Tuesday, 12 June 2012 11:06 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' इस काल में, जैसा भी आधा-अधूरा, लंगड़ा-लूला कहिए, 'पंचायती राज' तो संविधान का हिस्सा बन चुका है। आंचलिक प्रदेशों का गठन और मांग चालू है- उत्तराखंड, झारखंड का निर्माण हो चुका है- तेलंगाना की मांग लगातार तीव्र बन रही है। हम सिर्फ यह ध्यान दिला रहे हैं कि अगर 1947-49 में पूरी तरह से परायी बुद्धि के दास न होते और थोड़ा भी स्वविवेक जागृत होता तो राष्ट्रपति चुनाव मंडल में से किस स्तर के जनप्रतिनिधि को अलग कर देते या ऐसा संविधान कैसे पारित कर लेते जिसमें जनता पर वास्तविक हुकूमत तो सुलतानशाही कलक्टर की चले, लेकिन केंद्र में नेहरू जी का प्रजातंत्र हो? फिर स्पष्ट कर दें, हमारा मुद्दा राष्ट्रपति निर्वाचन मंडल के सीमित या अनंत विस्तार का नहीं है। हम मात्र यह विमर्श खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं कि पद की महिमा के अनुरूप व्यक्तित्व गढ़ने की कला भी विकसित हो सके। गांधीजी जो प्रयास अधूरा छोड़ गए हैं, उसे पूरा करने, आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अब भारत समुदायम की है। गणतंत्र तभी बनेगा जब गण-गण सक्रिय होंगे। वर्तमान संदर्भ में देखें तो यह कतई महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कौन बनेगा राष्ट्रपति। आज प्रश्न है कौन बनाएगा राष्ट्रपति। इस बार निर्णय का अवसर दो नौजवान नेताओं के हाथ में है। एक हैं कांग्रेस के राहुल गांधी। दूसरे हैं समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव। शोचनीय विषय है कि जिन दो नेताओं को भारतीय राजनीति में लंबी पारी खेलनी है वे दोनों अभी तक इस विषय पर मौन हैं, या उदासीन? राहुल फिलहाल हारे हुए नेता हैं, इसलिए उनका पहल करने से हिचकना उचित दिखाई पड़ता है। लेकिन अखिलेश क्यों रुचि नहीं ले रहे? पिता मुलायम सिंह यादव (सपा सुप्रीमो) से अनुमति ग्रहण करना अनिवार्य जैसा हो तो उस औपचारिकता का निर्वहन अवश्य करें, लेकिन उत्तर प्रदेश का युवा मुख्यमंत्री राष्ट्रपति के चुनाव में निष्क्रिय दिखाई न दे। अखिलेश को यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। निर्वाचन मंडल में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मताधिकार उन्हीं के पास है। उम्र के हिसाब से देखें तो अखिलेश यादव को अगले तीन दशक भारतीय राजनीति में सक्रिय भाग लेना और महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करना है। स्वयं उनके पिता मुलायम सिंह को इस तथ्य की गहरी सूझ-बूझ होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव 1950 से निरंतर राजनीतिक दांव-पेच में उलझा हुआ विषय है। लंबे अरसे बाद अवसर आया है कि समाजवादी गुट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने की स्थिति में है। भारतीय राजनीति को दुरुस्त करने के लिए पहला कदम यही हो सकता है कि समुचित व्यक्तित्व इस पद की शोभा बढ़ाए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री निश्चित ही ऐसा उम्मीदवार प्रस्तुत कर सकते हैं जो राजनीति में सिर्फ बड़ी उथल-पुथल नहीं, बल्कि वास्तव में रायसीना पहाड़ी पर नई बयार बहा सकता है। आज के निराशाजनक राजनीतिक माहौल में एक नई किरण दिखाई देने लगेगी। ऐसे समुचित उम्मीदवार का नाम है गोपाल कृष्ण गांधी। और नाम भी तलाशे जा सकते हैं। समाजवादी पार्टी पहल करने का निर्णय करे- खुल कर मैदान में उतरे। पार्टी के अधिकृत संयोजक की हैसियत से अखिलेश प्रथम संवाद राहुल गांधी से शुरू करें। दूसरी मुलाकात के लिए ममता दीदी के पास कोलकाता पहुंच जाएं। किसी भी सूरत में, इस संबंध में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री निष्क्रिय दिखाई न पड़ें। ऐसी निष्क्रियता उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए घातक सिद्ध होगी। समाजवादी पार्टी चाहे तो एक सर्वथा उपयुक्त उम्मीदवार उपराष्ट्रपति पद के लिए भी मौजूद है- नाम है के विक्रम राव। उन्होंने राजनीति में 1950 के दशक से सक्रिय भागीदारी की है। वे मात्र वरिष्ठ पत्रकार नहीं, आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष के योद्धा भी हैं। केवल समाजवादी पार्टी नहीं, सभी राजनीतिक दलों में जो युवा नेतृत्व विकसित हुआ है वह अपनी भूमिका का महत्त्व समझेगा तो नई राजनीति का जन्म होगा। राष्ट्रपति का चुनाव उचित अवसर है, सब मिल कर प्रयास करेंगे तो निश्चित ही शुभारंभ होगा। (समाप्त) |
Wednesday, June 13, 2012
राष्ट्रपति चुनाव की बाजी
राष्ट्रपति चुनाव की बाजी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment