1991 में जब तक डॉ. मनमोहन सिंह भारत के वित्तमंत्री नहीं बने थे, जब तक भारतीय अर्थव्यवस्था का तथाकथित उदारीकरण नहीं हुआ था, जब तक रुपया अमेरिकी डॉलर का गुलाम नहीं बना था, जब तक विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इस देश की अर्थनीति का नियंता नहीं नियुक्त किया गया था, जब तक उपभोक्तावाद इस देश की मध्यमवर्ग की अभिलाषा नहीं बना था, तब से आज 2012 में जब 'मनमोहनॉमिक्स' अपनी विफलता की राह देख रहा है कि स्थितियों में क्या अंतर आया है? किसी अर्थशास्त्री के उलझे हुए सिद्धांतों की भाषा में बात करने की बजाय सीधी-सपाट बात की जाए तो भारत के संदर्भ में 'मनमोहनॉमिक्स' का उपभोक्तावादी पूंजीवाद इस देश का अर्थमंत्र माने जाने के पहले आम आदमी परचून की दुकान पर लगे बोधवाक्य 'नौ नकद, न तेरह उधार' की संस्कृति की बजाय क्रेडिट कार्ड की संस्कृति को अपनाकर 'ऋण लेकर घी पीने' को श्रेयस्कर पाने लगा है।
भारतीय 'बांडरबिल्ट' घराने: उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति से जन्मी आधुनिकता ने दुनिया के साथ-साथ भारत को भी बेहतर भविष्य के लिए वर्तमान में बचत, त्याग और परिश्रम करने का मूलमंत्र दिया था। समाजवाद और पूंजीवाद दोनों व्यवस्थाओं ने इस सूत्र को अंगीकार किया था। अमेरिकी पूंजीवाद के एक महानायक बांडरबिल्ट का किस्सा मशहूर है। जहाजरानी और रेल परिवहन क्षेत्र के बेताज बादशाह बांडरबिल्ट ने अपना करियर एक मल्लाह के रूप में शुरू किया था। मरते दम तक वह अपने आप पर धन खर्च किए जाने के सख्त खिलाफ था। वह मरणशैय्या पर पड़ा था तो उसके परिजनों ने एक डॉक्टर को बुला लिया। जब उसे पता चला कि उसी की कंपनी का विशेष डॉक्टर उसके लिए खासतौर पर बुलाया गया है तो वह इस 'फिजुलखर्ची' पर बेहद नाराज हुआ। डॉक्टर ने जब उसको आ रही मितली पर काबू पाने के लिए महंगी शैंपेन पीने का सुझाव दिया तो उसने डॉक्टर की तमाम-लानत-मलामत की। बांडरबिल्ट कंजूसी में ही मर गया। उसकी औलादों और बहुओं ने बांडरबिल्ट से कुछ नहीं सीखा था। बांडरबिल्ट की बहुओं ने यूरोप से महल के महल ज्यों के त्यों उखड़वाकर लाए और अपने लिए अमेरिका में फिर से बनवाए। भारत के तमाम कॉरपोरेट घरानों पर भी बांडरबिल्ट का किस्सा लागू होता है।
उधार अब 'प्रेम की कुंजी': 1991 के पहले भारत के अधिकांश पूंजीपति बांडरबिल्ट की बिरादरी वाले थे। वे उधार को प्रेम की कैंची मानते थे। लक्ष्मी का भोग करने की बजाय वे लक्ष्मी की भक्ति को प्राधान्य देते थे। भारत की ऐसी कोई भाषा नहीं होगी जिसमें वैश्यों की कंजूसी का उल्लेख न मिलता हो। व्यापारी अपनी औलाद को भगवान और कानून से डरना सिखाता था। संतोष को सबसे बड़ा धन करार दिया जाता था। 1991-2012 के बीच का पूंजीवाद अब वैश्यीकरण से वैश्वीकरण के दौर में दौड़ रहा है। उधार अब 'प्रेम की कैंची' की बजाय 'प्रेम की कुंजी' बन गया है। देश के 55 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं को दिन में एक बार 'आकर्षक उधार योजना' का प्रस्ताव जरूर प्राप्त हो जाता है। 1991 के पहले साधु-सुजान भोग को रोग की जड़ करार देते थे। अब उपभोक्तावादी पूंजीवाद का मासमीडिया यानी टेलीविजन 24ग7 धरवी पर स्वर्ग को आज ही भोग लेने के लिए ललकार रहा है।
बिन मेहनत मालामाल: 'झांसी की रानी' और 'अकबर' से भी जो नहीं हो सका वह किसी चॉकलेट-चूर्ण को एक गिलास दूध में मिलाकर पी लेने से किए जाने की विज्ञापन बिरुदावली अनवरत गाई जा रही है। झुग्गी-झोपड़ी की नारकीय जिंदगी जीने वाले को टीवी बता रहा है कि आदर्श जिंदगी कैसे आलीशान रंगमहलों में भोग-विलास करते बीतती है। 'स्लाइस' पीने के लिए जिस कामुक अंदाज में कैटरीना कैफ दौड़ लगाती है उससे घिस्सू और बुद्धू के मनोमस्तिष्क पर भी भोग पिपासा प्रहार करती है। इस बदलाव ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति का स्वार्थ और व्यक्ति की उद्यमशीलता को तिकड़म का पर्यायवाची बना दिया है। उदारवाद के पहले और उदारवाद के बाद में यह अंतर आया है कि कोई इंसान बगैर किसी तरह का श्रम किए या ठोस उद्यम किए केवल अपनी या दूसरों की पूंजी से सट्टा खेलकर, बाजार भाव उतार या चढ़ा कर, कंपनियां खरीद कर या बेचकर मालामाल बन सकता है। उसके मालामाल बनने की प्रक्रिया में तमाम लोग फटेहाल बन जाएं तो यह उनकी समस्या। फरवरी 1992 में उदारीकृत भारत के वित्तमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह ने देश की संसद में कहा था- 'भारत एक बार फिर आगे बढ़ रहा है। हम भविष्य के निर्माण का रास्ता प्रशस्त करेंगे।' क्या इन बीस वर्षो में भारत के आम आदमी का भला हुआ? अर्थशास्त्री कहते हैं कि वैश्वीकरण से भारत के 40 करोड़ लोग लाभ में रहे और 80 करोड़ घाटे में। दो भारतीयों के नुकसान उठाने से एक भारतीय को फायदा पहुंचने से क्या विकास का मार्ग प्रशस्त होना संभव है।?
कोई भूख से, कोई मोटापे से त्रस्त: 2009-10 का वित्त मंत्रालय का अपना सर्वेक्षण बताता है कि1987 से जनसंख्या के निम्नतम स्तर पर मौजूद 50 फीसदी लोगों में कैलोरी की खपत में कमी आई है। ठीक उसी के समानांतर अवधि में जो समाज के उच्चतम स्तर पर हैं वो बढ़ते मोटापे से त्रस्त हैं। 'यूनिसेफ' कहता है कि देश के 46 फीसदी 3 वर्ष से कम आयु के बच्चे कुपोषण के चलते अपनी वास्तविक उम्र से कम से दिखाई देते हैं। मैककिनसे एंड कंपनी का दावा है कि 34 हजार डॉलर प्रतिवर्ष से ज्यादा कमाई वाले परिवारों की संख्या मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बहुत तेजी से बढ़ी है। 2005 में इस तरह के परिवारों की संख्या पूरे देश में लगभग 10 लाख थी, अब उनकी संख्या 25 लाख है। इस अवधि में 3000 डॉलर सालाना से कम आय वाले परिवारों की संख्या भी उसी तेजी से बढ़ी है। 3000 डॉलर प्रतिवर्ष से कम आय वाले परिवार 2005 में 10.1 करोड़ थे जो अब 11.1 करोड़ हो चुके हैं।
जीडीपी वैसी की वैसी: 1991 के पहले भारतीय अर्थव्यवस्था में कालेधन की हिस्सेदारी सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) की लगभग 15 फीसदी हुआ करती थी। 2006 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में कालेधन की हिस्सेदारी 50 फीसदी पार हो चुकी है। जो सोचते हैं कि उदारवाद ने विकास लाया वे उसकी पोल भी जान लें। भारत की जीडीपी में संसाधन निर्माण की हिस्सेदारी 1991 के पहले भी 16 फीसदी थी और 2012 में भी 16 फीसदी ही है। जीडीपी में सेवाओं की हिस्सेदारी जरूर बढ़ी है। 1991 में जीडीपी में 46 फीसदी सेवा का हिस्सा, 2009 में 55 फीसदी हो गया। सेवा का हिस्सा बढ़ा तो कृषि की हिस्सेदारी घट गई। 1991 में जीडीपी में कृषि की 30 फीसदी हिस्सेदारी थी जो अब 13 फीसदी रह गई है। कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान घटा पर जो लोग उस पर निर्भर हैं उनकी संख्या में गिरावट नहीं आई। सो किसान बदहाल हो गया।
बढ़ रही है बेरोजगारों की फौज: भारत की आबादी में 25 साल से कम उम्र वालों की संख्या लगभग 50 फीसदी है। 202 आते-आते हर महीने लगभग 10 लाख नए कामगार नौकरी तलाशने निकलेंगे। यदि अगली पंचवर्षीय योजना ने कोई कमाल नहीं दिखाया तो युवाओं को देश की 'चमकदार' अर्थव्यवस्था में हिस्सा लेने का कोई मौका नहीं मिलेगा। इससे जो असंतोष पैदा होगा वह देश की स्थिरता के लिए खतरा बन जाएगा। 1991 से 2012 के बीच में न तो शिक्षा प्रणाली में कोई क्रांतिकारी सुधार दर्ज है और न ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में। 'प्रथम' नामक संस्था ने बीते वर्ष जब कुछ प्राथमिक विद्यालयों का सर्वेक्षण किया तो पाया कि पांचवीं के अधिकांश विद्यार्थी कक्षा 2 पास करने की मेधा भी नहीं रखते थे। बैंगलोर की '24/7 कस्टमर प्राइवेट लिमिटेड' ने टेलीफोन या ईमेल के जरिए तमाम सवालों के जवाब देने की नौकरी के लिए जब आवेदन मंगाए और इंटरव्यू किए तो 3000 पदों को भरना उन्हें असंभव मिशन लगा। 121 करोड़ की आबादी वाले देश में शिक्षा का स्तर कितना घटिया है इसका अनुमान आप इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि मामूली 'ऑपरेटर' की नौकरी के लिए 100 आवेदकों में कंपनी औसतन 3 लोगों को ही अपना काम करने योग्य पा सकी। हर साल करोड़ों लोग डिग्रियां लेकर महाविद्यालयों से बाहर आ रहे हैं, परंतु उनकी शिक्षा उनकी नौकरी के लिए अनुपयोगी है। बेरोजगारों की यह फौज सतत बढ़ती जानी है।
कौन है भारत का 'सोरोस'?: 'मनमोहनॉमिक्स' की वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में निरंकुश पूंजीवाद मुद्रा का सट्टा खेलने के लिए मुक्त है। मुद्रा के सटोरिए बड़े से बड़े देश की अर्थव्यवस्था को हिला देने की क्षमता रखते हैं। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में मशहूर मुद्रा सटोरिए जॉर्ज सोरोस ने ब्रिटेन के पाउंड की हालत पतली कर दी थी। उसकी एक धमकी पर थाईलैंड और मलयेशिया की मुद्रा संकट में पड़ गई थी। भारतीय मुद्रा जिस संकट के दौर से गुजर रही है पता नहीं किस छद्यम सोरोस ने उसकी जड़ों में मट्ठा डाला हो। मनमोहनी अर्थव्यवस्था का नारा है मुनाफे की चिंता करो, मनुष्यता की नहीं। इस नारे ने भारतीय मध्यवर्ग के आदर्श चिंतन का बंटाढार कर दिया। मध्यवर्गीय मूल्यों का ज्यों-ज्यों बंटाढार हो रहा है, त्यों-त्यों पारिवारिक भावना का लोप भी होता है। मध्यवर्गीय औलाद मेहनत करके मां-बाप को खुशहाल बनाने की कोशिश करता था। मनमोहन काल की औलाद एक निपट स्वार्थी और संस्कारहीन इंसान को मुक्तमंडी की निर्दयी प्रतियोगिता में हांक चुका है। सूझबूझ से कहीं ज्यादा हेराफेरी को महत्व प्राप्त है। चार सौ बीसी सफलता की कुंजी बन गई है, पर यह चार सौ बीसी कुछ लोगों को खुश कर सकती है इसमें बहुतांश समाज तो ठगा जाता है।
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