोलिक क्षेत्र में सार्वजनिक राजस्व के भुगतान के लिए स्वीकार किए जाते थे। नोट जारी करने का यह अधिकार न केवल बैंक ऑफ बंगाल के लिए महत्त्वपूर्ण था अपितु उसके सहयोगी बैंक, बैंक ऑफ बाम्बे तथा मद्रास के लिए भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था अर्थात इससे बैंकों की पूंजी बढ़ी, ऐसी पूंजी जिसपर मालिकों को किसी प्रकार का ब्याज नहीं देना पड़ता था। जमा बैंकिंग अवधारणा भी एक नया कदम था क्योंकि देशी बैंकरों द्वारा भारत के अधिकांश प्रांतों में सुरक्षित अभिरक्षा हेतु राशि (कुछ मामलों में ग्राहकों की ओर से निवेश के लिए) स्वीकार करने का प्रचलन एक आम आदमी की आदत नहीं बन पाई थी। परंतु एक लंबे समय तक, विशेषकर उस समय जब तक कि तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों को नोट जारी करने का अधिकार नहीं था बैंक नोट तथा सरकारी जमा-राशियाँ ही अधिकांशत: बैंकों के निवेश योग्य साधन थे।

तीनों बैंक रायल चार्टर के दायरे में कार्य करते थे, जिन्हें समय समय पर संशोधित किया जाता था। प्रत्येक चार्टर में शेयर-पूंजी का प्रावधान था जिसमें से पाँच-चौथाई निजी तौर पर दी जाती थी और शेष पर प्रांतीय सरकार का स्वामित्व होता था। प्रत्येक बैंक के कामकाज की देख-रेख करने वाले बोर्ड के सदस्य, ज्यादातर स्वत्वधारी-निदेशक हुआ करते थे जो भारत में स्थित बड़ी यूरोपीय प्रबंध एजेंसी गृहों का प्रतिनिधित्व करते थे। शेष सदस्य सरकार द्वारा नामित प्राय: सरकारी कर्मचारी होते थे जिनमें से एक का बोर्ड के अध्यक्ष के रुप में चयन किया जाता था।

व्यवसाय[संपादित करें]

प्रारंभ में बैंकों का व्यवसाय बट्टे पर विनिमय बिल अथवा अन्य परक्राम्य निजी प्रतिभूतियों को भुनाना, रोकड़ खातों का रख-रखाव तथा जमाराशियाँ प्राप्त करना व नकदी नोट जारी व परिचालित करना था। एक लाख रूपए तक ही ऋण दिए जाते थे तथा निभाव अवधि केवल 3 माह तक होती थी। ऐसे ऋणों के लिए जमानत सार्वजनिक प्रतिभूतियाँ थीं जिन्हें सामान्यतया कंपनी पेपर, बुलियन, कोष, प्लेट, हीरे-जवाहरात अथवा "नष्ट न होने वाली वस्तु" कहा जाता था तथा बारह प्रतिशत से अधिक ब्याज नहीं लगाया जा सकता था। अफीम, नील, नमक, ऊनी कपड़े, सूत, सूत से बनी वस्तुएँ, सूत कातने की मशीन तथा रेशमी सामान आदि के बदले ऋण दिए जाते थे परंतु नकदी ऋण के माध्यम से वित्त में तेजी केवल उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से प्रारंभ हुई। सभी वस्तुएँ जिनमें चाय, चीनी तथा पटसन बैंक में गिरवी अथवा Òष्टिबंधक रखा जाता था जिनका वित्त-पोषण बाद में प्रारंभ हुआ। मांग-वचन पत्र उधारकर्ता द्वारा गारंटीकर्ता के पक्ष में जारी किए जाते थे जो बाद में बैंक को पृष्ठांकित कर दिए जाते थे। बैंको के शेयरों पर अथवा बंधक बनाए गए गृहों, भूमि अथवा वास्तविक संपत्ति पर उधार देना वर्जित था।

कंपनी पेपर जमा करके उधार लेने वालों में उधारकर्ता मुख्यतया भारतीय थे जबकि निजी एवं वेतन बिलों पर बट्टे के व्यवसाय पर मूल रुप से यूरोपीय नागरिकों तथा उनकी भागीदारी संस्थाओं का लगभग एकाधिकार था। परंतु जहाँ तक सरकार का संबंध है इन तीनों बैंको का मुख्य कार्य समय-समय पर ऋण जुटाने में सरकार की सहायता करना व सरकारी प्रतिभूतियों के मूल्यों को स्थिरता प्रदान करना था।

स्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन[संपादित करें]

बैंक आफ बंगाल, बॉम्बे तथा मद्रास के परिचालन की शर्तों में 1860 के बाद महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 1861 के पेपर करेंसी एक्ट के पारित हो जाने से प्रेसिडेंसी बैंकों का मुद्रा जारी करने का अधिकार समाप्त कर दिया गया तथा 1 मार्च 1862 से ब्रिटेन शासित भारत में कागज़ी मुद्रा जारी करने का मूल अधिकार भारत सरकार को प्राप्त हो गया। नई कागजी मुद्रा के प्रबंधन एवं परिचालन का दायित्व प्रेसिडेंसी बैंको को दिया गया तथा भारत सरकार ने राजकोष में जमाराशियों का अंतरण बैंकों को उन स्थानों पर करने का दायित्व लिया जहाँ बैंक अपनी शाखाएँ खोलने वाले हों। तब तक तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों की कोई शाखा नहीं थी (सिवाय बैंक आफ बंगाल द्वारा 1839 में मिरजापुर में शाखा खोलने के लिए किया गया एक मात्र छोटा सा प्रयास ) जबकि उनके संविधान के अंतर्गत उन्हें यह अधिकार प्राप्त था। परंतु जैसे ही तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों को राजकोष में जमाराशियों का बिना रोक-टोक उपयोग करने का आश्वासन मिला तो उनके द्वारा तेजी से उन स्थानों पर बैंक की शाखाएँ खोलना प्रारंभ कर दिया गया। सन् 1876 तक तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों की शाखाएँ, अभिकरण व उप-अभिकरणों ने देश के प्रमुख क्षेत्रों तथा भारत के भीतरी भागों में स्थित व्यापार केंद्रो में अपना विस्तार कर लिया। बैंक ऑफ बंगाल की 18 शाखाएँ थीं जिसमें उसका मुख्यालय, अस्थायी शाखाएँ, तथा उप-अभिकरण शामिल हैं जबकि बैंक ऑफ बॉम्बे एवं मद्रास प्रत्येक की 15 शाखाएँ थीं।

प्रेसिडेंसी बैंक्स एक्ट[संपादित करें]

1 मई 1876 से लागू प्रेसिडेंसी बैंक्स एक्ट के द्वारा व्यवसाय पर एकसमान प्रतिबंधों के साथ तीन प्रेसिडेंसी बैंकों को एक समान कानून के अंतर्गत लाया गया। तथापि, तीन प्रेसिडेंसी नगरों में लोक ऋण कार्यालयों तथा सरकार की जमाराशियों के एक भाग की अभिरक्षा का कार्य बैंकों के पास होने के बावजूद सरकार का मालिकाना संबंध समाप्त कर दिया गया। इस एक्ट द्वारा कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास में तीन आरक्षित कोषों के सृजन का प्रावधान किया गया जहाँ प्रेसिडेंसी बैंकों को केवल उनके प्रधान कार्यालयों में रखने के लिए निर्धारित न्यूनतम राशि से अधिक की जमाराशियाँ रखी जाती थीं। सरकार इन आरक्षित कोषों से प्रेसिडेंसी बैंकों को ऋण दे सकती थी परंतु ये बैंक उसे अधिकार के बजाय अनुग्रह के रुप में देखते थे।

प्रेसिडेंसी बैंकों के सामान्य नियंत्रण के बाहर आरक्षित कोषों में अतिरिक्त जमाराशियों को रखने के सरकार के निर्णय तथा उन नए स्थानों पर जहाँ शाखाएँ खोली जानी थी, सरकार की न्यूनतम जमाराशियों की गारंटी न देने के उससे जुड़े निर्णय से वर्ष 1876 के बाद नई शाखाओं की वृद्धि काफी बाधित हुई। पिछले दशक में हुए विस्तार की गति बहुत धीमी पड़ जाने के बावजूद बैंक ऑफ मद्रास के मामले में निरंतर मामली वृद्धि होती रही, क्योंकि इस बैंक को मुख्यतया प्रेसिडेंसी के बंदरगाह से लगे कई शहरों एवं देश के भीतरी केंद्रों के बीच होने वाले व्यापार से ही लाभ होता था।

भारत का रेल नेटवर्क देश के सभी प्रमुख क्षेत्रों तक विस्तारित होने के कारण 19वीं सदी के अंतिम 25 वर्षों में यहॉ पर तेजी से वाणिज्यीकरण हुआ। मद्रास, पंजाब तथा सिंध में नए सिंचाई नेटवर्कों के कारण निर्वाह फसलों को नकदी फसलों के रुप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा। इन नकदी फसलों में से कुछ हिस्से को विदेशी बाजारों को भेजा जाने लगा। चाय तथा कॉफी के बागानों के कारण पूवी तराई के बड़े क्षेत्र, असम एवं नीलगिरी के पर्वत उत्कृष्ट स्थावर कृषि क्षेत्र के रुप में रुपांतरित हो गए। इन सभी के परिणामस्वरुप, भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में छह गुना विस्तार हुआ। तीनों प्रेसिडेंसी बैंक उप-महाद्वीप के प्रत्येक व्यापार, विनिर्माण एवं उत्खनन की गतिविधि के वित्तपोषण में व्यावहारिक रुप से सम्मिलित हो जाने के कारण ये बैंक वाणिज्यिकरण की इस प्रक्रिया के लाभाथी एवं प्रवर्तक दोनों रहे। बंगाल एवं बंबई के बैंक बड़े आधुनिक विनिर्माण उद्योगों के वित्तपोषण में लगे थे, जबकि बैंक ऑफ मद्रास लघु उद्योगों का वित्तपोषण करने लगा जैसे अन्यत्र कहीं भी होता नहीं था। परंतु इन तीनों बैंकों को विदेशी मुद्रा से जुड़े किसी भी व्यवसाय से अलग रखा गया। सरकारी जमाराशियों को रखने वाले इन बैंकों के लिए ऐसा व्यवसाय जोखिम माना गया साथ ही यह भय भी महसूस किया गया कि सरकारी संरक्षण प्राप्त इन बैंकों से उस समय भारत में आए विनिमय बैंकों के लिए एक अनुचित प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। वर्ष 1935 में भारतीय रिज़र्व बैंक का गठन होने तक इन बैंकों को इस व्यवसाय से अलग रखा गया।

बंगाल के प्रेसिडेंसी बैंक[संपादित करें]

बंगाल, बंबई एवं मद्रास के प्रेसिडेंसी बैंकों को उनकी 70 शाखाओं के साथ वर्ष 1921 में विलयन कर इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई। इन तीनों बैंकों को एक संयुक्त संस्था के रुप में रुपांतरित किया गया तथा भारतीय वाणिज्यिक बैंकों के बीच एक विशाल बैंक का प्रादुर्भाव हुआ। इस नए बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों, बैंकरों के बैंक एवं सरकार के बैंक की तिहरी भूमिकाएँ निभाना स्वीकार किया।

परंतु इस गठन के पीछे भारतीय स्टेट बैंक की आवश्यकता पर वर्षों पहले किया गया विचार-विमर्श शामिल था। अंत में एक मिली-जुली संस्था उभर कर सामने आई जो वाणिज्यिक बैंक एवं अर्ध-केंद्रीय बैंक के कार्य निष्पादित करती थी।

वर्ष 1935 में भारत के केंद्रीय बैंक के रुप में भारतीय रिज़र्व बैंक के गठन के साथ इंपीरियल बैंक की अर्ध-केंद्रीय बैंक की भूमिका समाप्त हो गई। इंपीरियल बैंक भारत सरकार का बैंक न रहकर ऐसे केंद्रों में जहाँ केंद्रीय बैंक नहीं है, सरकारी व्यवसाय के निष्पादन के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक का एजेंट बन गया।

परंतु वह करेंसी चेस्ट एवं छोटे सिक्कों के डिपो का तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित शर्तों पर अन्य बैंकों एवं जनता के लिए विप्रेषण सुविधा योजना परिचालित करने का कार्य निरंतर करता रहा। वह बैंकरों का अतिरिक्त नकद अपने पास रखकर तथा प्राधिकृत प्रतिभूति पर उन्हें ऋण देकर उनके बैंक के रुप में भी कार्य करने लगा। ऐसे कई स्थानों पर बैंक समाशोधन गृहों का प्रबंधन भी करता रहा जहाँ पर भारतीय रिज़र्व बैंक के कार्यालय नहीं थे। यह बैंक सरकार की तरफ से रिज़र्व बैंक द्वारा आयोजित राजकोषीय बिल नीलामियों में सबसे बड़ा निविदाकर्ता भी रहा।

रिज़र्व बैंक की स्थापना के बाद इंपीरियल बैंक को एक वाणिज्यिक बैंक के रुप में परिवर्तित करने के लिए उसके संविधान में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए गए। उसके व्यवसाय पर पूर्व में लगाए गए प्रतिबंधों को हटाया गया तथा पहली बार बैंक को विदेशी मुद्रा व्यवसाय करने तथा निष्पादक एवं न्यासी व्यवसाय करने की अनुमति दी गई।

इंपीरियल बैंक[संपादित करें]

इंपीरियल बैंक ने अपने अस्तित्व के बाद से साढ़े तीन दशकों के दौरान कार्यालयों, आरक्षित निधियों, जमाराशियों, निवेशों एवं अग्रिमों के रुप में बहुत ही प्रभावशाली वृद्धि दर्ज की। कुछ मामलों में यह वृद्धि छह गुना से भी अधिक रही।

पूर्ववर्तियों से विरासत में प्राप्त वित्तीय स्थिति और सुरक्षा व्यवस्था ने असंदिग्ध रुप से बैंक को एक ठोस और मजबूत प्लेटफार्म प्रदान किया। इंपीरियल बैंक ने बैंकिंग की जिस गौरवपूर्ण परंपरा का नियमित रुप से पालन किया तथा अपने परिचालनों में जिस प्रकार की उच्च स्तरीय सत्यनिष्ठा का प्रदर्शन किया उससे जमाकर्ताओं में, जिस तरह का आत्मविश्वास था उसकी बराबरी उस समय के किसी भी भारतीय बैंक के लिए संभव नहीं थी। इन सबके कारण इंपीरियल बैंक ने भारतीय बैंकिंग उद्योग में अति विशिष्ट स्थिति प्राप्त की तथा देश के आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान भी प्राप्त किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इंपीरियल बैंक का पूंजी-आधार आरक्षितियों सहित 11.85 करोड़ रूपए था। जमाराशियाँ और अग्रिम क्रमश: 275.14 करोड़ रूपए और 72.94 करोड़ रूपए थे तथा पूरे देश में फैला 172 शाखाओं और 200 उप कार्यालयों का नेटवर्क था।

प्रथम पंचवषीय योजना[संपादित करें]

वर्ष 1951 में जब प्रथम पंचवषीय योजना शुरु हुई तो देश के ग्रामीण क्षेत्र के विकास को इसमें सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। उस समय तक इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया सहित देश के वाणिज्यिक बैंकों का कार्य-क्षेत्र शहरी क्षेत्र तक ही सीमित था तथा वे ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक पुनर्निर्माण की भावी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे। अत: सामान्यत: देश की समग्र आर्थिक स्थिति और विशेषत: ग्रामीण क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सवóक्षण समिति ने इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का अधिग्रहण कर उसमें सरकार की भागीदारी वाले और सरकार द्वारा प्रायोजित एक बैंक की स्थापना करने की सिफारिश की जिसमें पूर्ववती राज्यों के स्वामित्व वाले या राज्य के सहयोगी बैंकों का एकीकरण करने का भी प्रस्ताव किया गया। तदनुसार मई 1955 में संसद में एक अधिनियम पारित किया गया तथा 1 जुलाई 1955 को भारतीय स्टेट बैंक का गठन किया गया। इस प्रकार भारतीय बैंकिंग प्रणाली का एक चौथाई से भी अधिक संसाधन सरकार के सीधे नियंत्रण में आ गया। बाद में, 1959 में भारतीय स्टेट बैंक (अनुषंगी बैंक) अधिनियम पारित किया गया जिसके फलस्वरुप भारतीय स्टेट बैंक ने पूर्ववती राज्यों के आठ सहयोगी बैंकों का अनुषंगी के रुप में अधिग्रहण किया (बाद में इन्हें सहयोगी बैंक का नाम दिया गया) इस प्रकार भारतीय स्टेट बैंक का प्रादुर्भाव सामाजिक उद्देश्य के नए दायित्व के साथ हुआ। बैंक के कुल 480 कार्यालय थे, जिनमें शाखाएं, उप कार्यालय तथा इंपीरियल बैंक से विरासत में प्राप्त तीन स्थानीय प्रधान कार्यालय भी थे। जनता की बचत को जमा करना और ऋण के लिए सुपात्र लोगों को ऋण देने की परंपरागत बैंकिंग की जगह प्रयोजनपूर्ण बैंकिंग की नई अवधारणा विकसित हो रही थी जिसके तहत योजनाबद्ध आर्थिक विकास की बढ़ती हुई और विविध आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करना था। भारतीय स्टेट बैंक को इस क्षेत्र में अग्रदूत होना था तथा उसे भारतीय बैंकिंग उद्योग को राष्ट्रीय विकास के रोमांचक मैदान तक ले जाना था।

सहयोगी बैंक[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. ऊपर जायें↑ http://www.nseindia.com/marketinfo/companyTracker/announceDetails.jsp?symbol=SBIN&desc=Change+in+Director%28s%29&tstamp=071020131736

  2. ऊपर जायें↑ http://www.bseindia.com/corporates/Results.aspx?Code=500112&Company=STATE%20BANK%20OF%20INDIA&qtr=77.50&RType=

वाह्य सूत्र[संपादित करें]


1 comment:

Bank IFSC said...

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Difference Between IFSC Code, MICR Code along side Swift Code As financial transactions aren't limited to financial institutions like banks, comprehensive verification is important before processing a transaction. These codes, namely, MICR, IFSC, and Swift Code play a considerable part in verifying the validity of a trade. But, there is a gap between the usage of these codes. Abbreviated as Indian financial system code meaning IFSC may be a 11-digit alphanumeric code that's wont to recognize the bank branches which participate in various electronic monetary transactions like NEFT or RTGS. One can discover the IFSC code either in his/her bank passbook or round the chequebook. The image below can assist you know better.
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