Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Wednesday, June 13, 2012

राष्ट्रपति की कसौटी

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/21444-2012-06-11-05-32-47

Monday, 11 June 2012 11:01

अरुण कुमार 'पानीबाबा' 
जनसत्ता 11 जून, 2012: भारत गणतंत्र संघ के शासन-प्रशासन और राज्य की सर्वाधिक संवेदनशील कड़ी राष्ट्रपति का पद है। गणतंत्र संघ की सर्वोच्च-समस्त सत्ता राष्ट्रपति के पद में निहित है। भारत के राष्ट्रपति की कार्यप्रणाली, पद के महत्त्व, भूमिका और इतिहास (पदासीन विविध व्यक्तित्व) आदि का कोई विधिवत अध्ययन उपलब्ध नहीं है। पिछली सदी के पचास बरसों में दस विभिन्न व्यक्तियों ने इस पद को सुशोभित किया है। उस दौर के अभिलेख विद्वतजनों के लिए उपलब्ध होने चाहिए- लेकिन कोई अध्ययन-विश्लेषण हाल-फिलहाल सामने नहीं आया?
हमारी दृष्टि में यह विषय रोचक चर्चा, गंभीर संवाद और विश्लेषण-विमर्श का मुद्दा है। राष्ट्रपति राष्ट्र और संविधान का एकमात्र संरक्षक है। इस विषय पर प्रामाणिक निबंध या संवाद का अभाव प्रमाण है कि हमारे 'विद्वतजन' सामान्यत: निखट््टू और मूलत: खुशखतनवीस हैं जो पेरिस, लंदन, न्यूयार्क में संपादित-शोधित ज्ञान का 'हिंगलिश' में रूपांतरण करते रहते हैं।
राष्ट्राध्यक्ष के पंद्रहवें चुनाव की पूर्व वेला में पिछले दो पखवाड़ों से जो भी चर्चा इस विषय के सैद्धांतिक पक्ष और सामयिक राजनीति पर हुई है उसमें गंभीरता का स्पष्ट अभाव लक्षित होता है। पहले दो गवर्नर २जनरल (लॉर्ड माउंटबेटन और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी) 15 अगस्त, 1947 से 25 जनवरी 1950 तक, उसके बाद बासठ बरसों में चौदह चुनाव- एक दर्जन राष्ट्रपति- पैंसठ बरस के इतिहास और प्रयोग पर एक संक्षिप्त निबंध 1962 में जहीर मसूद कुरैशी (दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक), दूसरा संकलन समाजवादी नेता-सांसद मधु लिमये के अखबारी लेखों का है- जो 1987 में ज्ञानी जैल सिंह बनाम राजीव गांधी विवाद के संबंध में लिखे गए। और कुछ भी हो सकता है, पर अति विशिष्ट अध्ययन केंद्रों में उपलब्ध तो नहीं है।
इंग्लैंड और फ्रांस में सोलहवीं सदी से संसदीय शासन के विकास में सम्राट की जगह एक सीमित वैधानिक राज्याध्यक्ष का पद सृजित होता दिखाई देता है। इंग्लैंड में सम्राट चार्ल्स प्रथम को गृहयुद्ध के बाद 1647 में फांसी दी गई। लेकिन 1660 में पुन: उसके पुत्र चार्ल्स द्वितीय को निर्वासन से वापस बुला लिया गया। लेकिन जनतंत्र में ऐसे औपचारिक राष्ट्राध्यक्ष की क्या आवश्यकता है? चुनी हुई संसद- उसके प्रति उत्तरदायी शासन की कार्यकारिणी है- तब महज शोभा के लिए सम्राट या राष्ट्राध्यक्ष चाहिए? विचारणीय विषय है- राज्य की संस्था के विकास और दार्शनिक तत्त्वों के संबंध में तो  हाब्स, लाक, रूसो का विश्लेषण मिलता है- लेकिन शोभायमान राष्ट्राध्यक्ष की आवश्यकता पर तात्त्विक संवाद सहज सुलभ नहीं है।
स्वतंत्र भारत में राष्ट्राध्यक्षपद के उद््भव की रोचक कथा है। चौदह-पंद्रह अगस्त 1947 की मध्य रात्रि में संविधान सभा ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। पर सत्ता हस्तांतरण अगली सुबह, 15 अगस्त 1947 को, वायसराय भवन के दरबार हॉल में तब हुई जब लॉर्ड लुई माउंटबेटन ने महाराजा जॉर्ज षष्टम का संदेश पढ़ कर सुनाया और फ्रीडम आॅफ इंडिया एक्ट-1947 के लागू होने की घोषणा की।
घोषणा पढ़ने तक लुई माउंटबेटन जॉर्ज षष्टम के प्रतिनिधि थे, अगले क्षण वह स्वतंत्र भारत के राष्ट्राध्यक्ष हो गए। मुद्दा नई शपथ या कानूनी नुक्ते का कतई नहीं है। केवल यह संज्ञान आवश्यक है कि स्वतंत्र भारत का प्रथम राष्ट्राध्यक्ष बिना किसी नई औपचारिकता के स्थापित हुआ था, सिर्फ अपने सम्राट के प्रति उत्तरदायी था, केवल ब्रिटेन के हितों का रक्षक था। जो कुछ भी हुआ या नहीं हुआ- प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उप प्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल की सहमति से हुआ। तीस बरस तक चले स्वतंत्रता संग्राम में एक लाख से अधिक लोगों की सीधी भागीदारी मानी जाती है। लेकिन न केंद्रीय धारासभा या मंत्रणा परिषद या उसके अन्य सदस्यों का इस निर्णय से कोई संबंध था, न किसी ने कोई पूछताछ की न एतराज किया।
माउंटबेटन 15 अगस्त 1947 से 20 जून 1948 तक स्वेच्छा से स्वतंत्र भारत निर्माण के प्रथम तीन सौ दस दिन राष्ट्राध्यक्ष थे। इन्हीं आरंभिक दिनों में कश्मीर पर हमला हुआ और फिरंग राष्ट्राध्यक्ष ने ऐसा दबाव बनाया कि न तो कब्जा खाली कराया जा सका, न समस्या का वार्ता से समाधान हो सका। प्रधानमंत्री ने बिना मंत्रिमंडल से सलाह किए 'मसला' संयुक्त राष्ट्र को पंचायती के लिए सुपुर्द कर दिया।
इन्हीं दस महीनों में यूरोपीय शाही वंश के राजकुमार लुई माउंटबेटन (वहां के सभी राजवंश आपस में संबंधित हैं और भाईबंद हैं) ने अपना उत्तराधिकारी भी नियुक्त करवा दिया। पहले नवंबर 1947 में दो सप्ताह के लिए स्थानापन्न गवर्नर जनरल नियुक्त करवाया- माउंटबेटन को राजकुमारी एलिजाबेथ (सन 1952 से महारानी) और अपने भतीजे राजकुमार फिलिप के विवाह समारोह में शामिल होना था; उस अनुपस्थिति के कारण उन्होंने बंगाल के गवर्नर चक्रवर्ती राज गोपालाचारी का नाम प्रस्तावित किया- नेहरू और पटेल ने हां कर दी। माऊंटबेटन के पूर्ण सेवानिवृत्त होने पर किसी को भी सोचना ही नहीं पढ़ा।
यहां दो तथ्यों का स्मरण आवश्यक है। पहला, पोलो खेल के अच्छे जानकार-प्रशंसक माऊंटबेटन ने 'स्वतंत्रता का खेल' उसी अंधी गति से आयोजित किया जिसे पोलो में 'अंतिम घड़ी का रणकौशल' कहा जाता है। नेहरू-पटेल से सौदा पटते ही स्वतंत्रता की घोषित तारीख जून 1948 से खिसका कर 15 अगस्त 1947 कर दी- जो कार्रवाई चौदह महीनों में संपन्न करने की घोषणा थी   वह मात्र साढ़े तीन महीनों में पूरी करवा दी। घटनाक्रम दोनों भारतीय नेताओं के आगे दौड़ता रहा- वे उसे पकड़ने के प्रयास में पीछे होते चले गए। इस गति की बाबत इक्का-दुक्का ब्रिटिश इतिहासकार तो टिप्पणी करते रहते हैं, लेकिन किसी भारतीय का कोई निबंध-विश्लेषण इस विषय में देखा नहीं गया।

दूसरा अत्यंत संवेदनशील तथ्य यह है कि जिस तिकड़ी नेतृत्व ने गांधी को अंधेरे में रख कर बंटवारे की कीमत पर आजादी का सौदा किया- राजाजी उसके प्रथम प्रवक्ता थे (1941 से)। राजाजी का दावा है कि अंतिम वायसराय को भी बंटवारे का सूत्र उन्हीं ने पकड़ाया था।
संयुक्त राष्ट्र को कश्मीर मसले की सुपुर्दगी से अपने वारिस की नियुक्ति तक का घटनाक्रम प्रमाणित परिपाटी है जो भारत के राष्ट्राध्यक्ष की भूमिका परिभाषित करती है। हमारी समझ से राष्ट्राध्यक्ष की वही भूमिका आज भी वैध है। विचित्र है कि एक भी भारतीय ने उस काल-चक्र का अध्ययन ही नहीं किया। इतिहासविद बिपन चंद्र का खेमा भी माउंटबेटन-काल पर कोई टिप्पणी नहीं करता।
विषय की संवैधानिक व्याख्या पर छिटपुट चर्चा, वाद-संवाद पिछले बासठ बरसों से जारी है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1950 में पद ग्रहण करते ही कानूनी कर्तव्यों-अधिकारों के संबंध में औपचारिक चर्चा शुरू कर दी थी। यह विवाद जैल सिंह के काल (1982 से 1987) में गरिमाहीन हो गया। जैल सिंह ने राष्ट्रपति बनते ही अपनी नेता प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति 'दासानुदास' भावना का सार्वजनिक रूप से इजहार किया था। उनकी इस तरह की निरंतर घोषणाओं से पद की मर्यादा को काफी क्षति पहुंची थी। उनमें कर्तव्य-बोध का अभाव था- बोध होता तो किसी भी दशा में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी जैसे अनुभवहीन व्यक्ति को तत्काल प्रधानमंत्री नियुक्त न करते।
प्रधानमंत्री की आकस्मिक मृत्यु के बाद शासन में प्रथम शून्य नेहरू की मृत्यु से 1964 में उत्पन्न हुआ था। सर्वेपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति थे। उन्होंने नेहरूजी के निधन की विधिवत घोषणा के तत्काल बाद मंत्रिमंडल के सर्वाधिक लंबी अवधि से सहयोगी गुलजारी लाल नंदा को अंतरिम प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। इस घटना से संबंधित दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। एक, नेहरू ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस संसदीय दल में उपनेता का पद समाप्त कर दिया था। दूसरा तथ्य यह है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं जो 'अंतरिम' या नियमित का भेद करता हो। यह निर्णय डॉ. राधाकृष्णन के 'विवेकाधिकार' की असाधारण मिसाल है। आवश्यकता पड़ने पर ब्रिटेन की महारानी या महाराजा इस परिपाटी का अनुसरण कर सकते हैं।
इस निर्णय के फलस्वरूप कांग्रेस संसदीय दल में पहली बार प्रजातंत्र की अभिव्यक्ति हो सकी। जनवरी 1966 में दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु के बाद डॉ. राधाकृष्णन ने पुन: परिपाटी की श्रेयता स्थापित कर दी थी। जैल सिंह और उनके सचिव, सलाहकार में कर्तव्य का भान होता तो वह स्थापित परिपाटी की अवमानना कर एक अनधिकारी को पद की शपथ न दिलाते। घटनाक्रम के अट्ठाईस बरस बाद आज उसे इतिहास की निर्मम कसौटी पर परखें तो यह कहना होगा कि जैल सिंह की विशेषता उनकी ग्राम्य सादगी और उस नाते अपने कृपालु-परोपकारी के प्रति दास्य भाव वाला चरित्र ही था। दास्य भाव की निरंतर घोषणाओं से खीझ कर ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी उनके साथ हिकारत का व्यवहार करने लगे। हालांकि राजीव गांधी वंशवाद के बल पर प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे थे, जबकि जैल सिंह ने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। अचरज की बात नहीं, जैल सिंह को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के पद पर बैठाया था।
महत्त्वाकांक्षा, असुरक्षा की भावना और शासन के अराजनीतिकरण का सिद्धांत इंदिरा गांधी को अपने पिता जवाहरलाल नेहरू से विरासत में मिला था। नेहरू ने 1946 में अंतरिम प्रधानमंत्री की शपथ लेने से पहले ही उन दिनों के विश्वासपात्र राममनोहर लोहिया को स्पष्ट जता दिया था कि वे 'भारत के नव-निर्माण में निकृष्ट और भ्रष्ट कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बजाय अंग्रेजी हुकूमत द्वारा विकसित हाकिमशाही की मदद लेना बेहतर समझते हैं।'
राजाजी नेहरू की खास पसंद थे। गणतंत्र की घोषणा पर गवर्नर जनरल का पद समाप्त हुआ। तब वे राष्ट्रपति राजाजी को ही नियुक्त करना चाहते थे। कारण ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं। पटेल जीवित थे, वे राजाजी के विरुद्ध नहीं थे, लेकिन 'नेहरू चापलूस' को दुबारा राष्ट्राध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं थे। इसी खींचतान में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मौका मिल गया। वे तीन बार 1950, 1952, 1957 में पदासीन हुए। चौथी बार भी इच्छुक थे। उन्हें पदमुक्त होने से बड़ा डर लगता था। नेहरू ने 1962 में उन्हें हटा ही दिया और सर्वेपल्ली राधाकृष्णन को अंतत: स्थापित कर दिया। वे शिक्षाविद थे और मूलत: अराजनीतिक व्यक्ति थे, इसीलिए नेहरू को अत्यंत प्रिय थे। राजनीति के छात्र अगर इस तथ्य को दृष्टि से ओझल कर देंगे कि नेहरू का प्रथम एजेंडा लोकतंत्र के पूर्ण अराजनीतिककरण का था तो वे कभी भी वर्तमान दुर्दशा का अनुसंधान नहीं कर सकेंगे। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने उसी सिलसिले को आगे बढ़ाया और नौबत जैल सिंह तक पहुंचा दी। 
स्वतंत्र भारत के नेतृत्व को 1947 से अब तक सोलह बार राष्ट्राध्यक्ष चुनने का मौका मिल चुका है। राष्ट्रपति से की जाने वाली अपेक्षाओं या उसकी भूमिका को लेकर अब देश   में खुल कर विचार-मंथन होना चाहिए। सर्वोच्च पद का अराजनीतिकरण रोकने का प्रयास हो। राष्ट्रपति के पद का अराजनीतिकरण जारी रहेगा तो प्रधानमंत्री का पद भी वर्तमान की तरह स्थायी रूप से अराजनीतिक बन जाएगा। लोकतंत्र के लिए शासन का राजनीतिकरण अनिवार्य शर्त है।       (जारी)

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...