Monday, 11 June 2012 11:01 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' संयुक्त राष्ट्र को कश्मीर मसले की सुपुर्दगी से अपने वारिस की नियुक्ति तक का घटनाक्रम प्रमाणित परिपाटी है जो भारत के राष्ट्राध्यक्ष की भूमिका परिभाषित करती है। हमारी समझ से राष्ट्राध्यक्ष की वही भूमिका आज भी वैध है। विचित्र है कि एक भी भारतीय ने उस काल-चक्र का अध्ययन ही नहीं किया। इतिहासविद बिपन चंद्र का खेमा भी माउंटबेटन-काल पर कोई टिप्पणी नहीं करता। विषय की संवैधानिक व्याख्या पर छिटपुट चर्चा, वाद-संवाद पिछले बासठ बरसों से जारी है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1950 में पद ग्रहण करते ही कानूनी कर्तव्यों-अधिकारों के संबंध में औपचारिक चर्चा शुरू कर दी थी। यह विवाद जैल सिंह के काल (1982 से 1987) में गरिमाहीन हो गया। जैल सिंह ने राष्ट्रपति बनते ही अपनी नेता प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति 'दासानुदास' भावना का सार्वजनिक रूप से इजहार किया था। उनकी इस तरह की निरंतर घोषणाओं से पद की मर्यादा को काफी क्षति पहुंची थी। उनमें कर्तव्य-बोध का अभाव था- बोध होता तो किसी भी दशा में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी जैसे अनुभवहीन व्यक्ति को तत्काल प्रधानमंत्री नियुक्त न करते। प्रधानमंत्री की आकस्मिक मृत्यु के बाद शासन में प्रथम शून्य नेहरू की मृत्यु से 1964 में उत्पन्न हुआ था। सर्वेपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति थे। उन्होंने नेहरूजी के निधन की विधिवत घोषणा के तत्काल बाद मंत्रिमंडल के सर्वाधिक लंबी अवधि से सहयोगी गुलजारी लाल नंदा को अंतरिम प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। इस घटना से संबंधित दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। एक, नेहरू ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस संसदीय दल में उपनेता का पद समाप्त कर दिया था। दूसरा तथ्य यह है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं जो 'अंतरिम' या नियमित का भेद करता हो। यह निर्णय डॉ. राधाकृष्णन के 'विवेकाधिकार' की असाधारण मिसाल है। आवश्यकता पड़ने पर ब्रिटेन की महारानी या महाराजा इस परिपाटी का अनुसरण कर सकते हैं। इस निर्णय के फलस्वरूप कांग्रेस संसदीय दल में पहली बार प्रजातंत्र की अभिव्यक्ति हो सकी। जनवरी 1966 में दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु के बाद डॉ. राधाकृष्णन ने पुन: परिपाटी की श्रेयता स्थापित कर दी थी। जैल सिंह और उनके सचिव, सलाहकार में कर्तव्य का भान होता तो वह स्थापित परिपाटी की अवमानना कर एक अनधिकारी को पद की शपथ न दिलाते। घटनाक्रम के अट्ठाईस बरस बाद आज उसे इतिहास की निर्मम कसौटी पर परखें तो यह कहना होगा कि जैल सिंह की विशेषता उनकी ग्राम्य सादगी और उस नाते अपने कृपालु-परोपकारी के प्रति दास्य भाव वाला चरित्र ही था। दास्य भाव की निरंतर घोषणाओं से खीझ कर ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी उनके साथ हिकारत का व्यवहार करने लगे। हालांकि राजीव गांधी वंशवाद के बल पर प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे थे, जबकि जैल सिंह ने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। अचरज की बात नहीं, जैल सिंह को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के पद पर बैठाया था। महत्त्वाकांक्षा, असुरक्षा की भावना और शासन के अराजनीतिकरण का सिद्धांत इंदिरा गांधी को अपने पिता जवाहरलाल नेहरू से विरासत में मिला था। नेहरू ने 1946 में अंतरिम प्रधानमंत्री की शपथ लेने से पहले ही उन दिनों के विश्वासपात्र राममनोहर लोहिया को स्पष्ट जता दिया था कि वे 'भारत के नव-निर्माण में निकृष्ट और भ्रष्ट कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बजाय अंग्रेजी हुकूमत द्वारा विकसित हाकिमशाही की मदद लेना बेहतर समझते हैं।' राजाजी नेहरू की खास पसंद थे। गणतंत्र की घोषणा पर गवर्नर जनरल का पद समाप्त हुआ। तब वे राष्ट्रपति राजाजी को ही नियुक्त करना चाहते थे। कारण ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं। पटेल जीवित थे, वे राजाजी के विरुद्ध नहीं थे, लेकिन 'नेहरू चापलूस' को दुबारा राष्ट्राध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं थे। इसी खींचतान में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मौका मिल गया। वे तीन बार 1950, 1952, 1957 में पदासीन हुए। चौथी बार भी इच्छुक थे। उन्हें पदमुक्त होने से बड़ा डर लगता था। नेहरू ने 1962 में उन्हें हटा ही दिया और सर्वेपल्ली राधाकृष्णन को अंतत: स्थापित कर दिया। वे शिक्षाविद थे और मूलत: अराजनीतिक व्यक्ति थे, इसीलिए नेहरू को अत्यंत प्रिय थे। राजनीति के छात्र अगर इस तथ्य को दृष्टि से ओझल कर देंगे कि नेहरू का प्रथम एजेंडा लोकतंत्र के पूर्ण अराजनीतिककरण का था तो वे कभी भी वर्तमान दुर्दशा का अनुसंधान नहीं कर सकेंगे। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने उसी सिलसिले को आगे बढ़ाया और नौबत जैल सिंह तक पहुंचा दी। स्वतंत्र भारत के नेतृत्व को 1947 से अब तक सोलह बार राष्ट्राध्यक्ष चुनने का मौका मिल चुका है। राष्ट्रपति से की जाने वाली अपेक्षाओं या उसकी भूमिका को लेकर अब देश में खुल कर विचार-मंथन होना चाहिए। सर्वोच्च पद का अराजनीतिकरण रोकने का प्रयास हो। राष्ट्रपति के पद का अराजनीतिकरण जारी रहेगा तो प्रधानमंत्री का पद भी वर्तमान की तरह स्थायी रूप से अराजनीतिक बन जाएगा। लोकतंत्र के लिए शासन का राजनीतिकरण अनिवार्य शर्त है। (जारी) |
Wednesday, June 13, 2012
राष्ट्रपति की कसौटी
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/21444-2012-06-11-05-32-47
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