क्या सिर्फ सवर्णों में ही होती है साहित्यिक प्रतिभा?
अपने तीन साल पूरे होने पर फारवर्ड प्रेस ने अपना अप्रैल अंक 'बहुजन साहित्य वार्षिकी : 2012′ के रूप में प्रकाशित किया है। अंक बाजार में आ गया है और जाहिर है, इस नयी अवधारणा पर चर्चा, समर्थन और विरोध भी शुरू हो गया है। फेसबुक पर यह बहस कथन के संपादक रमेश उपाध्याय ने शुरू की है। रमेश जी का तर्क है कि साहित्य को जाति के खेमे में नहीं बांटा जाना चाहिए, खासकर उन लेखकों को तो बिल्कुल नहीं, जो प्रगतिशील हैं और जिन्होंने ब्राह्मणवाद के विरोध में लड़ाई लड़ी है।
दरअसल यह बहस फारवर्ड प्रेस द्वारा साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ अवार्डियों की जातियों की सूची प्रकाशित कर देने के बाद उठ खड़ी हुई है।
हां, फारवर्ड प्रेस से संबंधित एक सूचना और। पत्रिका ने अनुवाद सह सहायक संपादक पद के लिए विज्ञापन जारी कर आवेदन मांगा है। विज्ञापन में कहा गया है कि दलित-आदिवासी ओर पिछड़ों को वरीयता दी जाएगी। मजमून देखें…
द्विभाषी (अंग्रेजी–हिंदी) पत्रिका फारवर्ड प्रेस के लिए अनुवादक-सह-सहायक संपादक की आवश्यकता है
→→ दोनों भाषाओं में धाराप्रवाह लिखने की क्षमता हो
→→ पत्रकारिता अथवा साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले को वरीयता
→→ अनुवाद करने से पहले मूल भाषा में कॉपी एडिट और री-राइटिंग करना आना चाहिए
→→ अनुवाद समसामयिक मुहावरे में हो
→→ समयबद्ध रूप में काम कर पाने की योग्यता
→→ कंप्यूटर पर सहजता से काम कर पाये – माइक्रोसॉफ्ट वर्ड तथा इंटरनेट का इस्तेमाल आता हो
→→ "फॉरवर्ड विचार" रखने वाला तथा पत्रिका के विजन और मूल्यों से मोटे तौर पर सहमति आवश्यक
→→ बाकी बातें समान रहने पर, दलित-बहुजन (ओबीसी/एससी/एसटी) उम्मीदवार को वरीयताअपने सीवी तथा संभव हो तो, अंग्रेजी तथा हिंदी लेखन के नमूनों के साथ 25 अप्रैल 2012 तक aspire.prakashan@gmail.com पर भेजें।
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मॉडरेटर
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