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Sunday, July 21, 2013

हिमालयी आपदा और सोनिया आंगन में बरसात का तौल बराबर!

हिमालयी आपदा और सोनिया आंगन में बरसात का तौल बराबर!


पलाश विश्वास


मुंबई हो या राजधानी नयी दिल्ली, वहां वर्षा हो तो मीडिया पर मूसलाधार बारिश शुरु हो जाती है। मेघ बरसे मूसलाधार और बरस गये सोनिया के द्वार। आंगन पानी पानी पानी।यही राष्ट्रीय संकट है। कोलकाता के सबसे बड़े, सबसे लोकप्रिय अखबार को देखने पर तो यही अहसास हुआ।उत्तराखंड की हवाई पत्रकारिता खूब हो गयी।


पांच हजार से ज्यादा लोग अभी लापता हैं। जो न जीवित हैं और न मृत। हिमालयी जनता की हाल हकीकत के आंकड़े न भारत सरकार के पास हैं और न उत्तराखंड सरकार के पास।


आपदा का सिलसिला जारी है। अबभी बादल फट रहे हैं। देश भर में राहत व सहायता अभियान का सिलसिला चल पड़ा है। पर हिमालय की सेहत को लेकर सही मायने में बहस शुरु ही नहीं हुई।


मीडिया को हताहतों की संख्या को सुर्खियों में तब्दील करने में मजा तो खूब आता है लेकिन मौत के कारोबार की खबर नहीं होती। टनों कागज रंग  दिये गये, विशेषांक निकले, लेकिन असली मुद्दे अब भी असंबोधित हैं।


हिमालयी आपदा और सोनिया आंगन में बरसात का तौल बराबर है।सोनिया का आंगन राजनीतिक मुद्दा बन सकता है, बना हुआ है, हिमालय न राजनीति का मसला है न अर्थशास्त्र का और न ही पर्यावरण का।


न्याय की बात हो तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला हिमालय पर भी लागू होना चाहिए।सुप्रीम कोर्ट ने ्पने सबसे ताजा फैसले में आदिवासियों के संविधान बचाओ आंदोलन को वैधता दी है। वैधता दी है  प्रकृति से जुड़ जनसमुदाय के नैसर्गिक अधिकारों को। खनिज और प्राकृतिक संपदा के मालिक वहां कि जनता है , न कि निवेशक कंपनियां।बहुराष्टीय कंपनियां या विश्वबैंक या फिर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष। सुप्रीम कोर्ट के फैसल से इस लोक गण राज्य में नागरिकों की सर्वोच्च संप्रभुता की पुष्टि होता है जो कारपोरेट लाबिंग या किसी महाशक्ति परराष्ट्र के हितों से ूपर है।


सुप्रीम कोर्ट के दो दो फैसलों से खुलासा हुआ है कि खनिज भी उसीका, जिसकी जमीन। बाकी प्राकृतिक संसाधनों के लिए कोई अलग मानदंड तो होना नहीं चाहिए। मसलन खनिज के मालिक तो हुए आप, मगर वनाधिकार रही सरकार के पास। पैमाना अलग अलग अपनाये जाने की नजीर ज्यादा खोजने की भी जरुरत नहीं है।


वेदांत को नियमागिरि में बक्साइट खदानों के लिए जनसुनवाई का फैसला मानना होगा। लेकिन उड़ीशा में ही पोस्को के लिए ऐसी कोई बंदिश है नहीं।दक्षिण कोरिया की इस्पात क्षेत्र की प्रमुख कंपनी पॉस्को जगतसिंहपुर की 12 अरब डॉलर (50,000 करोड़ रपये से अधिक) की परियोजना जल्द काम शुरू कर सकती है। ओडिशा सरकार ने कहा है कि समूची 2,700 एकड़ जमीन का हस्तांतरण जल्द पूरा होने की उम्मीद है। मजे की बात है वहां भूमि अधिग्रहण जबर्दस्त जनप्रतिरोध के दमन के तहत हो रहा है। इसलिए हिमालय के लिए अलग पैमाने पर ताज्जुब करने की कोई बात भी नहीं है।विश्व की सबसे बड़ी इस्पात कंपनी आर्सेलरमित्तल द्वारा ओडिशा की 12 अरब डॉलर की परियोजना और कर्नाटक में पॉस्को की 6 अरब डॉलर की परियोजना से हटने के कुछ दिन बाद ही यह बयान आया है।


सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद ओडिशा के इस्पात और खान मंत्री रजनी कांत सिंह ने कहा, ''हमें उम्मीद है कि पॉस्को परियोजना पर जल्द ही काम शुरू करेगा। राज्य सरकार ने परियोजना के पहले चरण के लिए भूमि अधिग्रहण का काम पूरा कर लिया है और जल्दी ही इसे शेष करीब 1,000 एकड़ जमीन दी जाएगी।''

पॉस्को को परियोजना के पहले चरण में काम शुरू करने के लिए 2,700 एकड़ जमीन की जरूरत है। ओड़िशा सरकार ने उसे 1,700 एकड़ जमीन पहले ही हस्तांतरित कर दी है। सिंह ने कहा कि राज्य सरकार इस्पात क्षेत्र की प्रमुख कंपनी के साथ पूरा सहयोग कर रही है।

पॉस्को के एक अधिकारी ने कहा कि सरकार के पूरी 2,700 एकड़ जमीन सौंपने के बाद परियोजना पर काम जल्दी ही शुरू हो जाएगा।


क्या इसके लिए ग्राम सभाओं की इजाजत ले ली गयी है?

अधिकारी ने कहा कि यदि सबकुछ योजना के मुताबिक होता है तो परियोजना का पहला चरण 2018 में चालू हो जाएगा। दूसरा चरण, पहले चरण के पूरा होने के तीन साल बाद और तीसरा चरण इसके तीन साल बाद पूरा होगा।

इस्पात मंत्रालय के एक अधिकारी ने भी कहा कि सरकार चाहती है कि लंबे समय से लटकी हुई यह परियोजना आगे बढ़े!

क्या यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं है?


क्या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की तमाम घोषणाएं सुप्रीम कोर्ट, संसद और संविधान की अवमानना नहीं हैं?


उत्ताराखंड को ऊर्जा प्रदेश घोषित करके बिजली परियोजनाओं के जो विध्वंसक बम एटम बम पहाड़ के सीने से हमेशा के लिए चस्पां कर दिये गये, उसके लिए कब और कहां जनसुनवाई हुई?


कब सुनी गयी डूब में शामिल घाटियों और आबादियों की आवाज?


कब सुनी गयी धार पर गूंजती कटते पेड़ों की आवाज ?


कब सुना गया नदियों, झीलों और ग्लेशिरों का विलाप?



बाकी देश का अहसान है हिमालय और हिमालयी जनता पर कि वह हिमालय को पर्यटन और तीर्थाटन का स्वर्ग मानता है। जहा देवों का वास है, मनुष्यों का कतई नहीं। उन मनुष्यों के हक हकूक और उनके नागरिक मानव अधिकारों की क्या चिंता करें?


अब आगामी लोकसभा चुनाव धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के नरम गरम शिविरों के मध्य लड़ा जाना है और धार्मिक आस्था सेह ही जनादेश का निर्माण होना है।


इसलिए लापता लोगों की खोज या स्थानीय लावारिश वाशिंदों के जख्म पर मरहम से ज्यादा जरुरी है केदारनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण, जिसका दावा त्रासदी के तुरंत बाद प्रधानमंत्रित्व के सबसे बड़े दावेदार कर चुके है।लिहाजा हिंदुत्व की पूंजी पर ही अल्पमत सरकार और मैनेज किये गये जनादेश के बल पर पूरे देश में आर्थिक नरमेध अभियान चला रही केंद्र सरकार और उत्तराखंड सरकार कम सेकम मोदी को कोई मौका ही न दें। हिमालय की चिंता छोड़ कर राजनीति के साथ साथ सरकारें भी पूरे दमोखम के साथ मंदिर बनाओ अभियान में लग गयी हैं।यानी हिमालय की गोद में रामजन्मभूमि आंदोलन बतर्ज खेदार नाथ पुनर्निर्माण अभियान ।


हिमालयी सुनामी ने राममंदिर आंदोलन को हिमालय में स्थानांतरित कर दिया है।


ठीक उसीतरह जैसे कि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था और भारत अमेरिकी परमाणु संधि ने खाड़ी युद्ध को दक्षिण एशिया में स्थानांतरित कर दिया।


सबसे बड़ी सुनामी तो अर्थव्वस्था की सुनामी है जिसने एक झटके से देश की आम जनता को अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया। हम सभी भिखारियों में पांत में बैठे मिडडे मील, रोजगार योजना ौर खाद्यसुरक्षा का इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के लिए इस अर्थव्यवस्था में न खाद्य है और न रोजगार है।


बाकी बचा धर्म और धर्मोन्माद।


हिमालय और हिमालयी जनता की सबसे बड़ी त्रासदी है कि धर्म ही उसका आधार है। भूत भविष्य और वर्तमान है


पहाड़ों का टूटना जारी है। रुक रुककर मूसलाधार बारिश हो रही है।


आपदा के शिकार गांवों के पुनर्वास का जुबानी आश्वासन के सिवाय हिमालय को कोई राहत वास्तव में अभी मिली नहीं है।


जो पैसा भारी पैमाने पर जमा हो रहा है उत्तराखंड आपदा के नाम, दान देने वालों को भले ही उससे आयकर छूट मिल जाये, इस बात की कोई गारंटी नही है कि वह पीड़ितों तक पहुंचेगा भी!


जो लोग बीच बरसात बेघर बेगांव खुले आसमान के नीचे अंधेरे में बाल बच्चों समेत जीने की सजा भुगत रहे हैं, उन्हें इस आपदा का बाद कड़ाके की सर्दियां भी बितानी हैं।


फिर ग्लेशियरों का पिघलना जारी है।


झीलों, बांधों और परियोजनाओं के विस्फोट न जाने कब कहां हों, उसकी भी फिक्र करनी है।


सालाना बाढ़ भूस्खलन और मध्ये मध्ये भूकंप की त्रासदियों के बीच सकारात्मक यही है कि अपनों को खोने के दर्द के शिकार पूरे देशभर के लोगों को हिमालयी आपदा का स्पर्श मिल गया है।


शोकसंतप्त मैदानों को फिर भी पहाड़ों से निकलने वाली नदियों के गर्भ में रक्त का सैलाब नजर नहीं आता।


मीडिया महाआपदा की भविष्यवाणी और विशेषज्ञों के सुवचन छापकर सनसनी औरटीआरपी बढ़ाने के सिवाय पर्यावरण चेतना में कोई योगदान करेगी, इसकी हम उम्मीद नहीं कर सकते।


कुड़नकुलम में परमाणुबिजली की उल्लसित खबरों में जलसत्याग्रह अब अतीत है। कोई नही ं पूछ रहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खनिज संपदा पर स्थानीय जनता का अधिकार को वैधता मिलने और पांचवी छठी अनुसूचियों को प्रासंगिकता मिलने के बावजूद आदिवासी इलाकों में क्यों संविधान लागू नहीं है।


किसी कि यह आवाज उठाने की हिम्मत भी नहीं होती कि अगर सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला है तो आदिवासी इलाकों में जारी तमाम सैन्य अभियान क्यों तत्काल बंद नही ंहोते।


कोई सोनी सोरी जैसी सैकड़ों की तादाद में यौन उत्पीड़न की शिकार आदिवासी महिलाओं के लिए मोमबत्ती जुलूस नहीं निकाल रहा है।


न जेलों में बंद प्राकृतिक संसाधनों के मालिकों की रिहाई की आवाज उठाते हुए चिल्ल पों कर रहाहै।


ये राजनीति के मुद्दे नहीं है।


मुद्दा है धर्म और धारिमक आस्था।


जिसके सबसे बड़े शिकार हैं हिमालय और हिमालयी लोग।


चिदंबरम अमेरिका में भारत बेच आये।


हम खामोश हैं।


इस पर कोई चर्चा तक नहीं।


सब्सिडी खत्म करके गैस और तेलकीमतें बढ़ा दी। उर्वरक की कीमतें बढ़ा दीं। लेकिन गैस की कीमतें बढ़ाकर रिलायंस और दूसरी कंपनियों को अकूत मुनाफा का इंतजाम कर दिया गया।


यह भी कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है।


हिमालयी सुनामी में हताहतों की संख्या और राहत व बचाव अभियान राजनीतिक मुद्दा जरुर है, लेकिन हिमालयी जनता का उनके प्राकृतिक संसाधनों, उनकी नदियों, झीलों, घाटियों, पर्वत शिखरों और ग्लेशियरों पर हक है और उस हक हकूक के उल्लंघन मार्फत चला रहा है पर्यटन और तीर्थाटन, विकास, निर्माण विनिर्माण का कारोबार, हिमालयी जनता के चुने हुए जनप्रतिनिधि से लेकर पर्यावरण कार्यकर्ता तक इस प्रसंग में खामोश हैं।


क्योंकि इससे आस्थाका सवाल जोड़ दिया गया है और उस आस्था के मुताबिक गंगा की जलधारा मंदिर मस्जिद राजनीति के हित में अविरल रहनी चाहिए, बाकी नदियां बंधती रहें तो रहें।


यात्राएं स्थगित करने के सवाल पर हम सबको सांप सूंघ जाता है।


रोजगार की बात चलती है।


आस्था आधारित अर्थव्यवस्था का ही मोहताज हैं क्यों हिमालय, इस पर सवाल उठ नहीं रहे हैं।


धर्मविरोधी पर्यावरण का यह मुद्दा राजनीतिशास्त्र और पर्यावरण चेतना का मद्दा हो ही नहीं सकता।


इसी हिचकिचाहट के कारण, इसी आस्था संकट की वजह से ही मौसम भविष्यवाणी को कचरे की पेटी में डाल दिया गया।


यात्राएं रोककर धर्म आधारित कारोबार और धर्म पर ही आधारित राजनीति  के लिए जोखिम कैसे उठा सकता है इस देश का कोई मुख्यमंत्री?


इसी वजह पर मानसरोवर पथ पर घात लगाते विपर्यय को साक्षात देख लेने के बावजूद यात्रा रुकी नहीं है।


आस्था का यही यक्ष प्रश्न नवउदारवादी आर्थिक कायाकल्प के नरसिंहावतार के हाथ भी बांधे हुआ था, जब बाबारी विध्वंस के जरिये हिंदुत्व का पुनरुत्थान हो रहा था।


पुनरुत्थान और आर्थिक नरमेध अभियान में न्याय के सारे प्रश्न, कानून के राज के सारे सवाल और संवैधानिक प्रावधान, नागरिक और मानवाधिकार सापेक्षिक हो गये हैं।


हर क्षेत्र और हर समुदाय के लिए अलग अलग पैमाना।


बाकी देश का पैमाना हिमालय या दंडकारण्य या पूर्वोत्तर के लिए न खबी लागू हुआ है और न होगा।


सबसे बड़ा विपर्यय तो यह है कि हिंदुत्व के ध्रूवीकरण में सिख नरसंहार से लेकर गुजरात नरसंहार तक को हजम कर जानेवाले देश में हिमालय का अस्तित्व का सवाल कोई मुद्दा है  ही नहीं।


आस्था और कारोबार ने हिमालय की चेतना पर भी ऐसी पट्टी बांध दी है कि वह खुद अपने वजूद के सवाल खुद से करने की हालत में नहीं है।


बहरहाल, हिमालय की सुनामी बहती हुई मैदानों तलक पहुंचने लगी है। जलप्रलय की धार कटने ही वाला है बाकी देश को। सोनिया के दरवाजे तक को द्स्तक देने लगी है प्रकृति। पर खुले बाजार के कार्निवाल में शासक वर्ग तो इस वक्त मूक वधिर है। और हम भी तो!


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