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Saturday, April 14, 2012

करों का कारवां

करों का कारवां

Saturday, 14 April 2012 10:38

निरंकार सिंह 
जनसत्ता 14 अप्रैल, 2012: अपार संसाधनों और श्रम-शक्ति के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है उसका अनुमान जनता पर करों के भारी बोझ से लगाया जा सकता है। सेवाएं और जरूरत का हर सामान एक साथ शायद ही कभी इतना महंगा हुआ हो जितना प्रणब मुखर्जी के नए बजट के बाद हुआ है। सेवा कर अभी तक दस फीसद की दर से लागू था। अब यह बारह फीसद हो गया है। सेवा कर की मार उपभोक्ताओं पर दोहरी पड़ी है। न केवल दरों में दो फीसद की बढ़ोतरी हुई है, बल्कि अब उसका दायरा एक सौ उन्नीस सेवाओं से बढ़ा कर दो सौ उन्नीस सेवाओं तक कर दिया गया है। इसके साथ ही उत्पाद शुल्क की दर में भी इतनी ही बढ़ोतरी की गई है। जाहिर है, सेवा कर और उत्पाद शुल्क की दरों में इजाफे का अनिवार्य परिणाम महंगाई बढ़ने के रूप में ही होगा। 
एक विकासशील देश में सेवा कर और उत्पाद कर को बारह फीसद की दर से लागू करना अपने आप में चौंकाने वाली बात है। कई वस्तुओं और सेवाओं पर दोहरा और तिहरा कर वसूला जा रहा है।  रेल, बस के किराए के अलावा उस पर सेवा कर भी देना पड़ रहा है। पानी, बिजली की दरें पहले से ही देश में जरूरत से ज्यादा हैं। अब ये दरें और बढ़ जाएंगी। कई वस्तुओं पर तो केंद्र और राज्य अपना अलग-अलग कर वसूल रहे हैं। पेट्रोलियम उत्पाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। 
आखिर कर लगाए जाने की भी कोई सीमा होनी चाहिए। हमारे राजनेता और अधिकारी करों के ढांचे और निर्धारण की तुलना विकसित देशों से करते हैं। पर जिस देश की अधिकतर आबादी गरीब और असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हो उसकी तुलना विकसित देशों से भला कैसे की जा सकती है? प्रतिव्यक्तिआमदनी की दृष्टि से भी हमारी गिनती दुनिया के पिछडेÞ देशों में होती है, इसलिए विकसित देशों की कर प्रणाली से भारत की तुलना नहीं की जा सकती। सरकार अपने खर्चों में कोई कटौती नहीं कर रही है, जबकि जनता पर वह करों का बोझ बढ़ाती जा रही है।   
भारत में कर-व्यवस्था के जनक कौटिल्य के अनुसार राजा (सरकार) को प्रजा (जनता) से इस प्रकार कर-संग्रह करना चाहिए जिस प्रकार बगीचे से पके फल ग्रहण किए जाते हैं। जिस कर को देने में जनता असमर्थ हो उसे कच्चे फल की तरह ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि असमर्थ जनता से कर संग्रह जनता में असंतोष पैदा करता है। कई अन्य ग्रंथों में भी यही प्रतिपादित किया गया है कि उचित ढंग से जनता से कर ग्रहण किया जाना चाहिए। वह इतना अधिक न हो कि जनता को भारयुक्त प्रतीत हो। सरकार को उस मधुमक्खी के समान होना चाहिए जो फूलों को बिना पीड़ा पहुंचाए मधु एकत्रित करती है। मनु ने भी कुछ ऐसा ही उल्लेख किया है। कामंद्रने भी इसी मत का समर्थन किया है। 
लेकिन यूपीए सरकार के वित्तमंत्री ने लगभग सभी प्रकार की सेवाओं पर भारी कर लगा कर जनता की कमर तोड़ दी है। सेवा कर की बढ़ी दरें लागू हो जाने से टेलीफोन बिल, रेस्तरां बिल और अन्य सेवाएं महंगी हो गई हैं। संभव है कि राजकोषीय घाटा कम करने में उत्पाद शुल्क और सेवा कर की बढ़ी दर सहायक हो। आखिर वित्तवर्ष 2012-13 में अकेले सेवा कर के दायरे और दर में बदलाव से वित्तमंत्री ने अठारह हजार छह सौ साठ करोड़ रुपए की अतिरिक्त आमदनी का आंकड़ा बताया है। सेवा कर के कारण अब रेलवे की वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा और शिक्षा क्षेत्र में कोचिंग भी महंगी हो गई हैं। 
यूपीए सरकार एक सौ बीस से अधिक सेवाओं पर सेवा कर टैक्स वसूलेगी, जिनमें हवाई यात्रा, जीवन बीमा, ब्यूटी पार्लर, विज्ञापन, ड्राइ क्लीनिंग, हेल्थ क्लब, केबल आॅपरेटर, क्रेडिट कार्ड, क्रेडिट रेटिंग आदि करीबन सभी सेवाएं शामिल हैं। 
वित्तमंत्री का दावा है कि इस समय देश के सकल घरेलू उत्पाद में सबसे ज्यादा (उनसठ फीसद) योगदान सेवा क्षेत्र का ही है। सेवा क्षेत्र फल-फूल रहा है तो फिर सरकार इससे अपनी आमदनी क्यों न बढ़ाए! आम आदमी पर बोझ बढेÞ तो बढ़ता रहे! महंगाई की चपेट में वाहनों का बीमा भी आ गया है। एक तरफ बीमे के प्रीमियम पर ज्यादा सेवा कर लागू हो गया है तो दूसरी तरफ थर्ड पार्टी बीमे का प्रीमियम भी बीमा नियामक प्राधिकरण ने बढ़ा दिया है। थर्ड पार्टी बीमा कराए बिना किसी भी वाहन को सड़क पर चलाना गैर-कानूनी है। इस बीमे से वाहनधारी को कोई सुरक्षा नहीं मिलती। अलबत्ता सड़क पर सफर कर रहे तीसरे पक्ष को उस वाहन से दुर्घटनाग्रस्त होने पर मुआवजा दिया जाता है। वाहनों के बीमे की शब्दावली में पहला पक्ष वाहन और दूसरा पक्ष वाहन स्वामी कहलाता है। थर्ड पार्टी यानी तीसरा पक्ष सड़क पर चल रहा मुसाफिर माना जाता है। 
मुल्क के नामचीन उद्योग संगठन ऐसोचैम ने भी महंगाई के बारे में सर्वेक्षण कराया, जिसमें ज्यादातर महिलाओं ने कहा कि उन्हें घरेलू बजट को काबू में रखने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। बढ़ते खर्च पर लगाम लगाना मुश्किल हो रहा है। सर्वेक्षण में करीब सत्तर फीसद महिलाओं का मानना है कि ज्यादा सेवा कर के कारण फोन-सुविधा समेत सभी आवश्यक सेवाएं महंगी हो जाएंगी, जिससे उनका घरेलू बजट प्रभावित होगा। उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी से आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी और कठिन हो जाएगी। समस्या यह है कि आम आदमी की आमदनी नहीं बढ़ रही है, लेकिन उस पर करों का बोझ लगातार बढ़ता गया है। 

केंद्र और राज्यों की कथनी में फर्क है। इसका ताजा उदाहरण ब्रांडेड आभूषणों पर उत्पाद शुल्क   और सोने-चांदी के आयात पर सीमा शुल्क में दोगुनी बढ़ोतरी है। इससे केंद्र सरकार को कितना फायदा होगा, यह तय नहीं किया जा सकता, लेकिन सर्राफा व्यापारियों और उनके ग्राहकों को एक नई अड़चन से रोजाना दो-चार होना पडेÞगा। चूंकि इससे कागजी काम बढ़ जाएगा, इसलिए सरकारी कर्मचारियों को भी अपनी गोटी बिठाने का अवसर मिलेगा। कुल मिला कर व्यापारिक क्षेत्र में एक जटिलता का वातावरण पैदा होगा। 
इसमें संदेह नहीं कि किसी भी शासन-व्यवस्था की सफलता उसकी समुचित आय पर निर्भर करती है। राजनीति शास्त्र के विचारकों ने कोष की आवश्यकता और महत्त्व को रेखांकित करने के साथ ही कोष के निमित्त धन-संग्रह करने के संबंध में भी नीति प्रतिपादित की है। कोष भरने का प्रमुख साधन कर-ग्रहण माना गया है। पर कर लेने के लिए राजा स्वतंत्र नहीं था। चूंकि राज-कर का प्रत्यक्ष संबंध प्रजा से था, इसलिए धर्मशास्त्रों में राज-कर निर्धारित करने के सिद्धांत प्रतिपादित किए गए थे। कौटिल्य ने भी प्रजा से कर लेने के संबंध में राजा की स्वतंत्रता का विरोध किया है। 
लोकतंत्र में राजा की जगह सरकार कर लगाती है। कौटिल्य के अनुसार, प्रजा ने कर के रूप में एक निश्चित भाग अपने राजा को देना निर्धारित किया। बदले में राजा ने प्रजा के कल्याण का भार अपने ऊपर लिया। यह कर राजा का वेतन था। इसीलिए राजा को प्रजा का वेतनभोगी सेवक माना गया है। 'अर्थशास्त्र' में कहा गया है कि प्रजा ने धान्य या कृषि उपज का छठा अंश, विक्रय-द्रव्य का दसवां अंश और स्वर्ण राजा को देना निश्चित किया। पर यह आवश्यक था कि राजा अपने कर्तव्य की पूर्ति विधिवत करे। अन्यथा वह अपने इस वेतन के अधिकार से वंचित समझा जाएगा। 
शुक्रनीति में भी राजा के निर्वाह के लिए प्रजा द्वारा उचित अंश देने का उल्लेख मिलता है। कर के रूप में वेतन ग्रहण करने के सिद्धांत का प्रतिपादन पुराण में भी किया गया है। कर के संबंध में दूसरा सिद्धांत यह बताया गया है कि कर उचित समय और स्थान के अनुसार कर लिया जाना चाहिए। 
कौटिल्य ने किसी उद्योग या आय से संबद्ध कार्य के प्रारंभ में ही उस पर कर लगाने का निषेध किया है, क्योंकि अगर प्रारंभ से ही कर लगा दिया जाएगा तो उसमें वृद्धि होना कठिन हो जाएगा। अगर उस व्यवसाय के संपन्न हो जाने पर कर लगाया जाएगा तो वह किसी हानि के बिना कर देने में समर्थ हो सकेगा। 
पर यूपीए सरकार द्वारा इतना अधिक कर लगाए जाने के बावजूद अर्थव्यवस्था संकट में है। सरकार के अनुमान के अनुसार, पिछले वित्तवर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर महज 6.9 फीसद थी, जो 2010-11 की 8.4 फीसद विकास दर की तुलना में बहुत कम है। महंगाई दर सात फीसद से ऊपर, बेहद चिंताजनक स्तर पर बनी हुई है। एक साल के दौरान नीतिगत फैसले लेने में नाकामी और भ्रष्टाचार के कारण निवेशकों का मनोबल गिर गया है। इससे यह वास्तविक खतरा पैदा हो गया है कि कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर नौ-दस फीसद के ऊंचे स्तर को छूने की जगह लुढ़क कर छह से सात फीसद के बीच न झूलती रह जाए। 
ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में तुरंत तेजी लाने की जरूरत है। दो फैसले इसमें मददगार साबित हो सकते हैं। एक, पूंजी बाजार को उदार बनाने के लिए उपाय करना, और दूसरा, राजकोषीय घाटे में अच्छी-खासी कमी लाना। पिछले दशक के मध्य में भारत की विकास दर नौ फीसद थी, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेजी का माहौल था। अगले पांच वर्षों में विकास दर में इस तरह की तेजी की संभावना नहीं दिखती। 
भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ने से रोकने वाली बुनियादी समस्याओं को सुलझाने के लिए घरेलू मोर्चे पर गंभीर कोशिशें करनी होंगी। श्रम को प्रोत्साहन देने वाले उद्योग, कृषि, बिजली, सड़कों, कुशल कर्मियों और खाद्य सबसिडी जैसे अहम मसलों को बजट आबंटनों से नहीं सुलझाया जा सकता। नीतियों, नियमों, प्रोत्साहन और नतीजे देने वाली व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन और सुधारों की दूसरी लहर से ही इन महत्त्वपूर्ण सेक्टरों को उस जाल से निकाला जा सकता है जिसमें वे कई दशकों से उलझे हुए हैं। लेकिन वित्तमंत्री खुद एक जाल में उलझ सकते हैं। राजनीतिक माहौल सुधारों की प्रक्रिया लागू होने के लिए अनुकूल नहीं है। 
दरअसल, अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को लोकलुभावन योजनाओं के चक्रव्यूह से निकलना होगा जो भारी धनराशि बट््टे खाते में डाल देती हैं। इसका अधिकतर हिस्सा भ्रष्ट राजनीतिकों, अधिकारियों, ठेकेदारों और दलालों की जेब में चला जाता है। यही कारण है कि गांवों और गरीबों की दशा में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आ पाता और इन योजनाओं का भार भी जनता को उठाना पड़ता है।

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