Thursday, 14 June 2012 09:55 |
अरुण कुमार त्रिपाठी मनमोहन सिंह सचमुच बुरे नहीं हैं, न ही उनके परिवार के किसी सदस्य पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। पर वे लालची और क्रूर पूंजीवादी हितों को साधने वाले सलाहकारों से घिरे हैं। उनके सलाहकार इन आंदोलनों की आड़ लेकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। उनकी स्थिति उस नवाब जैसी है जिसने रात में महल के आसपास सियारों को हुंआते हुए सुना तो सुबह दरबारियों से पूछा कि वे क्यों रो रहे हैं? दरबारियों ने कहा महराज वे ठंड में ठिठुर रहे हैं। उन्हें कंबल चाहिए। नवाब ने आदेश दिया कि उन्हें कंबल बांट दिया जाए। लेकिन सियारों का रोना बंद नहीं हुआ। इस पर उन्होंने पूछा कि अब वे क्यों रो रहे हैं तो दरबारियों ने कहा कि अब रो नहीं रहे हैं, आपको दुआएं दे रहे हैं। जाहिर है कंबल कहां गया होगा। प्रधानमंत्री इसी तरह के प्रशासकों, बौद्धिकों और जनमत बनाने वालों से घिरे हैं जो उन्हें आर्थिक सुधारों का कंबल बार-बार बांटने की सलाह दे रहे हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि इस देश की आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं की हकीकत क्या है? प्रधानमंत्री की मुश्किल यह है कि वे यह कैसे स्वीकार करें कि उदारीकरण की कहानी अब उपसंहार पर पहुंच चुकी है। उसका नफा-नुकसान पूरी दुनिया के सामने है। दुनिया के संपन्न तबके ने उसका खूब फायदा उठाया है, लेकिन अब वह उससे ज्यादा फायदा नहीं उठा पा रहा है क्योंकि उसके सामने विशाल गरीब वर्ग और वित्तीय और पर्यावरणीय अड़चनें आकर खड़ी हो गई हैं। लेकिन यहां भी प्रधानमंत्री का सलाहकार वर्ग उन नीतियों की विफलता के लिए पहले वामपंथ और अब ममता बनर्जी को दोषी बता कर उन्हें गलतफहमी में रखे हुए है। बीच में माओवादी बहाने के तौर पर मिले थे और अब अण्णा हजारे और रामदेव मिल गए हैं। बहुत संभव है मनमोहन सिंह इन नीतियों की सीमाएं समझते हों, तभी वे कह भी रहे हैं कि स्थिति 1991 जैसी आ गई है। उनकी दिक्कत यह है कि वे एक घाघ राजनीतिक हो नहीं सकते और अपनी नीतियों को पूरी तरह पलट देने वाले अर्थशास्त्री भी नहीं बन सकते। हालांकि एक प्रोफेसर के तौर पर उनका अतीत वामपंथी रुझानों का रहा है। इसके दो प्रमाण मौजूद हैं। पंजाब के एक नक्सली नेता हाकम सिंह पर तो पुलिस ने उन्हें अपना सहयोगी बताने के लिए दबाव भी डाला था। पर उन्होंने उनका नाम न लेकर उन्हें बचा दिया। दूसरी बार जब वे 1980-82 के बीच योजना आयोग के सदस्य थे तो बिहार के नक्सलवाद पर किया गया उनका अध्ययन भी जन-विरोधी नहीं था। लेकिन आज जिस तरह से उनके सलाहकार और समर्थक उन्हें कड़े फैसले लेने के लिए ललकार रहे हैं, वह आर्थिक भाषा तो हो सकती है लेकिन राजनीतिक कतई नहीं। इस भाषा-शैली से कट््टर नवउदारवादी भले खुश होते हों लेकिन आम जनता चिढ़ती है। मनमोहन सिंह के पास दो साल का मौका है। इस बीच वे अपनी ही नीतियों को नया आयाम दे सकते हैं और देश में बढ़ती राजनीतिक अनिश्चितता को स्थिरता। यह तभी हो सकता है जब वे तमाम सलाहकारों को दरकिनार कर नया राजनीतिक अर्थशास्त्र गढ़ें, जो चीन की तरह तरक्की को आम जन तक ले जाए, उसकी गरीबी मिटाए और विभिन्न क्षेत्रों में घटते उत्पादन और घटती वृद्धि दर को रोक सके। यानी वह सचमुच समावेशी हो। हालांकि अच्छा अर्थशास्त्र किसी अच्छी और कामयाब राजनीति की गारंटी नहीं होता, लेकिन अगर वह मायावती जैसे अहंकारी तेवर के बजाय मनमोहन सिंह जैसी शालीनता के साथ किया जाए तो कोई वजह नहीं कि उसके अच्छे परिणाम न निकलें। वैश्विक मंदी के बावजूद 2009 के आम चुनाव में यूपीए का ज्यादा संख्याबल के साथ सत्ता में लौटना उसका प्रमाण है। संभव है ऐसा करते हुए मनमोहन सिंह एक राजनेता के तौर पर अपनी अविस्मरणीय छाप छोड़ जाएं। |
Thursday, June 14, 2012
मनमोहन सिंह को चाहिए नई छवि
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/21692-2012-06-14-04-26-39
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