Wednesday, 13 June 2012 10:11 |
सुरेंद्र किशोर इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार के मामले में अपनी चिंता जाहिर करता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अगर 2-जी स्पेक्ट्रम जैसे मामले में पहल न की होती तो क्या होता इस देश का? भ्रष्टाचार के एक मामले की अनदेखी इस देश में दूसरे और बडेÞ घोटाले की प्रेरणा देती रही है। इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट की चिंता और पहल से न्यायप्रिय लोगों को खुशी होती है। वीवीआइपी मामलों की सुनवाई में देरी के प्रति सुप्रीम कोर्ट की पहल से लोगों में एक उम्मीद बनी है। पर मुकदमों की सुनवाई में देरी के पीछे सिर्फ अदालतों की अपनी कछुआ चाल जिम्मेवार नहीं है। कई अन्य कारण भी हैं। उसके लिए सरकारें और अभियोजन पक्ष भी जिम्मेदार हैं। इनके अलावा देश की अदालतों में ढांचागत सुविधाओं की भारी कमी है। विभिन्न स्तरों पर न्यायाधीशों की संख्या जरूरत के मुकाबले कम है। देश की मुख्य अभियोजन संस्था सीबीआइ में भी अधिकारियों-कर्मचारियों की भारी कमी है। सीबीआइ में इन दिनों 855 पद रिक्त हैं। इनमें विधिक अधिकारियों के इकसठ खाली पद शामिल हैं। कुल रिक्त पदों में 626 पद तो कार्यपालक स्तर के हैं। एक तरफ जहां सीबीआइ पर काम के बढ़ते बोझ को देखते हुए मौजूदा स्वीकृत पदों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है, मगर दूसरी ओर मौजूदा स्वीकृत पदों में से भी बड़ी संख्या में पद खाली रखे गए हैं। इससे भ्रष्टाचार से निपटने के प्रति सरकार में गंभीरता की कमी का पता चलता है। गवाहों को अदालतों तक पहुंचाने के मामले में भी सीबीआइ अक्सर लचर साबित होती है। गवाहों की सुरक्षा का कोई संस्थागत प्रबंध नहीं है। साथ ही गवाहों का दैनिक भत्ता हास्यास्पद रूप से कम है। सीबीआइ के केस में गवाह को मात्र 275 रुपए दैनिक भत्ते के रूप में दिया जाता है। अगर किसी गवाह को कहीं दूर से ट्रेन या विमान से चल कर गवाही देने आना है तो उसके लिए उसको खुद अपनी जेब से खर्च करना होता है। कितने गवाह चाहेंगे कि इस काम में उनका अपना पैसा लगे? इस कारण गवाह अदालत में उपस्थित होने से अक्सर टालमटोल करते हैं। हालांकि इसके बावजूद पिछले साल सीबीआइ के इकहत्तर प्रतिशत मामलों में अदालतों ने सजा सुनाई थी। भले सजा मिलने में देर होती है। पर अगर सीबीआइ की ढांचागत बेहतरी की दिशा में ठोस काम हों तो नतीजे और भी त्वरित और बेहतर होंगे। यानी कुल मिला कर स्थिति यह है कि प्रभावशाली लोगों को शीघ्र सजा दिलाने के रास्ते में सिर्फ अदालतों के स्तर पर देरी नहीं होती, बल्कि ऐसे मामलों के घिसटते रहने के कई अन्य कारण भी हैं जिनकी ओर अन्य पक्षों को भी सोच-विचार करना होगा। देश की पूरी राजनीति और नौकरशाही को भी यह महसूस करना होगा कि भ्रष्टाचार से ही देश में अन्य अनेक तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। कई जानकार लोग और प्रमुख नेतागण भी यह कह चुके हैं कि माओवादियों के मजबूत होते जाने के पीछे सरकारी भ्रष्टाचार प्रमुख कारण है। लोक सेवकों पर मुकदमे चलाने के लिए उनके ऊपर के अधिकारी से पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है। ऐसी कानूनी बाध्यता है। पर यह अनुमति देने में मनमानी देरी की जाती है। पर्याप्त सबूत जुटा लेने के बाद भी जांच एजेंसियां मुकदमा चलाने के लिए इजाजत मिलने की बाट जोहती रहती हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा के केस में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे मामले में सरकार तीन महीने के भीतर यह निर्णय कर ले कि वह किसी व्यक्ति पर मुुकदमा चलाने की अनुमति दे रही है या नहीं। अगर किसी मामले में सरकार महाधिवक्ता से सलाह लेना चाहती है तो वह एक महीना और समय ले सकती है। पर उससे अधिक नहीं। इसके बावजूद अब भी अनेक मामले अभियोजन की स्वीकृति के लिए विभिन्न स्तरों पर लंबित हैं। केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें इन मामलों में गंभीरता दिखातीं तो अण्णा आंदोलन की जरूरत ही क्या रहती? |
Wednesday, June 13, 2012
भ्रष्टाचार और अदालत की गति
भ्रष्टाचार और अदालत की गति
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