उम्रकैद के खिलाफ आगे आयें
सीमा आजाद को कोई भी राहत मिलनी है तो सुप्रीम कार्ट से ही मिलेगी क्योंकि देखा गया है कि शासन प्रशासन निचली अदालतों को प्रभावित करने में सफल हो रहे हैं तथा सरकारों द्वारा नक्सलवाद व माओवाद लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने.कुचलने का हथकण्डा बन गया है...
कौशल किशोर
आज ऐसी व्यवस्था है जहाँ साम्प्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी, बाहुबली व माफिया सत्ता की शोभाबढ़ा रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं, देशभक्ति का तमगा पा रहे हैं, वहीं इनका विरोध करने वाले, सर उठाकर चलने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है, उनके लिए जेल की काल कोठरी और उम्रकैद है. पिछले वर्षों में मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को उम्रकैद की सजा मिली थी और डॉ दिन पहले मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय आजाद को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. शुक्रवार 8 जून को इलाहाबाद की निचली अदालत ने इन दोनों कार्यकर्ताओं को उम्रकैद की सजा सुनाई है. यह लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन तथा इस देश में वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों के लिए बड़ा आघात है.
सीमा आजाद को विश्वविजय के साथ 6 फरवरी 2010 को इलाहाबाद में गिरफ्तार किया गया था. वे दिल्ली पुस्तक मेले से लौट रही थीं. उनके पास मार्क्सवादी व वामपंथी साहित्य था. अभी वे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतर अपने घर के रास्ते में थीं जब उन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स ने हिरासत में ले लिया. उनकी गिरफ्तारी गैरकानूनी गतिविधि निरोधकद् कानून के तहत की गई थी. पुलिस का आरोप था कि इनके माओवादियों से सम्बन्ध हैं तथा 'राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध' भड़काने जैसी गैरकानूनी गतिविधियों व क्रियाकलाप में लिप्त हैं. पुलिस के आरोप से सहमत होते हुए न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया है.
सीमा आजाद द्वैमासिक पत्रिका 'दस्तक' की सम्पादक तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) उत्तर प्रदेश के संगठन सचिव के बतौर नागरिक अधिकार आंदोलनों से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता हैं. सीमा आजाद के पति विश्वविजय छात्र आंदोलन और इंकलाबी छात्र मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. ये लोकतांत्रिक संगठन हैं जिनसे ये जुड़े हैं. सीमा आजाद के लिए लेखन व पत्रकारिता शौकिया न होकर अन्याय व जुल्म के खिलाफ लड़ने का हथियार रहा है. सीमा आजाद ने जिन विषयों को अपने लेखन, पत्रकारिता, अध्ययन तथा जाँच का आधार बनाया है, वे पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों पर हो रहे हमले, दलितों खासतौर से मुसहर जाति की दयनीय स्थिति, पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी से हो रही मौतों व इस सम्बन्ध में प्रदेश सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति, औद्योगिक नगरी कानपुर के कपड़ा मजदूरों की दुर्दशा, प्रदेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना गंगा एक्सप्रेस द्वारा लाखों किसान जनता का विस्थापन आदि रहे हैं.
गौरतलब है कि सीमा आजाद और वि"वविजय का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद व कौसाम्बी जिले का कछारी क्षेत्र रहा है जहाँ माफिया, राजनेता व पुलिस की मिलीभगत से अवैध तरीके से बालू खनन किया जा रहा है तथा इनके द्वारा काले धन की अच्छी.खासी कमाई की जा रही है. इस गठजोड़ द्वारा खनन कार्यों में लगे मजदूरों का शोषण व दमन यहाँ का यथार्थ है तथा इस गठजोड़ के विरोध में मजदूरों का आन्दोलन इसका स्वाभाविक नतीजा है. मजदूरों के इस आंदोलन को दबाने के लिए उनके नेताओं पर पुलिस.प्रशासन द्वारा ढ़ेर सारे फर्जी मुकदमें कायम किये गये, नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुईं और इन पर तरह तरह के दमन ढ़ाये गये. सीमा आजाद इस आन्दोलन से जुड़ी थीं. उन्होंने न सिर्फ इस अवैध खनन का विरोध किया बल्कि यहाँ हो रहे मानवाधिकार के उलंघन पर जोरदार तरीके से आवाज उठाया.
ये ही सीमा आजाद और उनके साथी वि"वविजय के क्रियाकलाप और उनकी गतिविधियाँ है जिन्हे 'राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध' की संज्ञा देते हुए पुलिस.प्रशासन द्वारा इन्हें नक्सली व माओवादी होने के आधार के रूप में पेश किया गया है. यही नहीं, इनके माओवादी होने के लिए पुलिस ने कुछ और तर्क दिये हैं. जैसे, पुलिस का कहना है कि ये 'कामरेड' तथा 'लाल सलाम' का इस्तेमाल करते हैं. इसी तरह का तर्क सीमा आजाद के पास से मिले वामपंथी व क्रान्तिकारी साहित्य को लेकर भी दिया गया.
सीमा आजाद की जिन गतिविधियों और क्रियाकलाप को गैरकानूनी कहा जा रहा है, वे कहीं से भी भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिये गये अधिकारों के दायरे से बाहर नहीं जाती हैं बल्कि इनसे सीमा आजाद की जो छवि उभरती है वह आम जनता के दुख.दर्द से गहरे रूप से जुड़ी और उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाली लेखक, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता की है.
ऐसे ही आरोप पुलिस द्वारा विनायक सेन पर भी लगाये गये थे तथा इनके पक्ष में पुलिस की ओर से जो तर्क पेश किये गये, वे बहुत मिलते.जुलते हैं. माओवादियों से सम्बन्ध, राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध तथा राजद्रोह जैसे आरोपों के तहत ही विनायक सेन को 14 मई 2007 को गिरफ्तार किया गया था. करीब दो साल तक साधारण कैदियों से भी बदतर हालत में जेल में रखा गया. इन्हीं आरोपों के आधार पर छत्तीसगढ की निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई और बाद में हाईकोर्ट ने इस सजा को बहाल रखा.
यह तो सर्वोच्च न्यायालय है, जिसने छत्तीसगढ़ की अदालत की उम्रकैद की सजा देने के आधार को ही गलत माना और आरोपों को खारिज करते हुए विनायक सेन को बरी किया. सुप्रीम कोर्ट का तर्क था कि जैसे गांधी की पुस्तक रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता उसी तरह माओ साहित्य रखने की वजह से कोई जरूरी नहीं कि वह माओवादी हो.
सीमा आजाद के मुकदमें की दिशा भी यही है. सीमा आजाद को कोई भी राहत मिलनी है तो सुप्रीम कार्ट से ही मिलेगी क्योंकि देखा गया है कि शासन प्रशासन निचली अदालतों को प्रभावित करने में सफल हो रहे हैं तथा सरकारों द्वारा नक्सलवाद व माओवाद लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने.कुचलने का हथकण्डा बन गया है. जन आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध भड़काने, राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप आम होते जा रहे हैं.
छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार द्वारा लोकतांत्रिक व मानवाधिकारों को दबाने का जो प्रयोग शुरू किया गया था, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्य सरकारों द्वारा उसी नुस्खे को अमल में लाया जा रहा है. सीमा आजाद की उम्रकैद इसी का उदाहरण है. अदालत की इस कार्रवाई के विरुद्ध व्यापक जनमत बनाना जरूरी है.
(कौशल किशोर जसम के सदस्य और संस्कृतिकर्मी हैं.)

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